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कितने जागरूक?


कोई यह कह सकता है कि अध्यात्मवाद व्यर्थ है। मैं तो नहीं कह सकता कि अध्यात्म मार्ग गलत है। हो सकता है कि उसके शोधन में कोई दोष हो,उसके सेवन में कोई दोष हो। इसलिए, हमारा एक ही निवेदन है कि आप अपने जीवन की उस अभिलाषा की ओर भी जागरूक हो जावे कि आपको क्या चाहिए? उसके लिए आप कितने जागरूक हैं? सच्चाई से शोधन करें कि कितना समाज रोटी और कपड़े के लिए जागरुक है? जितना मनुष्य बिल्डिंग के लिए जागरुक है क्या उतना कल्याण के लिए भी जागरुक है? क्या समाज सतर्क और सावधान है? लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि रोटी, कपड़ा और मकान की ओर न जागें।
शरीर और आत्मा दोनों ही की ओर जागें। बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनकी रोटी की भी समस्या है, जिनकी कपड़े और मकान की भी समस्या है। हमारे देश की नौका दोनों तरफ ही डगमगा गई है। हम लोग धर्म की तरफ भी चूक गए हैं और भौतिकवाद की तरफ भी चूक गए हैं। आज हमको ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, जो संसार के विषय में भी सोचें और मोक्ष के विषय में भी सोचें। ऐसे मानव का जन्म होना चाहिए, जो दोनों पहलुओं पर विचार करें। हम बहुत दिनों तक एकांगी रहे हैं ।

जिस तरह शरीर की पूर्ति आवश्यक है उसी तरह मन या आत्मा की पर समस्या यही है कि जो दिखता नही उसे आप मानते नहीं, पर कब तक क्योंकि एक न दिन तो मानना ही पड़ेगा सोचना ही पड़ेगा फलों में स्वाद कहाँ से आया, तुम्हारा भोजन किसने पचाया, कौन है जो तुम्हारी नींद में तुम्हारे सपनों को देखता है…इसको जानना अत्यंत आवश्यक है आज नही तो कल इस जन्म नही तो अगले यह ही जानना होगा तभी इस प्रपंच से पार होंगे

मौत किसकी, मृत्यु क्या?


“प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशय:।”
यदि प्रपंञ्च होता, तो निवृत्त भी होता; इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन, जब प्रपंच है ही नहीं, तो उसकी निवृत्ति कैसे हो? कैसे की जाए?
भ्रान्त्या प्रतीत: संसार
यह संसार भ्रान्ति से प्रतीत होता है, इसीलिए —
“विवेकान्निवर्तेत न तु कर्मभि:”
निवृत्त भी विवेक से ही हो सकता है, कर्म से निवृत्त नहीं हो सकता है। जो अज्ञान से प्रतीत होता हो, वह ज्ञान से ही समझ में आ जाएगा। इसीलिए, विवेक से ही अज्ञान की निवृत्ति हो सकती है; कर्म से नहीं। कारण यह है कि—
“रज्वारोपित: सर्प: घंटा घोषान्न निवर्तते:”
यदि रस्सी में कोई सांप हो और कोई शंख घड़ियाल बजावे कि वह भाग जाए; शोर मचाए कि वह रस्सी का सांप भाग जाए; तो क्या वह भाग जाएगा? पर, वह कर्म से नहीं भागेगा; जब भगेगा तब प्रकाश से भगेगा। प्रकाश से क्यों जाएगा? क्योंकि, वह अप्रकाश के कारण से है। यदि सचमुच का सर्प होता; तो लाठी से जाता; शंख बजाने से ज्यादा। यदि, बंधन होता; अपवित्रता होती और यदि मौत होती, तो किसी कर्म से मौत की निवृत्ति होती; किसी तप से मौत से मुक्ति होती। किसी साधन से मौत से मुक्ति होती या किसी पुरुषार्थ से मौत से मुक्ति होती
आत्मा अमर है, तो मौत किसकी?

महाकाश


प्रश्न— आत्मा सर्वाधार है तो प्राण ,मन क्या करता है पूज्य गुरुदेव समझाते हैं—


} प्राण शरीर को जीवित रखता है,चेतन नहीं रखता।शरीर को जीवित रखना, सड़ने नहीं देना, गलने नहीं देना, बिगड़ने नहीं देना, शरीर की सुरक्षा करना प्राण का काम है।सुख,दुख, दर्द आदि मन से होता है। मन नींद में सो जाता है।


} प्राण नींद में,कोमा में भी काम करता है। प्राण जब तक शरीर में रहता है, तब तक मन कहीं जाये (जैसे सो जाये, बेहोश हो जाये) फिर आ जायेगा।


} प्राण कार ,जहाज है,मन ड्राइवर,पायलट है। पायलट जहाँ ले जाना चाहता है, जहाज़ को उड़ा ले जाता है।जहाज़ अपनी मर्जी से नहीं जाता।पायलट की ही मर्जी से जाता है।जहाज़ ड्राइवर के अधीन है। इसलिए दूसरे शरीर में मन प्राण के साथ जाता है। अकेला मन दूसरे शरीर में नहीं जा सकता। लेकिन इस अर्थ में मन की प्रधानता है कि जहाँ चाहे प्राण को ले जाये।


} प्राण का अपना महत्व है। इसलिए सबको प्राणी बोलते हैं। पेड़ प्राणी है लेकिन जीवधारी नहीं है। जीव तब होता है जब मन और इन्द्रियाँ हो। जब मन और इन्द्रियाँ नहीं हैं, तो प्राणी हो। सुषुप्ति में आप प्राणी हो,जीवित भी हो मरे नहीं हो सुख, दुख, ज्ञान आदि कुछ नहीं है। एक तरह से आप पेड़ हो।


} आत्मा के बल पर प्राण भी है, मन भी है,तथा इन्द्रियाँ भी है। यहाँ तक कि पेड़, पहाड़,पृथ्वी, जल, दीवार जिसके सहारे हैं,वह आत्मा है। पर आत्मा के कारण दुख -सुख नहीं हैं। वे मन के कारण है। प्राण के कारण जीवित हैं, आत्मा के कारण नहीं।इसलिए जिसमें प्राण नहीं है वह निर्जव है।

जीव और ब्रह्म में इतना ही भेद है,जितना पृथ्वी में और मिट्टी में।हम पृथ्वी को भी सत्य नहीं मानते।जितना झूठा घड़ा है,उतनी झूठी पृथ्वी; पर घडो़ं का नाश हमने देखा है,पृथ्वी का नाश हमने नहीं देखा।इसलिए पृथ्वी अक्षर लगती है,घड़ा क्षर लगता है।


} मिट्टी में पृथ्वी कल्पित है। एक होता है –घटाकाश और एक है–महाकाश।महाकाश ईश्वर है, घटाकाश जीव है।”महा” और “घटा” क्या होता है। महा माने ईश्वर, मकान; घटा माने जीव,घड़ा। घड़ा तोड़ो,महा कौन है। छोटा कौन है। सिर्फ आकाश है। तो घट उपाधि से महाकाश कल्पित है। यदि जीव झूठा है तो ईश्वर अपने आप झूठा है। ब्रह्म सत्य है,ब्रह्म माने आकाश। दूसरा उदाहरण; आप छोटे भाई हो या बड़े। यदि बड़ा भाई न हो तो तुम कौन से भाई हो। अर्थात इकलौती संतान हो न छोटा न बड़ा।


} पूज्य गुरुदेव समझाते हैं, चेतन एक है,वह न ईश्वर है,न जीव है। घटाकाश,महाकाश से मिल नहीं पाया। जब मिला तो न घटाकाश रहा, न महाकाश। पहले मैं चेला था, वे गुरु थे। जब समझ में आया न मैं चेला न वे गुरु। स्वामी राम कहते हैं कि मैं न बन्दा था,न खुदा था मुझे मालूम न था; दोनो इल्लत, दोनों उपाधि, दोनों ख्याल थे।यह घटाकाश, महाकाश यह हमारे ख्याल हैं।आकाश आकाश है; न छोटा ,न बड़ा। दोनों इल्लत से जुदा था,मुझे मालूम न था।

वजह मालूम

हूई तुझसे न मिलने की सनम
खुद मैं ही परदा बना था मुझे मालूम न था।

ब्रह्म विद्या

जिसका बोध सच्चा है, उसका खून शीतल होता है। खून बदल जाता है,रोम -रोम बदल जाता है। देखिए,आपकी नाड़ियां क्या कहती हैं? नाड़ी हूं कि ब्रह्म हूं? आपका मन क्या कहता है? ब्रह्म हूं कि मन हूं? केवल “हूं” कहता है- ब्रह्म भी न कहो। केवल साक्षी हूं। कहता है कि शरीर हूं।कहता है कि यह देखो कि अन्दर तुम्हारी सतत् जागृति किस भाव में है? अभी पता चलेगा कि अविद्या क्या, अभी तो शरीर का अभिनिवेष भी नहीं गया। जाति का, कुटुंब का और मजहबों का अभिनिवेष अभी चित्त में है। यह अभिनिवेष अभी नहीं गया। यदि अभिनिवेष नहीं है, तो हम खाली आदमी रहेंगे। यदि खाली आदमी हों, तो फिर जल्दी मरेंगे और जल्दी मरेंगे, तो ब्रह्म हो जायेंगे। यह ब्रह्म होना ही असल में मरना है।
परम शांति किसे प्राप्त होती है ?
जो मर जाता है उसी को हम सन्यासी कहते हैं और वह जो मरना नहीं चाहता, वही अज्ञानी है जो मरने को तैयार है, वह साधक है; जो मर गया है, वह सिद्ध (सन्यासी) है। जो मर गया, वही ब्रह्म और जो मर गया है, वहीं अमर हो गया है। इसीलिए, सन्यासी फिर कभी नहीं मरता; क्योंकि, जिसे मरना था, वह पहले ही मर गया है। और जो नहीं मरता है, वही बचा है; वह कभी नहीं मर सकता। किसी का मारा भी नहीं मरता; क्योंकि, वह दुश्मन की भी आत्मा है। दुश्मन की भी “मैं” है ।यदि मारने को खड़ा होगा, तो दूसरी “मैं” को मारेगा; लेकिन, अपने आप की “मैं” को कैसे मारेगा? इस प्रकार जो वेदांत का श्रवण, मनन और निदिद्यासन करता है, वह परम शांति को प्राप्त होता है।

ब्रह्म बोध


ब्रह्म बोध किसे कहते हैं ?


अस्मिता जब सारे विश्व के साथ हो जाती है, तो उसी को ब्रह्मबोध कहते हैं। इसीलिए, “विश्वरूप रघुवंश मणि” कहा है। भगवान् विश्वरूप हैं। जो आदमी अस्मिता को पार कर जाता है, उसकी अस्मिता विश्वरूप हो जाती है। उसका “मैं” “”सर्व”” हो जाता है और वह “”सर्व”” हो जाता है। अपने को सब में देखता है, सब को अपने में देखता है। यह गीता में लिखा है। लेकिन, हमें दिखता है क्या? बात सच्ची है; गीता में लिखी है और भगवान् की वाणी है। गलत नहीं है। लेकिन, हमें अभी समझ में नहीं आती।
ज्ञानी अध्यापक ने सवाल लगाया और उत्तर सही निकाल दिया; लेकिन, जब हम सवाल लगाने बैठे, तो उत्तर नहीं आया। हमें तो नहीं आया ‌ हमें तो सब अपना नहीं दिखता। हम नहीं कहते कि गीता गलत है। लेकिन, हमारे लिए गीता का तब तक कोई अस्तित्व नहीं है, जब तक हमें सब अपने नहीं दिखते। हम अपने को सर्वत्र नहीं देख पाते। यदि हमारी अस्मिता, अपनी अस्मिता को “है” में अभिन्न करे; यदि, बुलबुला अपने को पानी हो जाने दे; पानी “हूं” जानकर फिर सब बुलबुलों को देखे; तो किस बुलबुले को कहेगा कि “मैं” नहीं हूं?
यदि एक बार मेरी अस्मिता गल जाए, ब्रह्म हो जाए और ब्रह्म होने के बाद फिर अस्मिता खड़ी हो, तब वह कहेगी कि सर्व एक है। बुलबुले हैं तो अलग-अलग (सब में भिन्नता है ); लेकिन , वे पानी के माध्यम से एक हो गए हैं। देखना यह है कि पानी की दृष्टि में वे क्या हैं ? पानी है और पानी के स्मृति के माध्यम से वे देखते हैं। बुलबुला सीधे ही यह नहीं कहता है कि “यह” सब “मैं” हूं; क्योंकि, यह कहना ही “मैं” को “यह” से अलग करता है। बुलबुले का “यह” कहना ही अलग होना है। तुम “मैं” हूं, यह कहना नहीं जंचता। औरत भी “मैं” हूं; शराब भी “मैं” हूं और जानवर भी “मैं” हूं; यह नहीं जंचता। बुलबुला (ज्ञानी ) सीधा यह वाक्य नहीं कहता कि “मैं” तुम हूं। “मैं” लहर भी हूं और “मैं” फेन भी हूं , ऐसा नहीं कहता।

द्वेत जानना ही होगा


तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:


उसे कहां शोक, कहां मोह, कहां चिंता और कहां भय। ये हमारे वेद वाक्य हैं, उपनिषद् वाक्य हैं। बड़े भाग्यशाली हो, जो सुनने को मिलता है। सुनते – सुनते निष्ठा बनती है और धीरे-धीरे कमियां दूर होती हैं। कोई चाहे जैसा हो, सब में अभी कमियां हैं। सिद्ध कोई नहीं है, प्रयास करो, प्रमाद मत करो। और किसी को देखने से, अपने में कोई फर्क नहीं पड़ जाता है। इसीलिए, जो जहां तक है, ठीक है। हो सके, तो अपनी गहराई को देखते जाओ, घबराओ बिल्कुल नहीं।
अब हम अपने अंदर अभिनिवेश नहीं पाते हैं। अस्मिता नहीं, अभिनिवेश। अस्मिता के तो छोड़ने का अभ्यास करते हैं; अभिनिवेश से तो निवृत्त हैं। अभिनिवेश से मुक्त हैं; पर, अस्मिता से अभी मुक्त नहीं है। अस्मिता से मुक्त न होने के कारण “मैं” जब तक मजबूत रहता है, तब तक द्वैष और भेद भी कभी-कभी उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि, मैं अलग हूं, तो मेरा सम्मान अलग, मेरी भूख अलग, मेरा जीवन और उन्नति अलग। जब तक मैं अलग हूं, तब तक मेरा सब कुछ अलग रहेगा। इसीलिए, अभी तो हम अस्मिता का अभ्यास करते हैं। हम किसी और को कैसे कह दें। ध्यान, अभ्यास और साक्षी भाव से आदमी अस्मिता पर जाता है, शरीर से पृथकता का बोध होता है।
मैं अपनी बात बताऊं। मुझे शरीर से पृथकता का तो बोध है; लेकिन, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति अभी गहरी नहीं है। यदि, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति गहरी हो जाएगी, तो तुम्हारे प्रति कभी विकार और क्रोध नहीं हो सकता। कहा है कि —–

“क्रोध की द्वैतक बुद्धि बिनु ,,
द्वैत कि बिनु अज्ञान।
माया बस परिच्छिन्न जड़,
जीव कि ईश समान।।”

ये सत्य बात है कि जिस दिन हमारे जीवन से द्वैत भाव चला जाएगा, उस दिन क्रोध भी चला जाएगा; क्योंकि , अपने – आपसे क्या कभी द्वैष होता है? अपने मित्र से और पत्नी से द्वेष हो सकता है। अपने पिता से भी लड़ाई हो सकती है; लेकिन,अपना नुकसान करने की वृत्ति कभी होती है क्या? क्या कोई अपने आप का अहित अपने आप का नुकसान करेगा? क्या कोई अपने आप को दुखी करेगा? दूसरे को दुखी देखकर खुशी होती है। दूसरा यदि आपत्ति में फंसा हो, तो परवाह नहीं होती; लेकिन, स्वयं आपत्ति में फंसे हो क्योकि द्वैत समझते हो सब ये जग तुम और तुम ये जग नही हो जाते तब तक शांति मिल नही सकती इसलिए सद्गुरु का सिखाया द्वेत समझ न आ जाये…

गीता अमृत है।

आप भी उस सत्य को खोजो और चैन पाओ। कोई भी तुम्हें बचाएगा तो ज्ञान देकर ही बचाएगा। मरना, मरना मानते रहोगे तो तुम्हें कौन बचाएगा? क्या हम बचा लेंगे? हम भी बचाएंगे तो ज्ञान देकर ही बचाएंगे। कृष्ण भगवान भी बचाएंगे तो गीता सुनाकर ही बचाएंगे। नहीं तो अर्जुन को गीता सुनाने की क्या जरूरत थी? ऐसे ही अर्जुन के सिर पर हाथ रख देते। सिर पर हाथ रखकर युद्ध जिता सकते हैं, सिर पर हाथ रख कर थोड़ी देर को तकलीफ दूर कर सकते हैं। लेकिन अज्ञान को सिर्फ हाथ रखकर कैसे हटाओगे? वह तो गीता से ही दूर करना होगा। इसलिए गीता अमृत है।

इसलिए तुम भी किसी अच्छे संत से गीता सुनो। और यह भी है कि जो कथा नहीं सुनाते वे बुरे नहीं हैं,अच्छे हैं, उनका दर्शन करो, आनंद लो। लेकिन यह भी है कि किसी और के दर्शन का आनंद लेने की तुलना में गुरु के पास बैठकर आनंद लेते हो तो यह बहुत अच्छी बात है। तुम जरूर अच्छे ह्रदय के हो वरना संत के पास आनंद कहाँ है? आपने देखा होगा कि कभी-कभी मंदिर के दरवाजे बंद होते हैं और लोग मंदिर के बाहर बैठे रहते हैं। बाहर बैठकर दर्शन करो, आनंद लो। गुरु भी एक मंदिर ही है, दर्शन करो, मौन रहो और आनंद लो। मंदिर के भीतर भी सबको थोड़े जाने दिया जाता है। तो क्या मंदिर जाना बंद कर दोगे? बाहर से दर्शन कर लो। पर झगड़ा तो इस बात का है कि उनको अंदर क्यों जाने दिया? हमें क्यों रोक दिया? क्या यह मंदिर पंडित की बपौती है? अभिप्राय यह है कि आपके अंदर पहले दर्शन की प्रसन्नता होनी चाहिए, बाहर- भीतर से कोई अन्तर नहीं पड़ता।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन करई कपट गान।।
“कपट तज गान” कोई चालाकी नहीं। सचमुच उनकी महिमा अच्छी लगे। उनके गुणगान गाने पर ह्रदय प्रसन्नचित हो। लोग तो अपने गुणगान ज्यादा गाते हैं, गुरु के, भगवान के कम गाते हैं। जबकि गुरु की, भगवान की महिमा गा कर आपको अच्छा लगना चाहिए। यह चौथी भक्ति है।

जब तक सत्य ना पा लो चैन ना लेना!

जब तक स्पष्ट ना हो तब तक नींद हराम हो जानी चाहिए। मुझे अभी एक बात याद आ गई, पहले भी कह चुका हूँ, फिर भी कह देता हूँ कि एक साधु मेरी तरह पतला था और एक स्वामी सत्यानंद की तरह मोटा था। वैसे तो मैं भूमानंद जी का नाम लेता लेकिन बहुत लोग उनको जानते नहीं होंगे क्योंकि अब उनका शरीर नहीं रहा। तो पतला वाला साधु बोला – “झीने दास नैन न आवे निंदिया देही जमे न मांस।” यह सुनकर मोटा वाला बोलता है –

“जब तक हरि चीन्हना नहीं हमऊ बहुत झुरान ।
हरि चीन्हना धोखा मिटा हमऊ बहुत मुटान।।”

पहले हम भी बहुत दुबले पतले थे लेकिन जब से हरि को जाना तब से बहुत मोटे हो गए हैं। तो जब तक ब्रह्म ज्ञान न हो, बेचैनी रहनी ही चाहिए। और जब ब्रह्म ज्ञान हो जाए तो फिर क्या चिंता करनी? फिर तो निश्चिंतता आती है। फिर तो भजन भी नहीं , कुछ पाना ही नहीं, कुछ अधूरापन ही नहीं, फिर क्या करोगे ? क्या कुआँ खुद जाने के बाद फिर उसी को खोदोगे ? भगवान को पा लेने के बाद फिर भगवान को पाओगे क्या ? पा लेने के बाद फिर पाने का क्या करोगे? इसलिए परमात्मा के बोध के बाद सभी कर्तव्य पूरे हो जाते हैं। फिर चैन की जिंदगी रहती है। यदि कोई सामने आ गया तो उसे भी बता दिया। उसमें कोई धंधा नहीं, कोई ठगी नहीं है। जिन्हें चैन मिली है वो बता देते हैं।

जागो

आपने स्वप्न में क्या नहीं देखा! सब कुछ देखा पर झूठा देखा! पर वह कब समझ आया? जब जग गए! अब क्या करना है? यह जो इस समय देख रहे हो जागृत में, यह सब स्वप्न है !सब सपना है! सब सपना है !सत्य केवल आत्मा, दृष्टा मैं हूं! यह जागृत में स्मरण करो!
दृष्टा सत्य है, दृश्य स्वप्न है। यद्यद द्रष्टं तद्तद अनित्यम्।। जो जो दिखाई देता है अनित्य है। जो दिखता है सब मिथ्या है, सब झूठ है। जो जो मालूम पड़ता है सब झूठा है आत्मा के सिवाय, ऐसा ध्यान करो। यह एक विधि है ध्यान की। फिर दोहरा दे……. सुविधा के लिए आकाश का ध्यान करो, पिता का ध्यान करो, गुरु का ध्यान करो, राम भगवान, कृष्ण भगवान का ध्यान करो। दूसरा नींद का ध्यान करो, तीसरा स्वप्न का ध्यान करो। सब कुछ देखा था पर कोई सच था क्या? अभी जो देख रहे हो सब सपना है। आखरी स्टेज होती है, लोग पूछते हैं, हमसे भी पूछते हैं, यह तो कुछ कुछ समझ जाता है कि हम दृष्टा है, पर हम ब्रह्म हैं यह समझ नहीं आता और स्वप्न और जागने की पहचान क्या है? स्वप्न में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वप्न में स्वप्न  का दृष्टा ना हो। स्वप्न में दृष्टा है तभी तो स्वप्न देख रहा था। स्वप्न के दृष्टा तुम ही थे पर स्वप्न में तुम्हें सबके दृष्टा हो यह नहीं पता था। तुम देख तो रहे थे, अभी भी देख रहे हो ना? मुझे देख रहे हो, पंडाल देख रहे हो, प्रयागराज देख रहे हो। देख तो रहे हो! ऐसे ही स्वप्न में देख रहे थे पर स्वप्न में बहुत चेतन थे, अनेकों चेतन थे, अनेकों दृष्टा थे, अनेकों व्यक्ति थे, और मैं भी था। इतने सत्य थे पर जागे तो पता चला कि केवल मैं सत्य था और सब सपना था । कब पता चला? जागने पर!! इसलिए जाग कर समझना ज़रूरी है। जागो और जागे हुए ही सोचो की सच में तुम्हें क्या लगता है, क्या सच है अंततः तुम्हें यही मिलेगा।

आवश्यकता और चाह

रोटी के लिए भटकने वाला भिखारी नहीं है, वह आवश्यकता है, पर जो सुख के लिए भटकते हैं वह सब भिखारी है। और कौन है ऐसा इस धरती पर जो सुख के लिए भागा नहीं फिरता! कम से कम सुख तो हमारा हो “निज का”! 
निज सुख बिन मन रहइ कि थीरा ।
परस कि होय विहीन समीरा ।। 

रोटी के लिए भटको, ठंडी में कपड़े के लिए भटको, नहीं है तो मांग लो। जब आवश्यकता के लिए भटकना पड़े तो कोई बात नहीं पर सुख के लिए भागना पड़े यहां नहीं वहां, वहां नहीं वहां, तो कम से कम इस पावन पर्व पर, तीर्थराज प्रयाग पर ऐसे आनंद के धनी होकर जाओ कि हम आनंद के लिए नहीं भटकेंगे। आनंद तो हमारा है!
प्रारब्धवश रोटी के लिए भटकना पड़ सकता है, किसी का कमाने वाला पति न रहा, कमाने वाला बेटा न रहा, तो मांगना पड़ सकता है, लेकिन आनंद के लिए तो किसी को नहीं भटकना चाहिए। तो यहां से आनंद के धनी हो कर जाओ! मालामाल हो कर जाओ! कम से कम हमें शांति और आनंद के लिए भटकना ना पड़े! तो यह गहरी नींद का स्मरण, यह भी एक ध्यान है। दूसरा हमने कहा –  स्वप्न निद्राsलंबनम् वा तो स्वप्न का भी आलंबन लो ध्यान के लिए। स्वप्न में क्या क्या देख रहे थे और सच्चा समझ रहे थे? तो अब क्या करो? जगत को भी जैसे स्वप्न में सब कुछ दिख रहा था, इस समय भी सब कुछ दिख रहा है। जाग्रत में सब दिख रहा है। यह मत सोचो कि ना दिखे। ना दिखे वह नींद वाली बात है। नींद की एक चीज ले लो, कोई कमी नहीं ,कोई कामना नहीं। सपने में क्या है? सब कुछ देख रहे थे पर पता नहीं था कि यह झूठा है! अब इस समय जो देख रहे हो यह  सब स्वप्न है। देह, यह मेरे तेरे, सब सपना! स्वप्न में क्या नहीं देखा! सब कुछ देखा पर झूठा देखा! पर वह कब समझ आया? जब जग गए! अब क्या करना है? यह जो इस समय देख रहे हो जागृत में, यह सब स्वप्न है! सब सपना है! सब सपना है! सत्य केवल आत्मा, दृष्टा मैं हूं! यह जागृत में स्मरण करो! यही सत्य है।