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सार्वभौमिक सत्य

यदि एक बार यह बात अनुभव में आ जाए कि मैं शरीर से संबंध रहित हूं; मन से मेरा कोई संबंध नहीं है; तो यह नहीं है कि संबंध हो गया है और छूट जाएगा। इसलिए गोस्वामी जी बड़ी अच्छी चौपाई कहते हैं—
“जड़ चेतनहिं ग्रन्थि परि गई।
यदपि मृषा छूटत कठिनई।।”
यद्यपि यह झूठी है, अर्थात यदि हम मान ले कि अंतःकरण से आत्मा ढक जाता है, तो फिर छोड़ना अनिवार्य होगा; छोड़ना भी सत्य होगा। लेकिन, गोस्वामी जी की भाषा कहती है कि जड़ और चेतन की गांठ नहीं लगती अर्थात आत्मा का अंतः करण से तादात्म्य भी सच्चा नहीं है। अतः, संबंध भी सच्चा नहीं है। संबंध झूठा है।
आकाश में गंदगी का संबंध झूठा है; आकाश में गंदा होने का भाव झूठा है। प्रतीत तो होता है कि गंदगी हो गई; लेकिन, आकाश उस समय भी गंदा नहीं होता; केवल प्रतीत होता है। ये समस्त जगत एक प्रतीति मात्र है यदि, सचमुच गंदा होता, तो उसे शुद्ध करने का प्रश्न था। इसी प्रकार यह आत्मा, यह जो “मैं” है, जब अंतःकरण के कारण लगता है कि “मैं” कुछ हो गया हूं , तब भी यह आत्मा, हो कुछ नहीं जाता। जब कुछ (गंदा) हो नहीं गया , तो शुद्ध करने की बात ही गलत है, इसीलिए, वेदांत दर्शन यह भी कहता है कि जब यह कुछ नहीं हुआ, तो मुक्ति भी कुछ नहीं है; क्योंकि गंदा न हो, संबंध न हो, तो संबंध छूटे कैसे? ये सबकुछ ओढ़ा हुआ है परवश होके समझा हुआ है अब गुरु सार्वभौमिक सत्य को बता रहे हैं इसे समझो हर रोज़ बार बार समझो जब तक पहले वाले कि तरह ये गाढ़ा ना हो जाए।
जगद् गुरू आद्य शंकराचार्य जी ने माडूक्य उपनिषद का भाष्य किया है । उसी उपनिषद में कुछ कारिकायें हैं । उसमें एक कारिका है—
प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशय:

तटस्थ

गृहस्थ का लक्षण है, सदा अभाव में जीना।

वह उसका मूल लक्षण है। हमेशा जो उसे चाहिए, वह उसके पास नहीं है। जिस मकान में आप रह रहे हैं, वह आपको चाहिए नहीं। आपको चाहिए कोई बड़ा, जो नहीं है। जिस कार में आप चल रहे हैं, वह आपके लिए नहीं है। आपको कोई और गाड़ी चाहिए, जो नहीं है। जो कपड़े आप पहन रहे हैं, वह आपके योग्य नहीं हैं। आपको कोई और कपड़े चाहिए। जिस पत्नी के साथ आपका विवाह हो गया है, वह आपके योग्य नहीं है। आपको कोई और स्त्री चाहिए।
पूरे वक्त जो नहीं है, वह चाहिए। जो है, वह व्यर्थ मालूम पड़ता है, और जो नहीं है, वह सार्थक मालूम पड़ता है। वह भी मिल जाएगा, उसको भी आप व्यर्थ कर लेंगे, क्योंकि आप कलाकार हैं। ऐसी कोई स्त्री नहीं है, जिसको आप एक न एक दिन तलाक देने को राजी न हों, क्योंकि तलाक स्त्री से नहीं आते, आपकी वृत्ति से आते हैं। जो आपके पास नहीं होता, वह पाने योग्य मालूम पड़ता है; जो आपके पास होता है, वह जाना-माना परिचित है; कुछ पाने योग्य मालूम नहीं होता।
ऐसा पति अगर आप खोज लें, जो अपनी पत्नी को ही प्रेम किए जा रहा है, अनूठा है, साधु है। बड़ा कठिन है अपनी पत्नी को प्रेम करना; बड़ी साधना है। दूसरे की पत्नी के प्रेम में पड़ना एकदम आसान है। जो दूर है, वह आकर्षित करता है। दूर के ढोल ही सुहावने नहीं होते, दूर की सभी चीजें सुहावनी होती हैं।
साधु का लक्षण है, संतोष। गृहस्थ का लक्षण है, अभाव। गृहस्थ उस पर आंख टिकाए रखता है, जो उसके पास नहीं है और जो उसके पास है वह बेकार है। साधु उस पर आंख रखता है, जो है; वही सार्थक है। जो नहीं है, उसका उसे विचार भी नहीं होता। जो है वही सार्थक है, ऐसी प्रतीति का नाम संतोष है। इसलिए जरूरी नहीं है कि आप घर-द्वार छोड़ें तब साधु हो पाएंगे। जो है, अगर आप उससे संतुष्ट हो जाएं, तो साधुता आपके पास–जहां आप हैं वहीं आ जाएगी।
संतुष्ट जो हो जाए, वह साधु है। असाधुता गिर गई। लेकिन जिनको आप साधु कहते हैं, वे भी संतुष्ट नहीं हैं। हो सकता है उनके असंतोष की दिशा बदल गई हो। वे कुछ नई चीजों के लिए असंतुष्ट हो रहे हों, जिनके लिए पहले नहीं होते थे। मगर असंतुष्ट हैं। वहां भी बड़ी प्रतिस्पर्धा है। कौन महात्मा का नाम ज्यादा हुआ जा रहा है, तो बेचैनी शुरू हो जाती है। कौन महात्मा की प्रसिद्धि ज्यादा हुई जा रही है, तो छोटे महात्मा उसकी निंदा में लग जाते हैं। क्योंकि उसे नीचे खींचना, सीमा में रखना जरूरी है।
महात्माओं की बातें सुनें तो बड़ी हैरानी होगी कि वे उसी तरह की चर्चाओं में लगे हुए हैं, जैसे आम आदमी लगा हुआ है। सिर्फ फर्क इतना है कि उनका धंधा जरा अलग है,
इसलिए जब वे एक महात्मा के खिलाफ बोलते हैं तो आपको ऐसा नहीं लगता है कि कुछ गड़बड़ कर रहे हैं। लेकिन जब एक दुकानदार दूसरे दुकानदार के खिलाफ बोलता है तो आप समझते हैं कि कुछ गड़बड़ कर रहा है; नुकसान पहुंचाना चाहता है। उनकी भी आकांक्षाएं हैं। वहां भी चेष्टा बनी हुई है कि और…और…और…। ऐसा भी हो सकता है कि वे परमात्मा को पाने के लिए ही चिंतारत हों और सोच रहे हों, और परमात्मा कैसे मिले, और परमात्मा कैसे मिले? अभी एक समाधि मिल गई है, अब और गहरी समाधि कैसे मिले? लेकिन ध्यान भविष्य पर लगा हुआ है, तो गृहस्थ ही चल रहा है।
संन्यस्त का अर्थ है कि जो है, हम उससे इतने राजी हैं कि अगर अब कुछ भी न हो, तो असंतोष पैदा न होगा।

इसी पर गुरुदेव एक पंक्ति कहते हैं कभी कभी..

हम राज़ी हैं उसमें, जिसमें तेरी रज़ा है।

यहाँ ऐसे भी वाह वाह है, वैसे भी वाह वाह है।।

द्वेत जानना ही होगा


तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:


उसे कहां शोक, कहां मोह, कहां चिंता और कहां भय। ये हमारे वेद वाक्य हैं, उपनिषद् वाक्य हैं। बड़े भाग्यशाली हो, जो सुनने को मिलता है। सुनते – सुनते निष्ठा बनती है और धीरे-धीरे कमियां दूर होती हैं। कोई चाहे जैसा हो, सब में अभी कमियां हैं। सिद्ध कोई नहीं है, प्रयास करो, प्रमाद मत करो। और किसी को देखने से, अपने में कोई फर्क नहीं पड़ जाता है। इसीलिए, जो जहां तक है, ठीक है। हो सके, तो अपनी गहराई को देखते जाओ, घबराओ बिल्कुल नहीं।
अब हम अपने अंदर अभिनिवेश नहीं पाते हैं। अस्मिता नहीं, अभिनिवेश। अस्मिता के तो छोड़ने का अभ्यास करते हैं; अभिनिवेश से तो निवृत्त हैं। अभिनिवेश से मुक्त हैं; पर, अस्मिता से अभी मुक्त नहीं है। अस्मिता से मुक्त न होने के कारण “मैं” जब तक मजबूत रहता है, तब तक द्वैष और भेद भी कभी-कभी उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि, मैं अलग हूं, तो मेरा सम्मान अलग, मेरी भूख अलग, मेरा जीवन और उन्नति अलग। जब तक मैं अलग हूं, तब तक मेरा सब कुछ अलग रहेगा। इसीलिए, अभी तो हम अस्मिता का अभ्यास करते हैं। हम किसी और को कैसे कह दें। ध्यान, अभ्यास और साक्षी भाव से आदमी अस्मिता पर जाता है, शरीर से पृथकता का बोध होता है।
मैं अपनी बात बताऊं। मुझे शरीर से पृथकता का तो बोध है; लेकिन, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति अभी गहरी नहीं है। यदि, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति गहरी हो जाएगी, तो तुम्हारे प्रति कभी विकार और क्रोध नहीं हो सकता। कहा है कि —–

“क्रोध की द्वैतक बुद्धि बिनु ,,
द्वैत कि बिनु अज्ञान।
माया बस परिच्छिन्न जड़,
जीव कि ईश समान।।”

ये सत्य बात है कि जिस दिन हमारे जीवन से द्वैत भाव चला जाएगा, उस दिन क्रोध भी चला जाएगा; क्योंकि , अपने – आपसे क्या कभी द्वैष होता है? अपने मित्र से और पत्नी से द्वेष हो सकता है। अपने पिता से भी लड़ाई हो सकती है; लेकिन,अपना नुकसान करने की वृत्ति कभी होती है क्या? क्या कोई अपने आप का अहित अपने आप का नुकसान करेगा? क्या कोई अपने आप को दुखी करेगा? दूसरे को दुखी देखकर खुशी होती है। दूसरा यदि आपत्ति में फंसा हो, तो परवाह नहीं होती; लेकिन, स्वयं आपत्ति में फंसे हो क्योकि द्वैत समझते हो सब ये जग तुम और तुम ये जग नही हो जाते तब तक शांति मिल नही सकती इसलिए सद्गुरु का सिखाया द्वेत समझ न आ जाये…

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

सबसे बड़ी खोज

संसार में एक वस्तु जिससे पैदा होती है उसी से सारी वस्तुएं पैदा होती है । और चूंकि एक से ही सब वस्तुएं पैदा होती है इसलिए यदि हम  इसी एक वस्तु को  ठीक से जान ले तो  सब कुछ जान लिया जाता है। संसार में एक ही वस्तु है जो देश, काल और वस्तु से परिच्छिन्न नहीं है, सीमित नहीं है। जैसे लाउडस्पीकर  लोहे में बना हुआ है, उसका अपना आकार है , पर लोहे का अपना कोई आकार नहीं। लोहे के बेगैर लाउडस्पीकर का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। इसलिये लोहा यह लाउडस्पीकर का परमात्मा है। तो जब हम अमेरिका गए तो अमेरिका के लोग तुरंत बोल देते हैं कि स्टील को भारत के लोग परमात्मा कह देते हैं। हमने परमात्मा नाम रखा है। तुम उसका और कोई नाम रख दो। पर उसको ही ढूंढना है, उसका अनुभव करना है जो सब जगह रहता है। वैज्ञानिक भी कुछ ना कुछ खोजते रहते है। हमारे ऋषियों ने भी कुछ खोजा है। तो हम भी उसको खोजें जो सदा है। उसको खोजें जो सब में हैं । उसके खोजने का समय अभी आया है। 
 सदा एक समान रहने वाली कॉन्शसनेस तुम्हारी इसी कॉन्शसनेस में  छुपी है। जवानी कुछ दिन बाद आती है। आ गई इसलिए  वह जा रही है। लेकिन एक हमारे साथ हैं जो कभी नहीं आता कभी नहीं जाता। वह कभी युवा भी नहीं होता कभी वृद्ध भी नहीं होता। कभी प्रकट  नहीं होता कभी तिरोहित भी नहीं होता। यद्यपि हर चीज को बुद्धि चाहिए। कुछ ना कुछ जो भी हम करते हैं बुद्धि से ही करते हैं। लेकिन परमात्मा के लिए ही हमें विशेष बुद्धि मिली है। ऐसे सत्य को जो चाहो उसका नाम रख लो। अभी अभी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें यही है कि आत्मतत्व को जानना चाहिये। अर्थात ऐसे सत्य को आप जानना चाहते हो जो सदा रहता है। ऐसा सत्य पाना चाहते हो जो सर्वत्र हैं। यदि हम को इंद्रियों पर संयम करना पड़े तो करो। हमें और कुछ जीवन स्टाइल बदलना पड़े तो बदलो। पर उसको हम पा करके 
ही जाएंगे। 
 न चेत् इहावेदिन् महति विनष्टी ।। 
यदि उसको यही नहीं जाना तो बड़ा नुकसान किया हमने।

नशे की आदत

अच्छे गायकों के बीच में कई बार अनिभिज्ञ भी बैठते हैं जो उस विद्या के जानकार नहीं हैं फिर भी वे गायकी का आनंद लेते हैं। यद्यपि वे ज्यादा गहराई में तो नहीं जाते पर गायकी का आनंद लेते हैं। इसी तरह इस सृष्टि की भी बड़ी गहराई है और इस सृष्टि का रहस्य मनुष्य ही जान सकता है। वह भी तब जब कोई गुरुमुख जनाए। इसलिए यह भी आश्चर्य है। “आश्चर्यवत्  पश्यति कश्चित् एनम्।”
   
      किसी किसी को गुरुओं पर, ग्रंथों पर, ऋषियों की सोच पर आश्चर्य होता है। एक मूर्ख से कहो कि जगत कुछ भी नहीं है, ब्रह्म ही ब्रह्म है तो उसे क्या आनंद आएगा?  करोड़ों लोग ऐसे हैं जो ईश्वर को, ब्रह्म को गप्प मानते हैं। यदि उनसे कोई ब्रह्मवेत्ता शास्त्रार्थ करे और कह दे कि जगत नहीं है तो वह हार जाएगा। क्योंकि सब गवाही उसके होंगे। कहते हैं कि उल्लुओं ने अपने समाज में प्रस्ताव पास करा लिया कि सूर्य नहीं है जैसे, तमाम राजनैतिक व धार्मिक नास्तिक लोग कहते हैं कि यह ईश्वर है ही नहीं। कभी- कभी आपको भी लगता होगा कि पता नहीं कि ईश्वर है भी  या नहीं? यह भी एक झंझट ही है।  इसलिए बहुत से लोग ज्यादा इस पचड़े में नहीं पड़ते।  फिर भी हम लोग पता नहीं तुम्हें इस पचड़े में क्यों फँसाते हैं? जैसे नशेड़ी नशे की आदत डलवाता है ऐसे ही हम लोग तुम्हें बिना मतलब के इस पचड़े में डाले हुए।
मैं झूठ नहीं बोलता,  कभी-कभी लगता है कि तुम्हें इस पचड़े में न डालूँ । तुम से कह दूं कि जाओ आराम से पति की सेवा करो, घर का काम करो, बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ, देश का ख्याल करो। बाकी संत भी आपको इस पचड़े में कम डाल रहे हैं। वे सीधा-सीधा आपके काम की बात करते हैं, देश की बात करते हैं। और हम आपको पचड़े में डाले हुए हैं। क्यों पचड़ा कहते हैं? क्योंकि इसका लाभ तुम्हें अभी समझ ही नहीं आता । और हमें क्या लगता है? कि सब लाभ हो जाएं पर इस लाभ के बिना कोई लाभ लाभ नहीं है।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

     क्या इससे बड़ा कोई लाभ है? या ऐसा कोई लाभ जो हानि में न बदल जाए? ऐसा कोई लाभ बताओ जिसमें हानि ना हो?  पुत्र हुआ तो क्या हानि नहीं होनी?  कुछ सुख मिला तो क्या वह जाएगा नहीं? सब जाता है। नहीं जाने वाला कोई तत्व है तो वही एक है और तो सब मात्र प्रतीति हैं। वे रहें तो क्या, ना रहें तो क्या ? दिखें तो क्या, ना दिखें तो क्या?  क्या फर्क पड़ता है इनके होने, ना होने का।

इसलिए वेदांत सुनने के पहले विवेक और वैराग्य जरूरी हैं और इसके साथ ही शरीर रहते थोड़ा कष्ट सहने के लिए तैयार होना, थोड़ा संयम रखना, प्रारब्धवशात् कष्ट आएंगे। शरीर है तो कष्ट आएंगे। हमें भी कष्ट हुए हैं। यदि यह समझें कि कष्ट नहीं होना चाहिए, हम तो परमात्मा के रास्ते पर चल रहे हैं तो ज्ञान निष्ठा में फिर पक्के नहीं हो पाओगे। इसलिए  यदि कष्ट आएं तो उन्हें झेलो। दुःख मिला, दुःख मालूम पड़ा लेकिन दुःख से हमारे अपने मोक्ष के प्रति भय नहीं होना चाहिए।


यस्य प्रसादत् पतित स्वपावनः भवनति संसार सुतारण शिवाः।
मंण्डलेश्वराणाम् परमेश्वरं हरिम् श्री परमानन्द प्रभुं ईशमाश्रये।।
           जिनकी कृपा को पाकर अत्यन्त पतित प्राणी भी परम पवित्र होकर संसार को तारने की सामर्थ वाले और कल्याणकारी बन जाते हैं मंण्डलेश्वरों के भी ईश्वर उन प्रभु श्री परमानन्द जी महाराज को मैं चरण शरण ग्रहण करता हूँ। ….शिवहरे

“वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकरूपिणम् ।”
गुरु क्या हैं ?  गुरु बोध रूप हैं, चैतन्य रूप हैं, आत्म रूप हैं और साक्षी रूप हैं। गुरु साक्षी हैं। आपकी बुद्धि में जो साक्षी है, वह गुरु ही हैं। वे आपके भीतर बैठे हैं और आपको जान रहे हैं। आपके संकल्प को, आपकी वृत्ति को, आपकी चंचलता को, आपकी स्थिरता को परमात्मा जान रहे हैं। गुरु जान रहे हैं। परमात्मा आपके ह्दय में विराजमान हैं। वे आपके मन की एक – एक सैकण्ड की गति – विधि को जान रहे हैं। वे आपके सुमिरन को और श्वास की प्रक्रिया को भी जान रहे हैं। गुरु आपके भीतर विराजमान हैं। जिस दिन आप यह स्वीकार कर लेगें कि बाहर के इष्ट गुरु, बाहर के इष्ट परमात्मा आपके मन को जानने वाले हैं; आपकी बुद्धि के साक्षी हैं; आपके मन के प्रत्येक संकल्प को जानते हैं; उसी दिन आपको यह स्पष्ट हो जायेगा कि वे ही गुरु तुम्हारे भीतर हैं। उनसे कुछ छिपा नहीं है। वो जो स्वयं ब्रह्म होकर इस ब्रह्मांड में विराजमान हैं और वैसा ही जो तुम्हें बनाने आये हैं जो तुम अपने को सिर्फ अमुक शरीर ही समझे बैठे हो।

सच्ची समझ

पुज्य गुरूदेव समझाते हैं,जब आत्मा का अनुभव होता है।तब वह सबको अपने में तथा अपने को सब में देखता है। भेद-भ्रम का नाश हो जाता है,भेद उपयोगिता नष्ट नहीं होती। भेद (वस्तुओं के बीच में स्पष्ट अंतर जैसे मकान,घडा आदि) का नाश नही होता। भेद भ्रम का नाश हो जाता है। वृत्तियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन साक्षी (आत्मा) में कोई परिवर्तन नही होता है। उदाहरण से पुज्य गुरूदेव समझाते हैं—-

# जैसे-तत्त्वत: तत्व को जानने वाला)मिट्टी को जान लेने के बाद,घडे का और मकान का जो भेद है, वह भेद भ्रम नष्ट हो जाता है;भेद-उपयोगिता नष्ट नहीं होती।भेद की उपयोगिता तो रहती है,और उसका उपयोग भी होता है।(जैसे घडे में पानी भरना,तथा मकान मे रहना)

#तत्व दृष्टि और व्यवहारिक दृष्टि में भेद है।जैसे व्यवहार की दृष्टि से गहना है,अब यह गहना टूट गया, दूसरा गहना भी बन गया। तत्व की दृष्टि से “सोना ” गहना टूट जाने पर भी हैऔर दूसरा गहना बन जाने पर भी है। स्वर्ण का अभाव दोनों ही स्थितियों में नही है।

# पुज्य गुरूदेव बताते हैं, आत्मज्ञान की दृष्टि से ज्ञानी का कभी अभाव नहीं होता। तत्त्व की दृष्टि से ज्ञानी सदा वर्तमान है; लेकिन व्यवहार की दृष्टि से ज्ञानी कभी जगत में है,कभी नहीं है।

# अष्टावक्र जी कहते हैं कि ‘जैसी मति होती है वैसी गति होती है’, यह अध्यात्म का एक सूत्र है। एक सूत्र और है कि ‘अन्त मति सो गति’ अन्त यानी मृत्यु के समय जैसी मति होती है वैसी गति होती है।

# श्री कृष्ण जी ने गीता में कहा है कि “अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परम पद को प्राप्त होता है। जनकादि ज्ञानी जन भी आसक्ति रहित कर्म करते हुए ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।

# अध्यात्म में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि कर्म बन्धन नहीं हैं, उनके प्रति जो आसक्ति है, जो राग है वही बन्धन है। बन्धन के भय से कर्म छोड़ देना भी पाप है एवं आसक्ति त्याग कर कर्म करना ही मुक्ति का साधन है। निष्काम कर्म बन्धन नहीं बनता। किन्तु वे कर्म बन्धन बनते हैं जो आसक्ति, राग – द्वेष, ईर्ष्या की भावना से किये जाते हैं। कर्म का कारण शरीर नहीं मन है। मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। पाप पुण्य का फल न कर्म में होता है, न उसके फल में। वह कर्ता की भावना में होता है।

# अष्टावक्र जी कहते हैं कि “मैं मुक्त हूँ” ऐसा जो मानता है वह मुक्त है तथा अपने को जो बद्ध मानता है वह बद्ध है। केवल दृढ़ निश्चय के साथ मानना ही पर्याप्त है। मुक्ति कर्म का परिणाम नहीं, ज्ञान का फल है। आत्म ज्ञानी भी यदि अपने को बद्ध मानता है तो वह मुक्त नहीं है, वासना ग्रस्त है। वासनाएं उसे फिर खिंच लेंगी। आत्मज्ञान के बाद भी उसे मुक्ति की भावना करना आवश्यक है।

# यहाँ यह भेद समझ लेना चाहिए कि यह सूत्र जो कहा गया है वह अध्यात्मिक जो आत्मा का जिज्ञासु है, अपने स्व – स्वरुप में प्रतिष्ठित होना चाहता है उसके लिए कहा गया है, अज्ञानी, विषयों में रमण करने वालों के लिए नहीं कहा गया है।

इसलिए फालतू की फिक्रों को कुए में फेंके और आत्मसुख में गोता मारें..

चिन्ता से चतुराई घटे
घटे रूप और ञान।
चिन्ता बड़ी अभागिनी
चिन्ता चिता समान।
तुलसी भरोसे राम के,
निर्भय होके सोये
अनहोनी होनी नहीं,
होनी होय सो होय।

जब आप शाश्वत समझ जाते हैं तब तक ही चिंता है क्योंकि उसके बाद किसी चिंता का स्थान ही नही बचता।

अपने अस्तित्व को जानो

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, आप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। ‘चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता।’ चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो! 
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता। तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? ‘इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति’ यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं। वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं! 
 तब भी थे तुम ही! ‘अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय’  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए ‘हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!’

हम विश्वगुरु हैं, थे और रहेंगे

“आदि गुरुवे नमः। जुगादि गुरुवे नमः। श्री सद्गुरुवे नमः।” जो आदि गुरु ने कहा था वही दूसरे ने कहा, वहीं तीसरे ने कहा, वही चौथे ने कहा। “इदं परंपरा प्राप्त” यह हमने परंपरा से पाया है, हमारी कल्पना नहीं है। हम कोई स्वयंभू गुरु नहीं है। “हमारा जन्म हमारे गुरु ने दिया है।” जैसे तुम स्वयं नहीं पैदा हुए, तुम्हारा पैदा करने वाला तुम्हारा बाप है और तुम्हारा बाप भी स्वयं पैदा नहीं हुआ, तुम्हारा बाप अपने आप हुआ था क्या? तुम्हारे बाप का बाप भी पैदा हुआ, बाप के बाप के बाप का बाप भी पैदा हुआ। ठीक है? “बिना पैदा हुआ बाप कौन है? केवल “स्वयंभू” जो स्वयं था! वही सब का पिता है” इसलिए उसको हम “परमपिता” कहने लगे। क्यों? जब से वेजिटेबल घी के नाम बिकने लगा तब उसे शुद्ध घी कहने लगे। शुद्ध घी नाम पहले था क्या? अच्छा  सौ दो सौ साल  पहले  शुद्ध घी होगा क्या ? शुध्द घी तो था पर शुद्ध घी नाम नही था, घी था सिर्फ।  तो शुद्ध नाम कब पड़ा? जब से फर्जी घी बन गया। तो जब से फर्जी बाप बन गए तब उसे परमपिता कहना पड़ा कि लोग कंफ्यूज ना हो जाए। जैसे सभी जननी बन बैठी तब उसे जगज्जननी कहा गया। ठीक है? तो सच्चाई यही है। तो अब हमें क्या करना है? हमे दो ही चीजें जाननी है- एक तो हम “सत्” है और दूसरा जानना है “सर्वत्र”, दो चीजें समझ लो। लोग माने ना माने, चाहे हिंदू को सांप्रदायिक कहे चाहे दकियानूसी कहे, चाहे कट्टर कहे और जो भी आरोप लगा सकते हैं, लगाएं “पर सच है कि यदि सत्य को ठीक ठीक समझा है तो भारत ने समझा है! ठीक ठीक समझाया है तो हमारे वेदों ने समझाया है और भारत के गुरुओं ने समझाया है!”  इसलिए किसी देश का धन, सोना अच्छा होगा, किसी देश की राजनीति होगी, किसी देश में धन बहुत होगा। “हमारे देश में गुरु है ! हम गुरुओं के धनी हैं!” (अंग्रेज ) राजनीति में कितने खिलाड़ी रहे जब विश्व मे शासन किया है! विश्व गुलाम रहा है, विश्व! शायद आप भी नही समझते ,भारत जिनका गुलाम था अमेरिका भी उनका गुलाम था, रूस भी उन्हीका गुलाम था। विश्व को गुलाम बना के रखा है अंग्रेजो ने, इतने दिमागदार थे राजनीति में! आज भी अभी उन्हीं की भाषा चलती है। कही चले जाओ, हिंदी के बिना काम चल जाएगा। साउथ में भी जाओ, हिंदी नही चल रही इसी देश में। और देश में तो छोड़ो। आज भी अभी हम गुलाम है उनकी भाषा के। पर फिर एक ये कह दूँ…. राजनीति में उनके हम गुलाम हो गए। (काफी वर्षों तक वे) रहे, मुश्किल से अभी वो गए पर अभी उनकी गुलामी नही गई, उनकी मानसिकता नही गई। “पर उपनिषद् विद्या के लिए आज भी वे भारत ही आते है।” रूस के आते हैं , अमेरिका के आते हैं, और भी कई देश के आते है। “तो  गुरु खोजना हो तो भारत में !” जैसे सेव कश्मीर के, कही के कुछ, कही के कुछ। जैसे हमारे जन्मभूमि के पास अमौली की हवन सामग्री फेमस थी, लेकिन कही के लोटे प्रसिद्ध है, कही के ताले प्रसिद्ध है। ठीक है? ऐसे ही कही का कुछ, कही का कुछ विश्व मे प्रसिद्ध है। पर “अध्यात्म जो है वो भारत का था, भारत में आज है, और भारत में ही रहेगा। इसलिए विश्वगुरु हम थे, विश्वगुरु हम आज है, और विश्व गुरु हम रहेंगे।”

ॐ शांति: शांति: शांति:

शरीर का सत्य

आप लोग भी कई बार गीता में पढ़ चुके होंगे कि—-

“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय”
नवानि गृह् णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

  जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहनता है, ऐसे ही जीवात्मा शरीर रूपी पुराना कपड़ा उतार कर नया पहनता है। आज तक तुमने नहीं देखा होगा कि पुराना कपड़ा उतारकर नया पहनने में किसी को दु:ख होता है? लेकिन, ये कैसे कपड़े हैं, जिन्हें उतारने में बड़ा कष्ट होता है? क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि हमको यह बोध नहीं है कि ये कपड़े हैं; इन कपड़ों को हम पहनते हैं। गंदे कपड़े धोने को डालते हैं और दूसरे कपड़े पहन लेते हैं; धुला कर पहन लेते हैं। यह  शरीर भी रोज धुलवाकर पहनते हो। कपड़े तो सात दिन में धोने के लिए डालते हो; परंतु, इसे रोज धोबी के यहां डलना पड़ता है; रोज धुलवा करके पहनते हो।
        तुम्हें पता न होगा कि यह कब धोया जाता है, कब इस पर स्त्री की जाती है? तुमने देखा है कभी स्त्री करते? हमने देखा है। इसलिए, हम जानते हैं। गहरी नींद में इसको ठीक किया जाता है। नींद न आती होती, तो यह कपड़ा अभी तक न जाने क्या हो जाता। इसकी रोज की थकान दूर की जाती है; रोज की सिकुड़न दूर की जाती है; रोज दिमाग के तनाव दूर किए जाते हैं। शरीर में जितनी कमजोरी और थकान आती है, उसे दूर करने के लिए रोज गहरी नींद में धोने को डाल देते हैं। रोज ठीक करके सुबह ताजा कर दिया जाता है।  रोज पहनते हैं । इसके साथ ही और भी देखो कि ये आखिर में बदला जाता है। मौत भी वही काम करती है।
        यह शरीर बहुत दिन धोया गया। जब बिल्कुल धोने लायक नहीं रहता; धोने में ही फट जाएगा; तो आखिर में बिल्कुल बदल दिया जाता है और नया पहनाया जाता है। लेकिन, आदमी इस रहस्य को नहीं जानता। क्योंकि, जो कभी उतारते – पहनते देखता नहीं, धोते समय देखता नहीं, वह कैसे जानेगा? यदि देखा हुआ होता ; जागते समय धोने को डाला होता; तो देखता कि कैसे तरोताजा हो गया है।
     यह शरीर समाधि के द्वारा धुलता है; फिर इसे हम पहनते हैं। समाधि के द्वारा इसका ग्रहण और त्याग होता है। वह जान लेता है कि “मैं” शरीर से पृथक हूं। इसको समाधि में छोड़ता हूं; फिर जाग कर के पहनता हूं। यदि इसकी समाधि लगी होती, तो कपड़े के पहनने और उतारने का राज जान जाता। इसके कपड़े तो धोखे -धोखे में धोए गए हैं। कभी होश में उतारकर धोने के लिए धोबिन को दिए ही नहीं गए। बेहोशी में उतारकर धोने के लिए दे दिए गए हैं ।बेहोशी में ही कपड़े पहनाए गए थे; इससे जाना ही नहीं कि कौन धो गया है? कौन इसको ताजा कर गया है? यह कैसे ठीक हो गया? इसने  कभी प्रकृति का अध्ययन ही नहीं किया। प्रकृति ने बड़ी कृपा की है; लेकिन, यह कभी नहीं जान पाता। बेहोश रहता है। जो बेहोशी में हुआ है , वही होश में करने लग जाए। होश में कपड़ा उतार कर धोबिन को दें;  फिर धुलवाकर पहने; तो पता पड़े कि पुराना उतारकर नया पहनने में क्या दु:ख है?
  
      मृत्यु बहुत बड़ा रहस्य है। इस रहस्य को हमें जानना है। जब तक हम इस रहस्य को नहीं जानेंगे, तब तक हमेशा चिंतित और भयभीत रहेंगे। कोई भी आदमी खुशी के साथ कपड़ा उतारने को तैयार नहीं है। इसका कारण यह है कि हमने धोबिन से होश में एक दिन भी कपड़े नहीं धुलवाए। हम कहते हैं कि समाधि में रोज कपड़े दिया करो। यदि, जागते में  तुम शरीर को दे दो तो, फिर देखो कि कितना ताजा और प्रसन्न हो करके मिलता है। कितना स्वस्थ और शांत मिलता है। आपको प्रसन्नता रहेगी।
    प्रतिदिन होश में धुलाओगे, तो मौत के दिन भी दे दोगे कि ले जाओ, हम नया पहन लेते हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि मौत हमारी माता है। मां बड़ी दयालु है; बड़ी कृपा करती है। माता के जब एक स्तन पर दूध नहीं रहता, तो बच्चा स्तन काटने लगता है। मां जान जाती है कि इसमें दूध नहीं है, नीरस है। बच्चा दुखी हो रहा है। वह उसके मुंह से स्तन को छुड़ाती है। वह नहीं छोड़ता, तो मां जबरदस्ती उसे छुड़ाकर दूसरे स्तन पर लगाने की कोशिश करती है। जब बच्चे के मुंह से स्तन छूट जाता है, तो वह रोने लगता है। पर, जब दूसरा स्तन मिल जाता है, तो फिर खुश होकर पीने लगता है।
     जीव की भी ठीक यही दुर्दशा है। शरीर में आनंद के लिए लिप्त है। जब मौत इस शरीर को छोड़ाती है, तो रोता है।जब दूसरा फिर पा जाता है, तो खेलने – कूदने लगता है। यह जीव की दशा है। हां! कोई जानकार लड़का होता है – सयाना लड़का होता है तो उसकी मां नहीं छुड़ाती। वह स्वयं स्तन को  छोड़कर, दूसरे स्तन को पीने लगता है।
    योगी वह व्यक्ति है, जो एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर खुशी से ले लेता है। फिर सवाल ही नहीं रह जाता है कि मौत जबरदस्ती करे। यदि, समझदार बच्चा है; सयाना बच्चा है ; तो मां को कुछ भी करने की जरूरत नहीं। जो थोड़ा बहुत समझदार है, वह मौत से नहीं घबराता।  वह तो रोज शरीर बदलने को तैयार है। क्या बिगड़ता है? ज्ञानी मुक्ति नहीं चाहता। ब्रह्मविद पुरुष मुक्ति से भी हाथ धो बैठता है। कहता है कि जब हम अपने को शरीर जानते, अहंकार  होता, तो बंधन होता। हम ज्ञान से मुक्ति मानते हैं। शरीर होने और न होने का कोई प्रश्न नहीं। मोक्ष तो जीते जी हो जाता है।
लोगों ने मोक्ष की अलग-अलग परिभाषाएं भी की हैं। भगवान् कृष्ण के अनुसार शरीर को कपड़े की तरह उतारने को हमने कहा था, आप जीवन में कैसे उतार सकोगे? प्रेम से होश में उतारो। तुमने होश में कभी उतारा ही नहीं। हमेशा बेहोशी में ही उतारे हो। उतारने के पूर्व ही थोड़ा सा पता चल पाता है; फिर नहीं जानते कि कब उतारे और कब नहीं पहनाई गये।
     इसी बीच की दशा बिल्कुल बेहोशी में ही निकल जाती है; क्योंकि, जीते जी न कभी होश में उतारे और न कभी पहने। जागते समय अगर शरीर छोड़ते, तो जागते समय फिर पहन सकते थे। तभी तुम मरने के समय भी प्रेम से शरीर छोड़ सकोगे। कपड़ा छोड़ते समय, यदि तुम जागते रहते ; तो यह भी पता चल जाता कि “मैं” नहीं मरता हूं। अभी तुमको ऐसा प्रतीत हो रहा है कि “मैं” मरता हूं।  इसलिए, लगता है कि तुम अभी शरीर ही में चिपके हो – शरीर ही बने हो। इसीलिए , लगता है कि “मैं” मरता हूं। ” मैं”  शरीर हो गया हूं। यही तो बहुत बड़ा रहस्य है।

       हमें मरना सीखना चाहिए। मरना प्रसन्नता पूर्वक हो सकता है। मरते समय भी जीते रह सकते हैं। सुकरात की बहुत बड़ी कहानी है। सुकरात बहुत बड़ा ब्रह्मनिष्ट पुरुष था; आत्मविद् पुरुष था। उसने बराबर साधना की थी और जीते जी कई बार (शरीर रुपी ) कपड़े धोये थे। खुशी से धोये थे और खुशी से पहने थे। समाधि का अनुभव किया था और खुशी से जीता था। समाज को ज्ञानियों से हमेशा चिढ़ पैदा हुई है। क्यों पैदा हुई है? इसलिए कि समाज अपने को हमेशा शरीर मानता है; इससे, हमेशा ब्रह्म होने का दावा करने वाले से उसका जरुर संघर्ष पैदा हो जायेगा।अन्त में, लोगों ने सुकरात को जहर दे दिया।
      सुकरात के शरीर और पैरों में जहर चढ़ने लगा।यह तोआप जानते ही हैं कि थोड़ी देर जब पैर दबा रहता है, तो सुन्न हो जाता है। पैर नीले हो जाते हैं। उठाने में ऐसा लगता है कि जैसे भारी हो गए हों। जब जमीन पर रखो तो गुदगुदे गद्दे जैसी विशेष स्थिति हो जाती है। इस प्रकार उसे अपने पैरों का वजन प्रतीत होने लगता है। सुकरात को जहर चढ़ गया, शून्यता आने लगी, सुन्नता में पैरों का वजन बढ़ गया। बड़ी देर तक तो वह टहलता रहा; जब चलने लायक नहीं रहा, तो लेट गया। मित्र और शिष्य लोग रोने लगे। सुकरात कहता है कि “तुम क्यों रोते हो? प्रश्नपत्र मेरे सामने आया है, निष्ठा की परीक्षा मौत के समय होती है। तुम रोते हो”? यह प्रश्न पत्र आया है, प्रश्न पूछे गए हैं। यह आखरी प्रश्न है। जो इसमें पास हो जाता है, वही पास है।
      जिंदगी में तो लोग बहुत जीते रहे हैं ,जीते समय तो बहुत मरते रहे हैं; पर, मरते समय कौन जीता है? जो स्वयं में जीते रहे हैं, वह आज जिएंगे। जो पढ़ते रहे होंगे, वही आज पास होंगे। परंतु, जो खेलते रहे हैं, वे तो फेल ही होंगे। सुकरात कहता है, “मैं खेलता नहीं रहा, पढ़ता रहा हूं। मैंने प्रश्न को हल किया है। यह जानने में जी-जान लगाया है कि मौत क्या चीज है, शरीर क्या चीज है और मैं क्या चीज हूं? मैंने शरीर से जीते जी अलग होकर देखा है। तुम क्यों चिंता करते हो? यहां वही सवाल आया है, जो मैं रोज पढ़ता रहा हूं। आज कपड़े उतारने का समय आया है”।
जब मौत निकट आई, जहर और चढ़ा, तो हाथ और पैर सुन्न हो गए। जानते हो क्या कहता है सुकरात?  वह कहता है , इतने – इतने पैर  “मैंने” उतार दिए हैं। जैसे कुर्ते की यह बांह निकाल दें और अब इसको काटे तो दर्द नहीं होगा। इसमें हाथ पड़ा हो, फिर काटे तो दर्द होगा। इतना उतार दिया है , चेतना समिट चुकी है। अब इनको काटने से बिल्कुल दर्द नहीं होगा। पैर उतर गए , बांह उतर गई हैं। “मैं उतर रहा हूं। मैंने पहले भी जीते जी उतारना सीखा है। जीते जी सब शरीर सुन्न होता गया, केवल मैं चेतना पूर्वक बचता गया और यह शरीर बिल्कुल छूटता गया “।

      यही हम तुमको बराबर कई दिनों से कह रहे हैं कि जीते- जी अपनी चेतना को शान्त करो-शान्त करो। बिल्कुल अन्दर से देखते रहो;अन्दर इस घड़े में बैठे रहो। थोड़ी देर बाद देखोगे जैसे कि शरीर बिल्कुल चैतना रहित हो गया हो। उठाने में वजन प्रतीत होने लगता है। हाथ उठते नहीं। लगता है हाथ हैं ही नहीं; क्योंकि, उनमें चेतना कम हो जाती है। जैसे सोये हुए आदमी का शरीर पड़ा रहता है। लेकिन, नींद में तुम्हें यह प्रतीत नहीं होता कि चेतना अलग है और शरीर अलग पड़ा है। समाधि और ध्यान में क्या होता है? शरीर पड़ा रहता है,सुस्त हो जाता है और तुम अलग रहते हो। शरीर अलग है और प‌ड़ा है।यह शरीर सुस्त है,जड़ है और “मैं” चेतन हूं। यह देखने का मोका मिलता है। जो कुछ करे,जागते हुए होश में करे; तो आदमी स्वयं में पहुंचता है; आत्मा में पहुंचता है। इसलिए, हम कहते हैं कि—-
“जागे सो पावे ,सोवे सो खोबे”

     यह रहस्य जागने का है और जागने वाले ही इसे पाते हैं। मुझे एक बड़ी विचित्र कहानी याद आई है। मैं सुकरात वाली कहानी फिर कहूंगा। एक बहुत बड़े ज्योतिषी थे। एक गांव में गए। उस गांव में बहुत  भीखमंगे थे। उसी गांव में कुछ रईस भी थे, जो भीख  दिया करते थे। कुछ भीख मांगने वाले दिन भर भीख मांगा करते थे। सुबह निकल कर दिनभर भीख मांगते थे और थोड़ी देर के लिए घर जाते थे। जो पाते थे, कुछ तो वहीं खा लेते थे, और शेष घर ले आते थे। जैसे कुछ महात्मा शाम के लिए मांग लाते हैं और आश्रम में खा लेते हैं। इसी प्रकार भिखारी दिनभर पैसे मांगते थे।
      उनके पूर्वज बड़े रईस थे। पिता पैसे वाले थे और वे भीख मांगते थे। इनके पैदा होते ही इनके पिता, पता नहीं कहां चले गए थे? उनकी दृष्टि से ओझल हो गए थे या संन्यास ले लिया था। लड़के अबोध काल में ही पिता से विहीन हो गए थे – असहाय हो गए थे। अतः उन बेचारों ने मांगना शुरू कर दिया। शहर में इस प्रकार के बहुत  लड़के हो गए और बहुत दिन तक उनकी इस प्रकार भीख मांगने की स्थिति चलती रही। लेकिन, एक दिन एक ज्योतिषी ने उन बच्चों को भीख मांगते देखा, तो उसे उन पर तरस आ गया। जब ज्योतिषी ने उस भिखारी बच्चों का मुंह देखा, तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।
      उसने कहा प्यारे बच्चों! तुम भीख क्यों मांगते हो? बच्चों ने कहा यह भी कोई पूछने की बात है ? भीख क्यों मांगी जाती है? यह तो अंधा आदमी, नासमझ आदमी भी समझता है कि भीख क्यों मांगी जाती है ? ज्योतिषी कहने लगा “मुझे” आश्चर्य हो रहा है। बच्चे बोले तुम बेवकूफ हो। इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जिसके घर में कमी है, जो गरीब है, वह भीख मांगता है। हमारे घर में खाने- पीने को कुछ नहीं है; इसीलिए, भीख मांगते है।

    ज्योतिषी ने कहा कि “उसे इसलिए आश्चर्य हो रहा है कि घर में कोई कमी नहीं है और तुम लोग भीख मांगते हो।” लड़कों ने कहा तुमने कैसे जाना? उसने कहा “मैं ज्योतिषी हूं मेरी आंखें जमीन के अंदर देख लेती हैं। मैं तुम्हारी भाग्य रेखाएं देखता हूं। तुम क्यों भीख मांगते हो?” लड़कों को भी लगा यह जरूर कोई जानकार है। बच्चों ने कहा कि “अब हमें बताओ कि हम भी क्यों ना मांगे? हम रईस आदमी कैसे हैं?” इस प्रकार एक स्थिति आई और ज्योतिषी लड़कों को लिवा ले गया। ज्योतिषी कहने लगा तुम लोग क्या करते हो? बच्चों ने कहा वे दिन भर भीख मांगते हैं। कुछ तो वहां खा लेते हैं और कुछ लाकर घर में खा लेते हैं। लड़कों ने कहा कि घर में एक कमरा है, कमरे के अंदर एक अंधेरा कमरा है;, अपनी सुरक्षा के लिए हम वहीं पर सो जाते हैं।
     ज्योतिषी ने पूछा वहां तुमने कभी दिया  (दीपक ) नहीं जलाया? तब बच्चों ने कहा नहीं जलाया। ज्योतिषी ने कहा कि आज वहां दिया जलाना, जागना, देखना और खोदना। ज्योतिषी के कथानुसार लड़कों ने वैसा ही किया। ज्योतिषी ने कहा था भीख मांगना जारी रखना।अंदर दीपक जला कर के सो जाया करो। पर, जहां तुम सोते हो, वही दीपक जलाने की आवश्यकता है। जब तुम गुफा में जाकर सो जाते हो, वहीं जागना, देखना और वहीं खोदना। देखना वहां क्या होता है?
    उन बच्चों ने वही किया। सिर्फ भीख मांगने बाहर जाते थे, कुछ  खा लेते थे, कुछ अंदर बैठ कर खा लेते थे। फिर इसके बाद जब सोना होता था तब अंदर जाते थे। लेकिन, अब सोने के पहले भी जाने लगे। पहले तो सोने के लिए ही जाते थे, अब जागते हुए भी वहां जाने लगे। जब अंदर पहुंच गए, तो वहां प्रकाश में देखने लगे, ढूंढने लगे और वहीं खोजने लगे। एक दिन उन्हें इतना असीम धन मिल गया कि उस दिन से उनका भीख मांगना बंद हो गया। उस ज्योतिषी ने उनसे नहीं कहा कि वह भीख मांगना छोड़ दें; पर, लड़कों ने भीख मांगना बंद कर दिया। जिस कारण भीख मांगी जाती थी, उनका वह काम पूरा हो गया। अब मांगने की जरूरत ही नहीं रही।