Date Archives August 2020

तुम भी अवतार हो सकते हो

श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक तरह के विषय आते हैं जिससे हमें सीखने को मिलता है। आज एक यह सीखने को मिलेगा की जैसी हो भवितव्यता तैसी मिले सहाय जैसा होना होता है वैसे सहयोग करने वाले मिलते हैं। आपने जावे कहां पर ताहि तहां ले जाए।। चूंकि कंस की मृत्यु के लिए भगवान का जन्म होना है तो आपने सुना ही है कि पहले वह बहन को ही मार देना चाहता था। पर सलाह देने वालों ने कहा कि बच्चे को मार देना। बहन को क्यों मार रहे हो? तो सोचा कि चलो आठवें बच्चे के लिए कहा है तो आठवें को मार देंगे। तो किसी ने कह दिया कि बीच में भी आठवां हो सकता है। तो वह तो  एक एक करके सभी बच्चे मारने लगा। यह सब होते हुए भी हुआ वही जो  होना था। तो जो होना है वह होता ही है। दूसरा है भगवान के जन्म का विषय भारत यद्यपि वेदांत और अध्यात्मिक ज्ञानी गुरुओं का देश है, बहुत लोग अवतार भी मानते हैं पर  हमारी दृष्टि से अवतार नहीं माने तो हम बहुत कुछ खो देंगे। हमारा सब का जन्म  वासनाओं से होता है। कोई ना कोई पहले वासना थी जो यहां आए इस जन्म में कोई वासना होगी तो अगला जन्म लेंगे। यदि कल्याण की अधिक वासना होगी, मोक्ष की वासना होगी तो ज्ञान हो जाएगा और मुक्ति प्राप्त करेंगे।

पर भगवान कोई अपनी वासना से नहीं आते। उनको जब अपने भक्तों का उद्धार करना होता है तब वह अवतार लेते हैं। कहते हैं ना निज इच्छा निर्मित तनु अपनी इच्छा से शरीर बना लेना। हमारा शरीर हमारी इच्छा से नहीं वासना से बना। परंतु भगवान को जो जो करना है वैसी ही सामर्थ्य लेकर के आए। हम लोग चाहे भी तो नहीं कर सकते। इसलिए भगवान का, अवतारों का जो शरीर है वह आग में नहीं जलता, गड्ढे में फेंकने पर भी नहीं मरता, तो ऐसा शरीर हमारा तो नहीं है, हम आग से जल जाएंगे। हमारा शरीर यदि पहाड़ी से फेंक दिया जाए तो बिगड़ जाएगा। तो जो भगवान हैं वह जैसी जरूरत वैसा शरीर लेकर अपनी इच्छा से आते हैं। हमारा शरीर सब तरह की क्षमता लेकर नहीं आया इसलिए भगवान के स्मरण का, उनके दर्शन का, उनके सुमिरन का, उनके ध्यान का बड़ा लाभ होता है। यही लाभ उठाते उठाते आप जिस दिन परमात्मा को समझ गए और अपनी आत्मा में उसको एकीकार मान लिया जान लिया उस दिन तुम भी परमात्मा हो जाओगे। तुम भी अवतार लोगे लोगों का कल्याण करने न कि पुरानी चाहों को इस जन्म में पूरा करने आओगे और नई चाहें बना के फिर नया देह पाओगे।

ज्ञान क्यों नहीं हो पाता


बोध क्यों नहीं हो पाता? इसलिए कि जिस चीज का बोध करना है, उससे संबंधित सजातीय परमाणु या अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए। क्योंकि, जिस विषय का बोध होगा-जिस दृश्य का बोध होता है- उसके सजातीय अंश देखने वाले हिस्से में कुछ-न-कुछ सूक्ष्म रूप में होना चाहिए।अन्यथा उस वस्तु को पकड़ा नहीं जा सकता। आप यह बात व्यवहारिक रुप से रेडियो में देखते हैं। जिस स्टेशन के शब्द पकड़ने होते हैं, वह हिस्सा रेडियो में भी होना अनिवार्य है। यदि , रेडियो में वह स्टेशन नहीं होता, तो उस स्टेशन के शब्द पकड़े नहीं जा सकते। अतः जिस चीज को हम पकड़ते हैं, उसका सूक्ष्म अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए , नहीं तो वह चीज पकड़ी नहीं जा सकती।
यदि किसी चीज को देखना है, तो दृश्य में भले ही उतनी चेतना न हो; लेकिन ,दृश्य का हिस्सा (अंश ) दृष्टा में भी होना जरूरी है। इसीलिए, बिना दृश्य के लिए हुए दृष्टा सिद्ध नहीं होता। यदि शब्द ग्रहण करना हो, तो जिस चीज से शब्द की उत्पत्ति हुई है, उसका कुछ -न- कुछ हिस्सा कान में होना जरूरी है। इसीलिए, श्रोत्र इंद्रिय का निर्माण भी आकाश से हुआ है। उसी से शब्द ‌का भी निर्माण हुआ है। जिससे नेत्र इंद्रिय की उत्पत्ति हुई है, उसी से रूप की उत्पत्ति हुई है, रूप भी तेज का है और नेत्र इंद्रिय भी तेज की है। फिर आप कहेंगे दो क्यों हैं? इसीलिए कि एक देखे और एक दिखाई दे। इसका हम अभी स्पष्टीकरण करेंगे।

दृश्य द्रष्टा के विषय को स्पष्ट करने का मेरा विचार है। दृश्य और दृष्टा दोनों ही एक हैं। इसके समझने के लिए एक उदाहरण चुना है। जिस लकड़ी को जलाना होता है, उसको हम कहते हैं लकड़ी है घास है और जिससे जलाते हैं, उसे कहते हैं आग है। जिसे लकड़ी कहते हैं, उस लकड़ी में भी आग होती है; नहीं तो कोई भी आग से लकड़ी को नहीं जला पाता। यह वैज्ञानिक सत्य है कि यदि लकड़ी में आग अव्यक्त रूप में ना हो, तो कोई भी उसको नहीं जला सकता। अव्यक्त आग, जो लकड़ी में विद्यमान है, वह व्यक्त अग्नि के स्पर्श से व्यक्त हो जाती है और उस लकड़ी को जलाना शुरू कर देती है। अव्यक्त को व्यक्त होना चाहिए। चाहे वह लकड़ी के घर्षण द्वारा हो या जली आग के द्वारा हो या अपने आप घर्षणों से हो। कई बार दो लकड़ियां आपस में रगड़ती रहती हैं और उनमें आग प्रकट हो जाती है। अप्रकट अग्नि, जब प्रकट होती है, तो जलाना शुरु कर देती है।
आप जिससे वस्तु को जलाते हैं, उसको कहते हैं आग और जिसको जलाते हैं, उसको कहते हैं ईंधन, लकड़ी, कोयला आदि। लेकिन,जिसको आप आग कहते हैं,करता उसमें लकड़ी बिल्कुल भी नहीं है? क्या ऐसी आग आपने जिन्दगी में देखी है, जिसमें लकड़ी बिल्कुल न हो? दाहक आग लकड़ी का वह हिस्सा है, जो अग्नि के अधिकार में आ चुका है।जो दग्ध हो चुका है, उसमें स्थूलता तो काफी अंशो में विनष्ट हो गई है; लेकिन, फिर भी उसके अंदर लकड़ी के अवयव हैं, जो अग्नि रूप में हो गए हैं । उसको हम आग कहने लग गए हैं जो लकड़ी का हरूप में दिखती है उसे हम इंधन कहते हैं।
दृष्टा किसे कहते हैं? प्रकृति का जो हिस्सा चैतन्य से एकीभूत हो चुका है; जिस पर चेतन्य ने अपना अधिकार पा लिया है; जो चैतन्य का रूप हो सकता है; चैतन्य की चैतन्यता जिसमें प्रतिबिंबित हो गई है; विशेष हो गई है; वह दृष्टा है। मान लो आप कह दें कि दोनों ही लकड़ियां हैं। एक लकड़ी, दूसरी लकड़ी को जलाती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता। यदि अग्नि की कोई शक्ति में होती, तो लकड़ी को लकड़ी नहीं जला सकती। इसीलिए, अग्नि तो दोनों लकड़ियों में व्याप्त है- एक में प्रकट रूप में है, दूसरी में अप्रकट रूप में। जिसमें प्रकट रूप में अग्नि है, उसे दृष्टा, दग्धा और जलाने वाली अग्नि कहते हैं। जिसमें अग्नि अप्रकट है, उसे ईंधन कहते हैं।

सुसुप्ति और समाधी


अभी एक और रह गया है “दर्शन”, उसको हमने स्पष्ट नहीं किया। दृष्टा दृश्य दो ही भाषते हैं। दृष्टा , दृश्य से भिन्न होता है। दृष्टा और दृश्य से जो संबंध जोड़ता है, उसका नाम दर्शन है। दृष्टा और दृश्य के बीच दूरी होती है।यदि संबंध न जुड़े, तो लकड़ी अलग पड़े रहे और जलती हुई आग अलग पड़ी रहे। और दोनों का संबंध जोड़ने के लिए कुछ और लकड़ियां चाहिए, जो यहां से वहां तक आग कर दें। आग से लकड़ियों को जोड़ दें। जहां से जलती हुई आग उसे पकड़ ले, जो दूर है। इसी प्रकार अंत:करण अंदर है,शरीर बाह्य है, विषय बाह्य हैं। शरीर जड़ और अंत:करण सचेतन है। यद्यपि चेतन नहीं है, चूंकि इसमें चेतना प्रकट है, इसीलिए उसको दृष्टा कहना पड़ता है। उसकी अपेक्षा शरीर जड़ता वाला है; इसलिए उसे दृश्य कहना पड़ता है। यदि द्रष्टा द्रश्य को देखने के लिए प्रवृत्त होगा, तो उसकी चेतना की धारा दृश्य तक बह कर संबंध जोड़ा करती है।
आप देखते हैं कि केंद्र और परिधि को जोड़ने वाला कौन होता है? रेडियस (त्रिज्या) और व्यास। यदि वह न हो, तो कभी भी केंद्र और परिधि का संबंध नहीं हो सकता। बल्कि, परिधि बनती ही नहीं। इसी प्रकार से शरीर परिधि है और दृष्टा केंद्र है। दृष्टा के द्वारा जो वृत्ति स्फुरित होती है वह वृत्ति शरीर तक आती है, यदि, वृत्ति का उत्थान ना हो, तो शरीर का बोध नहीं होगा। जब वृत्ति अंदर लौट जाती है–चाहे वृत्ति निद्रा के द्वारा समिट जाते, चाहे समाधि के द्वारा-तो शरीर का बोध नहीं होता।जब व्यक्ति समाधि में जाता है; जागते हुए अपनी वृत्तियों को समेट लेता है; तो शरीर का ज्ञान समाप्त हो जाता है; सुनना समाप्त हो जाता है; व्यवहार समाप्त हो जाता है और वह शून्य होकर स्वयं में शान्त हो जाता है।

नियंत्रण

किसको भय देना, किसको अभय? किसको सलाह देना, किसे ताकतवर बनाना? कंस ताकतवर हो जाएगा तो क्या करेगा? वह तो भगवान ना आते तो जाने क्या करता कंस! और भी….. वह सिद्धि आ गई कि तुम्हें कोई मार नहीं सकता, वरदान ले लिया। अब पूरा ही यदि वरदान मिल जाए या चलो एक सिद्धि मिल जाए कि तुमको कोई देख ही नहीं पाएगा, तुम चाहे जहां जाओ दिखाई ना पड़ोगे लोगों को। अभी तो दिखाई पड़ते हो इसलिए चोरों को पता है कि लोग मुझे देख लेंगे। चरित्रहीन को पता है कि मैं दिखाई दे सकता हूं इसलिए दिमाग लगाता है कोई देख ना ले। अब मान लो यह सिद्धि तुम्हें आ जाए, जब चाहे दिखाई पड़े जब चाहे दिखाई ना पड़े! यदि यह चमत्कार तुम्हारे पास हो जाता तो ताकत से शरीर चाहे जितना हनुमान जितना बड़ा कर लो छोटा कर लो तो? अभी नहीं है आपके पास पर यदि ऐसी सिद्धि तुम्हें मिल जाए ना तो आप……. । हमारे गुरुदेव से कुछ संतों ने कहा जो उनको सिद्ध मानते थे कि हम को भी मंत्र सिखा दो कि जिसको मंत्र मारे वह जल जाएगा। तो गुरुदेव ने नहीं सिखाया। कहते थे – तुम यह मंत्र सिखके पता नहीं किस पर नाराज हो जाओगे! ठीक है? तो यह मंत्र और सिद्धि भी उनको मिलने चाहिए जिनका अपने मन पर कंट्रोल हो। और चलो वह सिद्धि तो जाने दो, यह सिद्धि कि जिनको पांच इंद्रियां मिली है उनके भी अंदर भगवान यह सामर्थ्य दे की इंद्रियों को तुम कंट्रोल कर सको। कहो तो यही इंद्रियां तुमको तार देती है और यही इंद्रियां तुम को मार देती है। यही तुम्हें अकल्याण में, गलत रास्ते में ले जाती है। इसलिए जिनकी इंद्रिया बस में है उन्हींकी ये मित्र है। “हमारी इंद्रियां हमारी मित्र है यदि कंट्रोल में है और यदि हमारी इंद्रियां कंट्रोल में नहीं है तो यही हमारी दुश्मन है।”

सोचो!

“एक अभ्यास को काटने के लिए दूसरा अभ्यास  चाहिए विरोधी। तो सोते समय, सोने के पहले ‘लेटा हूं’ मान कर मत सो, ‘दृष्टा हूं’ सचमुच यह स्मरण करने के बाद सो जाओ।” कुछ देर दृष्टा  और लेटे समय दृष्टा तो चलते समय भी दृष्टा, बैठे समय भी दृष्टा! देह चलता हो बैठा हो लेटा हो, देह की स्थिति  बदलेगी। पर “बैठे में भी दृष्टा, लेटे में भी दृष्टा, चलते में भी दृष्टा! इसको मंत्र(समझो)! जो मंत्र दिया जाता है वह मंत्र नहीं, यह मंत्र है। और दृष्टा ही …...”एको देवा सर्वभूतेषुगूढ़ा सर्वव्यापी सर्वभूतांतरात्मा कर्माध्यक्ष सर्वभूतादिवासा साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।” मैं ब्रह्म हूं इसका शायद विश्वास करना पड़ेगा, ज्यादा दिमाग लगाना पड़ेगा। इसके लिए आपको प्रमाण चाहिए, अनुभव चाहिए। पर द्रष्टा होने के लिए आपको कहीं से उधार अनुभव नहीं लाना। सिर्फ एक बता दिया, “आप हो द्रष्टा, सचमुच दृष्टा हो! यदि देह के दृष्टा ना होते तो ‘मैं देह हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता, ‘बैठा हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता। बैठा हूं यह ख्याल बाद में आया, किसको? दृष्टा को! इससे सरल कोई चीज नहीं हो सकती।” मुझे बहुत याद नहीं है पर फिर भी शायद ऐसा ही है, महर्षि रमण ने  सोहम् कहने को मना किया है, शिवोsहम् कहने को भी मना किया है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ भी शायद नहीं कहा। क्याेंकि उसमें शायद कुछ लाना पड़ता है। पर “दृष्टा होने में कुछ लाना नहीं पड़ता, कोई शास्त्र नहीं, कोई और चीज लानी नहीं” तुम देह को जानते हो इसलिए इस अभ्यास में कोई कठिनाई नहीं है। हां, प्रमाद है, आलस्य है, लापरवाही हो सकती है गर ध्यान ना दो। पर दृष्टा तो हो! और “दृश्य से दृष्टा भिन्न होता है। दृश्य और दृष्टा एक हो नहीं सकते।” हमको जब पढ़ाया जाता था तो यह बताते थे – घटदृष्टा घटाद्भिन्ना।। घड़ा का देखने वाला घड़े से अलग होता है। इसी तरह देह का दृष्टा भी देह से भिन्न होता है। दूर नहीं कहते, भिन्न! जैसे यह उंगली दूसरी उंगली से भिन्न है। भिन्न  माने कितनी दूर? जैसे एक हाथ दूसरे हाथ से भिन्न है। देखो यह दो हाथ है, दायां और बायां, दोनों भिन्न है। ठीक है?  जुड़े हो तब भी भिन्न है। तो तुम पास हो या दूर हो? तुम दो चार मिल देह से दूर चले जाओगे, चले जाओ तब द्रष्टा हो गए या देह से अलग हो गए? ऐसा भ्रम मत पालो! “देह दृश्य है, तुम दृष्टा हो! कितने नजदीक हो, तो भी द्रष्टा हो, देह दृश्य है! देह द्रष्टा नहीं है और दृष्टा देह नहीं है! यह अभ्यास आज से शुरू करो।”

किसी भी देश, काल, और मज़हब से ऊपर की विद्या है वेदांत।

 बुद्धगम्य बनाने के लिए मैं फिर कहता हूँ  कि यह गाँठ आपको आँख से दिखती है, यद्यपि यहाँ कपड़ा भी तुम्हें दिखेगा।  यह गाँठ आँख से दिख गई और आँख से दिख गई कि  अब नहीं रही । एक छोटा बच्चा जिस के आँखें हों उसको ले आना।  मैं पूछूँगा, वह कहेगा कि यह गाँठ है और खोलने के बाद पूछूँगा तो कहेगा कि अब नहीं है । फिर मैं पूछूँगा कपड़ा? तो बाकी जगह कहेगा कपड़ा और इसे कहेगा गाँठ । अब यहाँ बिना समझ के कोई नहीं कह सकता कि जहाँ गाँठ है वहाँ कपड़ा है । जहाँ गाँठ है वहाँ भी कपड़ा है। जहाँ जीव है, देह है वहाँ भी परमात्मा है। जीव बिना परमात्मा के हो नहीं सकता। जीव स्वतंत्र नहीं है । हम त्रैतवादी हैं लेकिन हम त्रैत सत्यवादी नहीं हैं। त्रैतवादी हैं पर तीन को सत्य नहीं मानते। सत्य एक को मानते हैं।                        

“एकमेवाद्वितीय ब्रह्म।”   

 फर्क समझ लें,  हम गाँठ नहीं मानते; ऐसा नहीं है।  लेकिन सत्य हम  कपड़े को मानते हैं, गाँठ को नहीं मानते। जीव मानते हैं, जीव का वर्णन है, जीव की अवस्थाओं का वर्णन है, जीव के बंधन का,  जन्म का वर्णन है पर जीवो ब्रह्मैव नापरः  का भी वर्णन है। 
     अब स्थूल जगत क्षर, इसका रहना, न रहना, होना, न होना देखते रहते हो। पर जिसके द्वारा यह देह का होना और न होना देखा जाता है उसको अभी हम अक्षर मान लेते हैं । बचपन का न रहना  जिसने न जाना हो वह जरा  बताए? आपने अपने बचपन का रहना देखा था ना? बचपन रहा है न? और अभी क्या है आपका? बच्चों को मैं नहीं पूछता उनका अभी है और वे यह भी जान सकते हैं कि आगे बचपन नहीं रहेगा। आपका हमारा बचपन रहा है पर आज नहीं है। यह तुमने ही तो देखा। अपने बचपन को आपने ही तो देखा था ना?  किससे  देखा? आँखों से ? बिना आँखों वाले बच्चे तो होते ही नहीं हैं? अपने बचपन का रहना और न रहना अंधे तो जानते ही नहीं हैं? 
      इसका मतलब अपने बचपन का होना, बचपन का न रहना, ताकत का होना, ताकत का घटना, क्या यह इंद्रियों से जानते हो?  जाग्रतावस्था का होना फिर जाग्रत का न रहना, स्वपनों का होना, स्वपनों का न रहना,  सुषुप्ति का होना और सुषुप्ति का न रहना आप जानते हैं ना?  इनके चश्मदीद गवाह है ना,  स्वयं प्रमाण है ना, तो कौन प्रमाण है  ये आँखें? जाग्रत, स्वपन, सुषुप्ति क्या अंधों की नहीं होती,  बहरों की नहीं होती? 
      ये जब होते हैं तो इनका होना बिना किसी के कैसे जाना जाएगा? जैसे बाहर के विषय इँद्रियों से जाने जाते हैं ऐसे ही सूक्ष्म अवस्थाएं साक्षी के रहते चेतन से जानी जाती हैं। बिना चेतन के जागना क्या हो सकता है?  अभी खुर्दबीन (Microscope) लगाइए, हटाइए। कुछ चीजें दिखने लगती हैं कुछ दिखनी बंद हो जाती हैं। मशीन के कारण कुछ दिखने लगा,  मशीन के हटाने से न दिखने लगा नेत्र के रहते। ऐसे ही साक्षी के रहते उपकरण बदला,  जाग्रतावस्था रही तो जगत दिखा। इस जगत के होने को हम कुछ नहीं कहते। जाग्रत हो जाने से जगत दिखने लगता है। जगत अपनी जगह ज्यों का त्यों है, चित्रकूट अपनी जगह, बांदा जिला,  सतना जिला अपनी जगह, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश अपनी जगह, पूरे देश-विदेश, विश्व अपनी जगह सिर्फ जाग्रत अवस्था नहीं तो जगत आपको नहीं दिखता। यह नियम सब जाति- मजहबों पर लागू है।

अपने विराट स्वरूप को पहचाने

पुज्य गुरूदेव बताते हैं ब्रह्म साक्षात्कार आत्म साक्षात्कार के बिना नही हो सकता। आत्म साक्षात्कार कैसे हो, पुज्य गुरूदेव उदाहरण से समझाते हैं—


1) जैसे जब दीपक जलता है, तो जो चीजें पास में होती है, वे प्रकाशित हो जाती है। प्रकाश चीजों के बारे में सोेचता नहीं है; वह उनके बारे में विचार भी नहीं करता।प्रकाश की तरह ही चैतन्यता तुम्हारे अंदर स्वभाव से है।उसे लानी नहीं है। बाहर से कोई योजना नहीं बनानी है। इसलिए तुम अपने अंदर झाकों।


2) पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि स्वामी राम ने तो यहाँ तक कह दिया जब भी तुम्हारा ध्यान पीर, पैगम्बर,अवतार आदि की तरफ जाता है, तो तुमने अपनी बेच दी। तुमने अपनी आत्मा को गवाँ दिया है। तुम कौन हो? मेरे और तुम्हारे मूल तत्व में कितना कम ज्यादा होगा?


3) इसलिए पुज्य गुरूदेव समझाते हैं थोडा विचार करने से,थोडा धैर्य रखने से,थोडा दिमाग लगाने से तुम भगवान हो जाओगे। खाली तथा निर्मल मन से सूक्ष्म तथा दिव्य बुद्धि से अभ्यास करके आत्मा का अनुभव करो। तुम स्वयं आनन्द स्वरूप ज्ञान स्वरूप हो।

4) एक बार देह का अभिमान गल जाए (अर्थात “मै” देह हूँ, यह वृत्ति छुट जाए)और चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाए, तो फिर जहाँ जहाँ मन जाए,समाधि ही समाधि है।समझाते हैं—

a) जब हमारे अन्दर से द्वैत समाफ्त हो जाता है,तब चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है। मन में केवल परमात्मा का भाव होता है।


b) यह द्बैत “मैं” के कारण जिंदा है। एक देह के कारण अन्य जिंदा है। इसलिए देह का भाव मिटाएँ।यदि नहीं मिटा पा रहे हो, तो अन्य देह बन जाए। वह देह यदि अपनी देह की अपेक्षा अधिक सच्ची लगाने लगे, तो इसको झूठा करना आसान हो जाएगा। जैसे अगर दूसरों का बचपन प्यार से देखें तो आपको अपना बचपन याद आ जाएगा।इसके लिए खाली मन तथा एकाग्रता की आवश्यकता है।


5) पुज्य गुरूदेव समझाते हैं; मन में अन्नत शक्ति है।इसका प्रयोग करें।आप मन के द्वारा इस प्रकार डूबना सीखे, स्मरण करना सीखे कि आप आप न रहे।आप व्यक्ति न रहे, आप विराट हो जाएँ।आप चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं।

इतनी सी बात समझ गए, मानो सब समझ गए


हमनेे देखा कि बहुत लहरें हैं, पूछा कि कहीं पानी भी है? तो लहरों ने साफ इंकार कर दिया कि पानी है ही नहीं। जब हमने बहुत कहा कि जरा तुम देखो तो की लहरें कब से बनी हो? उन्होंने कहा इतने दिन से। हमने कहा इससे पहले क्या था? उन्हें कुछ सोचना पड़ा । हमने पूछा कि तुम कितने दिन रहोगी? तो उन्होंने कहा इतने दिन तो लगभग रहेंगी ही। हमने कहा इसके बाद क्या होगा ? उन्होंने कहा कि कुछ पता नहीं। हमने कहा उस पता नहीं की ओर भी जरा जाओ तो? लहर तो यहां से यहां तक है। इस के अगल-बगल क्या है? तब उनको मानना पड़ा कि कुछ है जरूर। इसके बाद उन्होंने स्वीकार किया कि पानी भी है। फिर हमने पूछा कि लहर है और पानी है, तो इन दोनों में से तुम क्या हो? उसने कहा लहर का तो मुझे अनुभव हो रहा है; परंतु, मुझे लगता है कि मैं कुछ और हूं। तब उसने कहा कि पानी हूं और पानी ही लहर है। फिर हमने कहा कि जरा देखो लहर कितनी है और पानी कितना है? तो उसने ढूंढना शुरू कर दिया। इसके बाद उसने स्वयं कह दिया कि लहर है ही नहीं, सिर्फ पानी है । हमने कहा कि और क्या बचता है? तो उसने कह दिया कि और कुछ नहीं बचता है, रह जाता है केवल पानी।
इसी प्रकार से अगर हम अपने अन्दर जागें, तृप्त होने लग जाएं, तो फिर जिसको हम कहते हैं ‘नहीं है’, वही रह जाएगा और जिसको हम कहते हैं ‘यह है’, वह सब खो जाएगा। आज जो कुछ है, वह नहीं है और आज जो कुछ तुम्हारे लिए नहीं है ,वह है। इसीलिए, हम जिस परमात्मा को इन्कार करते हैं, वह है और जिसको हम स्वीकार किए बैठे हैं कि ‘यह है ‘, वह नहीं है। पहले यह खोएगा और वही होगा। उसके बाद वही रह जाएगा और जो भी कुछ होगा, वह वही रह जाएगा। फिर सब कुछ वही है। इस प्रकार से हमको अपने अंदर प्रवेश पाना है। इसके भी द्वार खोलने हैं, जिसके दरवाजे आज तक बंद हैं।

कर्म-धर्म

हमने इधर जाने का कभी प्रयास नहीं किया। वे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो अंतरात्मा में जाने का प्रयास करेंगे। इन दो बातों पर हमें बराबर विचार करना है कि गृहस्थों के लिए भी कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। उस कर्म का भले ही हो, जिसकी लोग कल्पना करते हैं। पर मुझे लगता है कि वैसे कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। यदि कर्म का विरोध होगा, तो रोटी का भी होगा; रोटी का होगा, तो शरीर का भी होगा। लेकिन , शरीर विरोधी नहीं है, बल्कि साधन है। जब शरीर मोक्ष पाने का साधन है, तो फिर भोजन भी साधन ही है। अगर भोजन साधन है, तो फिर रुपया भी साधन है। रुपया साधन है , तो फिर कामना भी साधन है। जब कामना भी साधन है, तो फिर कर्म कैसे मोक्ष का असाधन होगा? कर्म मोक्ष में सहयोगी है; मोक्ष का बाधक नहीं है।
जो लोग कर्म से दूर भागना चाहते हैं, उन लोगों को मोक्ष तो क्या, रोटी भी नहीं मिलेगी। तुम लोग अगर दुकान बंद कर दो, तो मोक्ष तो दूर रहा, रोटी भी मिलनी मुश्किल हो जाएगी और अगर मिलती भी है, तो किसी कर्म के बल पर ही मिलेगी। मान लो एक सन्यासी बिना कुछ किए खाता है। मैंने सुना है कि कई लोगों के मत में हल जोतने में कीड़े मर जाते हैं– हिंसा होती है। इसलिए हिंसा वाला काम नहीं करना चाहिए । अगर हल न जोतें, तो हम भी मर जाएंगे और उपदेशक भी मर जाएंगे। फिर न हम रहेंगे, न हमारा धर्म और न हिंसा ही रह जाएगी। सारा ही खेल खत्म हो जाएगा। इसीलिए, इस हिंसा के बल पर तो बहुत कुछ खड़ा हुआ है। हल जोतने में हिंसा होती है, इसको हम हिंसा में नहीं ले सकते।
यह तो शरीर का और प्रकृति का नियम है, इसको हम इंकार नहीं कर सकते। यदि शरीर है, तो हम रोटी को इंकार नहीं कर सकते। यह बात दूसरी है कि एक भाई हल जोतता है तो दूसरा दुकान करता है। बहुत सारे भाई हल जोतते हैं और दुकान भी करते हैं। एक भाई अगर सन्यासी हो जाए और संसार को ज्ञान दे, वह अलग बात है। लेकिन, अगर सारे भाई सन्यासी हो जाएं, हल जोतना छोड़ दे, तो सन्यासी भी मर जाएंगे और गृहस्थ भी मर जाएंगे। इसीलिए, सन्यास का मतलब यह है कि ऐसा व्यक्ति सन्यासी हो, जो तमाम संसार को संन्यासी बनाने का तरीका बताएं। गृहस्थ को संन्यासी बनाए, उसे संन्यासी की तरह जीना सिखाये। क्योंकि जो गृहस्थ होकर भी उसमें फंसता नहीं सिर्फ अपना कर्म करता है वो सन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि शरीर है, जीवन है तोह कर्म तो करना ही होगा, उदाहरण: जैसे पेट है तो खाना तो होगा। खाना सामने है तो हाथ से उठा के मुँह में भी डालना होगा। बिना कर्म किये बिना रह नही सकते, शरीर नही रख सकते और शरीर है तो इसे रखना भी होगा जब तक है स्वस्थ रखना होगा यही धर्म है।
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं ——
“काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं,कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:।।”

विवेक चूड़ामणि

“विवेक चूड़ामणि” पढ़ाते समय हमने कहा था कि इसे विवेक चूड़ामणि क्यों बोलते हैं?  इसका मतलब विवेक ऐसा भी होता होगा जैसे कहें कि यह आदमियों का सिरमौर है। इसका मतलब कुछ आदमी नीचे लेवल के भी हैं। ऐसे ही किसी को कहें कि यह चोटी का विद्वान है। इसका मतलब सबसे ऊंचा है। तो विवेक भी ऊंँचा नीचा होता है। क्या खाना, क्या नहीं खाना? यह भी विवेक है। क्या पाप है और क्या पुण्य है; यह भी विवेक है।  मैं क्या हूँ और जगत क्या है? दृश्य क्या है और द्रष्टा क्या है; यह भी विवेक है। जड़-चेतन, आत्मा-अनात्मा, यह भी विवेक है; पर विवेक चूड़ामणि नहीं है।  तो फिर वास्तविक विवेक क्या है? वास्तविक विवेक यह है कि सब कल्पित हैं। द्वैत ही वास्तविक नहीं है।  इसलिए जहाँ आप हो वहाँ विवेक होना चाहिए।
           “एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म।”
जहाँ तुम किसी से मिल गए हो, उसे पहले अलग करो। अलग कैसे करें?  विवेक के द्वारा कि मैं देह नहीं हूँ, मैं इंद्रियाँ नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं बुद्धि नहीं हूँ, अहंकार आदि भी नहीं हूँ। तो फिर क्या हो? मेरे सिवा कुछ नहीं। “मायातिरिक्तं  यद् यद् वा तद् तद् मिथ्येत निश्चन्।”