भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्धा।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
पंचभूत (भूमि), आप ( जल ), अनल (अग्नि), वायु और खम् (आकाश ) इसमें तीन और हैं ( मन , बुद्धि और अहंकार )। ये आठों (अष्टधा) अपरा अर्थात जड़ प्रकृति हैं । चैतन्य नहीं है। इसमें जो चिदाभास है वह चेतन ( परा ) की चेतन्य प्रकृति है। ये दोनों मिले हुए हैं। संपूर्ण सृष्टि इन दोनों प्रकृतियों से ही चल रही है। जगत को धारण किसने किया है? प्रकृति ने किया है, चैतन्य ने नहीं। चैतन्य को तो लेना – देना ही नहीं है । वह तो साधू है, वह तो ब्रह्म है, वह तो नपुंसक है। यह जो चैतन्य की चिदाभासात्मिका है वह मन से इन्द्रियों से मिल कर चलाती रहती है । परमात्मा इससे भिन्न है। वह इसमें लिप्त है ही नहीं।
सर्व निवासी सदा अलेपा।
वह बिल्कुल अलिप्त है। वह विकारी नहीं है । किसी में मिलता ही नहीं है । चिदाभास, प्रकृति से मिलकर प्रकृति के अनुसार बन गया। साक्षी बना नहीं। चिदाभास, वृत्ति के अनुसार , अंतःकरण के अनुसार होता है। साक्षी तो कभी कुछ होता ही नहीं है।
आदि शंकराचार्य का श्लोक देखिए —
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहम्—
पंचभूत और मन, बुद्धि, चित्, अहंकार ये मैं नहीं हूं। ये हैं; पर ये मैं नहीं हूं। इनको मिटाने के चक्कर में मत पड़ना। कई लोग अहंकार से निपटने के चक्कर में पड़े हैं। मर गए अहंकार को मिटाते – मिटाते; पर अहंकार नहीं मिटा । यह तो प्रकृति का है। मैं नहीं हूं। मैं हूं , ये भी हैं ; पर ये मैं नहीं हूं।
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सबके आधार तुम हो
इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न उच्यते उसे ना सत् कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!
हम विश्वगुरु हैं, थे और रहेंगे
“आदि गुरुवे नमः। जुगादि गुरुवे नमः। श्री सद्गुरुवे नमः।” जो आदि गुरु ने कहा था वही दूसरे ने कहा, वहीं तीसरे ने कहा, वही चौथे ने कहा। “इदं परंपरा प्राप्त” यह हमने परंपरा से पाया है, हमारी कल्पना नहीं है। हम कोई स्वयंभू गुरु नहीं है। “हमारा जन्म हमारे गुरु ने दिया है।” जैसे तुम स्वयं नहीं पैदा हुए, तुम्हारा पैदा करने वाला तुम्हारा बाप है और तुम्हारा बाप भी स्वयं पैदा नहीं हुआ, तुम्हारा बाप अपने आप हुआ था क्या? तुम्हारे बाप का बाप भी पैदा हुआ, बाप के बाप के बाप का बाप भी पैदा हुआ। ठीक है? “बिना पैदा हुआ बाप कौन है? केवल “स्वयंभू” जो स्वयं था! वही सब का पिता है” इसलिए उसको हम “परमपिता” कहने लगे। क्यों? जब से वेजिटेबल घी के नाम बिकने लगा तब उसे शुद्ध घी कहने लगे। शुद्ध घी नाम पहले था क्या? अच्छा सौ दो सौ साल पहले शुद्ध घी होगा क्या ? शुध्द घी तो था पर शुद्ध घी नाम नही था, घी था सिर्फ। तो शुद्ध नाम कब पड़ा? जब से फर्जी घी बन गया। तो जब से फर्जी बाप बन गए तब उसे परमपिता कहना पड़ा कि लोग कंफ्यूज ना हो जाए। जैसे सभी जननी बन बैठी तब उसे जगज्जननी कहा गया। ठीक है? तो सच्चाई यही है। तो अब हमें क्या करना है? हमे दो ही चीजें जाननी है- एक तो हम “सत्” है और दूसरा जानना है “सर्वत्र”, दो चीजें समझ लो। लोग माने ना माने, चाहे हिंदू को सांप्रदायिक कहे चाहे दकियानूसी कहे, चाहे कट्टर कहे और जो भी आरोप लगा सकते हैं, लगाएं “पर सच है कि यदि सत्य को ठीक ठीक समझा है तो भारत ने समझा है! ठीक ठीक समझाया है तो हमारे वेदों ने समझाया है और भारत के गुरुओं ने समझाया है!” इसलिए किसी देश का धन, सोना अच्छा होगा, किसी देश की राजनीति होगी, किसी देश में धन बहुत होगा। “हमारे देश में गुरु है ! हम गुरुओं के धनी हैं!” (अंग्रेज ) राजनीति में कितने खिलाड़ी रहे जब विश्व मे शासन किया है! विश्व गुलाम रहा है, विश्व! शायद आप भी नही समझते ,भारत जिनका गुलाम था अमेरिका भी उनका गुलाम था, रूस भी उन्हीका गुलाम था। विश्व को गुलाम बना के रखा है अंग्रेजो ने, इतने दिमागदार थे राजनीति में! आज भी अभी उन्हीं की भाषा चलती है। कही चले जाओ, हिंदी के बिना काम चल जाएगा। साउथ में भी जाओ, हिंदी नही चल रही इसी देश में। और देश में तो छोड़ो। आज भी अभी हम गुलाम है उनकी भाषा के। पर फिर एक ये कह दूँ…. राजनीति में उनके हम गुलाम हो गए। (काफी वर्षों तक वे) रहे, मुश्किल से अभी वो गए पर अभी उनकी गुलामी नही गई, उनकी मानसिकता नही गई। “पर उपनिषद् विद्या के लिए आज भी वे भारत ही आते है।” रूस के आते हैं , अमेरिका के आते हैं, और भी कई देश के आते है। “तो गुरु खोजना हो तो भारत में !” जैसे सेव कश्मीर के, कही के कुछ, कही के कुछ। जैसे हमारे जन्मभूमि के पास अमौली की हवन सामग्री फेमस थी, लेकिन कही के लोटे प्रसिद्ध है, कही के ताले प्रसिद्ध है। ठीक है? ऐसे ही कही का कुछ, कही का कुछ विश्व मे प्रसिद्ध है। पर “अध्यात्म जो है वो भारत का था, भारत में आज है, और भारत में ही रहेगा। इसलिए विश्वगुरु हम थे, विश्वगुरु हम आज है, और विश्व गुरु हम रहेंगे।”
ॐ शांति: शांति: शांति:
शरीर का सत्य
आप लोग भी कई बार गीता में पढ़ चुके होंगे कि—-
“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय”
नवानि गृह् णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहनता है, ऐसे ही जीवात्मा शरीर रूपी पुराना कपड़ा उतार कर नया पहनता है। आज तक तुमने नहीं देखा होगा कि पुराना कपड़ा उतारकर नया पहनने में किसी को दु:ख होता है? लेकिन, ये कैसे कपड़े हैं, जिन्हें उतारने में बड़ा कष्ट होता है? क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि हमको यह बोध नहीं है कि ये कपड़े हैं; इन कपड़ों को हम पहनते हैं। गंदे कपड़े धोने को डालते हैं और दूसरे कपड़े पहन लेते हैं; धुला कर पहन लेते हैं। यह शरीर भी रोज धुलवाकर पहनते हो। कपड़े तो सात दिन में धोने के लिए डालते हो; परंतु, इसे रोज धोबी के यहां डलना पड़ता है; रोज धुलवा करके पहनते हो।
तुम्हें पता न होगा कि यह कब धोया जाता है, कब इस पर स्त्री की जाती है? तुमने देखा है कभी स्त्री करते? हमने देखा है। इसलिए, हम जानते हैं। गहरी नींद में इसको ठीक किया जाता है। नींद न आती होती, तो यह कपड़ा अभी तक न जाने क्या हो जाता। इसकी रोज की थकान दूर की जाती है; रोज की सिकुड़न दूर की जाती है; रोज दिमाग के तनाव दूर किए जाते हैं। शरीर में जितनी कमजोरी और थकान आती है, उसे दूर करने के लिए रोज गहरी नींद में धोने को डाल देते हैं। रोज ठीक करके सुबह ताजा कर दिया जाता है। रोज पहनते हैं । इसके साथ ही और भी देखो कि ये आखिर में बदला जाता है। मौत भी वही काम करती है।
यह शरीर बहुत दिन धोया गया। जब बिल्कुल धोने लायक नहीं रहता; धोने में ही फट जाएगा; तो आखिर में बिल्कुल बदल दिया जाता है और नया पहनाया जाता है। लेकिन, आदमी इस रहस्य को नहीं जानता। क्योंकि, जो कभी उतारते – पहनते देखता नहीं, धोते समय देखता नहीं, वह कैसे जानेगा? यदि देखा हुआ होता ; जागते समय धोने को डाला होता; तो देखता कि कैसे तरोताजा हो गया है।
यह शरीर समाधि के द्वारा धुलता है; फिर इसे हम पहनते हैं। समाधि के द्वारा इसका ग्रहण और त्याग होता है। वह जान लेता है कि “मैं” शरीर से पृथक हूं। इसको समाधि में छोड़ता हूं; फिर जाग कर के पहनता हूं। यदि इसकी समाधि लगी होती, तो कपड़े के पहनने और उतारने का राज जान जाता। इसके कपड़े तो धोखे -धोखे में धोए गए हैं। कभी होश में उतारकर धोने के लिए धोबिन को दिए ही नहीं गए। बेहोशी में उतारकर धोने के लिए दे दिए गए हैं ।बेहोशी में ही कपड़े पहनाए गए थे; इससे जाना ही नहीं कि कौन धो गया है? कौन इसको ताजा कर गया है? यह कैसे ठीक हो गया? इसने कभी प्रकृति का अध्ययन ही नहीं किया। प्रकृति ने बड़ी कृपा की है; लेकिन, यह कभी नहीं जान पाता। बेहोश रहता है। जो बेहोशी में हुआ है , वही होश में करने लग जाए। होश में कपड़ा उतार कर धोबिन को दें; फिर धुलवाकर पहने; तो पता पड़े कि पुराना उतारकर नया पहनने में क्या दु:ख है?
मृत्यु बहुत बड़ा रहस्य है। इस रहस्य को हमें जानना है। जब तक हम इस रहस्य को नहीं जानेंगे, तब तक हमेशा चिंतित और भयभीत रहेंगे। कोई भी आदमी खुशी के साथ कपड़ा उतारने को तैयार नहीं है। इसका कारण यह है कि हमने धोबिन से होश में एक दिन भी कपड़े नहीं धुलवाए। हम कहते हैं कि समाधि में रोज कपड़े दिया करो। यदि, जागते में तुम शरीर को दे दो तो, फिर देखो कि कितना ताजा और प्रसन्न हो करके मिलता है। कितना स्वस्थ और शांत मिलता है। आपको प्रसन्नता रहेगी।
प्रतिदिन होश में धुलाओगे, तो मौत के दिन भी दे दोगे कि ले जाओ, हम नया पहन लेते हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि मौत हमारी माता है। मां बड़ी दयालु है; बड़ी कृपा करती है। माता के जब एक स्तन पर दूध नहीं रहता, तो बच्चा स्तन काटने लगता है। मां जान जाती है कि इसमें दूध नहीं है, नीरस है। बच्चा दुखी हो रहा है। वह उसके मुंह से स्तन को छुड़ाती है। वह नहीं छोड़ता, तो मां जबरदस्ती उसे छुड़ाकर दूसरे स्तन पर लगाने की कोशिश करती है। जब बच्चे के मुंह से स्तन छूट जाता है, तो वह रोने लगता है। पर, जब दूसरा स्तन मिल जाता है, तो फिर खुश होकर पीने लगता है।
जीव की भी ठीक यही दुर्दशा है। शरीर में आनंद के लिए लिप्त है। जब मौत इस शरीर को छोड़ाती है, तो रोता है।जब दूसरा फिर पा जाता है, तो खेलने – कूदने लगता है। यह जीव की दशा है। हां! कोई जानकार लड़का होता है – सयाना लड़का होता है तो उसकी मां नहीं छुड़ाती। वह स्वयं स्तन को छोड़कर, दूसरे स्तन को पीने लगता है।
योगी वह व्यक्ति है, जो एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर खुशी से ले लेता है। फिर सवाल ही नहीं रह जाता है कि मौत जबरदस्ती करे। यदि, समझदार बच्चा है; सयाना बच्चा है ; तो मां को कुछ भी करने की जरूरत नहीं। जो थोड़ा बहुत समझदार है, वह मौत से नहीं घबराता। वह तो रोज शरीर बदलने को तैयार है। क्या बिगड़ता है? ज्ञानी मुक्ति नहीं चाहता। ब्रह्मविद पुरुष मुक्ति से भी हाथ धो बैठता है। कहता है कि जब हम अपने को शरीर जानते, अहंकार होता, तो बंधन होता। हम ज्ञान से मुक्ति मानते हैं। शरीर होने और न होने का कोई प्रश्न नहीं। मोक्ष तो जीते जी हो जाता है।
लोगों ने मोक्ष की अलग-अलग परिभाषाएं भी की हैं। भगवान् कृष्ण के अनुसार शरीर को कपड़े की तरह उतारने को हमने कहा था, आप जीवन में कैसे उतार सकोगे? प्रेम से होश में उतारो। तुमने होश में कभी उतारा ही नहीं। हमेशा बेहोशी में ही उतारे हो। उतारने के पूर्व ही थोड़ा सा पता चल पाता है; फिर नहीं जानते कि कब उतारे और कब नहीं पहनाई गये।
इसी बीच की दशा बिल्कुल बेहोशी में ही निकल जाती है; क्योंकि, जीते जी न कभी होश में उतारे और न कभी पहने। जागते समय अगर शरीर छोड़ते, तो जागते समय फिर पहन सकते थे। तभी तुम मरने के समय भी प्रेम से शरीर छोड़ सकोगे। कपड़ा छोड़ते समय, यदि तुम जागते रहते ; तो यह भी पता चल जाता कि “मैं” नहीं मरता हूं। अभी तुमको ऐसा प्रतीत हो रहा है कि “मैं” मरता हूं। इसलिए, लगता है कि तुम अभी शरीर ही में चिपके हो – शरीर ही बने हो। इसीलिए , लगता है कि “मैं” मरता हूं। ” मैं” शरीर हो गया हूं। यही तो बहुत बड़ा रहस्य है।
हमें मरना सीखना चाहिए। मरना प्रसन्नता पूर्वक हो सकता है। मरते समय भी जीते रह सकते हैं। सुकरात की बहुत बड़ी कहानी है। सुकरात बहुत बड़ा ब्रह्मनिष्ट पुरुष था; आत्मविद् पुरुष था। उसने बराबर साधना की थी और जीते जी कई बार (शरीर रुपी ) कपड़े धोये थे। खुशी से धोये थे और खुशी से पहने थे। समाधि का अनुभव किया था और खुशी से जीता था। समाज को ज्ञानियों से हमेशा चिढ़ पैदा हुई है। क्यों पैदा हुई है? इसलिए कि समाज अपने को हमेशा शरीर मानता है; इससे, हमेशा ब्रह्म होने का दावा करने वाले से उसका जरुर संघर्ष पैदा हो जायेगा।अन्त में, लोगों ने सुकरात को जहर दे दिया।
सुकरात के शरीर और पैरों में जहर चढ़ने लगा।यह तोआप जानते ही हैं कि थोड़ी देर जब पैर दबा रहता है, तो सुन्न हो जाता है। पैर नीले हो जाते हैं। उठाने में ऐसा लगता है कि जैसे भारी हो गए हों। जब जमीन पर रखो तो गुदगुदे गद्दे जैसी विशेष स्थिति हो जाती है। इस प्रकार उसे अपने पैरों का वजन प्रतीत होने लगता है। सुकरात को जहर चढ़ गया, शून्यता आने लगी, सुन्नता में पैरों का वजन बढ़ गया। बड़ी देर तक तो वह टहलता रहा; जब चलने लायक नहीं रहा, तो लेट गया। मित्र और शिष्य लोग रोने लगे। सुकरात कहता है कि “तुम क्यों रोते हो? प्रश्नपत्र मेरे सामने आया है, निष्ठा की परीक्षा मौत के समय होती है। तुम रोते हो”? यह प्रश्न पत्र आया है, प्रश्न पूछे गए हैं। यह आखरी प्रश्न है। जो इसमें पास हो जाता है, वही पास है।
जिंदगी में तो लोग बहुत जीते रहे हैं ,जीते समय तो बहुत मरते रहे हैं; पर, मरते समय कौन जीता है? जो स्वयं में जीते रहे हैं, वह आज जिएंगे। जो पढ़ते रहे होंगे, वही आज पास होंगे। परंतु, जो खेलते रहे हैं, वे तो फेल ही होंगे। सुकरात कहता है, “मैं खेलता नहीं रहा, पढ़ता रहा हूं। मैंने प्रश्न को हल किया है। यह जानने में जी-जान लगाया है कि मौत क्या चीज है, शरीर क्या चीज है और मैं क्या चीज हूं? मैंने शरीर से जीते जी अलग होकर देखा है। तुम क्यों चिंता करते हो? यहां वही सवाल आया है, जो मैं रोज पढ़ता रहा हूं। आज कपड़े उतारने का समय आया है”।
जब मौत निकट आई, जहर और चढ़ा, तो हाथ और पैर सुन्न हो गए। जानते हो क्या कहता है सुकरात? वह कहता है , इतने – इतने पैर “मैंने” उतार दिए हैं। जैसे कुर्ते की यह बांह निकाल दें और अब इसको काटे तो दर्द नहीं होगा। इसमें हाथ पड़ा हो, फिर काटे तो दर्द होगा। इतना उतार दिया है , चेतना समिट चुकी है। अब इनको काटने से बिल्कुल दर्द नहीं होगा। पैर उतर गए , बांह उतर गई हैं। “मैं उतर रहा हूं। मैंने पहले भी जीते जी उतारना सीखा है। जीते जी सब शरीर सुन्न होता गया, केवल मैं चेतना पूर्वक बचता गया और यह शरीर बिल्कुल छूटता गया “।
यही हम तुमको बराबर कई दिनों से कह रहे हैं कि जीते- जी अपनी चेतना को शान्त करो-शान्त करो। बिल्कुल अन्दर से देखते रहो;अन्दर इस घड़े में बैठे रहो। थोड़ी देर बाद देखोगे जैसे कि शरीर बिल्कुल चैतना रहित हो गया हो। उठाने में वजन प्रतीत होने लगता है। हाथ उठते नहीं। लगता है हाथ हैं ही नहीं; क्योंकि, उनमें चेतना कम हो जाती है। जैसे सोये हुए आदमी का शरीर पड़ा रहता है। लेकिन, नींद में तुम्हें यह प्रतीत नहीं होता कि चेतना अलग है और शरीर अलग पड़ा है। समाधि और ध्यान में क्या होता है? शरीर पड़ा रहता है,सुस्त हो जाता है और तुम अलग रहते हो। शरीर अलग है और पड़ा है।यह शरीर सुस्त है,जड़ है और “मैं” चेतन हूं। यह देखने का मोका मिलता है। जो कुछ करे,जागते हुए होश में करे; तो आदमी स्वयं में पहुंचता है; आत्मा में पहुंचता है। इसलिए, हम कहते हैं कि—-
“जागे सो पावे ,सोवे सो खोबे”
यह रहस्य जागने का है और जागने वाले ही इसे पाते हैं। मुझे एक बड़ी विचित्र कहानी याद आई है। मैं सुकरात वाली कहानी फिर कहूंगा। एक बहुत बड़े ज्योतिषी थे। एक गांव में गए। उस गांव में बहुत भीखमंगे थे। उसी गांव में कुछ रईस भी थे, जो भीख दिया करते थे। कुछ भीख मांगने वाले दिन भर भीख मांगा करते थे। सुबह निकल कर दिनभर भीख मांगते थे और थोड़ी देर के लिए घर जाते थे। जो पाते थे, कुछ तो वहीं खा लेते थे, और शेष घर ले आते थे। जैसे कुछ महात्मा शाम के लिए मांग लाते हैं और आश्रम में खा लेते हैं। इसी प्रकार भिखारी दिनभर पैसे मांगते थे।
उनके पूर्वज बड़े रईस थे। पिता पैसे वाले थे और वे भीख मांगते थे। इनके पैदा होते ही इनके पिता, पता नहीं कहां चले गए थे? उनकी दृष्टि से ओझल हो गए थे या संन्यास ले लिया था। लड़के अबोध काल में ही पिता से विहीन हो गए थे – असहाय हो गए थे। अतः उन बेचारों ने मांगना शुरू कर दिया। शहर में इस प्रकार के बहुत लड़के हो गए और बहुत दिन तक उनकी इस प्रकार भीख मांगने की स्थिति चलती रही। लेकिन, एक दिन एक ज्योतिषी ने उन बच्चों को भीख मांगते देखा, तो उसे उन पर तरस आ गया। जब ज्योतिषी ने उस भिखारी बच्चों का मुंह देखा, तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।
उसने कहा प्यारे बच्चों! तुम भीख क्यों मांगते हो? बच्चों ने कहा यह भी कोई पूछने की बात है ? भीख क्यों मांगी जाती है? यह तो अंधा आदमी, नासमझ आदमी भी समझता है कि भीख क्यों मांगी जाती है ? ज्योतिषी कहने लगा “मुझे” आश्चर्य हो रहा है। बच्चे बोले तुम बेवकूफ हो। इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जिसके घर में कमी है, जो गरीब है, वह भीख मांगता है। हमारे घर में खाने- पीने को कुछ नहीं है; इसीलिए, भीख मांगते है।
ज्योतिषी ने कहा कि “उसे इसलिए आश्चर्य हो रहा है कि घर में कोई कमी नहीं है और तुम लोग भीख मांगते हो।” लड़कों ने कहा तुमने कैसे जाना? उसने कहा “मैं ज्योतिषी हूं मेरी आंखें जमीन के अंदर देख लेती हैं। मैं तुम्हारी भाग्य रेखाएं देखता हूं। तुम क्यों भीख मांगते हो?” लड़कों को भी लगा यह जरूर कोई जानकार है। बच्चों ने कहा कि “अब हमें बताओ कि हम भी क्यों ना मांगे? हम रईस आदमी कैसे हैं?” इस प्रकार एक स्थिति आई और ज्योतिषी लड़कों को लिवा ले गया। ज्योतिषी कहने लगा तुम लोग क्या करते हो? बच्चों ने कहा वे दिन भर भीख मांगते हैं। कुछ तो वहां खा लेते हैं और कुछ लाकर घर में खा लेते हैं। लड़कों ने कहा कि घर में एक कमरा है, कमरे के अंदर एक अंधेरा कमरा है;, अपनी सुरक्षा के लिए हम वहीं पर सो जाते हैं।
ज्योतिषी ने पूछा वहां तुमने कभी दिया (दीपक ) नहीं जलाया? तब बच्चों ने कहा नहीं जलाया। ज्योतिषी ने कहा कि आज वहां दिया जलाना, जागना, देखना और खोदना। ज्योतिषी के कथानुसार लड़कों ने वैसा ही किया। ज्योतिषी ने कहा था भीख मांगना जारी रखना।अंदर दीपक जला कर के सो जाया करो। पर, जहां तुम सोते हो, वही दीपक जलाने की आवश्यकता है। जब तुम गुफा में जाकर सो जाते हो, वहीं जागना, देखना और वहीं खोदना। देखना वहां क्या होता है?
उन बच्चों ने वही किया। सिर्फ भीख मांगने बाहर जाते थे, कुछ खा लेते थे, कुछ अंदर बैठ कर खा लेते थे। फिर इसके बाद जब सोना होता था तब अंदर जाते थे। लेकिन, अब सोने के पहले भी जाने लगे। पहले तो सोने के लिए ही जाते थे, अब जागते हुए भी वहां जाने लगे। जब अंदर पहुंच गए, तो वहां प्रकाश में देखने लगे, ढूंढने लगे और वहीं खोजने लगे। एक दिन उन्हें इतना असीम धन मिल गया कि उस दिन से उनका भीख मांगना बंद हो गया। उस ज्योतिषी ने उनसे नहीं कहा कि वह भीख मांगना छोड़ दें; पर, लड़कों ने भीख मांगना बंद कर दिया। जिस कारण भीख मांगी जाती थी, उनका वह काम पूरा हो गया। अब मांगने की जरूरत ही नहीं रही।