जिस गुरु को स्वयं ही स्वरूप में शाश्वत शांति प्राप्त नहीं हुई, वह शिष्य को आश्रम में ही लगा सकता है; धंधे में ही लगा सकता है; लेकिन, ब्रह्मनिष्ट नहीं बना सकता। लोग चेलों को रखते हैं, गीता पढ़ा देते हैं, रामायण पढ़ा देते हैं, वेद पढ़ा देते हैं, और भाषण देना सिखा देते हैं। लेकिन, जब देखते हैं कि चेला भी चाहता है कि चेले अधिक बन जाएं; चेला भी चाहता है कि आश्रम अधिक बन जाएं; तब गुरु और शिष्य में आश्रमों के पीछे, चेलों के पीछे, राग- द्वेष पैदा हो जाता है; क्योंकि, गुरु भी उसी रास्ते पर रहे हैं और उसी पर ले जा सकते हैं। जो जिस रास्ते पर स्वयं नहीं जा पाया, वह समाज को उस रास्ते पर कैसे ले जा सकता है? जिसके बीज नहीं हैं, उसके वृक्ष पैदा नहीं हो सकते। यदि बीज हों, तो वृक्ष पैदा हो सकते हैं।
अब आवश्यकता है कि हम लोग स्वयं अपनी अनंत आत्मा में तृप्त हों; तब अपने पुत्र को कहें। जब हम स्वयं शाश्वत शांति की खोज में लग जाएं, तब अपनी बहू को कहें, बेटी को कहें। लेकिन, हम कौन सा मुंह लेकर कहें कि बहु तुम सत्संग में जाओ बहु स्वयं सास से कहती है कि “आप खुद ही ज्यादा अशान्त हो”। जब आप स्वयं परेशान हैं, स्वयं ज्यादा चिड़चिड़े हैं, स्वयं ज्यादा क्रोधी हैं, स्वयं ज्यादा हाय- हाय करते हैं, तो बहु से कैसे कह सकते हैं कि सत्संग में जाओ। बहु सिनेमा देख आती है, उससे खुश रहती है। सिनेमा देखने वाले लड़के भी आनंद से हैं। वे घर पर भी हंस- खेलकर तुम्हारी गाली को टाल देते हैं। लेकिन, तुम श्रेष्ठता के अभिमान से फूले हुए एक मिनट भी चैन से नहीं रहते।
जितने लोग श्रेष्ठ बने हुए हैं, मन से अपने को बड़ा अच्छा माने हुए हैं; वे एक मिनट भी चैन में नहीं हैं। अब हम उनका नाम सत्संगियों की लिस्ट में कैसे लिखें? अध्यात्मवादियों की लिस्ट में उनका नाम कैसे लिखें? गलतियां करने वाला तो दस गालियां सुनने में भी समर्थ है; लेकिन, दो-तीन भाषण सुन लेने वाले को तो सहन ही नहीं होता; क्योंकि, वह तो यह मानता है कि वह बड़ा सत्संगी है, बड़ा ज्ञानी है। तुमको तो हमारी दो बातें सहन हो जाती हैं; लेकिन, बाबा को देखकर तुम उठकर खड़े न हो, तो बाबा के आग लग जाती है। हम इतने बड़े हो जाते हैं कि भक्तों के उठकर न खड़े होने पर भी हमें अशांति का अनुभव होता है। तुम नीचे बैठकर भी शान्त तो हो। ज्यों- ज्यों हम धर्म के नाम पर आगे बढ़ते हैं, त्यों- त्यों अहंकार में बढ़ते चले जाते हैं। सबसे बड़ी आवश्यकता है अहंकार से रहित होने की । ज्यों- ज्यों हम निरहंकार होते जाएंगे , त्यों-त्यों शांत और आनंदित होते जाएंगे।

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