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निर्ममेति

एक बार दीपक कहने लगा कि “जिस घर में मैं जलता हूं, उस घर में मैं अंधेरे को नहीं आने देता”। हमने कहा भई! ज्यादा न बोलो, जरा संभल के बोलो। ये कहो “जहां मैं रहता हूं, वहां अंधेरा आता ही नहीं है”। वहां अंधेरा रहता नहीं कि तू आने नहीं देता? अंधेरे को तो कोई धक्का दिये रहता है , जो नहीं आने देता । कोई रोके रहता है उसे?
“मेरा है ” कहते ही बंधन..
अभी जब यहां सत्संग चल रहा था, हम लाउडस्पीकरों की आवाज सुन रहे थे। इधर चार स्पीकर लगे हैं, उधर दो लगे हैं। हम खड़े होकर यह पता लगा रहे थे कि कहां की आवाज सुन रहे हैं? एक बालिश्त के फर्क में हम इधर के स्पीकरों की आवाज सुनते थे। और एक बालिश्त के फर्क से खड़े होते ही यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह आवाज होती है। केवल एक बालिश्त की दूरी का यह प्रभाव है। सच तो यह है कि एक बाल बराबर दूरी का भी यही प्रभाव होगा। यदि मशीन से सुना जाए, तो बाल बराबर इधर आते ही यह आवाज़ सुनोगे और बाल बराबर उधर जाते ही वह आवाज़ सुनोगे। एक सीमा रेखा होती है, बस इतना ही फर्क है।
जब भौतिक जगत् में, एक बाल बराबर दूरी से इतना फर्क पड़ सकता है, तो “मेरा नहीं है , भगवान का है” की जमीन पर खड़े होते ही, बस इतना सा ख्याल करते ही, आदमी मुक्त हो जाता है और “मेरा है” यह ख्याल आते ही वह बंध जाता है, फंस जाता है।

“द्वे पदे बंद मोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन् र्तनिर्ममेति विमुच्यते।।”

“निर्ममेति”, “मेरा नहीं है”, कहते ही मुक्त हो जाता है और “मेरा है”, कहते ही बंध जाता है। मैं कहता हूं, यह तो एक सूत्र है। ऋषियों ने ऐसे लाखों सूत्र दिए हैं। एक भी सूत्र पकड़ लो, तो मुक्त हो जाओगे।

मन का ज्ञाता साक्षी


मन जिससे महसूस होता हो; मन जिसके पहले न रहा हो; जिसने मन के होने को समझा हो, जिसे मन के विलय होने का पता रहता हो; जिसे मन के सो जाने का पता रहता हो; ऐसा जिसको पता चलता हो, उसी को तुम ब्रह्म जान लेना।
“तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि”
ब्रह्म को इन्द्रियों की सीमा में मत खोजते रहना ।
गो गोचर जहं लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।”
मन की सीमा में यदि परमात्मा मिल भी जाए; इंद्रियों की सीमा में परमात्मा आ भी जाए; तो वह परमात्मा का साकार रूप होगा, आराध्य रूप होगा। वह भी हमारे कल्याण का कारण बन सकता है; लेकिन, मृत्यु भय साकार भगवान से नहीं जाता। किसी भी साकार भगवान के दर्शन से, उनके मिलने से, मृत्यु भय नहीं गया। उनके उपदेश की बात मैं नहीं कहता।
अर्जुन भगवान के साथ ही तो था। उसका शोक नहीं गया; मृत्यु भय नहीं गया; राग-द्वेष नहीं गया। भगवान को उपदेश ही देना पड़ा। मान लो कि मैं भगवान हूं। क्या मेरे देखने से आपका अभिमान चला जाएगा? मेरे देख लेने के बाद, यदि आपको सांप काट ले, तो मरने के भय में फर्क पड़ेगा? क्या हो जाएगा? देह वाले की मौत वैसे ही रहेगी; चाहे भगवान नहीं भगवान के बाप ही क्यों न हों। मेरे ख्याल से भगवान के तो बाप ही नहीं होता। क्यों! भगवान के भी बाप होता होगा? भगवान तो होता ही सब का बाप है; इसलिए, भगवान का कोई बाप नहीं होता। भगवान बिना बाप का होता है। जो बिना बाप का होता है, उसी का नाम भगवान है । समझ गए! जो बिना बाप के हो, अर्थात अजन्मा हो आत्मा हो जिसने अपने भीतर उसकी उपस्थिति को समझ लिया हो, वही परमात्मा है। जिसका जन्म ही नहीं होता, उसका बाप कैसे होगा? वही बापों के बाप के बाप तुम भी हो सकते हो सिर्फ इस ब्रह्म ज्ञान का पान तो ठीक से करो।

मन या मौन

जब तक ध्यान में नहीं डूबेंगे तब तक कितने भी उत्तर मिल जाएं ।समाधान नहीं होगा ।

मौन जब पूर्ण होता है तो मन होता ही नहीं। मन की अवस्था का सवाल नहीं है। मौन का अर्थ है मन की मृत्यु। वहाँ मन नहीं है। वहाँ जो रह गया है उसी को हम आत्मा कहते हैं। तो मौन, मन की अवस्था नहीं है। मौन है मन की मृत्यु, मौन है मन का विलीन हो जाना।

• जैसे सागर में लहरें हैं , कोई हमसे आकर पूछे कि जब सागर शान्त होता है तो लहरों की क्या अवस्था होती है, तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, जब सागर शान्त होता है तो लहरें होती ही नहीं। लहरों की अवस्था का सवाल नहीं। सागर अशान्त होता है, तो लहरें होती हैं। असल में लहरें और अशान्ति एक ही चीज के दो नाम हैं। अशान्ति नहीं रही तो लहरें नहीं रहीं। रह गया सागर।

मन है अशान्ति, मन है लहर। जब सब मौन हो गया तो लहरें चली गईं, विचार चले गये, मन भी गया, रह गया सागर, रह गई आत्मा, रह गया परमात्मा।

• परमात्मा के सागर पर मन की जो लहरें हैं वे ही हम अलग-अलग व्यक्ति बन गये हैं। एक-एक लहर को अगर होश आ जाये तो वह कहेगी “मैं हूँ!” यह हमारी एक-एक मन की अशान्त लहरों का जोड़ है। ये लहरें विलीन हो जायेंगी तो आप नहीं रहेंगे, मन नहीं रहेगा। रह जायेगा परमात्मा, रह जायेगा एक चेतना का सागर।

• परिपूर्ण मौन, मन की अवस्था नहीं, मन की मृत्यु है। जैसे-जैसे हम मौन होते हैं वैसे-वैसे हम मन के पार जाते हैं। जितना ज्यादा हम विचार से भरे होते हैं उतना हम मन के भीतर होते हैं, जितना विचार के बाहर होते हैं उतना मन के बाहर होते हैं।

• तो ऐसा मत पूछिये कि उस समय मन की अवस्था कैसी है। अगर मन की कोई भी अवस्था है तो अभी मौन नहीं हुआ। जब मौन होगा तो मन नहीं होगा। जहाँ मन है वहाँ मौन नहीं, जहाँ मौन है वहाँ मन नहीं।

सरल वेदांत

यह वेदांत की एक सुंदर प्रक्रिया है; न कोई प्रकाश, न कोई कुंडलिनी, न कोई आनंद , न कोई चमत्कार , न कोई नशा, केवल चेतन। इस ख्याल (चेतन) के अतिरिक्त अन्य कोई बात ही न सोचें। दृष्टा भी नहीं, कर्ता भी नहीं ,पाना भी नहीं। किसके दृष्टा? कौन दृष्टा? किसलिए?—सर्व भावों से रहित, सर्वभावातीत, सर्व विकल्पशून्य, एक चिन्मात्र हो जायें। यदि कोई है तो जिस पर होती है सुषुप्ति, जिस पर होती है जागृति; परंतु स्वयं न जागता है और न सोता है। जिस दिन आप यह जानेंगे कि मैं न कभी जागता हूं, न कभी सोता हूं उस दिन आप ब्रह्म ही होंगे। अभी आप कहते हैं कि हमारे गुरु जी कभी नहीं सोते , भगवान कभी नहीं सोता। ठीक है, कई लोगों के गुरु कभी सोते होंगे या नहीं सोते होंगे। मैं भी यही कहता हूं कि आप भी कभी जागते नहीं, कभी सोते नहीं। जो जागता है, वह भी तुझ चेतन में कल्पित है और जो सोता है, वह भी तुझ चेतन में कल्पित है। जागने वाला सोता है और सोने वाला जागता है। आप न कभी जागते हैं और न कभी सोते हैं परंतु आप जागने वाले को “मैं” कह रहे हैं। आप जागने वाले को ही “मैं”– “मैं”कह करके फिर ठीक होने की कोशिश करते हैं। आप जागने वाले को “मैं” बनाकर कहते हैं कि कभी नींद न आए। गुरुजी ऐसा जगा दीजिए कि फिर न सो जाएं। अब, कैसे जगा दें कि आप कभी सो ना जाएं ?—-बस समझने लायक, सर्वोच्च ध्यान लायक एक ही प्रक्रिया है कि आप सोचें कि कौन है हो कभी नही सोता? कौन है जो आपके सपनों का गवाह है? कौन है जो आपकी सारी इंद्रियों को नष्ट करने पर भी रहेगा? उस चेतन उस स्व स्वरूप को सोचे अनुभव करें।

श्वेत कागज

मैं जीवन को एक कोरे कागज की भांति मानता हूं, जिसमें बहुत कुछ लिखा जा चुका है। किंतु, ऐसा नहीं मानता कि जो लिख दिया गया है, वह मिटाया नहीं जा सकता। यद्यपि, प्रतिदिन कुछ न कुछ लिखा ही जायेगा; किन्तु, मिटाने में कुछ कठिनाई अवश्य होगी। इस तरह अनुभव से गुजरते- गुजरते एक दिन अच्छा लिखने की योग्यता आ जायेगी। एक दिन ऐसा भी आयगा कि प्रतिक्षण लिखते हुए भी कागज कोरा ही बना रह जाएगा। ऐसा होने पर भी लोग पढ़कर लाभ उठा सकेंगे; किन्तु, उसके जीवन में कुछ भी अंकित नहीं रह जाएगा। और जहां अंकित नही रहेगा वही मुक्त विचरेगा। शुद्ध भावना, निश्चल मन, विशाल मन के साथ प्रायः मनुष्य हर दिन कुछ न कुछ नया लिखता है और उसे याद करता, ढोता रहता है। जबकि ब्रह्म समझने के बाद, आत्मा-परमात्मा समझने के बाद, इस नाशी संसार को समझने के बाद याद रखने जैसी कोई चीज ही नही रह जाती। निराकार को कौन याद रखे याद के लिए तो आकार की आवश्यकता है पर यदि हर आकर में जिस दिन तुम मुझ निराकार को ही देखोगे तुम मुक्त मेरे जैसे ही हो जाओगे; कृष्ण का गीता में कहा ये कथन शत प्रतिशत सत्य है…..अस्तु

जीव को शांति कहां मिलेगी ?

संसार में जो कुछ भी हम प्राप्त करते हैं, वह छूट जाता है। जिन साधनों से प्राप्त करते हैं, वे भी शिथिल हो जाते हैं। देखने में नेत्र असमर्थ हो जाते हैं। सुनने में कान असमर्थ हो जाते हैं। जिस शरीर से हम कुछ पाना चाहते हैं, वह शरीर भी शिथिल हो जाता है। जिस मन से हम कुछ पाया करते हैं, वह मन भी बदल जाता है। क्योंकि, संसार में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके लिए मन कहे कि नहीं छोड़ना। इसीलिए, ऋषियों ने खोजा की जीव को शांति कहां मिलेगी? जो उन्होंने खोजा, अनुभव किया, उसे ग्रंथों में लिखा। पर, हम तब तक उसका लाभ नहीं ले पाते; जब तक कि हमारी समझ में न आए। मोक्ष उस समझ के सिवा और कुछ नही है अगर इसे अनुभव कर लिया तो आप तक्षण मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष में ही विचरते हैं। बस यही समझना है कि हम सच में हैं क्या? ये नाक , कान, दृश्य या रसना और ये सब अगर शरीर से खत्म कर दे तो क्या बचेगा जो सुप्त अवस्था में आपके सपनों का साक्षी होता है। उसे जानिए, सोचिये क्योकि इसके अलावा जानने समझने लायक कुछ है ही नही।

गुरु की बुद्धि

यह शरीर रथ है, इन्द्रियां घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है, आत्मा रथी है। चाहे कितना अच्छा रथी हो, यदि सारथी चाहे तो रोड में उतर जाये, गड्ढे में डाल दे। यह बुद्धि तुम्हें मार भी सकती है, गिरा भी सकती है, और बचा भी सकती है और यही बुद्धि तुम्हें लक्ष्य तक पहुंचा सकती है।

यह आत्मा – परमात्मा सारी बातें बुद्धि के हाथ में है। यह बुद्धि ही तो आदमी बना दे या ब्रह्म बना दे। ‘देहोअहम् से शिवोहम्’ बना दे।

“मैं ब्रह्म हूँ” ;यह बुद्धि बनी रहे। जैसे आदमी होना एक समझ से स्वीकारा। मैं पैदा हुआ, बूढ़ा हो जाऊंगा, आदमी के धर्म आपको समझ आ गये। यदि ब्रह्म का समझ आ जाये कि मैं ब्रह्म हूँ तो आप नहीं मरोगे।


परन्तु देहाध्यास जन्म से है और ब्रह्माभ्यास बिना गुरु के नहीं हो सकता। इसके लिए गुरु से “मैं ब्रह्म हूँ” यह समझ आ जाय फिर बार – बार ब्रह्माभ्यास हो सकता है। एक बार यह जानना जरुरी है तभी ध्यान और इसका अभ्यास बढ़ेगा।


मैं होश में हूँ तो दुख – चिंता, मान – अपमान या संसारी विषय आ रहे हैं परन्तु पूर्ण होश होने से ये पता चलते हुए भी विचलित नहीं कर सकते।


गुरु के कृपा द्वारा बुद्धि जाग्रत हो। मैं अपने आप में पूर्ण शुद्ध हूँ। यह सही – सही समझ आ जाये। यही “ज्ञान समाधि” है।


मैं ब्रह्म हूँ, मैं ब्रह्म हूँ ‘शब्द दोहराओगे’ मैं ब्रह्म हूँ ‘का मतलब सर्वत्र मैं हूं, सब में’ मैं ‘हूँ। यह गुरु द्वारा दी हुई बुद्धि के द्वारा ही जाना जा सकता है।

जीवन का सत्य

क्रिया जनित सुख में “राग” ही विषयानंद की वासना है। क्रिया द्वारा मिले हुए सुख का संस्कार मन पर छूट जाता है; फिर उस विषय की चर्चा से, समघटना के दर्शन से या एकांत चिंतन से, क्रिया जनित सुख का पड़ा हुआ संस्कार जाग जाता है। बस यही है “काम”; जिससे फिर उसी कर्म करने की मन में कामना होती है। यदि कामना की पूर्ति की गई, तो पराधीनता, कामना वृद्धि, शक्ति -ह्रास और असमर्थता है। कामना दमित की गई, तो बार-बार याद आएगी और संस्कार गहरा होगा तथा अन्त: में प्रवेश कर जाएगा। अन्त में, ओझल तक हो जाएगा; किंतु, मिटेगा नहीं और फिर कभी न कभी बाहर आएगा। फिर दमन के लिए उतना ही बल प्रयोग करना पड़ेगा।
दमन से संस्कार की मौत नहीं होती या क्रिया जनित सुख का राग – विषासक्ति नहीं मिटती। अतः क्रिया रहित होकर मन में होने वाले संस्कारों को उठने दिया जाए और साक्षी, असंग, शांत और मौन होकर सहज भाव से देखा जाए। उठने वाले संस्कार का न तो रस लिया जाए और न उससे द्वेष किया जाए; तो संस्कार अपने- आप आना बंद कर देंगे। उस स्मृतिशून्य, अप्रयत्न दशा में, जो आनंद स्वयं में मिलेगा; उससे क्रिया जनित सुख का राग मिट जाएगा; विषयासक्ति नहीं रहेगी; तब आवश्यक कर्म स्वत: होने लगेंगे। स्व में, आनंद से पूर्ण दशा में, सहज होने वाले कर्म का नाम ही सदाचार है। आत्मतृप्ति के बिना सदाचार का जन्म हो ही नहीं सकता। आत्मतृप्ति के अभाव में, विषय सुख के प्रति आकर्षण रहेगा। विषयाकर्षण के रहते, विषय का त्याग सदाचार नहीं है; इसे मिथ्याचार कह सकते हैं।

“कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।”

इस साक्षी साधना और ध्यान से बड़ी कोई ध्यान-साधना नही है।

भौतिकवाद और अध्यात्मवाद

जीवन के दो पहलू-आंतरिक और बाह्य
जब हम अपने जीवन को शांत और स्वस्थ होकर सही रूप में देखते हैं, तब हमें जीवन के दो पहलू दिखाई देते हैं – आंतरिक और बाह्य। आंतरिक जीवन में हमको सत्, चित् और आनंद की मांग तथा बाह्य जीवन में रोटी, कपड़ा, मकान और पदार्थों की आवश्यकता है। इनमें से किसी की भी पूर्ति न होने से जीवन पूर्ण नहीं हो सकता; क्योंकि, बाहरी आवश्यकताओं के पूर्ण न होने पर जीवन कष्टमय और आंतरिक मांग पूर्ण न होने पर जीवन दुःखमय हो जाता है। अतः, आंतरिक दुख और अभाव की समाप्ति के लिए जीवन में सत्- चित्- आनंद , शांति , स्वाधीनता और पूर्णता उपलब्ध हो जाती है। शारीरिक व्यवस्था के लिए, कर्म द्वारा अन्न, धन और मकान आदि उपलब्ध हो जाते हैं, जिनसे उचित शारीरिक व्यवस्था हो जाती है। इस प्रकार जीवन के बाह्य पहलू में होने वाले कष्ट और आंतरिक पहलू में होने वाले जीवन के आनंद और ज्ञान का अभाव मिट जाता है।
बाह्य जीवन भौतिक और परिवर्तनशील होने से सब की आवश्यकताएं एक समान नहीं रहती। वह व्यक्ति, देश, काल और अवस्था के अनुसार बदल जाती हैं । लेकिन, प्राणी मात्र की आंतरिक मांग या आंतरिक इच्छा एक ही है। किसी जाति, संप्रदाय या वर्ग विशेष की आंतरिक मांग में कोई भेद नहीं है।


धर्म क्या है ?
आंतरिक मांग की पूर्ति के विज्ञान को ही धर्म कहते हैं। इसीलिए मानव मात्र के धर्म में किसी प्रकार का भेद नहीं है। सब की मांग और मांग – पूर्ति का साधन एक ही है। हमारी बाहरी आवश्यकताओं की पूर्ति में भेद है; क्योंकि, देश, काल, व्यक्ति और आवश्यकताओं में भेद हो जाता है। इसीलिए, सबका बाह्य जीवन एक ही समान नहीं हो सकता। किंतु, प्राणी मात्र की आंतरिक भूख एक और उसकी खुराक भी एक ही है-आत्मा। आत्मा, “आत्मा” से ही तृप्त हो सकती है, पदार्थ से नहीं। अतः, धर्म एक ही है– आत्म प्राप्ति , आत्म जागृति, आत्मानंद।
मानव की मांग जो वो इसी जन्म में जान जाये तो धन्य हो जाये मुक्त हो जाये।

“मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

“हमारे” दो हिस्से हो गए हैं -एक चैतन्य का हिस्सा और दूसरा प्रकृति का प्रकृति और पुरुष मिलकर हम “मैं” हो गए हैं। यदि, इनसे प्रकृति सब हटा दी जाए, तो एक रह जायेगा। सब “मैं” समाप्त हो जाएंगे। इसीलिए कहते हैं कि यह नानात्व भ्रम हैं। “हम” केवल भ्रम हैं। जो नहीं हैं, उनके मरने का सवाल क्या है? “हम” कुछ नहीं हैं। यह बहम है कि “हम” भी कुछ हैं। इसीलिए मुक्ति का चक्कर है। मुक्ति मिलती नहीं है। “मैं” का ही छुटकारा है। “मैं” से छुटकारा पा जाओ, बस मुक्त ही मुक्त हो। तुम जो “मैं” बन बैठे हो, यही मौत है। इसीलिए “मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है। “मैं” की मुक्ति नहीं होती। तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी। तुम ही नहीं रहोगे, यही मुक्ति है।
हम क्या हैं ?
यही देखना है कि “हम” क्या हैं? आग कहती है कि “मैं” न मरूं। अपने जीने के लिए लकड़ियां समेटने की जो आग की प्रवृत्ति है, यही अज्ञान है। यह पता चल गया कि आप सदा जीवित है। साइंटिस्ट लोग लकड़ीयां नहीं समेटते। वे कहते हैं कि हम आग को फिर प्रकट कर लेंगे। यह तो पहले के लोग कंडे (उपले ) गाड़- गाड़ कर आग को टिकाया करते थे; क्योंकि, उन्हें मालूम नहीं था। सोचते थे आग बुझ न जाए। उनको पता नहीं था कि आप कभी बुझा नहीं करती। वह हमेशा है, नित्य है और अव्यक्त है। चाहे जब उसे प्रकट किया जा सकता है। क्योंकि, जब पहले प्रकट हुई है; तो फिर भी प्रकट हो सकती है।
चेतना कितनी ही बार प्रकट हुई है। जो अव्यक्त चैतन्य है; वह नित्य विद्यमान है; फिर प्रकट हो सकता है। लेकिन, यह “मैं” घबरा जाता है कि ” मैं” मर न जाऊं, “मैं” मर न जाऊं। तेरे जैसे कितने “मैं” हो गए हैं और अभी होने की भी क्या कमी है? जो अभी बना है और बना रहेगा; लेकिन, यह “मैं” कहता है कि “मैं” मर ना जाऊं। जैसे अग्नि चिंतित है कि “मैं” बुझ न जाऊं। इसीलिए, मेरे में लकड़ियां डाल दो, मुझ में कंडे डाल दो।अग्नि खतरे में पड़ गई है। वही हाल तुम्हारा भी हो गया है। शरीर मिल जाए, और शरीर मिल जाए, और प्रकृति मिल जाए, और थोड़ा शरीर मिले, नहीं तो “मैं” मर जाऊंगा। शरीर खत्म होता जा रहा है और हम शरीर पाने को बैठे हैं। हम मर न जाएं, यही तो प्रवृत्ति है। यदि तुम जान गए होते कि तुम मरते कहां हो? हम हैं क्या? जो है, वह आज तक कभी नहीं मरा। वही तो “मैं” के रूपों में प्रकट है और फिर ये “मैं” अप्रकट रूप में चले जाते हैं, मरते नहीं।


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।


भगवान कृष्ण कहते हैं कि सारे प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे। बीच में व्यक्त हुए और मरते पर फिर अव्यक्त हो जाते हैं। तो रोने की या दुख की क्या बात है? लेकिन शायद किसी विरले को ही ये बात समझ आती है बाकी का तो मनोरंजन है वेदांत सुनना।