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जो स्वयं ब्रह्म हो.. वो गुरु ही पार लगा सकता है

जब परमपिता स्वरुप सतगुरु ने हमें अपनाया है, तो इसमें तो दो मत ही नहीं, सागर खुद नदियों को अपने में मिलाने बांहें फैलाए खड़ा है ,और नदियां तत्पर है सागर में समाने के लिए फिर मन में संसय क्यों? हमारे अंतर कल्याण की भावना भी उसी की कृपा में लगी है और कल्याण करने के लिए खुद सागर ही गुरु रूप में अपनी इन नदियों को समाने के लिए आये हैं।
क्योंकि अब हम निश्चय होकर इसी पंक्ति पर टिके रहें-


अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।

बादल तो सब जगह बरसते हैं, किंतु फसल वहीं पैदा होती है जहां जमीन में किसान ने बीज बोए हों।ठीक वैसे ही परमात्मा की कृपा भी बरसती है, लेकिन अहसास केवल उन्हीं को हो पाता है जिन साधकों ने हृदय-भूमि में सदगुरु के सत्संग वचन बोये हों। बडे भाग्यशाली है वो तेरे बन्दे जिन्होंने आपसे दिल लगाया है।… जिन्होंने आपका आश्रय लिया है। आपके सत्संग से प्रीति की है, आपके वचनों में श्रद्धा की है।

मैंने कई शिष्यों के जीवन मे देखा।
उनके अंदर में ईश्वर को पाने की प्यास तो थी परंतु उन्होंने वह भी गुरु की इच्छा में मिला दी।
उन्होंने कभी शंका नहीं की कि हमें ईश्वर मिलेगा अथवा नहीं।

किंतु ऐसे लोगों में सबसे बड़ा गुण यह था, उन्होंने प्रेम बहुत किया सदगुरु से। और यही उनका सबसे बड़ा साधन बन गया ईश्वर पाने का।

गुरु प्रेम में सभी साधन आ गए, क्योंकि अब अपने बल पर ईश्वर प्राप्ति नहीं करनी थी । जिसके कारण अपने में अहम पोषित नहीं हो पाया। बल्कि गुरुप्रेम रूपी नाव में बैठ जाने के कारण, वह नाव सहज में ही, ईश्वर की ओर उनको लेती चली गई।

वह ईश्वर जो बड़े-बड़े तपस्वी और योगियों को भी जंगल और पर्वतों में साधन भजन और तपस्या करने पर भी दुर्लभता से प्राप्त होता है। बड़े-बड़े शास्त्रों के विद्वानों और पंडितों को भी नहीं मिल पाता।वही दुर्लभ ईश्वर ऐसे गुरु भक्तों को सहज में ही प्राप्त हो गया।

जिन लोगों को ऐसे भक्त पागल ही लगते थे, उन पागलों ने ही अपने आप को गुरु चरणों में समर्पण करके सर्वप्रथम बाजी मार ली।
और अपने बल पर उस परमेश्वर को पाने वाले तो देखते ही देखते ही रह गए।

जब तक सत्य ना पा लो चैन ना लेना!

जब तक स्पष्ट ना हो तब तक नींद हराम हो जानी चाहिए। मुझे अभी एक बात याद आ गई, पहले भी कह चुका हूँ, फिर भी कह देता हूँ कि एक साधु मेरी तरह पतला था और एक स्वामी सत्यानंद की तरह मोटा था। वैसे तो मैं भूमानंद जी का नाम लेता लेकिन बहुत लोग उनको जानते नहीं होंगे क्योंकि अब उनका शरीर नहीं रहा। तो पतला वाला साधु बोला – “झीने दास नैन न आवे निंदिया देही जमे न मांस।” यह सुनकर मोटा वाला बोलता है –

“जब तक हरि चीन्हना नहीं हमऊ बहुत झुरान ।
हरि चीन्हना धोखा मिटा हमऊ बहुत मुटान।।”

पहले हम भी बहुत दुबले पतले थे लेकिन जब से हरि को जाना तब से बहुत मोटे हो गए हैं। तो जब तक ब्रह्म ज्ञान न हो, बेचैनी रहनी ही चाहिए। और जब ब्रह्म ज्ञान हो जाए तो फिर क्या चिंता करनी? फिर तो निश्चिंतता आती है। फिर तो भजन भी नहीं , कुछ पाना ही नहीं, कुछ अधूरापन ही नहीं, फिर क्या करोगे ? क्या कुआँ खुद जाने के बाद फिर उसी को खोदोगे ? भगवान को पा लेने के बाद फिर भगवान को पाओगे क्या ? पा लेने के बाद फिर पाने का क्या करोगे? इसलिए परमात्मा के बोध के बाद सभी कर्तव्य पूरे हो जाते हैं। फिर चैन की जिंदगी रहती है। यदि कोई सामने आ गया तो उसे भी बता दिया। उसमें कोई धंधा नहीं, कोई ठगी नहीं है। जिन्हें चैन मिली है वो बता देते हैं।