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क्या चेतन क्या चेतना

 एक चेतना है, एक चेतन है। यह आखिरी सूत्र है – चेतना और चेतन चेतना में परिवर्तन है। और भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, लोग तो पढ़ते- पढा़ते हैं पर गीता का मुख्य विषय क्या है? इच्छा द्वेष: सुखं-दुखं संघात्श्चेतना धृति।। यह चेतना भी प्रकृति का विकार है। शुद्ध चेतन नहीं चेतना! चेतना प्रकृति से मिली हुई चैतन्यता है इसलिए उसमें जगना है, सोना है, होश है, बेहोश है, कॉन्शसनेस है, सब कॉन्शसनेस है, अनकॉन्शसनेस है। पर चेतन कभी अनकॉन्शियस नहीं होता और साक्षी को, चेतन को चेतन रखने के लिए कोई प्रयत्न नहीं है, प्रयत्न चेतना को ही बनाए रखने का है।और चेतना बनाए रखने का एक अभ्यास करना चाहिए। समाधि क्या है? चेतना को देर तक बनाए रखना। और कुछ बनाए रखना नहीं! ख्याल बनाए रखना नहीं, देह ख्याल में बनाए रखना नहीं, चेतनता बनाए रखना! श्वास चलाए रखना नहीं, चेतनता बनाए रखना, श्वास रहे ना रहे, चले ना चले! स्मरण में कुछ बनाए रखना नहीं, स्मरण में कुछ रहे ना रहे पर आप चेतना बनाए रखना! अभी क्या करते हो? चेतना में कोई चीज रखते हो, चाहे मंत्र ही रखते हो पर जब मंत्र चला जाता है तो कहो आप बेखबर हो गए थे, मंत्र भूल गए थे। तो…. मंत्र को तो भूल जाओ मंत्र को याद रखना ही नहीं। हां मंत्र को रखने की इसलिए जरूरत है कि आप समझ सको कि मंत्र गया या चेतना गई? मंत्र से चेतना चली गई, चेतना से मंत्र चला गया या चेतना ही चली गई? यह फर्क समझो! चेतना से स्मृति चली गई, चेतना नहीं! क्योंकि मंत्र आप को दिया गया है इसलिए इस बात से आप परेशान हो जाते हो कि मंत्र भूल जाते हैं, मन और कहीं चला जाता है! तो यदि मंत्र चेतना से चला गया और चेतना में कुछ और आ गया तो चेतना है कि चली गई? तो आप चेतना नहीं रखना चाहते आप का मंत्र रखना आप चेतनता समझते हो। गुरु ने मंत्र देकर फंसा दिया। इसीलिए विपश्यना वाले मंत्र भी नहीं जपने देते क्योंकि एक झंझट तुम्हें दे दी, एक बीमारी दे दी कि हमारा मंत्र चला जाता है! यदि मंत्र चला गया, आपके ध्यान में घर आ गया तो चेतना चली गई क्या? तो  चूकिं आप चेतना नहीं रखना चाहते, मंत्र रखना चाहते हो इसलिए दुखी हो गए कि मेरे ध्यान से मंत्र चला गया, मेरे ध्यान में घर आ गया। हम ना तो घर रखने को कहते हैं ना तो मंत्र रखने को कहते हैं और ना भगवान रखने को कहते हैं। हम कहते हैं आप चेतना को रखो! मंत्र रहे तो रहे, जाए तो जाए; घर आए तो आए, घर जाए तो जाए; ना हमें घर रखना है, ना मंत्र रखना है, ना कोई और रखना। हमें चेतना रखनी है! पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं!!

पूर्ण चेतना का चमत्कार


पशुओं की अपेक्षा मानव में चेतना अधिक आई। इस प्रकार मानव की अपेक्षा महामानव में पूर्ण चेतना आ सकती है। कॉन्शसनेस से सुपरकॉन्शसनेस में हम ज्यादा चेतन और पूर्ण चेतन हो सकते हैं। हम अंदर इतने अधिक चेतन हो जाएं की जड़ता जीरो हो जाए। अभी पेड़ों में, दीवालों में जड़ता तो पूर्ण है; लेकिन, चेतना जीरो पावर जैसी है। आप मान लीजिए कि दीवारों, पत्थरों और पेड़ों में 90% जड़ता है और 10% ही चेतना है। पशुओं में आप मान सकते हैं कि 50% जड़ता और 50% चेतना है। इसी प्रकार मानव में 75 % चेतना और 25% जड़ता है। इसीलिए वह कुछ सोचता और विचारता है। लेकिन, मैं यह कहता हूं कि हममें 99 % चेतना होनी चाहिए और केवल 1% जड़ता रह जानी चाहिए।
हमारा शरीर भी चेतना में रूपांतरित हो जाए; हमारा मन भी चेतना में रूपांतरित हो जाए और हमको ऐसा लगने लग जाए, जैसे हम चेतना के पुन्ज हैं। जैसे लोहे को अग्नि में डाल दें, तो अग्नि का पुंज हो जाता है। इसी प्रकार हमारा मन, हमारी वृतियां, हमारी प्रकृति इतनी जागरूक होती चली जाए कि हम देखें कि केवल “मैं” हूं। जब आप सुषुप्त होते हैं, तो सुषुप्ति में आप की जड़ता आत्मा में पहुंच जाती है और चेतना इतनी न्यून हो जाती है, जैसे जीरो पावर के ब्लब में प्रकाश न्यून हो जाता है। इस प्रकार नाममात्र चेतना, बाकी सब जड़ता रहती है।
स्वप्न में जड़ता भी होती है और चेतना भी होती है। शरीर का अज्ञान होता है और स्वप्न का ज्ञान होता है। इसका मतलब यह है कि आप अंदर- अंदर जगे भी हैं और बाहर – बाहर सोए भी हैं। जब आप जागृत अवस्था में आते हैं, तो आप 75 % चेतन हो जाते हैं। अब आपको शरीर का भी अनुभव होता है, भूतपूर्व कल्पनाओं तथा अवस्थाओं का भी अनुभव कर लेते हैं। लेकिन, यदि आप 75 % से ज्यादा जगना शुरू कर दें, तो जितनी- जितनी आपके अंदर दृष्टाभाव में जागृति आना शुरू होगी, उतना- उतना ही आपको लगेगा जैसे शरीर भी सुन्य हो गया, शरीर बिल्कुल शिथिल हो गया। शरीर पूर्ण चेतना में परिणत हो गया और “मैं” केवल चेतना का स्वरूप रह गया। “मैं” चैतन्य रह गया, “मैं” दृष्टा रह गया। इसको हम समाधि कहते हैं, जहां जड़ता जीरों में पहुंच जाती है।