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आत्मानुभव के अवयव

तुम्हें भी पूरा शान्त होना पड़ेगा। यह बहुत बड़ा तप है। चुप हो जाने, शान्त हो जाने जैसा तप ब्रह्मांड में नहीं है। शीर्षासन लगाना, भूखों मरना, रात में जागना, अखंड रामायण पाठ करना, जपादि करना, यह सब थोड़े-थोड़े तप हैं। लेकिन, बिल्कुल मौन, शान्त हो जाना, बहुत बड़ा तप है। मन कहेगा बोलो और गुठली कहेगी कि उसे निकाल कर बाहर कर दो। किसान कहेगा, “हम तुम्हें और दबा कर रखेंगे, जबरदस्ती दबा कर रखेंगे”। कई-कई बीज तो शायद छ: महीने दबाकर रखने पड़ते होंगे। इसी प्रकार अपने मन को बिल्कुल शांत कर, मौन होना पड़ेगा, न तन डोले, न मन। न मन बोले, न तन बोले, न आंख बोलें और न हाथ बोलें। सब मौन हो जाएं, सब शरीर मौन हो जाए। तन मौन हो, वाणी मोहन हो, बुद्धि शान्त हो; फिर देखो! वहां अंकुर आएगा। थोड़ी देर को ही कोई बिल्कुल शांत हो जाए, तो फौरन कोई अंदर पैदा हो जाएगा। चेतना तुरंत अंदर पैदा होगी; कहेगी “हूं” उस “हूं” को ही भगवान् कहते हैं। भगवान् अंदर से एकदम पैदा होते हैं। यदि नौ महीने का एकांत न पावे, तो संतान भी पैदा न हो। यदि कोई आदमी रोज – रोज ऑपरेशन करके देखता रहे, तो संतान को भी पैदा होने में मुश्किल हो जाएगी। इसीलिए, प्रकृति ने बड़े अच्छे नियम बनाए हैं; नहीं तो आप थोड़े ही मांनते? लेकिन, प्रकृति गर्भाशय का दरवाजा ही बंद कर देती है, नहीं तो आदमी के मारे संतान पैदा ही न हो पाती। इसलिए मैं कहता हूं कि वह बहुत ही बहादुर आदमी है, जो अपनी आंखें, नाक, कान और इंन्द्रियां बंद करके अपने आप में बैठ जाता है। उसे आत्मानुभव हो जाता है।

समझदारी

अब जानवर की सेवा करनी हो तो कथा तो नहीं सुनाएंगे। वह इसका अधिकारी ही नहीं है। हां, और वह भले जबान से ना कहे पर उसकी जरूरत उसका मालिक समझता है। मालिक जानवर की जरूरत को समझता है कि इसे भूख लगती है, इसे प्यास लगती है, सर्दी लगती है, गर्मी लगती है, उसकी व्यवस्था करता है। ऐसे ही साधक की जरूरत गुरु समझता है। नहीं समझता तो वह गुरु नहीं है। जानवर की जरूरत मालिक समझ कर सर्दी गर्मी से बचाने की जगह बांधता है। भूख प्यास की, उसकी आवश्यकता की पूर्ति करता है और इसीलिए जानवर का मालिक भी समझदार होना चाहिए और दयालु भी होना चाहिए। क्षमता भी होनी चाहिए  कि जानवर को कौन सा चारा प्रिय भी है और हितकर भी है। पर उसके लिए भी पैसा चाहिए। तो जैसे जानवर की सेवा के लिए समझ भावना और सामर्थ्य तीनों चाहिए ऐसे ही साधक की जरूरत को समझने वाला उसकी जरूरत को पूरी करने की क्षमता वाला योग्यता वाला गुरु चाहिए। हम चाहते भी है कि आप को ध्यान में आनंद आए पर नहीं आ रहा, आनंद तक हम नहीं पहुंचा पा रहे तो चाहने पर भी क्षमता भी चाहिए। इसलिए गुरुओं में भी क्षमता अलग अलग है। सभी लोग कुंडली नहीं जगा सकते, सब ब्रह्म ज्ञान को नहीं दे सकते, सब में एक समान योग्यता नहीं है। सब चमत्कार नहीं कर सकते। रामकृष्ण परमहंस में क्षमता थी तो विवेकानंद को चकित कर दिया, आश्चर्य में डुबो दिया, प्रभावित हो गए। अभिप्राय है की गुरु में भी योग्यता, सामर्थ्य की भिन्नता रहती है। सब एक तरह की सामर्थ्य वाले गुरु नहीं है, एक तरह की योग्यता वाले गुरु नहीं है और सब साधक भी एक ही गुरु के लायक नहीं है। गुरु भी उनको उनकी जरूरत के अनुसार चाहिए। यही बात देश के लिए भी है। गांव के लिए भी है। सब नेता इतने ईमानदार नहीं, सब इतने योग्य नहीं और सब नेता इतनी सामर्थ्य वाले नहीं हैं। सब की गरीबी दूर करने के लिए आजादी के समय से नारे चल रहे  हैं तो कुछ तो नियत की भी कमी है। पर नियत भी हो तो कैसे एकदम गरीबी दूर करें? इसके लिए पद्धति योग्यता भी होनी चाहिए। चलो नेताओं को हम इमानदार मानकर चलते हैं पर कई बार घर का पिता बेईमान नहीं है नियत का खोटा नहीं है पर अपने बच्चे को अच्छे वस्त्र देना चाहता है, अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहता है पर नहीं पढ़ा पाता। तो नियत का खोटा नहीं है लेकिन सामर्थ नहीं है। तो यह बात माता पिता पर ही लागू नहीं है, देश के मालिकों पर भी निर्भर है। सब को आरक्षण नहीं दे सकते, सब की जरूरत एक समान नहीं पूरी कर सकते, नहीं है क्षमता। उस जगह यदि मैं बैठा हूं तो सबकी गरीबी दूर नहीं कर सकता, सभी किसानों का कर्ज माफ नहीं कर सकता। एक अखबार में ही पढ़ा था कि किसी ने चुनाव में भेड़ों के लिए प्रचार किया कि हम भेड़ों को, बकरियों को कंबल बाटेंगे। वोट दो तो हम कंबल बाटेंगे। तो कई भेड़ें प्रभावित हुई कि हम इन्हीं को वोट देंगे क्योंकि यह हमें कंबल बाटेंगे तो उसमें एक भेड़ समझदार थी, कहती है कि कंबल कहां से बाटेंगे? हमारे ही तो बाल काटेंगे! बिना हमारे बाल काटे कंबल कैसे देंगे? तो यदि यह बाटेंगे भी नेता तो जनता का ही तो काट कर बाटेंगे! तो बांटने के नाम पर भेड़ें खुश है। तो कई भेड़ों की तरह की जो जनता है। लेने को तैयार है कि हमें दे दे। लेकिन यह नहीं ख्याल कि इनके खेती लगी है क्या? इन के खेत में पैसा लगता है क्या? तुम्हारी ही कटौती करके बाटेंगे। यह बांटने वालों से खुश रहोगे कि विकास करने वालों से खुश रहोगे? विकास होना चाहिए! इसलिए मोदी कहते हैं आप योग्यता बढ़ाओ, गुण बढ़ाओ, करने की क्षमता का विकास करो तो तुम्हारी जरूरतें पूरी हो जाएगी। यदि तुमको हम कमजोर रहते बांटते रहेंगे तो देश कमजोर हो जाएगा। इसलिए योग्यता का विकास चाहिए। क्षमता, योग्यता, कुशलता बढ़ेगी तो हम कमा लेंगे। इसी तरह किसानों को अधिक उत्पादन करने कह रहे हैं, वह भी सफल नहीं हुए। उनका उद्देश्य यही है कि किसान कैसे खेती करें क्या बोएं कि वह अधिक कमा सके! सरकार देती जाए, भरती जाए, माफ करती जाए यह पद्धति अच्छी नहीं है पर लगती अच्छी है इसलिए इमानदारी का काम वही होता है जो हितकर हो। तो हर जगह समझदारी चाहिए। 

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

वे भाग्यशाली हैं

हमने गुरुओं की बात समझी है। और जब नहीं समझ आती थी तो फिर समझते थे। गुरु तो वाक्य सुना कर चले गए। गुरु तो सबको सुनाते हैं। हमने सुना है कि इंद्र और विरोचन भी गुरु के पास सुनने गए थे। दोनों को एक ही उपदेश दिया। इंद्र ने सुन के बार-बार विचार करके पुनः लौट- लौट कर शंका का समाधान किया। फलतः वो समझने में समर्थ हो सके। विरोचन एक बार सुन कर चला आया कि मैं तो समझ गया। आप भी यदि समझ गए ऐसा लगता हो तो भी फिर समझना। नहीं तो कोई न कोई अवस्था पकड़ लोगे और फिर विरोचन की तरह रोओगे।

     जब तक बिल्कुल सौ प्रतिशत क्लियर न हो जाए तब तक सुनते रहो । आदि शंकराचार्य ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि तुम जान भी गए हो तब भी जब तक प्राण न निकलें तब तक इसका चिन्तन करो।

चींटी कितनी छोटी! उसको यदि मुंबई से पूना यात्रा करनी हो, तो लगभग ३-४ जन्म लेना पडेगा। लेकिन यही चींटी पूना जाने वाले व्यक्ति के कपड़े पर चढ़ जाये, तो सहज ही ३-४ घंटे में पूना पहुंच जाएगी कि नहीं !

ठीक इसी प्रकार अपने प्रयास से भवसागर पार करना कितना कठिन! पता नहीं कई जन्म लग सकते हैं।
इसकी अपेक्षा यदि हम गुरू का हाथ पकड लें और उनके बताये सन्मार्ग पर श्रद्धापूर्वक चलें, तो सोचिये कितनी सरलता से वे आपको सुख, समाधान व अखंड आनंदपूर्वक भव सागर पार करा सकते हैं !!

वे लोग कितने सौभाग्यशाली हैं, जिनके जीवन में ब्रह्मज्ञानी गुरु हैं।

ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम् ।
मन्त्र मूलं गुरु: वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा ।।

बुद्धि

बुद्धि दो तरह की होती है- एक सोच-विचार वाली और दूसरी शांत- निर्विचार प्रज्ञा। सुनी हुई बातों में रहित अर्थात् उससे रिक्त और मान्यताओं से खाली हो कर जब बुद्धि शांत हो जाती है, तब वह प्रज्ञा कहलाती है और उस प्रज्ञा में आत्मानुभव हो जाता है। ज्यादा पढ़ने-लिखने से आत्मा का बोध नहीं होता। शब्द-जाल महान् जंगल है; चित्त को भ्रम में डाल देने वाला है। मैं यह नहीं कहता कि मत पढ़ो; पढ़ना पड़ेगा। लेकिन, मैं यह भी कहता हूं कि आदमी थोड़ा सुनकर भी बुद्धि को शांत करें, मन को समाहित करे। क्यों करे? प्रत्येक दर्शन यह कहता है कि असमाहित चित्त, अशांत चित्त, वासना वाली बुद्धि और बहिर्मुख प्रज्ञा से कभी आत्मानुभव नहीं होता। शास्त्र क्या करते हैं? सुना कर बुद्धि को शांत करते हैं। जो ज्यादा सुने ही बिना बुद्धि को शांत कर ले, तो उसे आत्मबोध हो जाएगा। लेकिन, जब तक आदमी तमाम बातें न सुने, तब तक जानने की इच्छा खत्म नहीं होती। मैं तो यह कहता हूं कि परमात्मा के जानने का एक और अच्छा तरीका है कि जानने की इच्छा भी छोड़ो। जब हम परमात्मा को जानने की इच्छा करते हैं, तब हमारी बुद्धि बहिर्मुख होनी शुरू हो जाती है। हम समझते हैं कि परमात्मा कहीं होता होगा- उसको जान लें। जहां हमारी समझ में आया है कि भगवान् वहां है, वहीं उसके पाने की इच्छा और प्रयास शुरू हो जाता है। उसको जानने के लिए और उसको पाने के लिए, जो बुद्धि शांत है, वह चंचल हो जाती है। इसलिए, सुना हुआ परमात्मा और खतरा बन जाता है।
परमात्मा तुम्हारे अंदर ही है, बाहर नहीं.

साक्षी के ध्यान को सीखो और शाश्वत हो जाओ


पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं! अनासक्त हो जाओ!
राग द्वेष वियुक्तैस्तु राग और द्वेष का त्याग कर दो। कोई आवे, कोई जावे, मैं एक चेतना का दीप जलाए बैठा हूं। चेतना का दीप! जब हम कोई ऑब्जेक्ट रखना चाहते हैं, विषय रखना चाहते हैं तो परेशानी पैदा कर लेते हैं। तो आप चेतना को रखो। अब आखरी बात खतरे की है, उसमें जरूर थोड़ी गहरी सोच चाहिए। यहां तक तो आप इमानदारी से चाहे तो अनुभव कर सकते हो। एक संकल्प करो कि आज हम ध्यान में किसी को लाने या हटाने का काम नहीं करेंगे! घर हटाना नहीं, मंत्र लाना नहीं, अच्छे को लाना नहीं बुरे को हटाना नहीं! तुम्हें क्या करना है? अच्छे बुरे का आग्रह छोड़ देना है और जागे रहना है।  ‘मैं जगा हूं’ यह ख्याल आया, अच्छा आ गया या बुरा आ गया दोनों ख्यालों में जगे रहो! पर आप का आग्रह जब किसी चीज का होगा तो उसके आने से जागा मानोगे जाने से सोया मानोगे। तो आग्रह छोड़ दो, बिल्कुल आग्रह छोड़ दो! आप का आग्रह है कि मैं जग रहा हूं, श्वास आई, नहीं आई, धीमी हो गई, ख्याल आया, नहीं आया,  मैं जागा हूं! तो यह मंत्र का मूल महामंत्र है! यह महामंत्र है कि मेरे सामने यह हुआ, यह हुआ, यह हुआ, मेरे सामने हुआ इसका मतलब मैं अध्यक्ष हूं! मेरी अध्यक्षता में सब हुआ! मेरी आंखों के सामने हुआ! इन आंखों के नहीं, मैं ही आंख हूँ! इसीलिए स+आखी= साखी, साक्षी, मैं आंख हूँ! मेरे सामने यह हुआ! मेरे सामने! मेरे सामने! मेरे सामने! ठीक है? आप आंख हो! इन आंखों से(चर्मचक्षनओं से) तो बहुत दिन देखा है अब यह आँख आप खोलो!  प्रमाद मत करो! आपको लगे, हां! मेरे ख्याल में यह आया! यदि आप चुनाव करोगे तो परेशान हो जाओगे। इसीलिए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, ठीक है? अब चुनाव ना करो, जागो!

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, अाप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता। चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो!
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो  उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता।  तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि  अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं।  वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं!
तब भी थे तुम ही! अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी  है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!

अपना जगत खो कर स्वयं जगत हो जाओ

मन के अमन हो जाने पर द्वैत नहीं रहता। द्वैत तो है ही मन के खड़े होने पर। बाहरी द्वैत देह के अभिमान में है। भीतरी द्वैत मन के रहते है। स्मृति में भी जो है वह भी द्वैत है और वह भी आपके मन के कारण है। मन नींद में चला गया तो द्वैत गया। मन आत्मा में चला गया तो द्वैत खो गया।  द्वैत नींद में भी नहीं रहता।  यहाँ नींद का अर्थ है- गहरी नींद।  कई बार ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर गलती कर जाते हैं क्योंकि नींद का हम दो जगह प्रयोग करते हैं। सपनों के समय की नींद को भी नींद कहती हैं और गहरी नींद को भी नींद कहते हैं और सच तो यह है कि जगत के देखने को भी हम नींद ही कहते हैं। इसलिए तीनों अवस्थाएं स्वप्न हैं।  मैं सो गया था, यह भी स्वप्न है। मैं स्वप्न में था यह भी स्वप्न है। मैं आदमी हूँ, जगत है; यह भी स्वप्न है।  केवल जागना है-  मैं ब्रह्म हूँ और कुछ नहीं हूँ।  जागना उसी को कहते हैं जिस सेकंड में जागे हो करके तुम्हारे सिवा कुछ नहीं है। इसलिए ब्रहम ज्ञानी का जगत खो जाता है।

कौन है? जो कभी नष्ट नहीं होता

साक्षी ही साक्षात ब्रह्म है। इसे विचारो। कब विचारोगे? क्या बुद्धि टिकेगी?  देखो हम अपने बताएं, जब ध्यान में रोशनी हुई तो बड़ी आसानी से टिक गए। टिके तो नहीं रहे पर टिक गए। ध्यान में टिक गए, आनंद में टिक गए। आप भी आनंद टिक जाते हैं ना? फिर क्या टिके ही रहते हैं?  जवानी में तुम कैसे टिकोगे, जब जवान ही नहीं टिकेगी। बचपन में तुम कैसे टिके  रहोगे? जब जगते थे, बचपन था। फिर सो गए, फिर बचपन। फिर जगे, फिर बचपन। धीरे-धीरे आप जगते-सोते रहे और बचपन खिसकता गया।फिर जवानी आ गई, उसमें तुम टिके रहना चाहते थे। तुम सो जाते थे और  जवानी तुम्हारे जगने-सोने पर भी जवानी रुकी नहीं।
तुम सोओ चाहे जागो, जवानी धीरे-धीरे सरक रही है और सरक गई। अब बुढ़ापा आ गया। यद्यपि बुढ़ापा अच्छा तो नहीं है पर मरने से तो अच्छा ही है। तो बुढ़ापे को ही बचा के रख लो। कई बूढ़े बेचारे इंजेक्शन लगवा कर, ऑक्सीजन चढ़वा के, हमारा हाथ सिर पर रखवा के बुढ़ापे को बचाने में लगे हैं। संस्त्रति संसारा, जो सरकता रहता है। संसार सरक जाए तो सरक जाए पर तुम भी थोड़ी देर को सरक जाते हो। जवानी बनी रही, पर तुम कहीं चले गए थे क्या? चाहे जहां गए हो, स्वप्न में गए, नींद में गए पर छोड़ तो गए। जवानी से फिर जागे,  फिर प्यार कर लिया, फिर सो गए,  फिर प्यार कर लिया। है कोई ऐसा जो चौबीसों घंटे स्त्री या पुरुष से प्यार कर सके,  सोए ना? 
भगवान को तो छोड़ो, यदि तुम स्त्री या पुरुष से अखंड प्यार कर सको तो मुक्ति की गारंटी मैं लेता हूँ।  हमारे एक मनोहर दास संत हुए हैं वो  कहते थे कि हटाओ।  ताश खेले फिर कहेंगे कि ये भी हटाओ। प्यार करो अब यह भी हटाओ, सो जाओ। तो कौन ऐसा है जो संसार कभी छोड़ता नहीं है। संसार से इतना प्रेम कोई कर ही नहीं सकता कि सदा जाग सके। तुम पत्नी से प्रेम करते हो,  तुम्हें चुनौती है कि तुम पत्नी को थोड़ी देर के लिए भी न छोड़ो। तुम्हें धन से प्यार है, मैं तुम्हें रुपया दूँगा गिनते रहना पर सोने नहीं दूँगा। कोई इतना कर ही नहीं सकता। कहने का आशय इतना है “कि जो दिसे सो, सकल विनाशी” जो दिख रहा है वो एक दिन नष्ट होगा ही इसलिए ऐसे को जानो खोजो मानो जो गुरुदेव बता रहे है जो की कभी नष्ट होता ही नही कहीं आता जाता है नही जिसका जिक्र गीता में श्री कृष्ण करते हैं।

सदैव सोचो तुम क्या हो, सच में क्या हो?

खैर, मेरा विषय है कि गर्मी पानी का स्वभाव नहीं है। वह आग का है। ऐसे ही मृत्यु, परिवर्तन आपका स्वभाव नहीं हैं। यह प्रकृति का है। प्रकृति और आपका स्वभाव एक हुए लगते हैं। न होने पर भी ये एकाकार हो जाते हैं। इसी को तादात्म्य कहते हैं। जब ये एकाकार हो गए तो अनित्य वस्तु से भी तुम्हें जीवन लगने लगा जैसे,  मिट्टी को घड़ा होने से अपना जीवन लगे।
क्या सचमुच मिट्टी घड़ा होने से जी रही है ?  घड़ा  न हो तो क्या वह  मर जाएगी? मिट्टी को घड़ा जीवन लगा जबकि वह मौत है। अपने को मरने वाले से एक कर लिया और फिर बचने की इच्छा। क्यों बचने की इच्छा है?  क्योंकि उसके स्वभाव में मृत्यु है नहीं। इसलिए मृत्यु पसंद नहीं है और मृत्यु होती भी नहीं है पर मरने वाले से जुड़कर मरना स्वीकार कर, अंदर जो छिपा स्वभाव है- बचे रहने का, वह लड़ रहे हैं।
तो  विवेक द्वारा यह समझ लें कि अनित्य क्या है?  अनित्य को नित्य बनाने की चेष्टा न करें । विवेक हो जाए तो फिर अनित्य से, अनात्मा से, अशुचि से, दुःख रूपी वस्तुओं से वैराग्य हो जाए। यह समझ लें कि शरीर दुःख है, सुख नहीं है। इसको आध्यात्मिक लोग अविद्या कहते हैं। अविद्या के कारण अशुचि में शुचि बुद्धि, अनात्मा में आत्म बुद्धि, अनित्य में नित्य बुद्धि, जो नहीं है उसमें ‘है’ बुद्धि और है का पता ही नहीं है जैसे, घड़ा है। तो घड़े होने में तो है बुद्धि हो गई और मिट्टी के होने का पता ही नहीं।

सबसे बड़ा पाप

कई जगह शादी को संबंध भी बोलते हैं, रिश्ता भी बोलते हैं, विवाह भी बोलते हैं। तो तुम्हारा अभी नाशी से रिश्ता हुआ है। शरीर नाशी है, इससे तुम्हारा रिश्ता हुआ है और इसीलिए चिंता है। तुमने जिससे ब्याह किया है ना! वह मांगलिक ग्रह वाला है, वह जाएगा। और यह रिश्ता सब ने कर रखा है। यह मत समझो कि गृहस्थी करते हैं, साधु तक किए बैठे हैं यह रिश्ता नाशी से। और जब ऐसे मांगलिक से कर लोगे तो चिंता होगी ही कि यह नहीं रहेगा, चला जाएगा। तो अब हमें क्या करना है? यहां तो ( श्रीमद्भागवत कथा में ) रुक्मणी जी का श्याम से, भगवान से विवाह हुआ है। तो तुम्हारा भी भगवान से ही कराना पड़ेगा पर रुक्मणी जैसी बात हो! कोई किसी के कहे से न कर ले। नहीं तो  उनके घर के लोग कहीं और कराना चाहते थे, ठीक है! तो आप भी अभी तो बिना किसी से कहें, सहज ही शरीर से तुम्हारा रिश्ता हो गया है, संबंध हो गया है। यह शरीर आपका हो गया है, आप इसके हो गए हो। इसके धर्म आपके और आपका धर्म इसका हो गया है। जैसे लोहे को गरम आग में डाल दो तो यदि लंबी लंबी सरिया है तो आग लंबी लंबी हो जाती है और सरिया गरम नहीं है पर वह गर्म हो जाती है, सरिया का धर्म आग को मिल गया। लंबाई सरिया की है वह मिल गई आग को और गर्मी किसकी है आग कि, वह मिल गई लोहे को। इसको अन्योन्याध्यास  बोलते हैं। तो जो जीव है वह देह हो गया और जो जड़ है वह चेतन हो गया। वह चेतन हो गया क्योंकि तुम्हारी चैतन्यता देह को मिल गई और देह की जड़ता, मृत्यु तुम्हें मिल गई। यह अन्याेन्याध्यास है। तो इसका तो हमें तलाक दिलाना पड़ेगा। शादी तो बाद में करेंगे पहले तलाक दो। अष्टावक्र गीता में कहा है यदि देहं पृथक्कृत्य चितिविश्रम्य तिष्ठसि ।अधुनैव सुखी शांतो बंध मुक्तिर्भविष्यसी।।यदि तुम यही देह से मैं पन हटाओ, देह से रिश्ता तोड़ो और चैतन्य में विश्राम करो, अपना संबंध अंतरात्मा से कर लो तो अभी मुक्त हो जाओगे। इसलिए अब क्या करना है? यह मैं जो है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यह  चार ही इस देह को  मैं मानते है। यही मुड़कर के  करके आत्मा को, स्वरूप को मैं मान सकते है। अभी मैं को सीधा सीधा नहीं….. जैसे  मैं देह नहीं है, मैं ने देह का अभिमान किया है।  देह अभिमान तो मैं ने किया। यदि नींद ना खुले तो देह का अभिमान होगा क्या? देह में मैं पन नहीं हुआ, इसमें रहने वाला  चिदाभास कहो या मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार कहो उसने इस देह से मैं का रिश्ता जोड़ दिया, इसको मैं बना कर मेरे बना लिए। फिर मैं-मेरे का दुख हो गया। इसलिए अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश बस यही पांच क्लेश है। और यही सबसे बड़ी परेशानी, भ्रम की तुम ये शरीर हो, नाम हो, रूप हो जिस दिन कोई भी व्यक्ति इसे सही सही समझ गया कि वो शरीर नही, ये शरीर उसका है जो कि प्रारब्ध वश मिला है इसमें रहने वाला वो तत्व जिसके निकल जाने से ये निष्क्रिय हो जाता है किसी काम का नही रहता वो कौन है उसे जानो ये उनके जानने को मिला यही मानव देह कुंजी है इसलिए ही ये देह रूपी मौका उसे मिला है क्योंकि जानवर ये नही सोच सकता। आप ही सोच सकते हो समझ सकते हो। इसलिए मेरे गुरुदेव कहते है-

“देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप हैं।

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्रों का ये बाप है।।