मैं जीवन को एक कोरे कागज की भांति मानता हूं, जिसमें बहुत कुछ लिखा जा चुका है। किंतु, ऐसा नहीं मानता कि जो लिख दिया गया है, वह मिटाया नहीं जा सकता। यद्यपि, प्रतिदिन कुछ न कुछ लिखा ही जायेगा; किन्तु, मिटाने में कुछ कठिनाई अवश्य होगी। इस तरह अनुभव से गुजरते- गुजरते एक दिन अच्छा लिखने की योग्यता आ जायेगी। एक दिन ऐसा भी आयगा कि प्रतिक्षण लिखते हुए भी कागज कोरा ही बना रह जाएगा। ऐसा होने पर भी लोग पढ़कर लाभ उठा सकेंगे; किन्तु, उसके जीवन में कुछ भी अंकित नहीं रह जाएगा। और जहां अंकित नही रहेगा वही मुक्त विचरेगा। शुद्ध भावना, निश्चल मन, विशाल मन के साथ प्रायः मनुष्य हर दिन कुछ न कुछ नया लिखता है और उसे याद करता, ढोता रहता है। जबकि ब्रह्म समझने के बाद, आत्मा-परमात्मा समझने के बाद, इस नाशी संसार को समझने के बाद याद रखने जैसी कोई चीज ही नही रह जाती। निराकार को कौन याद रखे याद के लिए तो आकार की आवश्यकता है पर यदि हर आकर में जिस दिन तुम मुझ निराकार को ही देखोगे तुम मुक्त मेरे जैसे ही हो जाओगे; कृष्ण का गीता में कहा ये कथन शत प्रतिशत सत्य है…..अस्तु
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गीता अमृत है।
आप भी उस सत्य को खोजो और चैन पाओ। कोई भी तुम्हें बचाएगा तो ज्ञान देकर ही बचाएगा। मरना, मरना मानते रहोगे तो तुम्हें कौन बचाएगा? क्या हम बचा लेंगे? हम भी बचाएंगे तो ज्ञान देकर ही बचाएंगे। कृष्ण भगवान भी बचाएंगे तो गीता सुनाकर ही बचाएंगे। नहीं तो अर्जुन को गीता सुनाने की क्या जरूरत थी? ऐसे ही अर्जुन के सिर पर हाथ रख देते। सिर पर हाथ रखकर युद्ध जिता सकते हैं, सिर पर हाथ रख कर थोड़ी देर को तकलीफ दूर कर सकते हैं। लेकिन अज्ञान को सिर्फ हाथ रखकर कैसे हटाओगे? वह तो गीता से ही दूर करना होगा। इसलिए गीता अमृत है।
इसलिए तुम भी किसी अच्छे संत से गीता सुनो। और यह भी है कि जो कथा नहीं सुनाते वे बुरे नहीं हैं,अच्छे हैं, उनका दर्शन करो, आनंद लो। लेकिन यह भी है कि किसी और के दर्शन का आनंद लेने की तुलना में गुरु के पास बैठकर आनंद लेते हो तो यह बहुत अच्छी बात है। तुम जरूर अच्छे ह्रदय के हो वरना संत के पास आनंद कहाँ है? आपने देखा होगा कि कभी-कभी मंदिर के दरवाजे बंद होते हैं और लोग मंदिर के बाहर बैठे रहते हैं। बाहर बैठकर दर्शन करो, आनंद लो। गुरु भी एक मंदिर ही है, दर्शन करो, मौन रहो और आनंद लो। मंदिर के भीतर भी सबको थोड़े जाने दिया जाता है। तो क्या मंदिर जाना बंद कर दोगे? बाहर से दर्शन कर लो। पर झगड़ा तो इस बात का है कि उनको अंदर क्यों जाने दिया? हमें क्यों रोक दिया? क्या यह मंदिर पंडित की बपौती है? अभिप्राय यह है कि आपके अंदर पहले दर्शन की प्रसन्नता होनी चाहिए, बाहर- भीतर से कोई अन्तर नहीं पड़ता।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन करई कपट गान।।
“कपट तज गान” कोई चालाकी नहीं। सचमुच उनकी महिमा अच्छी लगे। उनके गुणगान गाने पर ह्रदय प्रसन्नचित हो। लोग तो अपने गुणगान ज्यादा गाते हैं, गुरु के, भगवान के कम गाते हैं। जबकि गुरु की, भगवान की महिमा गा कर आपको अच्छा लगना चाहिए। यह चौथी भक्ति है।