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कौन भगवान?

आप मरे जग प्रलय
पहले तुम्हारा अज्ञान मर जाए, फिर पीछे ज्ञान भी मर जाएगा। ज्ञान भी बचता नहीं है। पहले तुम्हारा अहंकार मर जाए, पीछे परमात्मा भी मर जाएगा अर्थात् परमात्मा भी अहंकार के साथ ही खत्म होता है। अहंकार के कारण ही भगवान् की तलाश है कि वह कहीं होगा। जिस दिन अहंकार मर जाएगा, उस दिन भगवान् भी किसी दुनिया में नहीं मिलेगा, न ढूंढना पड़ेगा। उस दिन भगवान् भी गए। तुम हो, तो भगवान् भी है। तुम्हारा अहंकार मरेगा, तो भगवान् भी नहीं रहेगा। फिर जो रह जाएगा, उसे भगवान् न कर पाओगे, “मैं” न कह पाओगे। जब “मैं” हूं, तो भगवान् कहूं; दो हैं , तब तक कहूं। पर जब दो ही न रहे, तो भगवान् बचा कि भक्त बचा? क्या कहोगे? यदि भक्त कहोगे, तो कोई भगवान् होगा। बिना भगवान् के कोई भक्त नहीं होता। यदि कहो कि भगवान् बचा तो भगवान् अकेले किसका भगवान्? यदि भक्त नहीं बचा, तो किसका है भगवान्? भगवान भी किसी का होता है ।
ईश्वर माने किसी का मालिक। यदि कोई कहे कि प्रजा न बचेगी, राजा बच जायेगा। यह वाक्य बिल्कुल गलत है। यदि प्रजा नहीं बचेगी, तो राजा कैसे बचेगा? यदि कोई कहे कि प्रजा भर बचेगी, राजा न बचेगा। तो प्रजा होती किसकी है? वह प्रजा प्रजा ही नहीं यदि राजा न हो। प्रजा तो उसी को कहते हैं, जो कि शासन में हो। इसीलिए, भक्त बचेगा, तो भगवान् बचेगा और भगवान बचेगा, तो भक्त बचेगा। एक चला गया, तो दूसरा अपने – आप साफ हो जाएगा।
अब बताओ तुम मरना चाहते हो या भगवान् को मारना चाहते हो? गुरु को मारना चाहते हो कि तुम मरना चाहते हो? किसमें ज्यादा अच्छाई है? तुम कहोगे कि भगवान् ही मर जाए, तो अच्छा है। हम बचे रहें । किंतु , भगवान् का मारा जाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम उनके मारने के लिए जिओगे, तब तक वे जबरदस्ती जिंदा रहेंगे। तुम्हारे जिंदा रहने से भी वे जिंदा हैं। यदि तुम भगवान् को मारने के लिए जीते रहोगे; तो कितना ही मारो, पर भगवान् मरेंगे नहीं । यदि चेले जीते रहें , तो यह सत्य है कि गुरु तमाम पैदा हो जाएंगे। इसीलिए, ज्यादा अच्छा यह है कि किसी को मारने से पहले तुम स्वयं मर जाओ। “आप मरे जग प्रलय” ऐसा हमने सुना है। तुम मर गए, तो भगवान् भी मर गया, मुक्ति भी मर गई मर गई, मन भी मर गया, अशांति भी मर गई और शांति भी खत्म। अधमरे में मिल जाएगी मुक्ति , अधमरे में मिल जाएंगे भगवान्। पूरे मर जाओगे, तो न भगवान् मिलेंगे और न तुम रहोगे।
भगवान् थोड़ा-थोड़ा मरने से मिल जाते हैं; पूरे मरने पर नहीं मिलते और बिल्कुल बचने पर भी नहीं मिलते। पूरे जो बचते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। और जो पूरे मर जाते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। मिलना और मिलाना अधमरों का है। जो अपने को पूर्ण बचाए हैं, वे तड़पते रहें; उन्हें भगवान नहीं मिलते। यदि पूरे मर जावेंगे, तो फिर मिलेंगे किसको? इसीलिए, यह मिलने – मिलाने का भाव ही बीच में रहता है। जो जानते हैं, वे यही जानते हैं कि क्या मिलना है और क्या किससे मिलना है।

क्या चेतन क्या चेतना

 एक चेतना है, एक चेतन है। यह आखिरी सूत्र है – चेतना और चेतन चेतना में परिवर्तन है। और भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, लोग तो पढ़ते- पढा़ते हैं पर गीता का मुख्य विषय क्या है? इच्छा द्वेष: सुखं-दुखं संघात्श्चेतना धृति।। यह चेतना भी प्रकृति का विकार है। शुद्ध चेतन नहीं चेतना! चेतना प्रकृति से मिली हुई चैतन्यता है इसलिए उसमें जगना है, सोना है, होश है, बेहोश है, कॉन्शसनेस है, सब कॉन्शसनेस है, अनकॉन्शसनेस है। पर चेतन कभी अनकॉन्शियस नहीं होता और साक्षी को, चेतन को चेतन रखने के लिए कोई प्रयत्न नहीं है, प्रयत्न चेतना को ही बनाए रखने का है।और चेतना बनाए रखने का एक अभ्यास करना चाहिए। समाधि क्या है? चेतना को देर तक बनाए रखना। और कुछ बनाए रखना नहीं! ख्याल बनाए रखना नहीं, देह ख्याल में बनाए रखना नहीं, चेतनता बनाए रखना! श्वास चलाए रखना नहीं, चेतनता बनाए रखना, श्वास रहे ना रहे, चले ना चले! स्मरण में कुछ बनाए रखना नहीं, स्मरण में कुछ रहे ना रहे पर आप चेतना बनाए रखना! अभी क्या करते हो? चेतना में कोई चीज रखते हो, चाहे मंत्र ही रखते हो पर जब मंत्र चला जाता है तो कहो आप बेखबर हो गए थे, मंत्र भूल गए थे। तो…. मंत्र को तो भूल जाओ मंत्र को याद रखना ही नहीं। हां मंत्र को रखने की इसलिए जरूरत है कि आप समझ सको कि मंत्र गया या चेतना गई? मंत्र से चेतना चली गई, चेतना से मंत्र चला गया या चेतना ही चली गई? यह फर्क समझो! चेतना से स्मृति चली गई, चेतना नहीं! क्योंकि मंत्र आप को दिया गया है इसलिए इस बात से आप परेशान हो जाते हो कि मंत्र भूल जाते हैं, मन और कहीं चला जाता है! तो यदि मंत्र चेतना से चला गया और चेतना में कुछ और आ गया तो चेतना है कि चली गई? तो आप चेतना नहीं रखना चाहते आप का मंत्र रखना आप चेतनता समझते हो। गुरु ने मंत्र देकर फंसा दिया। इसीलिए विपश्यना वाले मंत्र भी नहीं जपने देते क्योंकि एक झंझट तुम्हें दे दी, एक बीमारी दे दी कि हमारा मंत्र चला जाता है! यदि मंत्र चला गया, आपके ध्यान में घर आ गया तो चेतना चली गई क्या? तो  चूकिं आप चेतना नहीं रखना चाहते, मंत्र रखना चाहते हो इसलिए दुखी हो गए कि मेरे ध्यान से मंत्र चला गया, मेरे ध्यान में घर आ गया। हम ना तो घर रखने को कहते हैं ना तो मंत्र रखने को कहते हैं और ना भगवान रखने को कहते हैं। हम कहते हैं आप चेतना को रखो! मंत्र रहे तो रहे, जाए तो जाए; घर आए तो आए, घर जाए तो जाए; ना हमें घर रखना है, ना मंत्र रखना है, ना कोई और रखना। हमें चेतना रखनी है! पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं!!

हम विश्वगुरु हैं, थे और रहेंगे

“आदि गुरुवे नमः। जुगादि गुरुवे नमः। श्री सद्गुरुवे नमः।” जो आदि गुरु ने कहा था वही दूसरे ने कहा, वहीं तीसरे ने कहा, वही चौथे ने कहा। “इदं परंपरा प्राप्त” यह हमने परंपरा से पाया है, हमारी कल्पना नहीं है। हम कोई स्वयंभू गुरु नहीं है। “हमारा जन्म हमारे गुरु ने दिया है।” जैसे तुम स्वयं नहीं पैदा हुए, तुम्हारा पैदा करने वाला तुम्हारा बाप है और तुम्हारा बाप भी स्वयं पैदा नहीं हुआ, तुम्हारा बाप अपने आप हुआ था क्या? तुम्हारे बाप का बाप भी पैदा हुआ, बाप के बाप के बाप का बाप भी पैदा हुआ। ठीक है? “बिना पैदा हुआ बाप कौन है? केवल “स्वयंभू” जो स्वयं था! वही सब का पिता है” इसलिए उसको हम “परमपिता” कहने लगे। क्यों? जब से वेजिटेबल घी के नाम बिकने लगा तब उसे शुद्ध घी कहने लगे। शुद्ध घी नाम पहले था क्या? अच्छा  सौ दो सौ साल  पहले  शुद्ध घी होगा क्या ? शुध्द घी तो था पर शुद्ध घी नाम नही था, घी था सिर्फ।  तो शुद्ध नाम कब पड़ा? जब से फर्जी घी बन गया। तो जब से फर्जी बाप बन गए तब उसे परमपिता कहना पड़ा कि लोग कंफ्यूज ना हो जाए। जैसे सभी जननी बन बैठी तब उसे जगज्जननी कहा गया। ठीक है? तो सच्चाई यही है। तो अब हमें क्या करना है? हमे दो ही चीजें जाननी है- एक तो हम “सत्” है और दूसरा जानना है “सर्वत्र”, दो चीजें समझ लो। लोग माने ना माने, चाहे हिंदू को सांप्रदायिक कहे चाहे दकियानूसी कहे, चाहे कट्टर कहे और जो भी आरोप लगा सकते हैं, लगाएं “पर सच है कि यदि सत्य को ठीक ठीक समझा है तो भारत ने समझा है! ठीक ठीक समझाया है तो हमारे वेदों ने समझाया है और भारत के गुरुओं ने समझाया है!”  इसलिए किसी देश का धन, सोना अच्छा होगा, किसी देश की राजनीति होगी, किसी देश में धन बहुत होगा। “हमारे देश में गुरु है ! हम गुरुओं के धनी हैं!” (अंग्रेज ) राजनीति में कितने खिलाड़ी रहे जब विश्व मे शासन किया है! विश्व गुलाम रहा है, विश्व! शायद आप भी नही समझते ,भारत जिनका गुलाम था अमेरिका भी उनका गुलाम था, रूस भी उन्हीका गुलाम था। विश्व को गुलाम बना के रखा है अंग्रेजो ने, इतने दिमागदार थे राजनीति में! आज भी अभी उन्हीं की भाषा चलती है। कही चले जाओ, हिंदी के बिना काम चल जाएगा। साउथ में भी जाओ, हिंदी नही चल रही इसी देश में। और देश में तो छोड़ो। आज भी अभी हम गुलाम है उनकी भाषा के। पर फिर एक ये कह दूँ…. राजनीति में उनके हम गुलाम हो गए। (काफी वर्षों तक वे) रहे, मुश्किल से अभी वो गए पर अभी उनकी गुलामी नही गई, उनकी मानसिकता नही गई। “पर उपनिषद् विद्या के लिए आज भी वे भारत ही आते है।” रूस के आते हैं , अमेरिका के आते हैं, और भी कई देश के आते है। “तो  गुरु खोजना हो तो भारत में !” जैसे सेव कश्मीर के, कही के कुछ, कही के कुछ। जैसे हमारे जन्मभूमि के पास अमौली की हवन सामग्री फेमस थी, लेकिन कही के लोटे प्रसिद्ध है, कही के ताले प्रसिद्ध है। ठीक है? ऐसे ही कही का कुछ, कही का कुछ विश्व मे प्रसिद्ध है। पर “अध्यात्म जो है वो भारत का था, भारत में आज है, और भारत में ही रहेगा। इसलिए विश्वगुरु हम थे, विश्वगुरु हम आज है, और विश्व गुरु हम रहेंगे।”

ॐ शांति: शांति: शांति:

पूर्ण चेतना का चमत्कार


पशुओं की अपेक्षा मानव में चेतना अधिक आई। इस प्रकार मानव की अपेक्षा महामानव में पूर्ण चेतना आ सकती है। कॉन्शसनेस से सुपरकॉन्शसनेस में हम ज्यादा चेतन और पूर्ण चेतन हो सकते हैं। हम अंदर इतने अधिक चेतन हो जाएं की जड़ता जीरो हो जाए। अभी पेड़ों में, दीवालों में जड़ता तो पूर्ण है; लेकिन, चेतना जीरो पावर जैसी है। आप मान लीजिए कि दीवारों, पत्थरों और पेड़ों में 90% जड़ता है और 10% ही चेतना है। पशुओं में आप मान सकते हैं कि 50% जड़ता और 50% चेतना है। इसी प्रकार मानव में 75 % चेतना और 25% जड़ता है। इसीलिए वह कुछ सोचता और विचारता है। लेकिन, मैं यह कहता हूं कि हममें 99 % चेतना होनी चाहिए और केवल 1% जड़ता रह जानी चाहिए।
हमारा शरीर भी चेतना में रूपांतरित हो जाए; हमारा मन भी चेतना में रूपांतरित हो जाए और हमको ऐसा लगने लग जाए, जैसे हम चेतना के पुन्ज हैं। जैसे लोहे को अग्नि में डाल दें, तो अग्नि का पुंज हो जाता है। इसी प्रकार हमारा मन, हमारी वृतियां, हमारी प्रकृति इतनी जागरूक होती चली जाए कि हम देखें कि केवल “मैं” हूं। जब आप सुषुप्त होते हैं, तो सुषुप्ति में आप की जड़ता आत्मा में पहुंच जाती है और चेतना इतनी न्यून हो जाती है, जैसे जीरो पावर के ब्लब में प्रकाश न्यून हो जाता है। इस प्रकार नाममात्र चेतना, बाकी सब जड़ता रहती है।
स्वप्न में जड़ता भी होती है और चेतना भी होती है। शरीर का अज्ञान होता है और स्वप्न का ज्ञान होता है। इसका मतलब यह है कि आप अंदर- अंदर जगे भी हैं और बाहर – बाहर सोए भी हैं। जब आप जागृत अवस्था में आते हैं, तो आप 75 % चेतन हो जाते हैं। अब आपको शरीर का भी अनुभव होता है, भूतपूर्व कल्पनाओं तथा अवस्थाओं का भी अनुभव कर लेते हैं। लेकिन, यदि आप 75 % से ज्यादा जगना शुरू कर दें, तो जितनी- जितनी आपके अंदर दृष्टाभाव में जागृति आना शुरू होगी, उतना- उतना ही आपको लगेगा जैसे शरीर भी सुन्य हो गया, शरीर बिल्कुल शिथिल हो गया। शरीर पूर्ण चेतना में परिणत हो गया और “मैं” केवल चेतना का स्वरूप रह गया। “मैं” चैतन्य रह गया, “मैं” दृष्टा रह गया। इसको हम समाधि कहते हैं, जहां जड़ता जीरों में पहुंच जाती है।