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जीवन का सत्य

क्रिया जनित सुख में “राग” ही विषयानंद की वासना है। क्रिया द्वारा मिले हुए सुख का संस्कार मन पर छूट जाता है; फिर उस विषय की चर्चा से, समघटना के दर्शन से या एकांत चिंतन से, क्रिया जनित सुख का पड़ा हुआ संस्कार जाग जाता है। बस यही है “काम”; जिससे फिर उसी कर्म करने की मन में कामना होती है। यदि कामना की पूर्ति की गई, तो पराधीनता, कामना वृद्धि, शक्ति -ह्रास और असमर्थता है। कामना दमित की गई, तो बार-बार याद आएगी और संस्कार गहरा होगा तथा अन्त: में प्रवेश कर जाएगा। अन्त में, ओझल तक हो जाएगा; किंतु, मिटेगा नहीं और फिर कभी न कभी बाहर आएगा। फिर दमन के लिए उतना ही बल प्रयोग करना पड़ेगा।
दमन से संस्कार की मौत नहीं होती या क्रिया जनित सुख का राग – विषासक्ति नहीं मिटती। अतः क्रिया रहित होकर मन में होने वाले संस्कारों को उठने दिया जाए और साक्षी, असंग, शांत और मौन होकर सहज भाव से देखा जाए। उठने वाले संस्कार का न तो रस लिया जाए और न उससे द्वेष किया जाए; तो संस्कार अपने- आप आना बंद कर देंगे। उस स्मृतिशून्य, अप्रयत्न दशा में, जो आनंद स्वयं में मिलेगा; उससे क्रिया जनित सुख का राग मिट जाएगा; विषयासक्ति नहीं रहेगी; तब आवश्यक कर्म स्वत: होने लगेंगे। स्व में, आनंद से पूर्ण दशा में, सहज होने वाले कर्म का नाम ही सदाचार है। आत्मतृप्ति के बिना सदाचार का जन्म हो ही नहीं सकता। आत्मतृप्ति के अभाव में, विषय सुख के प्रति आकर्षण रहेगा। विषयाकर्षण के रहते, विषय का त्याग सदाचार नहीं है; इसे मिथ्याचार कह सकते हैं।

“कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।”

इस साक्षी साधना और ध्यान से बड़ी कोई ध्यान-साधना नही है।

धार्मिक चित्त

एक -दूसरे के विरोध के नमूने भारत और विदेश हैं। आजकल के साधुओं और गृहस्थों को पूर्णता की उपलब्धि नहीं हुई। भारत, विदेश के विज्ञान का भूखा है और विदेश भारत के अध्यात्म के भूखे हैं। गृहस्थ भोगों से अतृप्त है, शांति का भूखा है तथा सामान्य साधु – समाज, अर्थ और आश्रय का भूखा है और इसी के पाने की चिंता में निमग्न है। साधुओं में इन्हीं के लिए संघर्ष होते हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से चित्त अंतर्मुख और शांत नहीं हो पाता। अशान्त और बहिर्मुख चित्त दृढ़ आत्मस्मृति को भी उपलब्ध नहीं होता। अतः, पदार्था भाव में आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से अध्यात्मिक साधन भी असंभव हो जाते हैं और चित्त पदार्थों की तरफ गतिमान होने लगता है। धर्म के अभाव में चित्त, आत्मा, परमात्मा, सत्य, मुक्ति और शांति इनके विषय में बिल्कुल ही अपरिचित रह जाता है। इनकी खोज में धार्मिक चित्त ही प्रवृत्त होता है। जो इनकी खोज में साधन रत है, उसी को मैं धार्मिक चित्त कहता हूं।
धर्मविहीन जीवन बिल्कुल बाह्य हो जाता है। उसका उद्देश्य शरीर – रक्षा, भोग -प्राप्ति, महत्त्वाकांक्षा और अधिकार- रक्षा का रूप ले लेता है। वह कठिन से कठिन श्रम करके भी इन इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता; क्योंकि; बाह्य पहलू-बाहर की यात्रा, “क्षितिज” को छूने जैसा प्रयास है; जो सदा समीप, पृथ्वी को छूता हुआ और प्राप्य भासता है। किंतु, “क्षितिज” की प्राप्ति, कठिन ही नहीं असम्भव है। मृगतृष्णा का जल दिखता है, पर, प्राप्त नहीं होता। और इसी इक्क्षा में मनुष्य जन्म जन्मांतरों तक भटकता रहता है। उसे चाहिये कि किसी ब्रह्मनिष्ठ गुरु को खोजे उनकी शरण जाए और इसे समझे यही मानव मात्र का ध्येय और उद्देश्य होना चाहिए। यही धर्म का विज्ञान है, धर्म है। धर्म अनुशासन सिखाता है और अनुशाषित व्यक्ति ही स्वयं को जीत सकता है ये कोई बाहरी लड़ाई नही सिर्फ अंतर युद्ध शिक्षा देता है।

भगवान क्या है?

जो दिखाई दे रहा है, भगवान का खेल है और जो भीतर जानने वाला है वह भगवान ही बैठा हुआ है और आप? आप या तो दिखने वाले हैं या देखने वाले हैं। अब आप बीच में हैं। जैसे समझाये – धान, तीन नाम हम आपको बताते हैं, छिलका, चावल और धान। हम धान को पहले लाते हैं, फिर धान में से छिलके को एक और तथा चावल को दूसरी ओर कर देते हैं। अब धान को पूछते हैं, तुम किधर हो?
ऐसे ही जो ‘मैं’ हैं न ‘मैं ‘, यह’ ‘मैं ‘एक तरफ है ‘देह’ और एक तरफ है ‘चेतन’। चेतन है चावल और देह है छिलका तथा अन्तःकरण, वृतियां आदि भी हैं छिलका। अब रहा यह मैं। यह’ मैं ‘चावल है या छिलका अर्थात आत्मा है या देह। पहले यह ‘मैं’ एक नाम था, धान’, अब दो नाम हो गये, चावल और छिलका तथा धान नाम गया। अभी तक “मैं” नाम देह और चेतन का मिला जुला नाम था। अब अलग – अलग कर दिए तो एक तरफ तो चले गए देह, मन, बुद्धि, अहंकार आदि और एक तरफ बचा चेतन।
अब “मैं” कहाँ गई? अब धान को या तो गायब कहें या चावल कहें या छिलका कहें। अब धान को चावल कहेंगे। क्योंकि चावल पाने के लिए ही धान की कटाई व छनाई की थी, छिलका पाने के लिए नहीं।
इसी प्रकार से “मैं” को ब्रह्म बनाने के लिए ही “मैं” की कटाई की, छनाई की, अर्थात सत्संग किया, स्वाध्याय किया, ध्यान किया। अतः यह “मैं” ब्रह्म, चैतन्य (यदि “मैं” रखना ही है तो) अन्यथा ‘मैं’ को मार दो। बस, चैतन्य है और जड़ है ‘मैं’ आदि कुछ है ही नहीं। चैतन्य है तो चैतन्य को कोई भय नहीं, मौत नहीं, अपना-पराया नहीं। यह जो ‘मैं’, “मैं” लगता था, वह तो अलग करते ही मर गया।
आप ही बताइए, इतनी मेहनत करके धान बोए थे, छिलके के लिए या चावल बढाने के लिए ? स्वाभाविक है कि चावल बढ़ाने के लिए। ऐसे ही, यह “मैं” जन्मा है, “मैं” बढ़ाये हैं। किसलिए? ब्रह्म ज्ञान के लिए, ब्रह्म होने के लिए या “मैं” आदमी होने के लिए? अतः बोध के पश्चात्, विवेक के पश्चात् चैतन्य अनुभव करें। ऐसा लगे जैसे ब्रह्म ही ब्रह्म है, ब्रह्म ही ब्रह्म है। “मैं” पहले देह के साथ एक था, अब चैतन्य के साथ एक हो गया। जो छिलका प्रधान होकर बोलते हैं वह कहते हैं, इस वर्ष धान बहुत हुए और कई लोग कहते हैं, इस वर्ष चावल बहुत हुए। बोलने की भाषा है। जो छिलका लगाकर बोलते हैं, वह धान कहते हैं और जो थोड़ा भीतर ध्यान लगाकर कहते हैं वह चावल कहते हैं। केवल दृष्टि का अन्तर है। अपनी दृष्टि को स्वरुप की ओर करें। सिर्फ अपनी दृष्टि को ही बदलना है। अपने आप दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाएगी आप सर्वस्य चेतन स्वरूप में खुद को या उसको खुद में महसूस करेंगे। गुरु सिर्फ जीवन में यही करते हैं की दृष्टि को उस ओर कर देते हैं जैसे हम रेडियो की फ्रिक्विएंसी बदल देते हैं फिर वही स्टेशन पकड़ता है और सही स्टेशन पकड़ता क्योकि इससे परे कोई ज्ञान नही, यही शाश्वत है सत्य है, भगवान है। आज जानो या कल जानना, समझना, घुलना, मिलना इसी में है तब तक चैन ना पाओगे क्योकि जन्म का कारण, देह का कारण ये सत्य जानना ही है…..अस्तु

दुःख को सदा के लिए ही मिटाएं

दुःख सबको एक ही है और अनादि है। इसीलिए, वह बना ही रहता है यदि मिटेगा, तो सदा के लिए ही मिटेगा। कष्ट आवश्यकताओं की अपूर्ति से होता है और आवश्ककतायें सामयिक होती हैं-सदा नहीं रहती। कष्ट भी सदा नहीं रहते, आते – जाते रहते हैं। शरीर रहते कष्ट सदा के लिए नहीं मिटते; किन्तु ,दु:ख जब भी मिटता है, सदा के लिए मिटता है। प्राणी मात्र की एक और मांग स्वभाविक है। यह कुसंग या सुसंग से पैदा नहीं हुई और न कुसंग या सुसंग से इसकी निवृत्ति ही हो सकती है। आत्मविस्मृति से आनंदमय जीवन की मांग पैदा हुई है और आत्म जागरण से ही इसकी पूर्ति होगी। आवश्यकताएं भी कुसंग और सुसंग से पैदा नहीं हुई। वे प्राकृतिक हैं। उनकी निवृत्ति कुसंग या सुसंग से नहीं हो सकती। उनकी पूर्ति पदार्थों से ही हो सकती है।
लोभ , काम , मोह , अभिमान और अहंकार में भेद
आत्मविस्मृति से पैदा हुई मांग की पूर्ति न होने से अंदर अभाव का अनुभव होता है। उनकी पूर्ति के लिए, बाह्य पदार्थों से जो आशा का जन्म हुआ है; उसी का नाम इच्छा है। इसीलिए, तत्व बोध के बिना इच्छाओं की समाप्ति नहीं हो सकती। आंतरिक आनंद के अभाव में वस्तु से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम लोभ है। स्त्री या पति से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम काम है, परिवार से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम मोह है, पद से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम अभिमान है और इंद्रियों तथा विषयों से सुख पूर्ति का नाम अहंकार है। जब इन ऊपरी चीजों की इक्षा को सर्वस्य समझ कर पूरी करते रहोगे फसे रहोगे तब तक, जब तक आंतरिक इक्षा या सत्य नही जान लेते और उसे जानकर स्वयं सर्वस्य नही हो जाते।

आत्मा का स्वभाव


एक सज्जन ने पूछा है कि आत्मा निर्गुण है, उसमें देखने का गुण नहीं हो सकता और प्रकृति जड़ है, इसलिए वह देख नहीं सकती। फिर देखा कैसे जाता है? ( देखता कौन है )?
देखना, जानना और अनुभव करना किसका धर्म है ?
परमात्मा या आत्मा, जो चैतन्य है, उसमें देखने का गुण नहीं है; क्योंकि, वह निर्गुण है। जिसमें कोई गुण नहीं होता, उसमें देखने का भी गुण नहीं होता; तभी तो उसे निर्गुण कहते हैं। निर्गुण देख नहीं सकता। प्रकृति गुण वाली है, उसमें गुण हो सकते हैं; लेकिन, वह स्वयं जड़ है; इसलिए, उसमें भी देखने का गुण संभव नहीं है। जानने का गुण संभव नहीं है। फिर यह देखना, जानना और अनुभव करना किस का गुण है? कौन अनुभव करता है? इस प्रश्न पर विचार करना है।
आप लोग यह जानते हैं कि आपको आंखों से रूप दिखाई दे रहा है और कानों से प्रवचन सुनाई पड़ रहा है। यह स्पष्ट है। इस सत्य को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। आप यह भी जानते हैं कि स्वप्न के समय इन आंखों से दिखाई देना और कानों से सुनाई देना बंद हो जाता है। फिर यह देखना धर्म किसका है?
यदि हम दूरबीन ले लेते हैं, तो बहुत दूर तक दिखाई देने लग जाता है और यदि हम दूरबीन को उतार देते हैं, तो जिस चीज को देख रहे थे, उस चीज का दिखना बंद हो जाता है। हम एक खुर्दबीन ले लेते हैं, तो ऐसे अवयव, जो कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं, दिखाई देने लगते हैं। जब हम उसे हटा देते हैं, तो दिखाई देना बंद हो जाता है। ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो आंखों से सीधी नहीं दिखाई देती। देखना गुण क्या दूरबीन का है या खुर्दबीन का है या नेत्र का है? क्या कहेंगे? दूरबीन से वह वस्तु दिखाई पड़ती है और दूरबीन के बिना दिखाई नहीं पड़ती। तो देखने की जो सामर्थ्य है, वह नेत्र की है या दूरबीन की है?
हम इस बात को और स्पष्ट करेंगे। यदि आप देखना गुण खुर्दबीन या दूरबीन का कहेंगे, तो हम आपकी आंखें हटा लेते हैं। अब कहो खुर्दबीनें और दूरबीनें देखेंगी? एक के बाद एक कितनी ही दूरबीनें लगा दीजिए; किंतु, वस्तु का दर्शन नहीं होगा। आप यह भी जानते हैं कि यदि दूरबीन हटा लेते हैं, तो वस्तु दिखाई देना बंद हो जाती है। इस समय भी आंखों में देखने का गुण है; किंतु, दिखाई नहीं देता दूरबीन उसका साधन बनती है; साधन न होने पर दिखना बंद हो जाता है। इसी तरह आँखे भी साधन ही हैं। साधन और साध्य को समझना होगा बारीकी से जानना होगा तभी मानोगे और बुद्धि में छपेगा नहीं तो सुनने का मनोरंजन होगा कल तक सब भूल जाओगे इसलिए इसे समझने का सतत प्रयास ही इस से भलीभांति अवगत करा सकता है।

भौतिकवाद और अध्यात्मवाद

जीवन के दो पहलू-आंतरिक और बाह्य
जब हम अपने जीवन को शांत और स्वस्थ होकर सही रूप में देखते हैं, तब हमें जीवन के दो पहलू दिखाई देते हैं – आंतरिक और बाह्य। आंतरिक जीवन में हमको सत्, चित् और आनंद की मांग तथा बाह्य जीवन में रोटी, कपड़ा, मकान और पदार्थों की आवश्यकता है। इनमें से किसी की भी पूर्ति न होने से जीवन पूर्ण नहीं हो सकता; क्योंकि, बाहरी आवश्यकताओं के पूर्ण न होने पर जीवन कष्टमय और आंतरिक मांग पूर्ण न होने पर जीवन दुःखमय हो जाता है। अतः, आंतरिक दुख और अभाव की समाप्ति के लिए जीवन में सत्- चित्- आनंद , शांति , स्वाधीनता और पूर्णता उपलब्ध हो जाती है। शारीरिक व्यवस्था के लिए, कर्म द्वारा अन्न, धन और मकान आदि उपलब्ध हो जाते हैं, जिनसे उचित शारीरिक व्यवस्था हो जाती है। इस प्रकार जीवन के बाह्य पहलू में होने वाले कष्ट और आंतरिक पहलू में होने वाले जीवन के आनंद और ज्ञान का अभाव मिट जाता है।
बाह्य जीवन भौतिक और परिवर्तनशील होने से सब की आवश्यकताएं एक समान नहीं रहती। वह व्यक्ति, देश, काल और अवस्था के अनुसार बदल जाती हैं । लेकिन, प्राणी मात्र की आंतरिक मांग या आंतरिक इच्छा एक ही है। किसी जाति, संप्रदाय या वर्ग विशेष की आंतरिक मांग में कोई भेद नहीं है।


धर्म क्या है ?
आंतरिक मांग की पूर्ति के विज्ञान को ही धर्म कहते हैं। इसीलिए मानव मात्र के धर्म में किसी प्रकार का भेद नहीं है। सब की मांग और मांग – पूर्ति का साधन एक ही है। हमारी बाहरी आवश्यकताओं की पूर्ति में भेद है; क्योंकि, देश, काल, व्यक्ति और आवश्यकताओं में भेद हो जाता है। इसीलिए, सबका बाह्य जीवन एक ही समान नहीं हो सकता। किंतु, प्राणी मात्र की आंतरिक भूख एक और उसकी खुराक भी एक ही है-आत्मा। आत्मा, “आत्मा” से ही तृप्त हो सकती है, पदार्थ से नहीं। अतः, धर्म एक ही है– आत्म प्राप्ति , आत्म जागृति, आत्मानंद।
मानव की मांग जो वो इसी जन्म में जान जाये तो धन्य हो जाये मुक्त हो जाये।

मोक्ष के लिए दृश्य से मुक्ति आवश्यक

यदि, मन को समाप्त करना है; यदि मोक्ष पाना है; तो पहले दृश्य से मुक्त हो जाओ; क्योंकि, दृश्य ही, दृष्टा  के जीने के लिए हमें लकड़ी देता रहता है। अधिक खतरे की बात तो यह है कि दृष्टा अपने को न देखें, तो दृश्य ही दृश्य भाषता रहता है। यद्यपि, लकड़ियां सुलगती हैं – कुछ देर अधिक धुआं उठता है – विचार और द्वंद मचता है; लेकिन, यदि नई लकड़ियां मिल जाती हैं, तो लपटे उठती हैं। अब दृष्टा और दृश्य के बीच में एक प्रकार का संघर्ष पैदा होता है। इसका फैसला नहीं कर सकते। ये तो तब हो, जब लकड़ियों को कुछ दूर करें। तब हमें लगे कि हम कुछ हैं और ये कुछ हैं।
       यदि इस प्रकार की आग, दस – बीस  जगह जल रही है और उनकी अपनी – अपनी लकड़ियां और अपनी-अपनी आग है, तो वे  सब अपने को कहती होंगी कि वे अग्नि हैं। ये उनकी लकड़ियां हैं। इनको  वे जलाएंगी। यदि थोड़ी देर के लिए उन्हें लकड़ियां न दी जाएं, तो कितने “मैं” रह जाएंगे? “मैं” अग्नि हूं, अग्नि हूं। हर एक का यह दावा था कि अग्नि “मैं” हूं। कितनी अग्नि रह जाएंगी? सारी अग्नियां शांत हो जाएंगी। शायद कई रह जाएंगी। जिनको आज तक देखा नहीं है।
        
      जिस अग्नि को आज तक नहीं देखा है, वह अव्यक्त आग रह जाएगी। जो दृश्य नहीं है, जो दिखाई नहीं देती। जिससे वह अव्यक्त भी होती है इसीलिए कहा है कि —
      “अव्यक्तातपुरुष: पर:”
      जहां अव्यक्त भी नहीं रहता। वह अव्यक्त के भी परे है। जो शुद्ध चैतन्य है; परमात्मा है; वही तमाम रूपों में, जितने भी  “मैं”  हैं, उनमें प्रकट हुआ है ।
मैं से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ, जो तेजोमय प्रकाश युक्त रत्न है, वह भलीभांति धुल जाने पर चमकने लगता है; उसी प्रकार इस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप अत्यंत स्वच्छ होने पर भी अनन्त जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों से मलिन हो जाने के कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता; परन्तु जब मनुष्य ध्यान योग के साधन द्वारा समस्त मलों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति प्रत्यक्ष कर लेता है, तब वह अकेला (अर्थात उसका जो जड़ पदार्थों के साथ संयोग हो रहा था, उसका नाश होकर) कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकार के दुःखों का अन्त होकर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है। उसका मनुष्य जन्म सार्थक हो जाता है। फिर जब वह योगी इस स्थिति में दीपक के सदृश निर्मल प्रकाशमय आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्म तत्व को भलीभांति प्रत्यक्ष देख लेता है, तब वह उस अजन्मा, निश्छल तथा समस्त तत्वों से असंग—सर्वथा विशुद्ध परम देव परमात्मा को तत्व से जानकर सब बन्धनों से सदा के लिए छूट जाता है।

“मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

“हमारे” दो हिस्से हो गए हैं -एक चैतन्य का हिस्सा और दूसरा प्रकृति का प्रकृति और पुरुष मिलकर हम “मैं” हो गए हैं। यदि, इनसे प्रकृति सब हटा दी जाए, तो एक रह जायेगा। सब “मैं” समाप्त हो जाएंगे। इसीलिए कहते हैं कि यह नानात्व भ्रम हैं। “हम” केवल भ्रम हैं। जो नहीं हैं, उनके मरने का सवाल क्या है? “हम” कुछ नहीं हैं। यह बहम है कि “हम” भी कुछ हैं। इसीलिए मुक्ति का चक्कर है। मुक्ति मिलती नहीं है। “मैं” का ही छुटकारा है। “मैं” से छुटकारा पा जाओ, बस मुक्त ही मुक्त हो। तुम जो “मैं” बन बैठे हो, यही मौत है। इसीलिए “मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है। “मैं” की मुक्ति नहीं होती। तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी। तुम ही नहीं रहोगे, यही मुक्ति है।
हम क्या हैं ?
यही देखना है कि “हम” क्या हैं? आग कहती है कि “मैं” न मरूं। अपने जीने के लिए लकड़ियां समेटने की जो आग की प्रवृत्ति है, यही अज्ञान है। यह पता चल गया कि आप सदा जीवित है। साइंटिस्ट लोग लकड़ीयां नहीं समेटते। वे कहते हैं कि हम आग को फिर प्रकट कर लेंगे। यह तो पहले के लोग कंडे (उपले ) गाड़- गाड़ कर आग को टिकाया करते थे; क्योंकि, उन्हें मालूम नहीं था। सोचते थे आग बुझ न जाए। उनको पता नहीं था कि आप कभी बुझा नहीं करती। वह हमेशा है, नित्य है और अव्यक्त है। चाहे जब उसे प्रकट किया जा सकता है। क्योंकि, जब पहले प्रकट हुई है; तो फिर भी प्रकट हो सकती है।
चेतना कितनी ही बार प्रकट हुई है। जो अव्यक्त चैतन्य है; वह नित्य विद्यमान है; फिर प्रकट हो सकता है। लेकिन, यह “मैं” घबरा जाता है कि ” मैं” मर न जाऊं, “मैं” मर न जाऊं। तेरे जैसे कितने “मैं” हो गए हैं और अभी होने की भी क्या कमी है? जो अभी बना है और बना रहेगा; लेकिन, यह “मैं” कहता है कि “मैं” मर ना जाऊं। जैसे अग्नि चिंतित है कि “मैं” बुझ न जाऊं। इसीलिए, मेरे में लकड़ियां डाल दो, मुझ में कंडे डाल दो।अग्नि खतरे में पड़ गई है। वही हाल तुम्हारा भी हो गया है। शरीर मिल जाए, और शरीर मिल जाए, और प्रकृति मिल जाए, और थोड़ा शरीर मिले, नहीं तो “मैं” मर जाऊंगा। शरीर खत्म होता जा रहा है और हम शरीर पाने को बैठे हैं। हम मर न जाएं, यही तो प्रवृत्ति है। यदि तुम जान गए होते कि तुम मरते कहां हो? हम हैं क्या? जो है, वह आज तक कभी नहीं मरा। वही तो “मैं” के रूपों में प्रकट है और फिर ये “मैं” अप्रकट रूप में चले जाते हैं, मरते नहीं।


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।


भगवान कृष्ण कहते हैं कि सारे प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे। बीच में व्यक्त हुए और मरते पर फिर अव्यक्त हो जाते हैं। तो रोने की या दुख की क्या बात है? लेकिन शायद किसी विरले को ही ये बात समझ आती है बाकी का तो मनोरंजन है वेदांत सुनना।

जो स्वयं ब्रह्म हो.. वो गुरु ही पार लगा सकता है

जब परमपिता स्वरुप सतगुरु ने हमें अपनाया है, तो इसमें तो दो मत ही नहीं, सागर खुद नदियों को अपने में मिलाने बांहें फैलाए खड़ा है ,और नदियां तत्पर है सागर में समाने के लिए फिर मन में संसय क्यों? हमारे अंतर कल्याण की भावना भी उसी की कृपा में लगी है और कल्याण करने के लिए खुद सागर ही गुरु रूप में अपनी इन नदियों को समाने के लिए आये हैं।
क्योंकि अब हम निश्चय होकर इसी पंक्ति पर टिके रहें-


अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।

बादल तो सब जगह बरसते हैं, किंतु फसल वहीं पैदा होती है जहां जमीन में किसान ने बीज बोए हों।ठीक वैसे ही परमात्मा की कृपा भी बरसती है, लेकिन अहसास केवल उन्हीं को हो पाता है जिन साधकों ने हृदय-भूमि में सदगुरु के सत्संग वचन बोये हों। बडे भाग्यशाली है वो तेरे बन्दे जिन्होंने आपसे दिल लगाया है।… जिन्होंने आपका आश्रय लिया है। आपके सत्संग से प्रीति की है, आपके वचनों में श्रद्धा की है।

मैंने कई शिष्यों के जीवन मे देखा।
उनके अंदर में ईश्वर को पाने की प्यास तो थी परंतु उन्होंने वह भी गुरु की इच्छा में मिला दी।
उन्होंने कभी शंका नहीं की कि हमें ईश्वर मिलेगा अथवा नहीं।

किंतु ऐसे लोगों में सबसे बड़ा गुण यह था, उन्होंने प्रेम बहुत किया सदगुरु से। और यही उनका सबसे बड़ा साधन बन गया ईश्वर पाने का।

गुरु प्रेम में सभी साधन आ गए, क्योंकि अब अपने बल पर ईश्वर प्राप्ति नहीं करनी थी । जिसके कारण अपने में अहम पोषित नहीं हो पाया। बल्कि गुरुप्रेम रूपी नाव में बैठ जाने के कारण, वह नाव सहज में ही, ईश्वर की ओर उनको लेती चली गई।

वह ईश्वर जो बड़े-बड़े तपस्वी और योगियों को भी जंगल और पर्वतों में साधन भजन और तपस्या करने पर भी दुर्लभता से प्राप्त होता है। बड़े-बड़े शास्त्रों के विद्वानों और पंडितों को भी नहीं मिल पाता।वही दुर्लभ ईश्वर ऐसे गुरु भक्तों को सहज में ही प्राप्त हो गया।

जिन लोगों को ऐसे भक्त पागल ही लगते थे, उन पागलों ने ही अपने आप को गुरु चरणों में समर्पण करके सर्वप्रथम बाजी मार ली।
और अपने बल पर उस परमेश्वर को पाने वाले तो देखते ही देखते ही रह गए।

भोग-योग रूप

पुरुष और प्रकृति, इन दोनों के मेल से जिन जीवो का जन्म हुआ है, वे जन्म से शरीराभिमानी ही होते हैं। वे अपने को शरीर मानते हुए ही पैदा होते हैं और शरीर मानते हुए ही प्राय: मर जाते हैं। कोई ऐसे भी हैं, जो कितनी ही बार जन्म लेने पर भी बार-बार शरीर भाव को ही प्राप्त होते हैं। ऐसे कुछ ही महान् पुरुष होते हैं, जो शरीर में रहते हुए भी, शरीर भाव से मुक्त होकर, अपने परमात्मभाव को प्राप्त होते हैं। जैसे कोई जन्म से लड़की हो और बाद में लड़का हो जाए। पहले माता की तरह हो, पीछे पिता की तरह हो जाए। इसी प्रकार, जीव पहले जन्म – मरण वाला हो, सुख-दुख वाला हो, कर्ता और भोक्ता हो; बाद में अकर्त्ता, अभोक्ता और आनंदमय हो जाए। भोग से व्यक्ति प्रकृति रूप और योग से ब्रह्मरूप बन जाता है।
यदि कोई आत्मा को अनुभव करेगा, तो परमात्मा भाव को प्राप्त होगा और यदि प्रकृति के साथ, शरीर के साथ तादात्म्य करेगा, तो जड़ता को प्राप्त होगा; मरण को प्राप्त होगा। इस प्रकार दो भावों वाला यह जीव ही हो सकता है। परमात्मा नित्य परमात्मा है; प्रकृति नित्य प्रकृति है। यह जीव ही प्रकृतिभाव वाला और परमात्मभाव वाला होता है।
अब आपको यह देखना है कि आप जिस भाव में हैं, उस भाव में आपको चैन है? जैसे कोई लड़की हो और उसे लड़की के जीवन में चैन ना हो -पीड़ा होती हो कि वह लड़का होती तो अच्छा होता। उसी प्रकार से हमारे जीवन में भी एक पीड़ा है। हम अभी लड़की की तरह हो गए हैं। हम प्रकृति के भाव वाले शरीर के रूप में पैदा हो गए हैं। हमें लगता है कि हम मरे नहीं, दुखी ना हो, अशान्त न हों और परेशान न हों। हमारे हृदय में एक ऐसी पीड़ा है, जो हमें भगवान् होने को बाध्य करती है। यदि हम भगवान के भाव को प्राप्त न हों या भगवान् हमें प्राप्त न हों, तो हमको जीवन में चैन नहीं आता। इसीलिए, जहां शरीर की व्यवस्था का प्रश्न है, वहीं जीव की आंतरिक मांग का सवाल भी हमारे सामने रहता है।