Date Archives September 2020

नक़ाब

तुम ख़राब कर लेना अपने कपड़ों को

तुम दाग लगा लेना उनमें घुलने को

पर दिल ख़राब नहीं करना

बिना जाने, बिना समझे

तुम हिसाब नहीं करना

गाँठ पड़ जाएगी, बल आ जाएँगे इस रस्सी में

गले से भर के मुझे जज़्बातों से

तुम सवालात नहीं करना

आखों में देख लेना

सको तो पढ़ लेना

दया की भीख ना देना

नक़ाब कर लेना -२ …

कौन? जो हमेशा है!

उलझना मत किनारों में, किनारे छूट जाते हैं। जो छूट जाते हैं उनका भरोसा क्या है? आप तो जो छूट जाते हैं उन्हीं के लिए आशीर्वाद मांगते हो कि स्वामी जी इसको बनाए रखना। ये बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी? यदि दुष्ट नहीं काटेंगे तो भगत मनौती करके देवी यहाँ काटेंगे। दुष्ट तो बकरों के दुश्मन हैं ही पर ये देवी भगत क्या हैं? यहाँ मुझे अपनी एक कहानी याद आ गई। मेरी मां की संतान होकर मर जाती थी। आप हँसेंगे कि कई पैदा होकर मर गए तब हम लोग पैदा हुए। कैसे पैदा हुए वह भी बताता हूँ। मेरी मां ने बहुत देवी-देवता मनाए। पचखोरा में एक यादव को सिद्ध बाबा आते थे, उनके आशीर्वाद से हुए। इसलिए बड़े भाई का नाम सिद्ध गोपाल रखा। इस वर्ष (सन् 2010) वो भी नहीं रहे। उनके बाद एक और हुए, फिर मैं हुआ। मेरे बाद एक और हुआ वह भी मर गया। अब देखो, हम लोग आशीर्वाद से हुए । उन्होंने मेरी माँ को आशीर्वाद दिया कि राम- लक्ष्मण की जोड़ी होएगी। और सचमुच हम चार भाई हुए । अब देखिए, हम लोग सिद्धों के आशीर्वाद से हुए, तो क्या अब मरेंगे नहीं ? एक तो पहले ही जब छोटा था तब चला गया। बड़ा अब चला गया। अब दो रह गए । क्या ये दोनों बने ही रहेंगे ? मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि कब तक ये नासमझी बनाए रखकर वरदान माँगते रहोगे? बहुत से लोग कहते हैं कि गुरु जी मेरे सर पर हाथ रख दो। अरे ! सिर पर हाथ रखवा के थोड़ा कुंडलिनी जगाते, सिर पर हाथ रखने से तुम्हें आनंद आता। पैर छूने से तुम्हें आनंद की गुदगुदी होती तो भी अच्छा था। अब कोई मेरे पैर पकड़ कर उठे नहीं तो मैं उसको क्या कहूंगा ? उसे बुरा ही बताऊँगा। कई लोग चले आते हैं, पसीने से लथपथ हैं, पसीने की बदबू आ रही है, मैं नाक सिकोड़ता हूँ; वे आशीर्वाद माँगे जा रहे हैं। मैं झूठ नहीं बोलता। मैं देना नहीं चाहता फिर भी उन्हें मिल जाए तो मैं क्या करूँ? शायद उनकी भावना का होगा, मेरी भावना का नहीं। जिंदगी को आपने समझा ही नहीं कि जिंदगी क्या है ? जिंदगी एक रहस्य है। जिंदगी का लाभ अविवेकी नहीं समझेंगे । इस नर तन का लाभ कितने ग्रंथों ने गाया है, पर कितनों ने लाभ उठाया? नर तन का लाभ है परमात्मा की खोज, सत्य की खोज।

शिवोहम

ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगंधिंपुष्टिवर्धनं उर्वारुकमिव बंधानान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात॥


मृत्युंजय! जिससे मृत्यु पर विजय होती है! मृत्यु पर विजय पाने के लिए अविनाशी को जानना बहुत जरूरी है 
पहले भी हम कह चुके हैं  अंडे के पेड़ में चढ़कर  हाथी को पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। अरंडी के पेड़ में चढ़कर हाथी को नाराज करोगे तो वह पेड़ सहित तोड़ देगा। इस शरीर में बैठकर यदि इसी के सहारे रहे तो काल खा जाएगा। कथा चाहे भागवत की हो चाहे रामायण की, कथा वैष्णव करे चाहे सन्यासी, मृत्यु से पार जाने का रास्ता एक ही है कि देह से ऊपर उठे! अपना अहम् भाव छोड़ देहोsहम से  शिवोsहम तक की यात्रा करें। यह शरीर शव है। शरीर से तुम जिंदा नहीं हो। भ्रम है तुम्हें! शरीर तुमसे जीवित है। तुम निकल जाते हो, शरीर मुर्दा होता है। भ्रम है कि शरीर से हम जीवित है। सच्चाई यह है कि तुम से शरीर जीवित हैं पर तुम इसमें रह नहीं सकते यह भी एक सच्चाई है। चाहो भी कि हम इसमें बने रहे पर नहीं रह पाओगे, देह छोड़ना पड़ेगा। इसी को लोगों ने मृत्यु कहां है। हम लोग मृत्यु से बचने का उपाय प्रारंभिक मानते हैं और बार बार शरीर में आने जाने से बचने के लिए वास्तविक साधना  मानते हैं। इस मृत्यु से यदि बच भी जाओ तो दूसरे शरीर में जाओगे, तीसरे शरीर में जाओगे। देहोsहम से मृत्यु हैं और जीवोsहम से बार-बार मृत्यु है। फिर समझ लो, मैं किसी मत की कथा नहीं कहता, हाँ थोड़ा बहुत मत की बात करता हूं तो देह को लेकर। बाकी मेरा एक ही सिद्धांत है, देह के अभिमानी की मृत्यु होती है और जीव अभिमानी की बार बार मृत्यु होती है। एक बार इस देह में मरेंगे, दोबारा दूसरे देह में मरेंगे, तीसरी बार और देह में मरोगे। जब जब देह में जाओगे मरोगे। तो करना क्या है? देह में ना आना पड़े ! देह में नहीं आओगे तो नहीं मरोगे, देह में नहीं आओगे तो भ्रम भी नहीं होगा। इसलिए एक बार देहोsहम् से  शिवोsहम् की यात्रा करनी ही पड़ेगी।

गुरु, शास्त्र क्यों?


गुरु तुमने किस लिए बनाया था? शास्त्र किसलिए सुने/पढ़े थे? सत्संग किस लिए करते हो? पूजा आदि किस लिए शुरू की थी? ध्यान का प्रारंभ क्यों किया था – क्या बात थी – क्या मजबूरी थी? कोई न कोई तो गड़बड़ी होगी ही, जिसके दूर करने के लिए किया होगा। गड़बड़ी दूर हो गई कि नहीं? यदि दूर हो गई हो, तो उसे भी छोड़ दो। कांटे से कांटा निकाल कर कांटा फेंक दिया जाता है। यह मैं अपनी तरफ से नहीं कहता हूं; ऐसा ही किया जाता है। यह तथ्य है।
शायद किसी को काट प्रतीत होता हो। कांटे से कांटा निकालकर कांटा फेंक दिया जाता है। लेकिन, निकालने के पहले ही फेंक दें तो? जब फेंकना ही है, तो पहले ही फेंक दें। आगे या पीछे में क्या फर्क पड़ता है। कुछ फर्क पड़ता है कि नहीं? यदि कांटे में पड़ता है, तो ध्यान और समाधि छोड़ने में भी पहले और पीछे में फर्क पड़ता है। पहले फेंक देने से परेशानी नहीं जाएगी और परेशानी जाने के बाद फेंक देने से कोई परेशानी नहीं आएगी। इसीलिए, काम करने का जो प्रयोजन है, वह पूरा हो जाना चाहिए।
शास्त्र का भी अपना कोई प्रयोजन है कि बुद्धि को सूक्ष्म कर दे। जो बुद्धि बहिर्मुख है, उसे अंतर्मुख होने को तैयार कर दे। जो भगवान् हमने बाहर समझा है शास्त्र उन्हें तुम्हारे अंदर ही बता दे। शास्त्र तुम्हें भगवान् को पकड़कर नहीं देगा? उसका एक ही प्रयोजन है। जब उसने बता दिया कि भगवान तुम्हार अन्दर है, तो अपने अंदर शांत होकर ध्यान शुरू करो। सुनने के बाद ध्यान और समाधि शुरू करो। सुनने के पहले नहीं। पहले शास्त्र द्वारा परमात्मा को समझो, पढ़ो और विचारों की क्या चीज है, कहां है, कैसा है? जब पढ़ लोगे, तब पता चलेगा कि परमात्मा सर्वत्र है। हममें भी परमात्मा है, यह भी नहीं; बल्कि हम परमात्मा हैं। जब यह जान लिया, तो फिर बाहर की तलाश बंद। जब आप ध्यान के योग्य हो गए, अब आप समाधि के योग्य हो गए। जब परमात्मा हममें ही है, तो क्यों भटके? क्यों कहीं जाएं? केवल शांत होकर बैठ जाएं।

लक्षण

आप जब लड़के से गुस्सा हुए तब थप्पड़ मारा। क्या उसके बाद आपने शांत मन से बच्चे से बात की? क्या दिन भर में कभी उसे समझाया? नहीं समझाया। तो फिर यह थप्पड़ तुम्हारा क्रोध था, प्रतिक्रिया थी। आपको जब गुस्सा न आए तब बच्चे से बात करो। क्रोध में बात ना करो। यदि क्रोध आया है तो ठंडे रहो। जब क्रोध पूरा उतर जाए तब बात करो। लेकिन जब पूरा उतर जाएगा तब आप बात ही नहीं करते । फिर कहते हो कि अब तो बात ही खत्म हो गई। हमारा आपसे उल्टा है। हमें जब क्रोध उतर जाता है तब खोज करते हैं कि इसके पीछे कारण क्या था? और आपका जब क्रोध उतर जाता है तो जानना ही नहीं चाहते कि क्रोध क्यों आया था? क्यों नहीं जानना चाहते? ऐसे ही जब आपको आनंद है तो ब्रह्म को जानना ही नहीं चाहते। जबकि तुम्हें जानना चाहिए। इसलिए धैर्य की बड़ी आवश्यकता है। खुशी में फूलों नहीं, दुःख में भूलो नहीं। जानने के लिए तैयार रहो। इसलिए कश्चित् धीरः कोई धीर पुरुष ही इस आत्मा को जान सकता है। नहीं तो खुशी में फूल जाएंगे, दुःख में भूल जाएंगे और आत्मा के जानने का समय ही निकल जाएगा। सिर्फ आत्मा का ही नहीं, सुधार का भी समय निकल जाएगा।

यदि तुम्हारे मन की एक बात कह दें, तुम्हारी प्रशंसा कर दें तो सब भूल गए। क्या यही जीवन का हित है? कोई पैर छू लिया तो क्या तुम्हारा भला हो गया? मनमानी कर ली तो क्या वह तुम्हारे लिए ठीक है? किसी को कोई प्यार कर ले जैसे कि आजकल नासमझ लड़के-लड़कियां कर रहे हैं, क्या वह बहुत अच्छा हो गया? धर्म गया,देश गया, संस्कृति गई। जानते हो इसके दुष्परिणाम ? जो चालाक होते हैं, खुशामदी लोग वे तुम्हें प्रिय लगने लगते हैं। इसलिए गहराई को देखो कि गहराई क्या है? इंद्रियों के विषय यदि प्रिय हैं तब भी प्रियता में धैर्य रखो । अप्रिय हैं, तब भी धैर्य रखो। हित क्या है, उस पर ध्यान दो। क्या सुख देने वाली हर क्रिया, हर पदार्थ, हर भोजन कल्याणकारी है? क्या दु:ख देने वाली कड़वी दवा, अस्वाद भोजन बुरे हैं? हम लोग तो यह भी कहते हैं कि ध्यान के सुख को भी मत लो।

न स्वादयेत सुखं कर्तृत्व निसंङ्ग प्रक्रिया भवेत।

ध्यान के सुख में नहीं फँसो, असंग बुद्धि वाले बनो। आपको तो उजाला हो जाए तो क्या कहते हो? बस, अभी तक बहुत गुरुओं के पास भटके पर आज अच्छे गुरु मिले। तुम्हें जादूगर मिल गया कि गुरु मिल गया? वह तो जादूगर है। आजकल जादूगरों के चेले बहुत हैं। आनंद आ जाए, प्रकाश हो जाए, आहा ! हा! उसके चेले हो गए। यह सब मुझे भी हुआ, मैं आनंद में रहा, पर शुरू से गुरुदेव ने वेदांत सुनाया था इसलिए प्रकाश गया, नाद गया, आनंद गया, क्रियाएं गई, कुंडलिनी गई, शरीर के चमत्कार गए, बहुत दुःख हुआ । फिर हम वहाँ पहुंचे जहाँ सुख -दुःख नहीं हैं। सुख- दुःख के पार गए। इसलिए कश्चित् धीरः, यदि धैर्यवान होगे तो ध्यान के सुख से भी ऊपर जाओगे नहीं तो वहीं फँसे रहोगे।

जो रोशनी देखी या दिखी, क्या वह तुम्हारा स्व है? (नहीं) । तो जो स्व नहीं है वह नश्वर है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि नश्वर कीमती नहीं है। कीमती है पर तुम्हारा स्व नहीं है। यह व्यतिरेक है, यह न रहने वाला है। ये उजाला, प्रकाश, कुंडलिनी; सब बहुत अच्छे हैं, आगे ले जाने में मदद कर सकते हैं बशर्ते गुरू अच्छा हो। नहीं तो, यही तुम को बाँधकर, पकड़कर अटका देंगे इसलिए कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्। यदि ना मरने वाले को खोजने चले हो तो कहीं रुकना मत। खोजना है तो चल गहराई पर …….। देखो, यहाँ डूबना नहीं कहा। मैं जानकर बदल रहा हूँ
खोजना है तो चल गहराई पर,
साहिल (किनारे) के लिए बेताब ना हो।
नादाँ, ये दरिया- ए- मोहब्बत के कहीं किनारे होते हैं ?
तू कहाँ पकड़ रहा है किनारे ? कि अक्सर तुबियानी में डूब जाते हैं। निगाहें रख तू कश्ती पर ओ साहिल के तमन्नाई । निगाहें कश्ती पर रख, किनारे मत देख। किनारा देखेगा तो नाव चलाना भूल जाएगा। निगाहें रख तू कश्ती पर ओ साहिल की तमन्नाई कि अक्सर तुबियानी में डूब जाते हैं किनारा देखने वाले । और किसी को देखने वाले डूब जाते हैं । इसलिए जो भी और है, चाहे रोशनी हो या और कोई, बल्कि यह भी कहा है कि भगवान भी सामने आए तो तू कह सके कि जा तू दृश्य है, धोखा देने वाला है, ना रहने वाला भगवान है, चोखा नहीं है, धोखा है। चोखा भगवान तो तेरे साथ है, अंग- संग है। जो मिलता है वह बिछड़ जाता है। मिलकर बिछड़ जाने वाला भगवान भगवान नहीं है। इसलिए धैर्य रखो, जल्दी खुश मत होओ। जल्दी लक्ष्य को पा लें; ऐसा मत सोचना।धीरे-धीरे चलते जाओ। धीरे- धीरे, चलते -चलो, चलते-चलो।

धैर्य

धैर्य की, धर्म की, मित्र की और स्त्री की संकट में ही परीक्षा होती है। आप राष्ट्र भक्त हैं, यदि देश पर संकट आ जाए तो आपकी कसौटी हो जाएगी। यदि पार्टी में मान न मिले तो पार्टी से नाराज होगे कि देश से? ….. तो धैर्य क्या है? विपरीत परिस्थिति में भी डगमगाना नहीं, धैर्य है। दूसरा, सुख से बचना। जब सुख मिलता है तब आप भोगना चाहते हो या नहीं? भोगना चाहते हो! जब सुख भोग सकते हो तो दुःख क्यों नहीं भोगते? पर होता क्या है, आप सुख से बच नहीं पाते।
सुख में जो त्यागी बन सके और दुःख में होते न उदार।
….. सुख में सुखी, दुःख में दुखी होना सभी नर जानते हैं। यह मेरी एक कविता की लाइन है। रामायण में भी है- सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।। ‘धीर’ शब्द तो बहुत जगह है। जो सुख में सुखी, दुःख में दुःखी सभी नर हो जाते हैं, जानते हैं, सहज है । मान में फूलना, मान न मिलने पर बौखलाना किसे नहीं आता ? यह तो नेचुरल है लेकिन धैर्य नेचर के विपरीत है। धैर्य प्रकृति के विपरीत है, पर तुम्हारे हित में है।

इंजेक्शन का कष्ट मालूम पड़ना स्वाभाविक है, यह नेचर है। ऑपरेशन में तकलीफ होना नेचर है, परंतु धैर्य रखना आपके हित में है। धैर्य कभी हानि नहीं करता। घर में धैर्य रखो तो परिवार में नर्क नहीं आएगा। धैर्य छोड़ा तो गड़बड़ है। इसीलिए कहा है- धीरज धरहिं तो लागे पारा, नहीं तो डूबे माँझी धारा। ‘धीरज’ शब्द का प्रयोग बहुत जगह है,पर किस अर्थ में है? परिस्थितियों में डटे रहना, भागना नहीं, जागना। यदि आप अकर्ता और अभोक्ता होना चाहते हो तो धैर्य रखो। या यूँ समझो कि प्रतिक्रिया धैर्यहीन को होती है। तुरंत रियेक्ट (प्रतिक्रिया) करना जैसे, पानी में पत्थर फेंका तो लहर उठी वह रिएक्शन (प्रतिक्रिया) है। यह पानी का कर्म नहीं है, रिएक्शन है। आपको कुछ बुरा कह दिया तो आप में क्रोध पैदा हो गया; यह रिएक्शन है। आपकी प्रशंसा की, आपका चित्त खुश हो गया, चेहरे पर रौनक आ गई; यह रिएक्शन है, अधैर्य है, धैर्य नहीं है। आप सम्मान भी झेल नहीं पाए, आप अपमान भी झेल नहीं पाए । राम वनवास को भी झेल गए। इसलिए राम में धैर्य है, राम धर्मात्मा हैं, राम धर्म के साक्षात् विग्रह हैं। धर्म भी धैर्यवान के पास रहेगा। जिसमे धैर्य नहीं हैं उसमें शांति भी नहीं रहेगी। जिसमें धैर्य नहीं उसमें धर्म भी नहीं रहेगा। जिसमें धैर्य नहीं है उसमें ब्रह्मज्ञान भी नहीं रहेगा। धैर्यहीन व्यक्ति को ब्रह्म ज्ञान नहीं होगा। इसलिए धैर्य की बड़ी आवश्यकता है। छोटे स्तर का धैर्य नहीं, बड़े स्तर का। कोई विरला ही धैर्यवान होता है जैसे, भगवान राम वनवास में भी उनका मुख कुम्हलाया नहीं। यह श्लोक मैं पहले ही बोल चुका हूँ- –
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥

(अर्थ:-रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामचन्द्रजी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक से (राज्याभिषेक की बात सुनकर) न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन ही हुई, वह (मुखकमल की छबि) मेरे लिए सदा सुंदर मंगलों की देने वाली हो॥)

इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें लोग लूटते रहें और तुम सहते रहो। तुरन्त प्रतिक्रिया न हो। फिर यदि कोई मारने लायक हो तो मार दो, लड़ने लायक हो तो लड़ो; पर उस सेकंड कुछ व्यक्त हुआ है तो वह सिर्फ प्रतिक्रिया है, क्रोध है।

जहाँ हैं वहां से शुरू करें

अब कोई व्यक्ति भयवश भी झूठ बोलता है, स्वार्थवश भी झूठ बोलता है, तो जिस में भय नहीं है, स्वार्थ नहीं है वह झूठ नहीं बोलता। उसकी वाणी शास्त्र है! उसके उपदेश को मानना! कथा भी…… स्वार्थी लोग भी कथा करते हैं, अपने स्वार्थ की बातें ज्यादा कहते हैं। सत्य कम कहते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ सिद्ध होगा। सत्य बोले तो स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। जैसे एक बात हम कभी बोलते हैं – यतयाः कंचनं दत्वा यति को स्वर्ण दान देने वाला, तांबूलं  ब्रह्मचारिणं ब्रह्मचारी को पान देने वाला, चौरेपि अभयं दत्वा  और अपराधी प्रकृति वाले को अभय देने वाला कि तुम चिंता ना करो हम तो हैं माने अपराधी को अपराध करने की स्वतंत्रता देने वाला , दाता नरकं व्रजेत् देने वाला नर्क जाता है।
इसलिए जो स्वार्थी होगा वह सत्य नहीं कहेगा। आप्तकाम पुरुष जो कहते हैं वह प्रमाण हैं। यदि वह कहे तो झूठ नहीं है। पर सबका कहा सत्य नहीं हो सकता। तो……. वह भी कह रहे थे अनुभव प्रमाण नहीं है। हां, अनुभव के आधार पर आपको यहां से चलना होगा। जैसे हम जन्म मरण का अनुभव करते हैं पर यह हमें पसंद नहीं है, इसके छूटने की इच्छा होगी तो आप अपने अनुभव से ही चलेंगे। इसको कहते हैं जो जहां खड़ा हो वहीं से तो चलेगा। तो वह चलना अलग है। आप दिल्ली से हरिद्वार आना चाहते हैं तो दिल्ली से चलेंगे। अब दिल्ली वाला आदमी मोदीनगर से नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? और मोदीनगर वाला व्यक्ति मोदीनगर से ही चलेगा और रुड़की वाला रुड़की से ही चलेगा, दिल्ली से नहीं। हरिद्वार ही आना है, पर वह जहां खड़ा है वहीं से चलेगा। तो बात यह है कि हम कहां खड़े हैं! हम मनुष्य है कि हम जीव है? क्या है हम? तो जो हम हैं वही से तो यात्रा शुरू करें! यदि हम जन्म मरण वाले हैं तो अविनाशी से यात्रा शुरू नहीं होगी। अविनाशी तक तो यात्रा पूरी होगी, वह आपका गंतव्य है, आप वहां पहुंचना चाहते हैं। आप दुख में हैं तो दुख से पार जाने की इच्छा होगी। होगी ही! और पार जाने के लिए आप चलेंगे। अब यह तो नहीं कि पहले आप आनंद में खड़े हैं, शांति में खड़े हैं, मुक्त है, तो यात्रा की क्या जरूरत? यदि हरिद्वार में ही हो, अखंड परमधाम में ही हो तो अब यहां से कहां जाना? तो जैसे व्यवहारिक जगत में हम अपनी जगह से ही चलेंगे ऐसे ही आध्यात्मिक मार्ग में जिस अनुभूति पर हम टीके है उस अनुभूति की ओर जाएंगे जो हम चाहते हैं। अभी हमें अनुभूति है जन्म मरण की। यह हमारे लिए कल्पना नहीं है। यह हमारे लिए अभी यथार्थ है। यह हमारा सत्य है कि हम मरने वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम दुख सुख वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम करते हैं, हम अपने कर्मों का फल भोगते हैं। तो यहां से यात्रा शुरू करोगे। शास्त्र और सच्चा गुरु कथा वहीं से शुरू करता है जहां तुम हो और आगे पहुंचाता है धीरे धीरे। तो यह आवश्यक है जहां हम हैं वहां से यात्रा शुरू करेें।

कौन भगवान?

आप मरे जग प्रलय
पहले तुम्हारा अज्ञान मर जाए, फिर पीछे ज्ञान भी मर जाएगा। ज्ञान भी बचता नहीं है। पहले तुम्हारा अहंकार मर जाए, पीछे परमात्मा भी मर जाएगा अर्थात् परमात्मा भी अहंकार के साथ ही खत्म होता है। अहंकार के कारण ही भगवान् की तलाश है कि वह कहीं होगा। जिस दिन अहंकार मर जाएगा, उस दिन भगवान् भी किसी दुनिया में नहीं मिलेगा, न ढूंढना पड़ेगा। उस दिन भगवान् भी गए। तुम हो, तो भगवान् भी है। तुम्हारा अहंकार मरेगा, तो भगवान् भी नहीं रहेगा। फिर जो रह जाएगा, उसे भगवान् न कर पाओगे, “मैं” न कह पाओगे। जब “मैं” हूं, तो भगवान् कहूं; दो हैं , तब तक कहूं। पर जब दो ही न रहे, तो भगवान् बचा कि भक्त बचा? क्या कहोगे? यदि भक्त कहोगे, तो कोई भगवान् होगा। बिना भगवान् के कोई भक्त नहीं होता। यदि कहो कि भगवान् बचा तो भगवान् अकेले किसका भगवान्? यदि भक्त नहीं बचा, तो किसका है भगवान्? भगवान भी किसी का होता है ।
ईश्वर माने किसी का मालिक। यदि कोई कहे कि प्रजा न बचेगी, राजा बच जायेगा। यह वाक्य बिल्कुल गलत है। यदि प्रजा नहीं बचेगी, तो राजा कैसे बचेगा? यदि कोई कहे कि प्रजा भर बचेगी, राजा न बचेगा। तो प्रजा होती किसकी है? वह प्रजा प्रजा ही नहीं यदि राजा न हो। प्रजा तो उसी को कहते हैं, जो कि शासन में हो। इसीलिए, भक्त बचेगा, तो भगवान् बचेगा और भगवान बचेगा, तो भक्त बचेगा। एक चला गया, तो दूसरा अपने – आप साफ हो जाएगा।
अब बताओ तुम मरना चाहते हो या भगवान् को मारना चाहते हो? गुरु को मारना चाहते हो कि तुम मरना चाहते हो? किसमें ज्यादा अच्छाई है? तुम कहोगे कि भगवान् ही मर जाए, तो अच्छा है। हम बचे रहें । किंतु , भगवान् का मारा जाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम उनके मारने के लिए जिओगे, तब तक वे जबरदस्ती जिंदा रहेंगे। तुम्हारे जिंदा रहने से भी वे जिंदा हैं। यदि तुम भगवान् को मारने के लिए जीते रहोगे; तो कितना ही मारो, पर भगवान् मरेंगे नहीं । यदि चेले जीते रहें , तो यह सत्य है कि गुरु तमाम पैदा हो जाएंगे। इसीलिए, ज्यादा अच्छा यह है कि किसी को मारने से पहले तुम स्वयं मर जाओ। “आप मरे जग प्रलय” ऐसा हमने सुना है। तुम मर गए, तो भगवान् भी मर गया, मुक्ति भी मर गई मर गई, मन भी मर गया, अशांति भी मर गई और शांति भी खत्म। अधमरे में मिल जाएगी मुक्ति , अधमरे में मिल जाएंगे भगवान्। पूरे मर जाओगे, तो न भगवान् मिलेंगे और न तुम रहोगे।
भगवान् थोड़ा-थोड़ा मरने से मिल जाते हैं; पूरे मरने पर नहीं मिलते और बिल्कुल बचने पर भी नहीं मिलते। पूरे जो बचते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। और जो पूरे मर जाते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। मिलना और मिलाना अधमरों का है। जो अपने को पूर्ण बचाए हैं, वे तड़पते रहें; उन्हें भगवान नहीं मिलते। यदि पूरे मर जावेंगे, तो फिर मिलेंगे किसको? इसीलिए, यह मिलने – मिलाने का भाव ही बीच में रहता है। जो जानते हैं, वे यही जानते हैं कि क्या मिलना है और क्या किससे मिलना है।

समझ सको तो समझो

गुरुजी कह रहे थे कि तुम निर्विकार हो जाओगे, तुम अविनाशी हो जाओगे; यह सुनकर देहाभिमानी अविनाशी बनने के लिए चला। लेकिन गुरुजी के चेले बनने के बाद भी देह  बूढ़ा हो गया। देखो, मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ न!  पर एक बात है, जब तक बुढ़ापा आया तब तक समझ बदल गई। गुरुजी के पास आए थे मरने से बचने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि शरीर मैं नहीं हूँ। गुरुजी के पास आये थे निर्विकार होने के लिए, गुणातीत होने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि  गुण मैं नहीं हूँ। गुणातीत होना नहीं है, गुणातीत हूँ। गुणों  के रहते, गुणों के बदलते मैं  गुणातीत हूँ।  जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये तीनों गुणों की अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति तमोगुण की अवस्था है, स्वप्न रजोगुण की और जाग्रत सत्त्व गुण  की अवस्था है।  और मैं इनका साक्षी गुणातीत हूँ। शंकर भगवान तमोगुण के देवता है पर वे गुणातीत हैं। विष्णु भगवान सत्त्वगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। ब्रह्मा जी रजोगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। गुण हैं तो शरीर है पर आप शरीर नहीं हो। शंकराचार्य कहते हैंः  नाहं देहोऽहमात्मेति।  मैं देह नहीं हूँ। ये शब्द कब बोले?  जब उनका देह नहीं था तब बोले क्या? नहीं, देह के रहते बोले कि मैं देह नहीं  हूँ। गुणों के रहते तुम गुणातीत हो सकते हो। जब गुण ही नहीं होंगे तो गुणातीत कैसे?  नदी ही न हो तो पार कैसे किया?  पार तो तभी करते जब नदी हो।

     गुण हैं, गुण देखते हैं, परिवर्तन दिखता है और इसी में देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन बंद हो जाए तब तो मूर्ख भी देख लेगा।  परिवर्तन बंद नहीं होता तब भी देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता।

अजन्य को जानो

साधनाजन्य अवस्था के कारण तुम्हारा रोना नहीं मिटेगा। चलो, तुम्हें बहुत अच्छा शरीर मिल गया, गदहे का नहीं मिला, कुत्ते का नहीं मिला पर क्या तुम्हारा रोना मिटा?  अवस्था मिल भी जाएगी तो क्या उसके जाने का रोना मिटेगा?  मैं कहा करता हूँ कि भोगी जवानी के खोने से रोता है और योगी समाधि के खोने रोता है। रोना तो दोनों का ही नहीं मिटा। रोना तो सिर्फ आत्म ज्ञानी का ही मिटता है। इसलिए सत्य की प्राप्ति के लिए चित्त में योग्यता चाहिए और योग्यता साधना से आती है पर समझ  तो गुरु वाक्यों से, महावाक्यों से, ग्रंथों से आती है।

     इसलिए साधना को नकारना नहीं, साधना आवश्यक है। यदि साधना नहीं करोगे तो इतनी गहरी समझ नहीं आ सकती और यदि साधना से सुख लेने लगे, समाधि का आनंद लेते रहे तो फिर विलगाव का दुःख भोगोगे । प्रधानमंत्री तो कोई न कोई बनेगा ही, बनाना पड़ेगा क्योंकि काम करना है। अब सदा के लिए वही बना रहे तो रोएगा।  ऐसे ही जवानी तो होगी। साधु का भी शरीर होगा पर उसको यदि रखना चाहेगा तो रोएगा। ऐसे ही समाधि  बहुत अच्छी अवस्था है पर जाएगी तो रोना होगा। तो फिर कौन है जो नहीं जाएगा, समाधि कि सत्य ? जो नहीं जाएगा वह सत्य है और जो जाएगा वह प्रकृतिजन्य है, साधनाजन्य है। समाधि साधनाजन्य है, आत्मा अजन्य है अविनाशी है। जब तक अविनाशी, अजन्य को नहीं जानोगे तब तक सूक्ष्म के प्रवाह में फँसे रहोगे। एक स्थूल में फँसा है, एक सूक्ष्म में फँसा है। ज्ञानी सबसे मुक्त है, गुणातीत है।
इस सत्य को सुनो और समझो।