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मैं चैतन्य हूँ

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं ; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।

सरल वेदांत

यह वेदांत की एक सुंदर प्रक्रिया है; न कोई प्रकाश, न कोई कुंडलिनी, न कोई आनंद , न कोई चमत्कार , न कोई नशा, केवल चेतन। इस ख्याल (चेतन) के अतिरिक्त अन्य कोई बात ही न सोचें। दृष्टा भी नहीं, कर्ता भी नहीं ,पाना भी नहीं। किसके दृष्टा? कौन दृष्टा? किसलिए?—सर्व भावों से रहित, सर्वभावातीत, सर्व विकल्पशून्य, एक चिन्मात्र हो जायें। यदि कोई है तो जिस पर होती है सुषुप्ति, जिस पर होती है जागृति; परंतु स्वयं न जागता है और न सोता है। जिस दिन आप यह जानेंगे कि मैं न कभी जागता हूं, न कभी सोता हूं उस दिन आप ब्रह्म ही होंगे। अभी आप कहते हैं कि हमारे गुरु जी कभी नहीं सोते , भगवान कभी नहीं सोता। ठीक है, कई लोगों के गुरु कभी सोते होंगे या नहीं सोते होंगे। मैं भी यही कहता हूं कि आप भी कभी जागते नहीं, कभी सोते नहीं। जो जागता है, वह भी तुझ चेतन में कल्पित है और जो सोता है, वह भी तुझ चेतन में कल्पित है। जागने वाला सोता है और सोने वाला जागता है। आप न कभी जागते हैं और न कभी सोते हैं परंतु आप जागने वाले को “मैं” कह रहे हैं। आप जागने वाले को ही “मैं”– “मैं”कह करके फिर ठीक होने की कोशिश करते हैं। आप जागने वाले को “मैं” बनाकर कहते हैं कि कभी नींद न आए। गुरुजी ऐसा जगा दीजिए कि फिर न सो जाएं। अब, कैसे जगा दें कि आप कभी सो ना जाएं ?—-बस समझने लायक, सर्वोच्च ध्यान लायक एक ही प्रक्रिया है कि आप सोचें कि कौन है हो कभी नही सोता? कौन है जो आपके सपनों का गवाह है? कौन है जो आपकी सारी इंद्रियों को नष्ट करने पर भी रहेगा? उस चेतन उस स्व स्वरूप को सोचे अनुभव करें।

परमधाम

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।

गुरूदीक्षा

गूरू के पास अज्ञानी बनकर जाना चाहिए!
ज्ञान हमेशा झुककर हासिल किया जा सकता है।
एक शिष्य गुरू के पास आया। शिष्य पंडित था और मशहूर भी, गुरू से भी ज्यादा। सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे। समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था। ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की। संयोग से गुरू मिल गए। वह उनकी शरण में पहुंचा।

गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, ‘तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो। तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है। तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।’ शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे। वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा। कई हजार पृष्ठ भर गए। पोथी लेकर आया। गुरू ने फिर कहा, ‘यह बहुत ज्यादा है। मैं बूढ़ा हो गया। मेरी मृत्यु करीब है। इतना न पढ़ सकूंगा। तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।’

पंडित फिर चला गया। तीन महीने लग गए। अब केवल सौ पृष्ठ थे। गुरू ने कहा, मैं ‘यह भी ज्यादा है। इसे और संक्षिप्त कर लाओ।’ कुछ समय बाद शिष्य लौटा। एक ही पन्ने पर सार-सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे। कहा, ‘तुम्हारे लिए ही रूका हूं। तुम्हें समझ कब आएगी? और संक्षिप्त कर लाओ।’ शिष्य को होश आया। भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया। गुरू के हाथ में खाली कागज दिया। गुरू ने कहा, ‘अब तुम शिष्य हुए। मुझसे तुम्हारा संबंध बना रहेगा।’ कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।

जीवन का सत्य

क्रिया जनित सुख में “राग” ही विषयानंद की वासना है। क्रिया द्वारा मिले हुए सुख का संस्कार मन पर छूट जाता है; फिर उस विषय की चर्चा से, समघटना के दर्शन से या एकांत चिंतन से, क्रिया जनित सुख का पड़ा हुआ संस्कार जाग जाता है। बस यही है “काम”; जिससे फिर उसी कर्म करने की मन में कामना होती है। यदि कामना की पूर्ति की गई, तो पराधीनता, कामना वृद्धि, शक्ति -ह्रास और असमर्थता है। कामना दमित की गई, तो बार-बार याद आएगी और संस्कार गहरा होगा तथा अन्त: में प्रवेश कर जाएगा। अन्त में, ओझल तक हो जाएगा; किंतु, मिटेगा नहीं और फिर कभी न कभी बाहर आएगा। फिर दमन के लिए उतना ही बल प्रयोग करना पड़ेगा।
दमन से संस्कार की मौत नहीं होती या क्रिया जनित सुख का राग – विषासक्ति नहीं मिटती। अतः क्रिया रहित होकर मन में होने वाले संस्कारों को उठने दिया जाए और साक्षी, असंग, शांत और मौन होकर सहज भाव से देखा जाए। उठने वाले संस्कार का न तो रस लिया जाए और न उससे द्वेष किया जाए; तो संस्कार अपने- आप आना बंद कर देंगे। उस स्मृतिशून्य, अप्रयत्न दशा में, जो आनंद स्वयं में मिलेगा; उससे क्रिया जनित सुख का राग मिट जाएगा; विषयासक्ति नहीं रहेगी; तब आवश्यक कर्म स्वत: होने लगेंगे। स्व में, आनंद से पूर्ण दशा में, सहज होने वाले कर्म का नाम ही सदाचार है। आत्मतृप्ति के बिना सदाचार का जन्म हो ही नहीं सकता। आत्मतृप्ति के अभाव में, विषय सुख के प्रति आकर्षण रहेगा। विषयाकर्षण के रहते, विषय का त्याग सदाचार नहीं है; इसे मिथ्याचार कह सकते हैं।

“कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।”

इस साक्षी साधना और ध्यान से बड़ी कोई ध्यान-साधना नही है।

याद

मैं तुम्हें एक सूत्र बताता हूं। आज से जब ध्यान में बैठोगे, तो यह ख्याल करने की कोशिश करना कि तुम रहे हो या नहीं? तुम पहले से ही निर्णय मत ले लो।यह बात तुम अपने से ही पूछो,जब तुम देख रहे थे या सुन रहे थे,तब तुम्हारा ज्ञान मौजूद था क्या? नहीं तो ज्ञान तो रहेगा; ज्ञान का ज्ञान नहीं रहेगा। ध्यान का ध्यान नहीं रहेगा। मन तो रहेगा; पर, उसका पता नहीं रहेगा। साक्षी तो रहेगा; पर,सा‌क्षी का ज्ञान नहीं रहेगा। तुम देखते समय या सुनते समय अपने आप से पूछ लेना, जो तुम्हे मालूम पड़ रहा है,क्या तब ज्ञान के बिना मालूम पड़ रहा है? तुम्हें तुरन्त ही यह लगेगा कि ज्ञान का ध्यान आ गया है। द्रष्टा पर ध्यान लौट आया है।
तुम्हारा दृश्य में ध्यान लगा रहता है; विषय में ध्यान उलझा रहता है। अन्य बातों में ध्यान उलझा रहता है। यदि यह प्रश्र करोगे कि क्या अन्य की प्रतीति बिना तुम्हारे है क्या? तुम्हें तुरन्त ही अपनी याद आ जाएगी। तुम्हें अपनी याद आती रहेगी। फिर तुम कहोगे कि आज तुमको अपनी याद आती रही। याद रहेगी तो नहीं? याद आती रही। कुछ दिनों के बाद देखोगे कि अपनी याद बनी रही। फिर, इसके बाद कहोगे कि तुम्हें अपनी याद की ज़रूरत ही नहीं है; हम हैं ही। बिना हमारे कुछ होता ही नहीं है।

सबसे बड़ा पाप


माताएं जब बच्चों को चलना सिखाती हैं, तो जैसे ही वह पास आएगा, मां थोड़ा पीछे हटेगी, फिर थोड़ा और पीछे हटेगी। महात्माओं को भी तुम्हारी प्रवृत्ति को धीरे – धीरे जगाना पड़ता है। यह न समझना कि हम तुम्हें धोखा देने के लिए कह रहे हैं; बल्कि, हम तुम्हारे हित के लिए कह रहे हैं। इसीलिए, अपने प्रमत्त मन से कह देना कि पन्द्रह दिन के लिए प्रमाद न करे। हजार काम छोड़ो; लेकिन, सत्संग मत छोड़ो; क्योंकि, यही अपना काम है।
कई लोगों की इतनी जटिल परिस्थितियां हैं, जिनके कारण वे विवश होकर नहीं आ पाते हैं। ऐसे लोगों के लिए मुझे भी दुख होता है। उनके लिए मैं यही कहूंगा कि न आ सकें, तो कोई बात नहीं; लेकिन यह देखना कि मन प्रमाद से और चालाकी से कहीं ऐसा न कर रहा हो कि अब क्या करेंगे, दूर पड़ता है, तांगे में पैसे लगते हैं। इस प्रमाद से घूमाव- फिराव न करे, बाकी किसी कारण से न आ सको, तो कोई बात नहीं।
देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित नहीं
संसार के सब नुकसान सहे जा सकते हैं; लेकिन, आत्मा का अकल्याण नहीं सहा जा सकता। मकान के गिरने से शरीर का गिरना ज्यादा बुरा है। जो आदमी अपने अकल्याण को सह रहा है; वह आत्म -हत्यारा है। दुनियां में सब की हत्या कर लेना बुरा नहीं है; परंतु अपनी हत्या सबसे बड़ी हत्या है। इसीलिए, आत्महत्या करने वाले का उद्धार हमारे ऋषियों ने भी नहीं बताया। सब पापों का मोक्ष है; लेकिन, आत्महत्या का प्रायश्चित नहीं। आत्महत्या से मेरा मतलब है, जो अपने आप को अभिमानी समझे। जो देहाभिमान में जकड़कर अपने आप को मरने वाला मानता है, वह तो मुक्त हो ही नहीं सकता। अतः, शरीर का अभिमान ही छोड़ो और कोई रास्ता नहीं है।
कुपथ्य कर- कर दवा खाना वैसा ही है, जैसे चोरी करके पुलिस को ₹10 चढ़ा देना। मधुमेह में शक्कर भी खा लो और गोली भी। यह तो हो गया बराबर; लेकिन, देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित्त नहीं। इसका एक ही तरीका है कि देहाभिमान को छोड़कर आत्मा को देखो–

“देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ,
यत्र-यत्र मनोयाति तत्र-तत्र समाधया:।”


देहाभिमान गल जाता है, तब परमात्मा का बोध होता है। जिस आदमी की चेतना परम ब्रह्म परमात्मा में लीन होती है; परमात्मा भाव को प्राप्त होती है; वही आदमी अजर, अमर और परमात्मा भाव को प्राप्त हो जाता है; मुक्त हो जाता है। चाहे कोई भी हो, सबको सत्संग की जरूरत पड़ेगी; आज नहीं तो कल पड़ेगी। इसलिए, सबको सत्संग करना चाहिए।

इस विषय पर विस्तार करते हुए गुरुदेव हरदम ये लाइन दोहराते है …

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्र का ये बाप है

उदाहरण

गुरुदेव इतनी सरल भाषा में वेदांतदर्शन समझाते हैं कि कभी कभी विश्वास नहीं होता कि जिसके लिए बड़े बड़े ज्ञानी लोग कितना भटके यहाँ गुरुदेव के चरणों में बैठ कर उस बंधे हुए ज्ञान को सरलता से गांठ की तरह खोल देते हैं।

देखो, यह एक गाँठ है। (एक कपड़े में अलग-अलग तीन गाँठें लगाईं)। पहले नंबर की गाँठ का नाम रख लो जाग्रत, दूसरे नंबर की गाँठ का नाम  स्वप्न और तीसरे नंबर का  नाम सुषुप्ति।  अब ये तीनों चक्कर लगाएंगी। जब पहली चली जाती है तो दूसरी आती है।  जब दूसरी चली जाती है तब तीसरी आ जाती है। और जब तीसरी जाती है तब फिर पहली वाली आ जाती है। इस तरह यह प्रक्रिया चलती रहती है । इनमें कोई भी परमानेंट नहीं है और किसी ने किसी को देखा भी नहीं है। कोई एक चौथा है जिसने पहली को भी देखा, दूसरी को भी देखा और तीसरी को भी देखा। वही चौथा बता पाता है कि जाग्रत आया था फिर स्वप्न आया फिर सुषुप्ति आयी थी। अर्थात्  इन का गवाही कौन है, साक्षी कौन है ? क्या जाग्रत मेरी गैरहाजिरी में हुई? स्वप्न, सुषुप्ति क्या मेरी गैरहाजिरी में हुईं? क्या सुषुप्ति(गहरी नींद)  जाग्रत की गवाह है या जाग्रत सुषुप्ति की गवाह है? इन तीनों में जो गवाह है वह आप हैं।

अपने अस्तित्व को जानो

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, आप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। ‘चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता।’ चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो! 
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता। तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? ‘इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति’ यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं। वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं! 
 तब भी थे तुम ही! ‘अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय’  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए ‘हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!’

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

मोह ये है के आप दृष्टा हो और अपने को दृष्टा नही मानते, देह मानते हो।  जिंदा हो, और मरा मानते हो सपने में! अभी जागृत की नहीं कहते। सपने में जिंदा होते हुए गर्दन काट दी किसी ने तो आप मर गए। तो दुखी कौन है? जिस ने मार दिया वह तो खुश है, तुम दुखी हो! और दुखी क्यों हो? तुम असल में देह मानते हो और गर्दन कट गई इसलिए तुम स्वीकार कर लेते हो, स्वप्न में! जागृत की तो अभी मैं छोड़ देता हूं। चूंकि  तुम देह अपने को मानते हो इसलिए स्वप्न में  गर्दन काट दी।  तुम चेतन उस समय भी हो! सपने में तो हो ना? जागृत की मौत की छोड़ दो। स्वप्न की मृत्यु में तुम चेतन हो। पर क्योंकि तुम देह को मैं मानते हो इसको बोलते हैं देहाध्यास। दर्द होने लगे इसका नाम देहाध्यास नहीं है। ‘देह हूं’ यह विचार देहाध्यास है और ‘देह हूं’ इस विचार के कारण जो मौत हुई है उस देहाध्यास के कारण तुम सोचने  लग गए कि मैं मर गया हूं। अंधेर है!! मैं सोचने लग गया कि मैं मर गया हूं! दुखी भी होने लगा और जिंदा भी हूं !! तो जागृत में भी क्या होगा? जब प्राणांत होने लगेगा तो तुम्हारे अंदर विचार आएगा कि मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ ! अब कोई क्रिया होगी, प्राण निकलने लगेगा, कुछ होगा तो आपको लगेगा कि मैं मर रहा हूं। जबकि आप जान रहे हो! इसलिए कई ने ध्यान का अभ्यास भी बताया है। जब प्राणांत हो, नाड़ी छूटने लगे तो उसके भी दृष्टा रहो! हो तो दृष्टा ही, पर मानते नहीं हो! ‘मर रहा हूं’ का विचार पकड़ लेता है, मर रहा हूं का ख्याल पकड़ता है। मैं मृत्यु हो रही है उसको देख रहा हूं, प्राण सिकुड़ रहा है मै देख रहा हूं, प्राणों के उत्क्रमण को मैं देख रहा हूं, प्राण निकल गया!
तो…. प्राणों को लिए हुए मैं जिंदा ही तो हूं!! देहांतर जाकर प्राप्त होगा पर तुम सोच ना पाओगे कि मैं निकल रहा हूं! देर छूट गया पर मैं बच गया! नहीं सोच पाओगे, घबरा जाओगे! मरने के नाम से ही चिंता हो जाती है। इसलिए पहला अभ्यास दृष्टा होने का है। बैठे में भी द्रष्टा रहो, लेटे में भी दृष्टा रहो और नींद के पहले भी देह के दृष्टा रहते सो जाओ। यह एक अभ्यास है।
दूसरा अभ्यास इससे  ज्यादा जोरदार है। अब नींद आ रही है उसके भी साक्षी रहो। आलस्य आ रहा है उसके भी साक्षी रहो। कभी-कभी ड्राइवर जो गाड़ी चलाते हैं उनकी एकाग्रता बहुत होती है। कभी-कभी वह सो भी लेते हैं एक-दो सेकंड को। अच्छा खुला रास्ता मिल जाता है और आलस्य बहुत है तो एक दो  सेकंड को भी सो लेते हैं। माने वह अपने आलस्य को जानता है, आंखें बंद करता है सावधानी से और फिर सावधान हो जाता है। तो जहां बुद्धि सो जाती है तो ‘नींद आ गई और नींद चली गई’ यह जरूर जानना चाहिए। नींद के आ जाने का और नींद के चले जाने का! अब यह दो बातें हैं- एक है चिदाभास और एक है चेतन। चेतन का आभास और चेतन! चिदाभास जाता है तो उसको चेतना भी कह सकते हैं। चेतना जगती है, चेतना सोती है। चेतना को हिंदी में भी और अंग्रेजी में भी कॉन्शसनेस, सबकॉन्शसनेस, अनकॉन्शसनेस कहते हैं। तो ‘अनकॉन्शसनेस होती है’ का प्रमाण क्या है? नींद होती है, इतनी देर होश नहीं रहा, इसमें सबूत कौन हैं? क्या बेहोशी का सबूत बेहोशी हो सकती है? उस बेहोशी का सबूत भी चेतन ही है!