हमने इधर जाने का कभी प्रयास नहीं किया। वे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो अंतरात्मा में जाने का प्रयास करेंगे। इन दो बातों पर हमें बराबर विचार करना है कि गृहस्थों के लिए भी कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। उस कर्म का भले ही हो, जिसकी लोग कल्पना करते हैं। पर मुझे लगता है कि वैसे कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। यदि कर्म का विरोध होगा, तो रोटी का भी होगा; रोटी का होगा, तो शरीर का भी होगा। लेकिन , शरीर विरोधी नहीं है, बल्कि साधन है। जब शरीर मोक्ष पाने का साधन है, तो फिर भोजन भी साधन ही है। अगर भोजन साधन है, तो फिर रुपया भी साधन है। रुपया साधन है , तो फिर कामना भी साधन है। जब कामना भी साधन है, तो फिर कर्म कैसे मोक्ष का असाधन होगा? कर्म मोक्ष में सहयोगी है; मोक्ष का बाधक नहीं है।
जो लोग कर्म से दूर भागना चाहते हैं, उन लोगों को मोक्ष तो क्या, रोटी भी नहीं मिलेगी। तुम लोग अगर दुकान बंद कर दो, तो मोक्ष तो दूर रहा, रोटी भी मिलनी मुश्किल हो जाएगी और अगर मिलती भी है, तो किसी कर्म के बल पर ही मिलेगी। मान लो एक सन्यासी बिना कुछ किए खाता है। मैंने सुना है कि कई लोगों के मत में हल जोतने में कीड़े मर जाते हैं– हिंसा होती है। इसलिए हिंसा वाला काम नहीं करना चाहिए । अगर हल न जोतें, तो हम भी मर जाएंगे और उपदेशक भी मर जाएंगे। फिर न हम रहेंगे, न हमारा धर्म और न हिंसा ही रह जाएगी। सारा ही खेल खत्म हो जाएगा। इसीलिए, इस हिंसा के बल पर तो बहुत कुछ खड़ा हुआ है। हल जोतने में हिंसा होती है, इसको हम हिंसा में नहीं ले सकते।
यह तो शरीर का और प्रकृति का नियम है, इसको हम इंकार नहीं कर सकते। यदि शरीर है, तो हम रोटी को इंकार नहीं कर सकते। यह बात दूसरी है कि एक भाई हल जोतता है तो दूसरा दुकान करता है। बहुत सारे भाई हल जोतते हैं और दुकान भी करते हैं। एक भाई अगर सन्यासी हो जाए और संसार को ज्ञान दे, वह अलग बात है। लेकिन, अगर सारे भाई सन्यासी हो जाएं, हल जोतना छोड़ दे, तो सन्यासी भी मर जाएंगे और गृहस्थ भी मर जाएंगे। इसीलिए, सन्यास का मतलब यह है कि ऐसा व्यक्ति सन्यासी हो, जो तमाम संसार को संन्यासी बनाने का तरीका बताएं। गृहस्थ को संन्यासी बनाए, उसे संन्यासी की तरह जीना सिखाये। क्योंकि जो गृहस्थ होकर भी उसमें फंसता नहीं सिर्फ अपना कर्म करता है वो सन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि शरीर है, जीवन है तोह कर्म तो करना ही होगा, उदाहरण: जैसे पेट है तो खाना तो होगा। खाना सामने है तो हाथ से उठा के मुँह में भी डालना होगा। बिना कर्म किये बिना रह नही सकते, शरीर नही रख सकते और शरीर है तो इसे रखना भी होगा जब तक है स्वस्थ रखना होगा यही धर्म है।
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं ——
“काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं,कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:।।”
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