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भौतिकवाद और अध्यात्मवाद

जीवन के दो पहलू-आंतरिक और बाह्य
जब हम अपने जीवन को शांत और स्वस्थ होकर सही रूप में देखते हैं, तब हमें जीवन के दो पहलू दिखाई देते हैं – आंतरिक और बाह्य। आंतरिक जीवन में हमको सत्, चित् और आनंद की मांग तथा बाह्य जीवन में रोटी, कपड़ा, मकान और पदार्थों की आवश्यकता है। इनमें से किसी की भी पूर्ति न होने से जीवन पूर्ण नहीं हो सकता; क्योंकि, बाहरी आवश्यकताओं के पूर्ण न होने पर जीवन कष्टमय और आंतरिक मांग पूर्ण न होने पर जीवन दुःखमय हो जाता है। अतः, आंतरिक दुख और अभाव की समाप्ति के लिए जीवन में सत्- चित्- आनंद , शांति , स्वाधीनता और पूर्णता उपलब्ध हो जाती है। शारीरिक व्यवस्था के लिए, कर्म द्वारा अन्न, धन और मकान आदि उपलब्ध हो जाते हैं, जिनसे उचित शारीरिक व्यवस्था हो जाती है। इस प्रकार जीवन के बाह्य पहलू में होने वाले कष्ट और आंतरिक पहलू में होने वाले जीवन के आनंद और ज्ञान का अभाव मिट जाता है।
बाह्य जीवन भौतिक और परिवर्तनशील होने से सब की आवश्यकताएं एक समान नहीं रहती। वह व्यक्ति, देश, काल और अवस्था के अनुसार बदल जाती हैं । लेकिन, प्राणी मात्र की आंतरिक मांग या आंतरिक इच्छा एक ही है। किसी जाति, संप्रदाय या वर्ग विशेष की आंतरिक मांग में कोई भेद नहीं है।


धर्म क्या है ?
आंतरिक मांग की पूर्ति के विज्ञान को ही धर्म कहते हैं। इसीलिए मानव मात्र के धर्म में किसी प्रकार का भेद नहीं है। सब की मांग और मांग – पूर्ति का साधन एक ही है। हमारी बाहरी आवश्यकताओं की पूर्ति में भेद है; क्योंकि, देश, काल, व्यक्ति और आवश्यकताओं में भेद हो जाता है। इसीलिए, सबका बाह्य जीवन एक ही समान नहीं हो सकता। किंतु, प्राणी मात्र की आंतरिक भूख एक और उसकी खुराक भी एक ही है-आत्मा। आत्मा, “आत्मा” से ही तृप्त हो सकती है, पदार्थ से नहीं। अतः, धर्म एक ही है– आत्म प्राप्ति , आत्म जागृति, आत्मानंद।
मानव की मांग जो वो इसी जन्म में जान जाये तो धन्य हो जाये मुक्त हो जाये।