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स्वर
ख्याब सा हो
खुशबू सी हो
किसी रागनी के
स्वरंगों सी हो
कवियों के गीत, की प्रेरणा
कोई प्यार करे
तो पूरी सदी सी हो
प्रकृति की सुबह की ओस पर
इक गेरुए किरण सी हो
कला की कृति सी तुम
अप्रितिम प्रकृति सी हो
पानी की चमक
मिट्टी की खुश्बू
आकाश की लालिमा
पूरे इंद्रघनुष सी हो
शब्द कम पड़ जाए
कोई कल्पना गर करे
तुम शब्दो से परे
स्वरों सी हो….!
नक़ाब
तुम ख़राब कर लेना अपने कपड़ों को
तुम दाग लगा लेना उनमें घुलने को
पर दिल ख़राब नहीं करना
बिना जाने, बिना समझे
तुम हिसाब नहीं करना
गाँठ पड़ जाएगी, बल आ जाएँगे इस रस्सी में
गले से भर के मुझे जज़्बातों से
तुम सवालात नहीं करना
आखों में देख लेना
सको तो पढ़ लेना
दया की भीख ना देना
नक़ाब कर लेना -२ …
संवेदना
पृथ्वी हो तुम मेरी
इसलिए खड़ा
हो पाता हूँ अब
पैर थमते हैं कही तो..
नही तो अंतरिक्ष में
जैसा था जीवन,
जहाँ कोई गुरुत्वाकर्षण नही..
फिर भी किसी कर्षण के साथ
रुकना पड़ता था..
अनिश्चितता थी, अनमनापन भी
अब घरोंदा बनाने की
मिट्टी में कुछ उगाने की
उन्मुक्तता आयी है
कृष्ण के रास का रस
नल दमयंती के रिश्ते की
करुणा लायी है
मोह भी आया है
जो क्षोभ भी लाया है
मुक्त वायु सा मैं
अब शरीर में भर गया तुम्हारे
और तुम्हें भर लिआ है खुद में
एकीकार करने..
इसी उन्मुक्ति में मुक्ति तलाशता
डोर थमाये तुम्हें भागता
अश्वत्थामा की मणि
खोज निकाली है
फिर भी, क्योंकि जीवन में हूं
जीवन लगता खाली है
बार बार भले जन्म देना
पर बच्चे सा रखना
क्योंकि जननी ही होके
कोई उसे रोके
क्रोध का पत्थर मारे
तो खुद को कोसे
सहनशीलता ही तेरा गेहना है
और क्या कहना है
अवशेष कुछ तेरे है
बाकी शब्द मेरे हैं
मैं आकाश ही हूं
इस कहानी में
तुम पृथ्वी हो हक़ीक़त में
तुम्हारी परिधि है
परिधानों में
मेरा अस्तित्व नही
निशानों में
मैं हरदम इकटक देखा
करूँगा तुम्हें आकाश सा
बस वक्षःस्थल से
धार बहा देना
मुझे धरातल देंते रहने….
मैं जल जाऊँ तुम बुझ जाओ
“
तुम्हें भी ऐसा लगता होगा
जब तुम ग़ुस्सा होती होगी
मैं सही और सब ग़लत
गलतफहमियों को सहती होगी
कुछ बातों में मैंने
तुम्हारा हस्ताक्षर नहीं पाया
हस्तक्षेप तो मेरा भी
तुम्हें कहाँ पसंद आया
इक होने का गाना गाकर
हम दो हरदम बने रहे
कैसे खजूर लगाए मिलके
की बस हरदम तने रहे
काश बेल बनकर कभी तुम
मुझसे यूँ लिपट जाओ
फिर मुझको भी तुम
पेड़ से बेल बनने का गुण सिखलाओ
तुम धरती हो आशा तुमसे
होना तो स्वाभाविक है
मातरत्व का गुण सजाकर
फिर क्षमा तुम सिखलाओ
मैं जल जाऊँ, तुम बुझ जाओ – २ “
सुकून
तेरी बज्म में रहना
सुकून था मेरा
पर इतनी बार तूने
बे-वजह साथ छोड़ दिया,
अब हक़ समझा हूँ
जो मेरा मुझी पर है
इसी वजह से मैं
तुझसे मुँह मोड़ बैठा हूँ ,
तूँ रूह है मेरी अब
धड़केगी हर सू
बस तेरे आवरण से
ताल्लुकात छोड़ बैठा हूँ,
तेरे तन से और मेरे मन से
मेरी ज़मीं, ज़मीं ना ज़मीं
पर अपनी रूह से तो
कब का तुझे जोड़ बैठा हूँ,
अब भी चश्मेतर में तैरती है
तू भर के मुझे
मैं तुझमें हूँ
या तू मुझमें
ये भी भूल बैठा हूँ,
अब किसी और रूप से
ना लुभाना मुझे
मैं अपनी साख से गिर
कब का टूट बैठा हूँ।