Date Archives November 2020

धार्मिक चित्त

एक -दूसरे के विरोध के नमूने भारत और विदेश हैं। आजकल के साधुओं और गृहस्थों को पूर्णता की उपलब्धि नहीं हुई। भारत, विदेश के विज्ञान का भूखा है और विदेश भारत के अध्यात्म के भूखे हैं। गृहस्थ भोगों से अतृप्त है, शांति का भूखा है तथा सामान्य साधु – समाज, अर्थ और आश्रय का भूखा है और इसी के पाने की चिंता में निमग्न है। साधुओं में इन्हीं के लिए संघर्ष होते हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से चित्त अंतर्मुख और शांत नहीं हो पाता। अशान्त और बहिर्मुख चित्त दृढ़ आत्मस्मृति को भी उपलब्ध नहीं होता। अतः, पदार्था भाव में आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से अध्यात्मिक साधन भी असंभव हो जाते हैं और चित्त पदार्थों की तरफ गतिमान होने लगता है। धर्म के अभाव में चित्त, आत्मा, परमात्मा, सत्य, मुक्ति और शांति इनके विषय में बिल्कुल ही अपरिचित रह जाता है। इनकी खोज में धार्मिक चित्त ही प्रवृत्त होता है। जो इनकी खोज में साधन रत है, उसी को मैं धार्मिक चित्त कहता हूं।
धर्मविहीन जीवन बिल्कुल बाह्य हो जाता है। उसका उद्देश्य शरीर – रक्षा, भोग -प्राप्ति, महत्त्वाकांक्षा और अधिकार- रक्षा का रूप ले लेता है। वह कठिन से कठिन श्रम करके भी इन इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता; क्योंकि; बाह्य पहलू-बाहर की यात्रा, “क्षितिज” को छूने जैसा प्रयास है; जो सदा समीप, पृथ्वी को छूता हुआ और प्राप्य भासता है। किंतु, “क्षितिज” की प्राप्ति, कठिन ही नहीं असम्भव है। मृगतृष्णा का जल दिखता है, पर, प्राप्त नहीं होता। और इसी इक्क्षा में मनुष्य जन्म जन्मांतरों तक भटकता रहता है। उसे चाहिये कि किसी ब्रह्मनिष्ठ गुरु को खोजे उनकी शरण जाए और इसे समझे यही मानव मात्र का ध्येय और उद्देश्य होना चाहिए। यही धर्म का विज्ञान है, धर्म है। धर्म अनुशासन सिखाता है और अनुशाषित व्यक्ति ही स्वयं को जीत सकता है ये कोई बाहरी लड़ाई नही सिर्फ अंतर युद्ध शिक्षा देता है।

भगवान क्या है?

जो दिखाई दे रहा है, भगवान का खेल है और जो भीतर जानने वाला है वह भगवान ही बैठा हुआ है और आप? आप या तो दिखने वाले हैं या देखने वाले हैं। अब आप बीच में हैं। जैसे समझाये – धान, तीन नाम हम आपको बताते हैं, छिलका, चावल और धान। हम धान को पहले लाते हैं, फिर धान में से छिलके को एक और तथा चावल को दूसरी ओर कर देते हैं। अब धान को पूछते हैं, तुम किधर हो?
ऐसे ही जो ‘मैं’ हैं न ‘मैं ‘, यह’ ‘मैं ‘एक तरफ है ‘देह’ और एक तरफ है ‘चेतन’। चेतन है चावल और देह है छिलका तथा अन्तःकरण, वृतियां आदि भी हैं छिलका। अब रहा यह मैं। यह’ मैं ‘चावल है या छिलका अर्थात आत्मा है या देह। पहले यह ‘मैं’ एक नाम था, धान’, अब दो नाम हो गये, चावल और छिलका तथा धान नाम गया। अभी तक “मैं” नाम देह और चेतन का मिला जुला नाम था। अब अलग – अलग कर दिए तो एक तरफ तो चले गए देह, मन, बुद्धि, अहंकार आदि और एक तरफ बचा चेतन।
अब “मैं” कहाँ गई? अब धान को या तो गायब कहें या चावल कहें या छिलका कहें। अब धान को चावल कहेंगे। क्योंकि चावल पाने के लिए ही धान की कटाई व छनाई की थी, छिलका पाने के लिए नहीं।
इसी प्रकार से “मैं” को ब्रह्म बनाने के लिए ही “मैं” की कटाई की, छनाई की, अर्थात सत्संग किया, स्वाध्याय किया, ध्यान किया। अतः यह “मैं” ब्रह्म, चैतन्य (यदि “मैं” रखना ही है तो) अन्यथा ‘मैं’ को मार दो। बस, चैतन्य है और जड़ है ‘मैं’ आदि कुछ है ही नहीं। चैतन्य है तो चैतन्य को कोई भय नहीं, मौत नहीं, अपना-पराया नहीं। यह जो ‘मैं’, “मैं” लगता था, वह तो अलग करते ही मर गया।
आप ही बताइए, इतनी मेहनत करके धान बोए थे, छिलके के लिए या चावल बढाने के लिए ? स्वाभाविक है कि चावल बढ़ाने के लिए। ऐसे ही, यह “मैं” जन्मा है, “मैं” बढ़ाये हैं। किसलिए? ब्रह्म ज्ञान के लिए, ब्रह्म होने के लिए या “मैं” आदमी होने के लिए? अतः बोध के पश्चात्, विवेक के पश्चात् चैतन्य अनुभव करें। ऐसा लगे जैसे ब्रह्म ही ब्रह्म है, ब्रह्म ही ब्रह्म है। “मैं” पहले देह के साथ एक था, अब चैतन्य के साथ एक हो गया। जो छिलका प्रधान होकर बोलते हैं वह कहते हैं, इस वर्ष धान बहुत हुए और कई लोग कहते हैं, इस वर्ष चावल बहुत हुए। बोलने की भाषा है। जो छिलका लगाकर बोलते हैं, वह धान कहते हैं और जो थोड़ा भीतर ध्यान लगाकर कहते हैं वह चावल कहते हैं। केवल दृष्टि का अन्तर है। अपनी दृष्टि को स्वरुप की ओर करें। सिर्फ अपनी दृष्टि को ही बदलना है। अपने आप दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाएगी आप सर्वस्य चेतन स्वरूप में खुद को या उसको खुद में महसूस करेंगे। गुरु सिर्फ जीवन में यही करते हैं की दृष्टि को उस ओर कर देते हैं जैसे हम रेडियो की फ्रिक्विएंसी बदल देते हैं फिर वही स्टेशन पकड़ता है और सही स्टेशन पकड़ता क्योकि इससे परे कोई ज्ञान नही, यही शाश्वत है सत्य है, भगवान है। आज जानो या कल जानना, समझना, घुलना, मिलना इसी में है तब तक चैन ना पाओगे क्योकि जन्म का कारण, देह का कारण ये सत्य जानना ही है…..अस्तु

दुःख को सदा के लिए ही मिटाएं

दुःख सबको एक ही है और अनादि है। इसीलिए, वह बना ही रहता है यदि मिटेगा, तो सदा के लिए ही मिटेगा। कष्ट आवश्यकताओं की अपूर्ति से होता है और आवश्ककतायें सामयिक होती हैं-सदा नहीं रहती। कष्ट भी सदा नहीं रहते, आते – जाते रहते हैं। शरीर रहते कष्ट सदा के लिए नहीं मिटते; किन्तु ,दु:ख जब भी मिटता है, सदा के लिए मिटता है। प्राणी मात्र की एक और मांग स्वभाविक है। यह कुसंग या सुसंग से पैदा नहीं हुई और न कुसंग या सुसंग से इसकी निवृत्ति ही हो सकती है। आत्मविस्मृति से आनंदमय जीवन की मांग पैदा हुई है और आत्म जागरण से ही इसकी पूर्ति होगी। आवश्यकताएं भी कुसंग और सुसंग से पैदा नहीं हुई। वे प्राकृतिक हैं। उनकी निवृत्ति कुसंग या सुसंग से नहीं हो सकती। उनकी पूर्ति पदार्थों से ही हो सकती है।
लोभ , काम , मोह , अभिमान और अहंकार में भेद
आत्मविस्मृति से पैदा हुई मांग की पूर्ति न होने से अंदर अभाव का अनुभव होता है। उनकी पूर्ति के लिए, बाह्य पदार्थों से जो आशा का जन्म हुआ है; उसी का नाम इच्छा है। इसीलिए, तत्व बोध के बिना इच्छाओं की समाप्ति नहीं हो सकती। आंतरिक आनंद के अभाव में वस्तु से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम लोभ है। स्त्री या पति से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम काम है, परिवार से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम मोह है, पद से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम अभिमान है और इंद्रियों तथा विषयों से सुख पूर्ति का नाम अहंकार है। जब इन ऊपरी चीजों की इक्षा को सर्वस्य समझ कर पूरी करते रहोगे फसे रहोगे तब तक, जब तक आंतरिक इक्षा या सत्य नही जान लेते और उसे जानकर स्वयं सर्वस्य नही हो जाते।

आत्मा का स्वभाव


एक सज्जन ने पूछा है कि आत्मा निर्गुण है, उसमें देखने का गुण नहीं हो सकता और प्रकृति जड़ है, इसलिए वह देख नहीं सकती। फिर देखा कैसे जाता है? ( देखता कौन है )?
देखना, जानना और अनुभव करना किसका धर्म है ?
परमात्मा या आत्मा, जो चैतन्य है, उसमें देखने का गुण नहीं है; क्योंकि, वह निर्गुण है। जिसमें कोई गुण नहीं होता, उसमें देखने का भी गुण नहीं होता; तभी तो उसे निर्गुण कहते हैं। निर्गुण देख नहीं सकता। प्रकृति गुण वाली है, उसमें गुण हो सकते हैं; लेकिन, वह स्वयं जड़ है; इसलिए, उसमें भी देखने का गुण संभव नहीं है। जानने का गुण संभव नहीं है। फिर यह देखना, जानना और अनुभव करना किस का गुण है? कौन अनुभव करता है? इस प्रश्न पर विचार करना है।
आप लोग यह जानते हैं कि आपको आंखों से रूप दिखाई दे रहा है और कानों से प्रवचन सुनाई पड़ रहा है। यह स्पष्ट है। इस सत्य को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। आप यह भी जानते हैं कि स्वप्न के समय इन आंखों से दिखाई देना और कानों से सुनाई देना बंद हो जाता है। फिर यह देखना धर्म किसका है?
यदि हम दूरबीन ले लेते हैं, तो बहुत दूर तक दिखाई देने लग जाता है और यदि हम दूरबीन को उतार देते हैं, तो जिस चीज को देख रहे थे, उस चीज का दिखना बंद हो जाता है। हम एक खुर्दबीन ले लेते हैं, तो ऐसे अवयव, जो कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं, दिखाई देने लगते हैं। जब हम उसे हटा देते हैं, तो दिखाई देना बंद हो जाता है। ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो आंखों से सीधी नहीं दिखाई देती। देखना गुण क्या दूरबीन का है या खुर्दबीन का है या नेत्र का है? क्या कहेंगे? दूरबीन से वह वस्तु दिखाई पड़ती है और दूरबीन के बिना दिखाई नहीं पड़ती। तो देखने की जो सामर्थ्य है, वह नेत्र की है या दूरबीन की है?
हम इस बात को और स्पष्ट करेंगे। यदि आप देखना गुण खुर्दबीन या दूरबीन का कहेंगे, तो हम आपकी आंखें हटा लेते हैं। अब कहो खुर्दबीनें और दूरबीनें देखेंगी? एक के बाद एक कितनी ही दूरबीनें लगा दीजिए; किंतु, वस्तु का दर्शन नहीं होगा। आप यह भी जानते हैं कि यदि दूरबीन हटा लेते हैं, तो वस्तु दिखाई देना बंद हो जाती है। इस समय भी आंखों में देखने का गुण है; किंतु, दिखाई नहीं देता दूरबीन उसका साधन बनती है; साधन न होने पर दिखना बंद हो जाता है। इसी तरह आँखे भी साधन ही हैं। साधन और साध्य को समझना होगा बारीकी से जानना होगा तभी मानोगे और बुद्धि में छपेगा नहीं तो सुनने का मनोरंजन होगा कल तक सब भूल जाओगे इसलिए इसे समझने का सतत प्रयास ही इस से भलीभांति अवगत करा सकता है।

भौतिकवाद और अध्यात्मवाद

जीवन के दो पहलू-आंतरिक और बाह्य
जब हम अपने जीवन को शांत और स्वस्थ होकर सही रूप में देखते हैं, तब हमें जीवन के दो पहलू दिखाई देते हैं – आंतरिक और बाह्य। आंतरिक जीवन में हमको सत्, चित् और आनंद की मांग तथा बाह्य जीवन में रोटी, कपड़ा, मकान और पदार्थों की आवश्यकता है। इनमें से किसी की भी पूर्ति न होने से जीवन पूर्ण नहीं हो सकता; क्योंकि, बाहरी आवश्यकताओं के पूर्ण न होने पर जीवन कष्टमय और आंतरिक मांग पूर्ण न होने पर जीवन दुःखमय हो जाता है। अतः, आंतरिक दुख और अभाव की समाप्ति के लिए जीवन में सत्- चित्- आनंद , शांति , स्वाधीनता और पूर्णता उपलब्ध हो जाती है। शारीरिक व्यवस्था के लिए, कर्म द्वारा अन्न, धन और मकान आदि उपलब्ध हो जाते हैं, जिनसे उचित शारीरिक व्यवस्था हो जाती है। इस प्रकार जीवन के बाह्य पहलू में होने वाले कष्ट और आंतरिक पहलू में होने वाले जीवन के आनंद और ज्ञान का अभाव मिट जाता है।
बाह्य जीवन भौतिक और परिवर्तनशील होने से सब की आवश्यकताएं एक समान नहीं रहती। वह व्यक्ति, देश, काल और अवस्था के अनुसार बदल जाती हैं । लेकिन, प्राणी मात्र की आंतरिक मांग या आंतरिक इच्छा एक ही है। किसी जाति, संप्रदाय या वर्ग विशेष की आंतरिक मांग में कोई भेद नहीं है।


धर्म क्या है ?
आंतरिक मांग की पूर्ति के विज्ञान को ही धर्म कहते हैं। इसीलिए मानव मात्र के धर्म में किसी प्रकार का भेद नहीं है। सब की मांग और मांग – पूर्ति का साधन एक ही है। हमारी बाहरी आवश्यकताओं की पूर्ति में भेद है; क्योंकि, देश, काल, व्यक्ति और आवश्यकताओं में भेद हो जाता है। इसीलिए, सबका बाह्य जीवन एक ही समान नहीं हो सकता। किंतु, प्राणी मात्र की आंतरिक भूख एक और उसकी खुराक भी एक ही है-आत्मा। आत्मा, “आत्मा” से ही तृप्त हो सकती है, पदार्थ से नहीं। अतः, धर्म एक ही है– आत्म प्राप्ति , आत्म जागृति, आत्मानंद।
मानव की मांग जो वो इसी जन्म में जान जाये तो धन्य हो जाये मुक्त हो जाये।

मोक्ष के लिए दृश्य से मुक्ति आवश्यक

यदि, मन को समाप्त करना है; यदि मोक्ष पाना है; तो पहले दृश्य से मुक्त हो जाओ; क्योंकि, दृश्य ही, दृष्टा  के जीने के लिए हमें लकड़ी देता रहता है। अधिक खतरे की बात तो यह है कि दृष्टा अपने को न देखें, तो दृश्य ही दृश्य भाषता रहता है। यद्यपि, लकड़ियां सुलगती हैं – कुछ देर अधिक धुआं उठता है – विचार और द्वंद मचता है; लेकिन, यदि नई लकड़ियां मिल जाती हैं, तो लपटे उठती हैं। अब दृष्टा और दृश्य के बीच में एक प्रकार का संघर्ष पैदा होता है। इसका फैसला नहीं कर सकते। ये तो तब हो, जब लकड़ियों को कुछ दूर करें। तब हमें लगे कि हम कुछ हैं और ये कुछ हैं।
       यदि इस प्रकार की आग, दस – बीस  जगह जल रही है और उनकी अपनी – अपनी लकड़ियां और अपनी-अपनी आग है, तो वे  सब अपने को कहती होंगी कि वे अग्नि हैं। ये उनकी लकड़ियां हैं। इनको  वे जलाएंगी। यदि थोड़ी देर के लिए उन्हें लकड़ियां न दी जाएं, तो कितने “मैं” रह जाएंगे? “मैं” अग्नि हूं, अग्नि हूं। हर एक का यह दावा था कि अग्नि “मैं” हूं। कितनी अग्नि रह जाएंगी? सारी अग्नियां शांत हो जाएंगी। शायद कई रह जाएंगी। जिनको आज तक देखा नहीं है।
        
      जिस अग्नि को आज तक नहीं देखा है, वह अव्यक्त आग रह जाएगी। जो दृश्य नहीं है, जो दिखाई नहीं देती। जिससे वह अव्यक्त भी होती है इसीलिए कहा है कि —
      “अव्यक्तातपुरुष: पर:”
      जहां अव्यक्त भी नहीं रहता। वह अव्यक्त के भी परे है। जो शुद्ध चैतन्य है; परमात्मा है; वही तमाम रूपों में, जितने भी  “मैं”  हैं, उनमें प्रकट हुआ है ।
मैं से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ, जो तेजोमय प्रकाश युक्त रत्न है, वह भलीभांति धुल जाने पर चमकने लगता है; उसी प्रकार इस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप अत्यंत स्वच्छ होने पर भी अनन्त जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों से मलिन हो जाने के कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता; परन्तु जब मनुष्य ध्यान योग के साधन द्वारा समस्त मलों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति प्रत्यक्ष कर लेता है, तब वह अकेला (अर्थात उसका जो जड़ पदार्थों के साथ संयोग हो रहा था, उसका नाश होकर) कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकार के दुःखों का अन्त होकर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है। उसका मनुष्य जन्म सार्थक हो जाता है। फिर जब वह योगी इस स्थिति में दीपक के सदृश निर्मल प्रकाशमय आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्म तत्व को भलीभांति प्रत्यक्ष देख लेता है, तब वह उस अजन्मा, निश्छल तथा समस्त तत्वों से असंग—सर्वथा विशुद्ध परम देव परमात्मा को तत्व से जानकर सब बन्धनों से सदा के लिए छूट जाता है।