बाज पक्षी जिसे हम ईगल या शाहीन भी कहते है। जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है उस उम्र में एक मादा बाज अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है। पक्षियों की दुनिया में ऐसी Tough and tight training किसी भी ओर की नही होती।
मादा बाज अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Kmt. ऊपर ले जाती है। जितने ऊपर अमूमन जहाज उड़ा करते हैं और वह दूरी तय करने में मादा बाज 7 से 9 मिनट का समय लेती है।
यहां से शुरू होती है उस नन्हें चूजे की कठिन परीक्षा। उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस लिए पैदा हुआ है? तेरी दुनिया क्या है? तेरी ऊंचाई क्या है? तेरा धर्म बहुत ऊंचा है और फिर मादा बाज उसे अपने पंजों से छोड़ देती है।
धरती की ओर ऊपर से नीचे आते वक्त लगभग 2 Kmt. उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है। 7 Kmt. के अंतराल के आने के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने लगते है।
लगभग 9 Kmt. आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते है। यह जीवन का पहला दौर होता है जब बाज का बच्चा पंख फड़फड़ाता है।
अब धरती से वह लगभग 3000 मीटर दूर है लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है। अब धरती के बिल्कुल करीब आता है जहां से वह देख सकता है उसके स्वामित्व को। अब उसकी दूरी धरती से महज 700/800 मीटर होती है लेकिन उसका पंख अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है की वो उड़ सके।
धरती से लगभग 400/500 मीटर दूरी पर उसे अब लगता है कि उसके जीवन की शायद अंतिम यात्रा है। फिर अचानक से एक पंजा उसे आकर अपनी गिरफ्त मे लेता है और अपने पंखों के दरमियान समा लेता है।
यह पंजा उसकी मां का होता है जो ठीक उसके उपर चिपक कर उड़ रही होती है। और उसकी यह ट्रेनिंग निरंतर चलती रहती है जब तक कि वह उड़ना नहीं सीख जाता।
यह ट्रेनिंग एक कमांडो की तरह होती है।. तब जाकर दुनिया को एक शाहीन यानि बाज़ मिलता है l शाहीन अपने से दस गुना अधिक वजनी प्राणी का भी शिकार करता है।
हिंदी में एक कहावत है… “बाज़ के बच्चे मुँडेर पर नही उड़ते।”
बेशक अपने बच्चों को अपने से चिपका कर रखिए पर एक शाहीन की तरह उसे दुनियां की मुश्किलों से रूबरू कराइए, उन्हें लड़ना सिखाइए। बिना आवश्यकता के भी संघर्ष करना सिखाइए। ये Tv के रियलिटी शो और अंग्रेजी स्कूल की बसों ने मिलकर आपके बच्चों को “ब्रायलर मुर्गे” जैसा बना दिया है जिसके पास मजबूत टंगड़ी तो है पर चल नही सकता। वजनदार पंख तो है पर उड़ नही सकता क्योंकि…
“गमले के पौधे और जंगल के पौधे में बहुत फ़र्क होता है।“
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स्वीकार करो
तुममें जो शक्ति है, उसको स्वीकार करो और भगवान में जो शक्ति है, वह स्वीकार करो। तुममें अल्प शक्ति है। भगवान में महत् शक्ति है। विराट निर्माण की शक्ति भगवान में ही है। गृह निर्माण, कपड़ा निर्माण और अन्य निर्माणों की शक्ति तुममें है। आंखें खोलना और मींचना यह शक्ति तुमको दी गई है। यदि तुममें यह ताकत न होती, तो सब एक समय पर ही न सो जाते; एक समय पर ही न जग जाते? बिजली देना, पावर हाउस से कनेक्शन देना, यह उसका काम है। वहां से बिजली सप्लाई करना, यह उसका काम है; लेकिन, स्विच ऑन और ऑफ करना किसका काम है? क्या यह पावर हाउस वालों का काम है? तुम्हारे घर का स्विच ऑन और आंफ करने क्या वे लोग आएंगे? जगने और सोने का स्विच ऑन और ऑफ तुम करोगे कि वे करने आएंगे? सुबह चार बजे तुम उठोगे कि भगवान उठाएंगे? तुम्हें उठने की ताकत दे दी है; तुम चाहे चार बजे उठ जाओ, चाहे आठ बजे तक सोओ। यदि इंसान, इस विषय की भी जिम्मेदारी ईश्वर पर लादता है, तो वह बेईमान नहीं है? ईमानदारी से इस बात को कहना और कल से यह कहना छोड़ देना कि सब कुछ ईश्वर करता है।
जब तक शरीर है, तुम्हारा अपना कर्तव्य है। कर्तव्य नहीं करते हो, तो तुम बेईमान हो। बदमाशी तुम करो और भगवान पर डालो। शरारत तुम करो और ईश्वर के ऊपर मढ़ दो। दो पाप हुए। पहले तो गलती की और फिर ईश्वर पर डाल दी। तुम्हारे जैसा कोई और बेईमान होगा? तुम दोहरे पापी हो। पहले तो पाप किया और फिर उस पाप का जिम्मेदार भगवान को ठहराया। तुम महा पापी हो। इस पाप का क्षय कभी भी नहीं होगा। कम- से – कम यही स्वीकार कर लेते कि गलती तुम्हारी है , तो सुधरने की गुंजाइश थी। सुधरने की गुंजाइश थी , यदि तुम गलती करते होते? लेकिन, तुमने तो गलती करके भगवान पर डाल दी और अपने को निरपराध बना लिया । इसलिए , अब तुम कभी भी निष्पाप न हो सकोगे। कभी गलती सुधार न सकोगे। जो अपनी गलतियों का जिम्मेदार किसी और को समझता हो, वह बेईमान कभी ठीक नहीं होगा। सब लोग अपने बिगड़ने की जिम्मेदारी किसी और पर डाल देते हैं। आदमी जितना बेईमान, कोई जानवर भी नहीं है । आदमी महा बेईमान है।
मुस्लिम ईमान क्या है? वे ही लोग मुसलमान हैं, जिनका ईमान सही है, दुरस्त है। क्या मुसलमानों का ईमान सही है ? क्या वे सब कुरान के अनुसार चलते हैं? सिक्ख माने शिष्य। अब ये सब लोग क्या गुरु के शिष्य हैं, जो गुरुओं की वाणी में ही हेर – फेर करते हैं? ये तो गुरुओं के भी गुरु बन रहे हैं। जो गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को अपने ढंग से कहें; जो वाणी को हटाने का भी प्रयत्न करें; वे शिष्य हैं कि गुरु ? कम – से – कम सिक्ख तो सिक्ख बने रहें; मुसलमान तो मुसलमान बने रहें; मनुष्य तो मनुष्य बने रहें; तब तो बात भी है ।
भगवान क्या है?
जो दिखाई दे रहा है, भगवान का खेल है और जो भीतर जानने वाला है वह भगवान ही बैठा हुआ है और आप? आप या तो दिखने वाले हैं या देखने वाले हैं। अब आप बीच में हैं। जैसे समझाये – धान, तीन नाम हम आपको बताते हैं, छिलका, चावल और धान। हम धान को पहले लाते हैं, फिर धान में से छिलके को एक और तथा चावल को दूसरी ओर कर देते हैं। अब धान को पूछते हैं, तुम किधर हो?
ऐसे ही जो ‘मैं’ हैं न ‘मैं ‘, यह’ ‘मैं ‘एक तरफ है ‘देह’ और एक तरफ है ‘चेतन’। चेतन है चावल और देह है छिलका तथा अन्तःकरण, वृतियां आदि भी हैं छिलका। अब रहा यह मैं। यह’ मैं ‘चावल है या छिलका अर्थात आत्मा है या देह। पहले यह ‘मैं’ एक नाम था, धान’, अब दो नाम हो गये, चावल और छिलका तथा धान नाम गया। अभी तक “मैं” नाम देह और चेतन का मिला जुला नाम था। अब अलग – अलग कर दिए तो एक तरफ तो चले गए देह, मन, बुद्धि, अहंकार आदि और एक तरफ बचा चेतन।
अब “मैं” कहाँ गई? अब धान को या तो गायब कहें या चावल कहें या छिलका कहें। अब धान को चावल कहेंगे। क्योंकि चावल पाने के लिए ही धान की कटाई व छनाई की थी, छिलका पाने के लिए नहीं।
इसी प्रकार से “मैं” को ब्रह्म बनाने के लिए ही “मैं” की कटाई की, छनाई की, अर्थात सत्संग किया, स्वाध्याय किया, ध्यान किया। अतः यह “मैं” ब्रह्म, चैतन्य (यदि “मैं” रखना ही है तो) अन्यथा ‘मैं’ को मार दो। बस, चैतन्य है और जड़ है ‘मैं’ आदि कुछ है ही नहीं। चैतन्य है तो चैतन्य को कोई भय नहीं, मौत नहीं, अपना-पराया नहीं। यह जो ‘मैं’, “मैं” लगता था, वह तो अलग करते ही मर गया।
आप ही बताइए, इतनी मेहनत करके धान बोए थे, छिलके के लिए या चावल बढाने के लिए ? स्वाभाविक है कि चावल बढ़ाने के लिए। ऐसे ही, यह “मैं” जन्मा है, “मैं” बढ़ाये हैं। किसलिए? ब्रह्म ज्ञान के लिए, ब्रह्म होने के लिए या “मैं” आदमी होने के लिए? अतः बोध के पश्चात्, विवेक के पश्चात् चैतन्य अनुभव करें। ऐसा लगे जैसे ब्रह्म ही ब्रह्म है, ब्रह्म ही ब्रह्म है। “मैं” पहले देह के साथ एक था, अब चैतन्य के साथ एक हो गया। जो छिलका प्रधान होकर बोलते हैं वह कहते हैं, इस वर्ष धान बहुत हुए और कई लोग कहते हैं, इस वर्ष चावल बहुत हुए। बोलने की भाषा है। जो छिलका लगाकर बोलते हैं, वह धान कहते हैं और जो थोड़ा भीतर ध्यान लगाकर कहते हैं वह चावल कहते हैं। केवल दृष्टि का अन्तर है। अपनी दृष्टि को स्वरुप की ओर करें। सिर्फ अपनी दृष्टि को ही बदलना है। अपने आप दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाएगी आप सर्वस्य चेतन स्वरूप में खुद को या उसको खुद में महसूस करेंगे। गुरु सिर्फ जीवन में यही करते हैं की दृष्टि को उस ओर कर देते हैं जैसे हम रेडियो की फ्रिक्विएंसी बदल देते हैं फिर वही स्टेशन पकड़ता है और सही स्टेशन पकड़ता क्योकि इससे परे कोई ज्ञान नही, यही शाश्वत है सत्य है, भगवान है। आज जानो या कल जानना, समझना, घुलना, मिलना इसी में है तब तक चैन ना पाओगे क्योकि जन्म का कारण, देह का कारण ये सत्य जानना ही है…..अस्तु
आत्मा का स्वभाव
एक सज्जन ने पूछा है कि आत्मा निर्गुण है, उसमें देखने का गुण नहीं हो सकता और प्रकृति जड़ है, इसलिए वह देख नहीं सकती। फिर देखा कैसे जाता है? ( देखता कौन है )?
देखना, जानना और अनुभव करना किसका धर्म है ?
परमात्मा या आत्मा, जो चैतन्य है, उसमें देखने का गुण नहीं है; क्योंकि, वह निर्गुण है। जिसमें कोई गुण नहीं होता, उसमें देखने का भी गुण नहीं होता; तभी तो उसे निर्गुण कहते हैं। निर्गुण देख नहीं सकता। प्रकृति गुण वाली है, उसमें गुण हो सकते हैं; लेकिन, वह स्वयं जड़ है; इसलिए, उसमें भी देखने का गुण संभव नहीं है। जानने का गुण संभव नहीं है। फिर यह देखना, जानना और अनुभव करना किस का गुण है? कौन अनुभव करता है? इस प्रश्न पर विचार करना है।
आप लोग यह जानते हैं कि आपको आंखों से रूप दिखाई दे रहा है और कानों से प्रवचन सुनाई पड़ रहा है। यह स्पष्ट है। इस सत्य को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। आप यह भी जानते हैं कि स्वप्न के समय इन आंखों से दिखाई देना और कानों से सुनाई देना बंद हो जाता है। फिर यह देखना धर्म किसका है?
यदि हम दूरबीन ले लेते हैं, तो बहुत दूर तक दिखाई देने लग जाता है और यदि हम दूरबीन को उतार देते हैं, तो जिस चीज को देख रहे थे, उस चीज का दिखना बंद हो जाता है। हम एक खुर्दबीन ले लेते हैं, तो ऐसे अवयव, जो कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं, दिखाई देने लगते हैं। जब हम उसे हटा देते हैं, तो दिखाई देना बंद हो जाता है। ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो आंखों से सीधी नहीं दिखाई देती। देखना गुण क्या दूरबीन का है या खुर्दबीन का है या नेत्र का है? क्या कहेंगे? दूरबीन से वह वस्तु दिखाई पड़ती है और दूरबीन के बिना दिखाई नहीं पड़ती। तो देखने की जो सामर्थ्य है, वह नेत्र की है या दूरबीन की है?
हम इस बात को और स्पष्ट करेंगे। यदि आप देखना गुण खुर्दबीन या दूरबीन का कहेंगे, तो हम आपकी आंखें हटा लेते हैं। अब कहो खुर्दबीनें और दूरबीनें देखेंगी? एक के बाद एक कितनी ही दूरबीनें लगा दीजिए; किंतु, वस्तु का दर्शन नहीं होगा। आप यह भी जानते हैं कि यदि दूरबीन हटा लेते हैं, तो वस्तु दिखाई देना बंद हो जाती है। इस समय भी आंखों में देखने का गुण है; किंतु, दिखाई नहीं देता दूरबीन उसका साधन बनती है; साधन न होने पर दिखना बंद हो जाता है। इसी तरह आँखे भी साधन ही हैं। साधन और साध्य को समझना होगा बारीकी से जानना होगा तभी मानोगे और बुद्धि में छपेगा नहीं तो सुनने का मनोरंजन होगा कल तक सब भूल जाओगे इसलिए इसे समझने का सतत प्रयास ही इस से भलीभांति अवगत करा सकता है।
कितने जागरूक?
कोई यह कह सकता है कि अध्यात्मवाद व्यर्थ है। मैं तो नहीं कह सकता कि अध्यात्म मार्ग गलत है। हो सकता है कि उसके शोधन में कोई दोष हो,उसके सेवन में कोई दोष हो। इसलिए, हमारा एक ही निवेदन है कि आप अपने जीवन की उस अभिलाषा की ओर भी जागरूक हो जावे कि आपको क्या चाहिए? उसके लिए आप कितने जागरूक हैं? सच्चाई से शोधन करें कि कितना समाज रोटी और कपड़े के लिए जागरुक है? जितना मनुष्य बिल्डिंग के लिए जागरुक है क्या उतना कल्याण के लिए भी जागरुक है? क्या समाज सतर्क और सावधान है? लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि रोटी, कपड़ा और मकान की ओर न जागें।
शरीर और आत्मा दोनों ही की ओर जागें। बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनकी रोटी की भी समस्या है, जिनकी कपड़े और मकान की भी समस्या है। हमारे देश की नौका दोनों तरफ ही डगमगा गई है। हम लोग धर्म की तरफ भी चूक गए हैं और भौतिकवाद की तरफ भी चूक गए हैं। आज हमको ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, जो संसार के विषय में भी सोचें और मोक्ष के विषय में भी सोचें। ऐसे मानव का जन्म होना चाहिए, जो दोनों पहलुओं पर विचार करें। हम बहुत दिनों तक एकांगी रहे हैं ।
जिस तरह शरीर की पूर्ति आवश्यक है उसी तरह मन या आत्मा की पर समस्या यही है कि जो दिखता नही उसे आप मानते नहीं, पर कब तक क्योंकि एक न दिन तो मानना ही पड़ेगा सोचना ही पड़ेगा फलों में स्वाद कहाँ से आया, तुम्हारा भोजन किसने पचाया, कौन है जो तुम्हारी नींद में तुम्हारे सपनों को देखता है…इसको जानना अत्यंत आवश्यक है आज नही तो कल इस जन्म नही तो अगले यह ही जानना होगा तभी इस प्रपंच से पार होंगे
ज्ञान क्यों नहीं हो पाता
बोध क्यों नहीं हो पाता? इसलिए कि जिस चीज का बोध करना है, उससे संबंधित सजातीय परमाणु या अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए। क्योंकि, जिस विषय का बोध होगा-जिस दृश्य का बोध होता है- उसके सजातीय अंश देखने वाले हिस्से में कुछ-न-कुछ सूक्ष्म रूप में होना चाहिए।अन्यथा उस वस्तु को पकड़ा नहीं जा सकता। आप यह बात व्यवहारिक रुप से रेडियो में देखते हैं। जिस स्टेशन के शब्द पकड़ने होते हैं, वह हिस्सा रेडियो में भी होना अनिवार्य है। यदि , रेडियो में वह स्टेशन नहीं होता, तो उस स्टेशन के शब्द पकड़े नहीं जा सकते। अतः जिस चीज को हम पकड़ते हैं, उसका सूक्ष्म अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए , नहीं तो वह चीज पकड़ी नहीं जा सकती।
यदि किसी चीज को देखना है, तो दृश्य में भले ही उतनी चेतना न हो; लेकिन ,दृश्य का हिस्सा (अंश ) दृष्टा में भी होना जरूरी है। इसीलिए, बिना दृश्य के लिए हुए दृष्टा सिद्ध नहीं होता। यदि शब्द ग्रहण करना हो, तो जिस चीज से शब्द की उत्पत्ति हुई है, उसका कुछ -न- कुछ हिस्सा कान में होना जरूरी है। इसीलिए, श्रोत्र इंद्रिय का निर्माण भी आकाश से हुआ है। उसी से शब्द का भी निर्माण हुआ है। जिससे नेत्र इंद्रिय की उत्पत्ति हुई है, उसी से रूप की उत्पत्ति हुई है, रूप भी तेज का है और नेत्र इंद्रिय भी तेज की है। फिर आप कहेंगे दो क्यों हैं? इसीलिए कि एक देखे और एक दिखाई दे। इसका हम अभी स्पष्टीकरण करेंगे।
दृश्य द्रष्टा के विषय को स्पष्ट करने का मेरा विचार है। दृश्य और दृष्टा दोनों ही एक हैं। इसके समझने के लिए एक उदाहरण चुना है। जिस लकड़ी को जलाना होता है, उसको हम कहते हैं लकड़ी है घास है और जिससे जलाते हैं, उसे कहते हैं आग है। जिसे लकड़ी कहते हैं, उस लकड़ी में भी आग होती है; नहीं तो कोई भी आग से लकड़ी को नहीं जला पाता। यह वैज्ञानिक सत्य है कि यदि लकड़ी में आग अव्यक्त रूप में ना हो, तो कोई भी उसको नहीं जला सकता। अव्यक्त आग, जो लकड़ी में विद्यमान है, वह व्यक्त अग्नि के स्पर्श से व्यक्त हो जाती है और उस लकड़ी को जलाना शुरू कर देती है। अव्यक्त को व्यक्त होना चाहिए। चाहे वह लकड़ी के घर्षण द्वारा हो या जली आग के द्वारा हो या अपने आप घर्षणों से हो। कई बार दो लकड़ियां आपस में रगड़ती रहती हैं और उनमें आग प्रकट हो जाती है। अप्रकट अग्नि, जब प्रकट होती है, तो जलाना शुरु कर देती है।
आप जिससे वस्तु को जलाते हैं, उसको कहते हैं आग और जिसको जलाते हैं, उसको कहते हैं ईंधन, लकड़ी, कोयला आदि। लेकिन,जिसको आप आग कहते हैं,करता उसमें लकड़ी बिल्कुल भी नहीं है? क्या ऐसी आग आपने जिन्दगी में देखी है, जिसमें लकड़ी बिल्कुल न हो? दाहक आग लकड़ी का वह हिस्सा है, जो अग्नि के अधिकार में आ चुका है।जो दग्ध हो चुका है, उसमें स्थूलता तो काफी अंशो में विनष्ट हो गई है; लेकिन, फिर भी उसके अंदर लकड़ी के अवयव हैं, जो अग्नि रूप में हो गए हैं । उसको हम आग कहने लग गए हैं जो लकड़ी का हरूप में दिखती है उसे हम इंधन कहते हैं।
दृष्टा किसे कहते हैं? प्रकृति का जो हिस्सा चैतन्य से एकीभूत हो चुका है; जिस पर चेतन्य ने अपना अधिकार पा लिया है; जो चैतन्य का रूप हो सकता है; चैतन्य की चैतन्यता जिसमें प्रतिबिंबित हो गई है; विशेष हो गई है; वह दृष्टा है। मान लो आप कह दें कि दोनों ही लकड़ियां हैं। एक लकड़ी, दूसरी लकड़ी को जलाती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता। यदि अग्नि की कोई शक्ति में होती, तो लकड़ी को लकड़ी नहीं जला सकती। इसीलिए, अग्नि तो दोनों लकड़ियों में व्याप्त है- एक में प्रकट रूप में है, दूसरी में अप्रकट रूप में। जिसमें प्रकट रूप में अग्नि है, उसे दृष्टा, दग्धा और जलाने वाली अग्नि कहते हैं। जिसमें अग्नि अप्रकट है, उसे ईंधन कहते हैं।
गुणों के पार – मुक्त
पुज्य गुरूदेव बताते हैं, मुक्त कौन होगा ? जो गुणों से पार हो जाएगा।
गुण तीन प्रकार के हैं:
तमोगुण; मतलब आलस्य निद्रा। इस गुण में रहेंगे तो मरने के बाद अन्य योनियों में जाओगे। जैसे पक्षी, जानवर आदि।
रजोगुण; इस गुण में रहोगे तो मृत्यु के बाद भी मनुष्य योनी में ही आओगे।
सत्वगुण:बअगर इस दुनिया में सत्वगुणी रहोगे तो देवता बन जाओगे।
पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि तुम इन्हीं तीन गुणों में रहते हो। कभी जागृत कभी स्वप्न और कभी सुषुप्ति। इसको चक्र कहते हैं। उदाहरण से समझाते हैं, आपकी नाव पानी में चलती है। नाव में ही इस किनारे, फिर बीच में और आखिर में उस किनारे। नाव से तुम उतरे ही नही।
अपने को कैसे पहचाने कि हम तीन गुणों से बाहर गये।यह बहुत बडा रहस्य है। पुज्य गुरूदेव समझाते हैं—
जो जान जाएगा यह सब गुणों का काम है।मैं तो साक्षी हूँ। मेरा कोई आग्रह नही है।
जब सचमुच गहराई से दुख,चिन्ता, भय नही है। ऐसे ज्ञानी चुनाव रहित होते हैं। जो होता है,होने देते हैं।
जब अमर हैं तो धीर्घ आयु की जरूरत ही क्या है या मृत्यु का विरोध करोगे?
अगर खुद सुखस्वरूप हो तो सुख पाने की इच्छा करोगे। जब कमी ही नही है तो पूर्ति किसकी करोगे।
पुज्य गुरूदेव बताते हैं मुक्त वही है जो इन गुणों से पार हो जाएगा।ज्ञानी चुनाव छोड के गुणातीत होता है। जैसे सागर नदियों को बुलाता नहीं हैं अपने आप आ जाती हैं और मना भी नहीं करता है क्यों आ गये।सागर शान्त रहता है।उदाहरण से समझो—
जैसे नारियल में पहले सिर्फ पानी होता; फिर पानी और गिरी भी; और अन्त में खाली गिरी।कोश से चिपका नही।अलख होता है, बाहर नही।
जैसे ज्योति जल रही हैं। डक दी गई। बाहर वालों के लिए वह बुझी सी है, पर ज्योति से पूछो कि तुम जगी हो या सोई हो।
क्या सही पूजा करते हो?
मन में राग और द्वेष का त्याग करो। सुनते रहो, देखते रहो, देखना मना नहीं है, सुनना मना नहीं है। जो कुछ होता है होने दो पर होने वाली क्रियाओं के प्रति, विषयों के प्रति, राग और द्वेष का त्याग करो l अच्छा बुरा यह सोचना बंद करो। फिर बताएं…….. छोटा बच्चा जब किसी को देखता है तो अच्छा बुरा नहीं देखता बस देखता है। हम जब भी देखते हैं या तो अच्छा देखते हैं या बुरा देखते हैं, अच्छा सुनते हैं या बुरा सुनते हैं, यजुर्वेद में एक प्रार्थना की गई है – यदि देखना सुनना ही है तो क्या करें? “भद्रं कर्णेभि: श्रूणुयाम् देवा” हम कल्याण वाली बातें कानों से सुने, आंखों से कल्याण जिनके दर्शनों से होता है उनके दर्शन करें। इसलिए रामायण में कह दिया “संत दरस जिमि पातक टरही” संत के दर्शन से पातक टल जाते हैं l अर्थात “हम दिव्य लोगों का दर्शन करें, इससे हमारे मन की बुरी वृत्तियां खत्म होगी।” आंखों से अच्छा देखे, कानों से अच्छा सुने और हम हाथों से कौन सा काम करें? यज्ञ करें! निष्काम भावना से, पवित्र भावना से यज्ञ करें! जब यज्ञ करते हैं तब स्वाहा कहके आहुति डालते हैं ऐसे ही हम अपने हाथों से यज्ञ करें, पूजा करें। भगवान ने गीता में एक बात और कही – “स्वकर्मणा तो व्यर्थ सिद्धिं विंदंति मानवः” अपनी इंद्रियों के द्वारा शुभ कर्म करवाना। अपने कर्म से हम भगवान की पूजा करें माने हम जो भी करें वह भगवान की पूजा बन जाए। मंदिर में जाकर जो करते हैं वही पूजा नहीं सुबह से शाम तक हर कर्म को भगवान के लिए करें। “शुभ कर्मणा समाव्यया” अपने कर्मों से उसकी पूजा करें। हमारा उठना, हमारा बोलना, हमारा करना, हमारा सोचना जैसे सब भगवान के लिए हो! जैसे कोई मंदिर के लिए फूल लेने गया तो फूल लेना पूजा के अंतर्गत है। यद्यपि जा कहां रहा है? बगीचे में। पर फुल किसलिए? पूजा के लिए जा रहा है। तो मार्ग में जाना भी पूजा हो गई। भगवान राम फुल लेने गए “लेन प्रसून गए दो भाई” फुल लेने के लिए बगीचे में गए। किसके लिए? भगवान के लिए! गुरुदेव की पूजा के लिए! तो अभिप्राय है और तो हम सोचते नहीं। शादी हो गई, शादी भी भगवान के लिए करो। आप शादी करोगे, पुत्र पैदा होगा तो वह भगवान की सृष्टि को चलाने के लिए होगा, राष्ट्र के काम के लिए होगा। इसलिए हम शादी क्यों करते हैं की राष्ट्र की सेवा करें। शादी भी यज्ञ हो जाए! बल्कि गीता में तो यह कह दिया कि जो खाओ वह भी पूजा बन जाए! भोजन को अंदर की अग्नि में आहूत करना यज्ञ है। क्या होगा? उससे रस रक्त बनेगा। इससे शरीर चलेगा और शरीर क्या करेगा? भगवान की भक्ति करेगा! तो हमारा जीवन ईश्वर की आराधना हो जाए! मंदिर जाना भी आवश्यक है, यह प्रतीक है। भगवान की पूजा करना यह भी। पर धीरे-धीरे पूरा जीवन ही भगवान की पूजा में लगा दे। कथा सुने। क्यों? क्योंकी कथा सुनने से ऐसी दृष्टि मिलेगी की पूरा जीवन ही पूजा बन जाएगा। इसलिए खाना पूजा, खिलौना पूजा, शादी पूजा, बच्चों का पढ़ना पढ़ाना पूजा! “यदि पूजा करना सीखना है तो सत्संग करो” तभी तो आएगा। ‘अपने कर्मों से भगवान की पूजा करो!” आपको लगता होगा कि भगवान के मंदिर गए तो ही पूजा होती है पर यहां यह भाव नहीं है।
नशे की आदत
अच्छे गायकों के बीच में कई बार अनिभिज्ञ भी बैठते हैं जो उस विद्या के जानकार नहीं हैं फिर भी वे गायकी का आनंद लेते हैं। यद्यपि वे ज्यादा गहराई में तो नहीं जाते पर गायकी का आनंद लेते हैं। इसी तरह इस सृष्टि की भी बड़ी गहराई है और इस सृष्टि का रहस्य मनुष्य ही जान सकता है। वह भी तब जब कोई गुरुमुख जनाए। इसलिए यह भी आश्चर्य है। “आश्चर्यवत् पश्यति कश्चित् एनम्।”
किसी किसी को गुरुओं पर, ग्रंथों पर, ऋषियों की सोच पर आश्चर्य होता है। एक मूर्ख से कहो कि जगत कुछ भी नहीं है, ब्रह्म ही ब्रह्म है तो उसे क्या आनंद आएगा? करोड़ों लोग ऐसे हैं जो ईश्वर को, ब्रह्म को गप्प मानते हैं। यदि उनसे कोई ब्रह्मवेत्ता शास्त्रार्थ करे और कह दे कि जगत नहीं है तो वह हार जाएगा। क्योंकि सब गवाही उसके होंगे। कहते हैं कि उल्लुओं ने अपने समाज में प्रस्ताव पास करा लिया कि सूर्य नहीं है जैसे, तमाम राजनैतिक व धार्मिक नास्तिक लोग कहते हैं कि यह ईश्वर है ही नहीं। कभी- कभी आपको भी लगता होगा कि पता नहीं कि ईश्वर है भी या नहीं? यह भी एक झंझट ही है। इसलिए बहुत से लोग ज्यादा इस पचड़े में नहीं पड़ते। फिर भी हम लोग पता नहीं तुम्हें इस पचड़े में क्यों फँसाते हैं? जैसे नशेड़ी नशे की आदत डलवाता है ऐसे ही हम लोग तुम्हें बिना मतलब के इस पचड़े में डाले हुए।
मैं झूठ नहीं बोलता, कभी-कभी लगता है कि तुम्हें इस पचड़े में न डालूँ । तुम से कह दूं कि जाओ आराम से पति की सेवा करो, घर का काम करो, बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ, देश का ख्याल करो। बाकी संत भी आपको इस पचड़े में कम डाल रहे हैं। वे सीधा-सीधा आपके काम की बात करते हैं, देश की बात करते हैं। और हम आपको पचड़े में डाले हुए हैं। क्यों पचड़ा कहते हैं? क्योंकि इसका लाभ तुम्हें अभी समझ ही नहीं आता । और हमें क्या लगता है? कि सब लाभ हो जाएं पर इस लाभ के बिना कोई लाभ लाभ नहीं है।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
क्या इससे बड़ा कोई लाभ है? या ऐसा कोई लाभ जो हानि में न बदल जाए? ऐसा कोई लाभ बताओ जिसमें हानि ना हो? पुत्र हुआ तो क्या हानि नहीं होनी? कुछ सुख मिला तो क्या वह जाएगा नहीं? सब जाता है। नहीं जाने वाला कोई तत्व है तो वही एक है और तो सब मात्र प्रतीति हैं। वे रहें तो क्या, ना रहें तो क्या ? दिखें तो क्या, ना दिखें तो क्या? क्या फर्क पड़ता है इनके होने, ना होने का।
इसलिए वेदांत सुनने के पहले विवेक और वैराग्य जरूरी हैं और इसके साथ ही शरीर रहते थोड़ा कष्ट सहने के लिए तैयार होना, थोड़ा संयम रखना, प्रारब्धवशात् कष्ट आएंगे। शरीर है तो कष्ट आएंगे। हमें भी कष्ट हुए हैं। यदि यह समझें कि कष्ट नहीं होना चाहिए, हम तो परमात्मा के रास्ते पर चल रहे हैं तो ज्ञान निष्ठा में फिर पक्के नहीं हो पाओगे। इसलिए यदि कष्ट आएं तो उन्हें झेलो। दुःख मिला, दुःख मालूम पड़ा लेकिन दुःख से हमारे अपने मोक्ष के प्रति भय नहीं होना चाहिए।
यस्य प्रसादत् पतित स्वपावनः भवनति संसार सुतारण शिवाः।
मंण्डलेश्वराणाम् परमेश्वरं हरिम् श्री परमानन्द प्रभुं ईशमाश्रये।।
जिनकी कृपा को पाकर अत्यन्त पतित प्राणी भी परम पवित्र होकर संसार को तारने की सामर्थ वाले और कल्याणकारी बन जाते हैं मंण्डलेश्वरों के भी ईश्वर उन प्रभु श्री परमानन्द जी महाराज को मैं चरण शरण ग्रहण करता हूँ। ….शिवहरे
“वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकरूपिणम् ।”
गुरु क्या हैं ? गुरु बोध रूप हैं, चैतन्य रूप हैं, आत्म रूप हैं और साक्षी रूप हैं। गुरु साक्षी हैं। आपकी बुद्धि में जो साक्षी है, वह गुरु ही हैं। वे आपके भीतर बैठे हैं और आपको जान रहे हैं। आपके संकल्प को, आपकी वृत्ति को, आपकी चंचलता को, आपकी स्थिरता को परमात्मा जान रहे हैं। गुरु जान रहे हैं। परमात्मा आपके ह्दय में विराजमान हैं। वे आपके मन की एक – एक सैकण्ड की गति – विधि को जान रहे हैं। वे आपके सुमिरन को और श्वास की प्रक्रिया को भी जान रहे हैं। गुरु आपके भीतर विराजमान हैं। जिस दिन आप यह स्वीकार कर लेगें कि बाहर के इष्ट गुरु, बाहर के इष्ट परमात्मा आपके मन को जानने वाले हैं; आपकी बुद्धि के साक्षी हैं; आपके मन के प्रत्येक संकल्प को जानते हैं; उसी दिन आपको यह स्पष्ट हो जायेगा कि वे ही गुरु तुम्हारे भीतर हैं। उनसे कुछ छिपा नहीं है। वो जो स्वयं ब्रह्म होकर इस ब्रह्मांड में विराजमान हैं और वैसा ही जो तुम्हें बनाने आये हैं जो तुम अपने को सिर्फ अमुक शरीर ही समझे बैठे हो।
हम विश्वगुरु हैं, थे और रहेंगे
“आदि गुरुवे नमः। जुगादि गुरुवे नमः। श्री सद्गुरुवे नमः।” जो आदि गुरु ने कहा था वही दूसरे ने कहा, वहीं तीसरे ने कहा, वही चौथे ने कहा। “इदं परंपरा प्राप्त” यह हमने परंपरा से पाया है, हमारी कल्पना नहीं है। हम कोई स्वयंभू गुरु नहीं है। “हमारा जन्म हमारे गुरु ने दिया है।” जैसे तुम स्वयं नहीं पैदा हुए, तुम्हारा पैदा करने वाला तुम्हारा बाप है और तुम्हारा बाप भी स्वयं पैदा नहीं हुआ, तुम्हारा बाप अपने आप हुआ था क्या? तुम्हारे बाप का बाप भी पैदा हुआ, बाप के बाप के बाप का बाप भी पैदा हुआ। ठीक है? “बिना पैदा हुआ बाप कौन है? केवल “स्वयंभू” जो स्वयं था! वही सब का पिता है” इसलिए उसको हम “परमपिता” कहने लगे। क्यों? जब से वेजिटेबल घी के नाम बिकने लगा तब उसे शुद्ध घी कहने लगे। शुद्ध घी नाम पहले था क्या? अच्छा सौ दो सौ साल पहले शुद्ध घी होगा क्या ? शुध्द घी तो था पर शुद्ध घी नाम नही था, घी था सिर्फ। तो शुद्ध नाम कब पड़ा? जब से फर्जी घी बन गया। तो जब से फर्जी बाप बन गए तब उसे परमपिता कहना पड़ा कि लोग कंफ्यूज ना हो जाए। जैसे सभी जननी बन बैठी तब उसे जगज्जननी कहा गया। ठीक है? तो सच्चाई यही है। तो अब हमें क्या करना है? हमे दो ही चीजें जाननी है- एक तो हम “सत्” है और दूसरा जानना है “सर्वत्र”, दो चीजें समझ लो। लोग माने ना माने, चाहे हिंदू को सांप्रदायिक कहे चाहे दकियानूसी कहे, चाहे कट्टर कहे और जो भी आरोप लगा सकते हैं, लगाएं “पर सच है कि यदि सत्य को ठीक ठीक समझा है तो भारत ने समझा है! ठीक ठीक समझाया है तो हमारे वेदों ने समझाया है और भारत के गुरुओं ने समझाया है!” इसलिए किसी देश का धन, सोना अच्छा होगा, किसी देश की राजनीति होगी, किसी देश में धन बहुत होगा। “हमारे देश में गुरु है ! हम गुरुओं के धनी हैं!” (अंग्रेज ) राजनीति में कितने खिलाड़ी रहे जब विश्व मे शासन किया है! विश्व गुलाम रहा है, विश्व! शायद आप भी नही समझते ,भारत जिनका गुलाम था अमेरिका भी उनका गुलाम था, रूस भी उन्हीका गुलाम था। विश्व को गुलाम बना के रखा है अंग्रेजो ने, इतने दिमागदार थे राजनीति में! आज भी अभी उन्हीं की भाषा चलती है। कही चले जाओ, हिंदी के बिना काम चल जाएगा। साउथ में भी जाओ, हिंदी नही चल रही इसी देश में। और देश में तो छोड़ो। आज भी अभी हम गुलाम है उनकी भाषा के। पर फिर एक ये कह दूँ…. राजनीति में उनके हम गुलाम हो गए। (काफी वर्षों तक वे) रहे, मुश्किल से अभी वो गए पर अभी उनकी गुलामी नही गई, उनकी मानसिकता नही गई। “पर उपनिषद् विद्या के लिए आज भी वे भारत ही आते है।” रूस के आते हैं , अमेरिका के आते हैं, और भी कई देश के आते है। “तो गुरु खोजना हो तो भारत में !” जैसे सेव कश्मीर के, कही के कुछ, कही के कुछ। जैसे हमारे जन्मभूमि के पास अमौली की हवन सामग्री फेमस थी, लेकिन कही के लोटे प्रसिद्ध है, कही के ताले प्रसिद्ध है। ठीक है? ऐसे ही कही का कुछ, कही का कुछ विश्व मे प्रसिद्ध है। पर “अध्यात्म जो है वो भारत का था, भारत में आज है, और भारत में ही रहेगा। इसलिए विश्वगुरु हम थे, विश्वगुरु हम आज है, और विश्व गुरु हम रहेंगे।”
ॐ शांति: शांति: शांति: