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भोग से प्रारब्ध का क्षय

पूर्व में मनुष्य के तीन प्रकार के कर्म बताए गये है क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। इनमे क्रियमाण कर्म पर मनुष्य का अधिकार है अच्छे कर्म करके इनसे होने वाले आगे के प्रभावों से वह बच सकता है । तथा निष्काम कर्म, आसक्ति रहित कर्म करके तथा फलाकांक्षा का त्याग करके वह कर्म बन्धन से बच सकता है।
किन्तु संचित कर्मो को नष्ट करने का उपाय केवल ज्ञान ही है।
ज्ञान से यह सारा संचित कोश नष्ट हो जाता है।
तथा अहंकार रहित हो जाने पर वह आगे कर्मों का संग्रह नही करता। फिर तीसरा प्रारब्ध शेष रहता है । जिसके कारण वर्तमान जीवन मिला है। उसका क्षय भोग से ही होता है। ज्ञान प्राप्ति पर भी इसका नाश बिना भोग के नही होता। अक्षुपनिषद मे कहा गया है:-
ज्ञान का उदय हो जाने पर पूर्वकृत कर्मोंके प्रारब्ध भोग तो भोगने ही पडते है उनका नाश नही होता। धनुष से छूटा हुआ तीर प्रहार करता ही है।
मीरा, रामकृष्ण, बुद्ध, आदि सब ने भोगा है व अन्तिम समय बडा़ कष्ट से गुजरा है किन्तु यह कष्ट शरीर तक ही सीमित था उनकी चेतना इन कष्टो से अप्रभावित रही क्योकि उनका शरीर  से तादात्मय छूट चुका था तथा वे आत्मा मे स्थित हो चुके थे। उन्होने शारीरिक सुख दुख नही माना क्योकि वे उससे पृथक हो चुके थे। अज्ञानी ऐसे सुख दुख को अपना सुख दुख मानता है। ज्ञानी और अज्ञानी मे यही अन्तर है यह भोग,अनिच्छा, परेच्छा तथा स्वेच्छा से ही हो सकता है। प्रायश्चित से भी नाश होता है। तथा सेवा से भी छुटकारा मिलता है।
                                                    

निर्ममेति

एक बार दीपक कहने लगा कि “जिस घर में मैं जलता हूं, उस घर में मैं अंधेरे को नहीं आने देता”। हमने कहा भई! ज्यादा न बोलो, जरा संभल के बोलो। ये कहो “जहां मैं रहता हूं, वहां अंधेरा आता ही नहीं है”। वहां अंधेरा रहता नहीं कि तू आने नहीं देता? अंधेरे को तो कोई धक्का दिये रहता है , जो नहीं आने देता । कोई रोके रहता है उसे?
“मेरा है ” कहते ही बंधन..
अभी जब यहां सत्संग चल रहा था, हम लाउडस्पीकरों की आवाज सुन रहे थे। इधर चार स्पीकर लगे हैं, उधर दो लगे हैं। हम खड़े होकर यह पता लगा रहे थे कि कहां की आवाज सुन रहे हैं? एक बालिश्त के फर्क में हम इधर के स्पीकरों की आवाज सुनते थे। और एक बालिश्त के फर्क से खड़े होते ही यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह आवाज होती है। केवल एक बालिश्त की दूरी का यह प्रभाव है। सच तो यह है कि एक बाल बराबर दूरी का भी यही प्रभाव होगा। यदि मशीन से सुना जाए, तो बाल बराबर इधर आते ही यह आवाज़ सुनोगे और बाल बराबर उधर जाते ही वह आवाज़ सुनोगे। एक सीमा रेखा होती है, बस इतना ही फर्क है।
जब भौतिक जगत् में, एक बाल बराबर दूरी से इतना फर्क पड़ सकता है, तो “मेरा नहीं है , भगवान का है” की जमीन पर खड़े होते ही, बस इतना सा ख्याल करते ही, आदमी मुक्त हो जाता है और “मेरा है” यह ख्याल आते ही वह बंध जाता है, फंस जाता है।

“द्वे पदे बंद मोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन् र्तनिर्ममेति विमुच्यते।।”

“निर्ममेति”, “मेरा नहीं है”, कहते ही मुक्त हो जाता है और “मेरा है”, कहते ही बंध जाता है। मैं कहता हूं, यह तो एक सूत्र है। ऋषियों ने ऐसे लाखों सूत्र दिए हैं। एक भी सूत्र पकड़ लो, तो मुक्त हो जाओगे।

परमधाम

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।

छलांग

जो अनेक लोग जंगलों में जाकर प्राप्त करते थे, वह आम गृहस्थ, आम आदमी गुरु कृपा से क्षणों में प्राप्त कर सकता है ।इसमें कठिनाई क्या है?—-बस, आप किसी तल पर जागृत रहना सीख लें। यह प्रयत्न जागृत रहने तक ही करें। फिर जागृत रहें; परंतु जानना न चाहें। जैसे, दृष्टि तो रहे; परंतु देखना न चाहें। कान तो रहें; परंतु सुनना न चाहें। नाक तो रहे परंतु सूंघना न चाहें। मन तो रहे; परंतु कुछ जानना न चाहें, विचारना न चाहें। ऐसा करने से बुद्धि, बाद में इंद्रियां धीरे- धीरे स्वत: ही क्षीण हो जाएगी। अब हमें उनकी जरूरत ही नहीं। जरूरत पर उनके नाम पैदा हो जाते हैं; जरूरत पर ही उनके रूप पैदा हो जाते हैं। जिस समय जानना हुआ उस समय मन खड़ा हो जाता है। परंतु जब आपको लगेगा कि मुझे चेतन वगैरह कुछ नहीं जानना तो अपने आप मन खड़ा नहीं होगा। उस समय के उपरांत आप स्वयं अनुभव करेंगे कि मन गया, इंद्रियां गई, विचार गए।
“न किञ्चिदपि चिन्तयेत्”
अर्थात कुछ भी न सोचें, कुछ भी न चाहें। बिना चाहे, बिना किए “आप” हैं। वहां क्या करना?—
इसीलिए ज्ञानी कहते हैं कि इसके रखने के लिए आप क्या करेंगे?—-आप जो कुछ रखने की कोशिश कर रहे थे, वही बाधाएं थी। बुद्धि रख रहे थे, इंद्रियां रख रहे थे, सुनना रख रहे थे, जानना रख रहे थे, टिकाने में लगे थे कि देखना न खो जाए, सुनना न खो जाए, जानना न खो जाए,अरे! इनको जानें दें। केवल चेतन रहें । अब इसमें क्या है? बस, पड़े रहें, केवल चेतन रहें। कुछ देर बाद पड़े रहने से भी क्या लेना- देना? वह तो जरा सा सहारा है। जैसे, छलांग- बिंदु ( jumping – point ) होता है और पैर उठाकर छलांग लगाते हैं ऐसे ही शरीर तो छलांग के लिए है; छलांग के अलावा इससे भी कोई मतलब नहीं है। मन है एकदम साक्षी, एकदम चेतन। क्या? बस, मन है। मन में खड़े होकर एकदम मन से परे “चेतन” में कूद गए। हो गये चेतन। बस, आप हैं “चेतन” आप हैं “ब्रह्म”। सबमें आप और सबकुछ आपमें यही ब्रह्म है यही भगवान हैं

परम सिंधु को प्राप्त करो

जब व्यक्ति अंतरात्मा में लौट आता है, तो वह उस क्षितिज को पा लेता है, जिसको वह बाहर पाना चाहता था। क्षितिज बाहर नहीं है। यदि क्षितिज को छूना है; तो बाहर के द्वार बंद करके बैठ जाओ; चाहे अनुभव करके बैठना; चाहे व्याख्यान सुन कर बैठना; क्षितिज को छू सकोगे, जिसको तुम जिंदगी में कभी नहीं छू सके। यदि छू लिया होता, तो आज उस परम शांति में होते।
बुद्ध ने इसी क्षितिज को छुआ था। शंकर ने इसी क्षितिज को छुआ था। रामकृष्ण परमहंस इसी क्षितिज को छू गए हैं। उनको लगता ही नहीं कि आगे कहीं जाना है। जो इस क्षितिज को नहीं छू पावेगा, उसे लगेगा कि अभी जाना है; अभी जाना है। जैसे नदियां भागती हैं; परंतु, जब परम सिंधु को प्राप्त हो जाती हैं, तो उनका भागना बंद हो जाता है। इसी प्रकार, जब परमानंद सिंधु को पा जाओगे, तब जीवन में और आगे, और आगे बढ़ने की कामना शांत हो जाएगी। केवल जीवन निर्वाह होगा तथा परम शांति होगी

इसीलिए, इस आनंद आत्मसिंधु को पाने के लिए जागरूक रहो । यह काम इसी जीवन में करना है । तुम्ही को करना है । यह तुम्हारा अपना ही काम है——-

“आत्मार्थं पृथ्वीं त्यजेत् ।”

परमार्थ

पुज्य गुरूदेव ने ज्ञान का अनुभव करने के लिए मन को शान्त, निर्मल, खाली करने के लिए उपाय बताऐ हैं…


पुज्य महाराज श्री बताते हैं कि साधक को इस रहस्य को समझना चाहिए कि सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगता है। जब उससे ऐसा समरण रहने लगेगा कि मुझे जो मिल रहा है वह मेरे ही पूर्वकृत कर्मो का फल है तो वह राग देष से छूट सकता है।कयोकि मनुष्य सुख देने वाले माध्यम से राग औऱ दुख देने वाले माध्यम से द्वेष करने लगता है। वह भूल जाता है कि माध्यम तो केवल माध्यम है, वह न दुखदायी है और न ही सुखदाई।


पुज्य महाराज श्री समझाते हैं कि प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग करना चाहिए। दुःख के समय, दुःखी न होकर, भविष्य में कभी पाप न करने का निश्चय करना चाहिए तथा सुख के समय, सुख में डूबने की अपेक्षा, परमार्थ में अग्रसर होना चाहिए।


यह गूढ रहस्य पुज्य गुरूदेव ने हमें समझाया। हमें इसका अभ्यास प्रतिदिन करना है और अपने आप से पूछना है कि कितना हम सफल हुए। अगर मन शान्त, निर्मल, तथा खाली हो तभी उसमें ज्ञान (वचनों) की अनुभूति होती है।
गीता और उपनिषदों में लिखी बात तार्किक लगती है। जबकि अभी सिर्फ संसार ही सत्य लगता है इससे होने वाले सुख दुख ही सत्य लगते हैं। जिस दिन संसार बनाने वाले के बारे में सोचना शुरू कर दिया कि इस समस्त ब्राह्मण को आप जिस पृथ्वी पर हैं उसको आपको थामे कौन है, कौन है जो पचाता है? कौन है जो बड़ा कर रहा है? कौन है जो नींद में भी आपके सपनों की गवाह है? और जब पता चलेगा ये सब तुम हो, तुम्हारा ही अंश है या तुम उसके अंश हो, फिर सागर बूंद में मिले या बूंद सागर में बात बराबर होगी तुम सागर ही हो जाओगे… इस सत्य को धीरे धीरे समझो, समझ न आये पूछो। इसी बहाने सत्संग होगा रहेगा। संगत वैसी बनेगी और आप उस शाश्वत सत्य की खोज कर पाएंगे अपनी खोज कर पाएंगे ….अस्तु

धार्मिक चित्त

एक -दूसरे के विरोध के नमूने भारत और विदेश हैं। आजकल के साधुओं और गृहस्थों को पूर्णता की उपलब्धि नहीं हुई। भारत, विदेश के विज्ञान का भूखा है और विदेश भारत के अध्यात्म के भूखे हैं। गृहस्थ भोगों से अतृप्त है, शांति का भूखा है तथा सामान्य साधु – समाज, अर्थ और आश्रय का भूखा है और इसी के पाने की चिंता में निमग्न है। साधुओं में इन्हीं के लिए संघर्ष होते हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से चित्त अंतर्मुख और शांत नहीं हो पाता। अशान्त और बहिर्मुख चित्त दृढ़ आत्मस्मृति को भी उपलब्ध नहीं होता। अतः, पदार्था भाव में आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से अध्यात्मिक साधन भी असंभव हो जाते हैं और चित्त पदार्थों की तरफ गतिमान होने लगता है। धर्म के अभाव में चित्त, आत्मा, परमात्मा, सत्य, मुक्ति और शांति इनके विषय में बिल्कुल ही अपरिचित रह जाता है। इनकी खोज में धार्मिक चित्त ही प्रवृत्त होता है। जो इनकी खोज में साधन रत है, उसी को मैं धार्मिक चित्त कहता हूं।
धर्मविहीन जीवन बिल्कुल बाह्य हो जाता है। उसका उद्देश्य शरीर – रक्षा, भोग -प्राप्ति, महत्त्वाकांक्षा और अधिकार- रक्षा का रूप ले लेता है। वह कठिन से कठिन श्रम करके भी इन इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता; क्योंकि; बाह्य पहलू-बाहर की यात्रा, “क्षितिज” को छूने जैसा प्रयास है; जो सदा समीप, पृथ्वी को छूता हुआ और प्राप्य भासता है। किंतु, “क्षितिज” की प्राप्ति, कठिन ही नहीं असम्भव है। मृगतृष्णा का जल दिखता है, पर, प्राप्त नहीं होता। और इसी इक्क्षा में मनुष्य जन्म जन्मांतरों तक भटकता रहता है। उसे चाहिये कि किसी ब्रह्मनिष्ठ गुरु को खोजे उनकी शरण जाए और इसे समझे यही मानव मात्र का ध्येय और उद्देश्य होना चाहिए। यही धर्म का विज्ञान है, धर्म है। धर्म अनुशासन सिखाता है और अनुशाषित व्यक्ति ही स्वयं को जीत सकता है ये कोई बाहरी लड़ाई नही सिर्फ अंतर युद्ध शिक्षा देता है।

मोक्ष के लिए दृश्य से मुक्ति आवश्यक

यदि, मन को समाप्त करना है; यदि मोक्ष पाना है; तो पहले दृश्य से मुक्त हो जाओ; क्योंकि, दृश्य ही, दृष्टा  के जीने के लिए हमें लकड़ी देता रहता है। अधिक खतरे की बात तो यह है कि दृष्टा अपने को न देखें, तो दृश्य ही दृश्य भाषता रहता है। यद्यपि, लकड़ियां सुलगती हैं – कुछ देर अधिक धुआं उठता है – विचार और द्वंद मचता है; लेकिन, यदि नई लकड़ियां मिल जाती हैं, तो लपटे उठती हैं। अब दृष्टा और दृश्य के बीच में एक प्रकार का संघर्ष पैदा होता है। इसका फैसला नहीं कर सकते। ये तो तब हो, जब लकड़ियों को कुछ दूर करें। तब हमें लगे कि हम कुछ हैं और ये कुछ हैं।
       यदि इस प्रकार की आग, दस – बीस  जगह जल रही है और उनकी अपनी – अपनी लकड़ियां और अपनी-अपनी आग है, तो वे  सब अपने को कहती होंगी कि वे अग्नि हैं। ये उनकी लकड़ियां हैं। इनको  वे जलाएंगी। यदि थोड़ी देर के लिए उन्हें लकड़ियां न दी जाएं, तो कितने “मैं” रह जाएंगे? “मैं” अग्नि हूं, अग्नि हूं। हर एक का यह दावा था कि अग्नि “मैं” हूं। कितनी अग्नि रह जाएंगी? सारी अग्नियां शांत हो जाएंगी। शायद कई रह जाएंगी। जिनको आज तक देखा नहीं है।
        
      जिस अग्नि को आज तक नहीं देखा है, वह अव्यक्त आग रह जाएगी। जो दृश्य नहीं है, जो दिखाई नहीं देती। जिससे वह अव्यक्त भी होती है इसीलिए कहा है कि —
      “अव्यक्तातपुरुष: पर:”
      जहां अव्यक्त भी नहीं रहता। वह अव्यक्त के भी परे है। जो शुद्ध चैतन्य है; परमात्मा है; वही तमाम रूपों में, जितने भी  “मैं”  हैं, उनमें प्रकट हुआ है ।
मैं से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ, जो तेजोमय प्रकाश युक्त रत्न है, वह भलीभांति धुल जाने पर चमकने लगता है; उसी प्रकार इस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप अत्यंत स्वच्छ होने पर भी अनन्त जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों से मलिन हो जाने के कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता; परन्तु जब मनुष्य ध्यान योग के साधन द्वारा समस्त मलों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति प्रत्यक्ष कर लेता है, तब वह अकेला (अर्थात उसका जो जड़ पदार्थों के साथ संयोग हो रहा था, उसका नाश होकर) कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकार के दुःखों का अन्त होकर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है। उसका मनुष्य जन्म सार्थक हो जाता है। फिर जब वह योगी इस स्थिति में दीपक के सदृश निर्मल प्रकाशमय आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्म तत्व को भलीभांति प्रत्यक्ष देख लेता है, तब वह उस अजन्मा, निश्छल तथा समस्त तत्वों से असंग—सर्वथा विशुद्ध परम देव परमात्मा को तत्व से जानकर सब बन्धनों से सदा के लिए छूट जाता है।

“मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

“हमारे” दो हिस्से हो गए हैं -एक चैतन्य का हिस्सा और दूसरा प्रकृति का प्रकृति और पुरुष मिलकर हम “मैं” हो गए हैं। यदि, इनसे प्रकृति सब हटा दी जाए, तो एक रह जायेगा। सब “मैं” समाप्त हो जाएंगे। इसीलिए कहते हैं कि यह नानात्व भ्रम हैं। “हम” केवल भ्रम हैं। जो नहीं हैं, उनके मरने का सवाल क्या है? “हम” कुछ नहीं हैं। यह बहम है कि “हम” भी कुछ हैं। इसीलिए मुक्ति का चक्कर है। मुक्ति मिलती नहीं है। “मैं” का ही छुटकारा है। “मैं” से छुटकारा पा जाओ, बस मुक्त ही मुक्त हो। तुम जो “मैं” बन बैठे हो, यही मौत है। इसीलिए “मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है। “मैं” की मुक्ति नहीं होती। तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी। तुम ही नहीं रहोगे, यही मुक्ति है।
हम क्या हैं ?
यही देखना है कि “हम” क्या हैं? आग कहती है कि “मैं” न मरूं। अपने जीने के लिए लकड़ियां समेटने की जो आग की प्रवृत्ति है, यही अज्ञान है। यह पता चल गया कि आप सदा जीवित है। साइंटिस्ट लोग लकड़ीयां नहीं समेटते। वे कहते हैं कि हम आग को फिर प्रकट कर लेंगे। यह तो पहले के लोग कंडे (उपले ) गाड़- गाड़ कर आग को टिकाया करते थे; क्योंकि, उन्हें मालूम नहीं था। सोचते थे आग बुझ न जाए। उनको पता नहीं था कि आप कभी बुझा नहीं करती। वह हमेशा है, नित्य है और अव्यक्त है। चाहे जब उसे प्रकट किया जा सकता है। क्योंकि, जब पहले प्रकट हुई है; तो फिर भी प्रकट हो सकती है।
चेतना कितनी ही बार प्रकट हुई है। जो अव्यक्त चैतन्य है; वह नित्य विद्यमान है; फिर प्रकट हो सकता है। लेकिन, यह “मैं” घबरा जाता है कि ” मैं” मर न जाऊं, “मैं” मर न जाऊं। तेरे जैसे कितने “मैं” हो गए हैं और अभी होने की भी क्या कमी है? जो अभी बना है और बना रहेगा; लेकिन, यह “मैं” कहता है कि “मैं” मर ना जाऊं। जैसे अग्नि चिंतित है कि “मैं” बुझ न जाऊं। इसीलिए, मेरे में लकड़ियां डाल दो, मुझ में कंडे डाल दो।अग्नि खतरे में पड़ गई है। वही हाल तुम्हारा भी हो गया है। शरीर मिल जाए, और शरीर मिल जाए, और प्रकृति मिल जाए, और थोड़ा शरीर मिले, नहीं तो “मैं” मर जाऊंगा। शरीर खत्म होता जा रहा है और हम शरीर पाने को बैठे हैं। हम मर न जाएं, यही तो प्रवृत्ति है। यदि तुम जान गए होते कि तुम मरते कहां हो? हम हैं क्या? जो है, वह आज तक कभी नहीं मरा। वही तो “मैं” के रूपों में प्रकट है और फिर ये “मैं” अप्रकट रूप में चले जाते हैं, मरते नहीं।


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।


भगवान कृष्ण कहते हैं कि सारे प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे। बीच में व्यक्त हुए और मरते पर फिर अव्यक्त हो जाते हैं। तो रोने की या दुख की क्या बात है? लेकिन शायद किसी विरले को ही ये बात समझ आती है बाकी का तो मनोरंजन है वेदांत सुनना।

जो स्वयं ब्रह्म हो.. वो गुरु ही पार लगा सकता है

जब परमपिता स्वरुप सतगुरु ने हमें अपनाया है, तो इसमें तो दो मत ही नहीं, सागर खुद नदियों को अपने में मिलाने बांहें फैलाए खड़ा है ,और नदियां तत्पर है सागर में समाने के लिए फिर मन में संसय क्यों? हमारे अंतर कल्याण की भावना भी उसी की कृपा में लगी है और कल्याण करने के लिए खुद सागर ही गुरु रूप में अपनी इन नदियों को समाने के लिए आये हैं।
क्योंकि अब हम निश्चय होकर इसी पंक्ति पर टिके रहें-


अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।

बादल तो सब जगह बरसते हैं, किंतु फसल वहीं पैदा होती है जहां जमीन में किसान ने बीज बोए हों।ठीक वैसे ही परमात्मा की कृपा भी बरसती है, लेकिन अहसास केवल उन्हीं को हो पाता है जिन साधकों ने हृदय-भूमि में सदगुरु के सत्संग वचन बोये हों। बडे भाग्यशाली है वो तेरे बन्दे जिन्होंने आपसे दिल लगाया है।… जिन्होंने आपका आश्रय लिया है। आपके सत्संग से प्रीति की है, आपके वचनों में श्रद्धा की है।

मैंने कई शिष्यों के जीवन मे देखा।
उनके अंदर में ईश्वर को पाने की प्यास तो थी परंतु उन्होंने वह भी गुरु की इच्छा में मिला दी।
उन्होंने कभी शंका नहीं की कि हमें ईश्वर मिलेगा अथवा नहीं।

किंतु ऐसे लोगों में सबसे बड़ा गुण यह था, उन्होंने प्रेम बहुत किया सदगुरु से। और यही उनका सबसे बड़ा साधन बन गया ईश्वर पाने का।

गुरु प्रेम में सभी साधन आ गए, क्योंकि अब अपने बल पर ईश्वर प्राप्ति नहीं करनी थी । जिसके कारण अपने में अहम पोषित नहीं हो पाया। बल्कि गुरुप्रेम रूपी नाव में बैठ जाने के कारण, वह नाव सहज में ही, ईश्वर की ओर उनको लेती चली गई।

वह ईश्वर जो बड़े-बड़े तपस्वी और योगियों को भी जंगल और पर्वतों में साधन भजन और तपस्या करने पर भी दुर्लभता से प्राप्त होता है। बड़े-बड़े शास्त्रों के विद्वानों और पंडितों को भी नहीं मिल पाता।वही दुर्लभ ईश्वर ऐसे गुरु भक्तों को सहज में ही प्राप्त हो गया।

जिन लोगों को ऐसे भक्त पागल ही लगते थे, उन पागलों ने ही अपने आप को गुरु चरणों में समर्पण करके सर्वप्रथम बाजी मार ली।
और अपने बल पर उस परमेश्वर को पाने वाले तो देखते ही देखते ही रह गए।