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परमार्थ

पुज्य गुरूदेव ने ज्ञान का अनुभव करने के लिए मन को शान्त, निर्मल, खाली करने के लिए उपाय बताऐ हैं…


पुज्य महाराज श्री बताते हैं कि साधक को इस रहस्य को समझना चाहिए कि सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगता है। जब उससे ऐसा समरण रहने लगेगा कि मुझे जो मिल रहा है वह मेरे ही पूर्वकृत कर्मो का फल है तो वह राग देष से छूट सकता है।कयोकि मनुष्य सुख देने वाले माध्यम से राग औऱ दुख देने वाले माध्यम से द्वेष करने लगता है। वह भूल जाता है कि माध्यम तो केवल माध्यम है, वह न दुखदायी है और न ही सुखदाई।


पुज्य महाराज श्री समझाते हैं कि प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग करना चाहिए। दुःख के समय, दुःखी न होकर, भविष्य में कभी पाप न करने का निश्चय करना चाहिए तथा सुख के समय, सुख में डूबने की अपेक्षा, परमार्थ में अग्रसर होना चाहिए।


यह गूढ रहस्य पुज्य गुरूदेव ने हमें समझाया। हमें इसका अभ्यास प्रतिदिन करना है और अपने आप से पूछना है कि कितना हम सफल हुए। अगर मन शान्त, निर्मल, तथा खाली हो तभी उसमें ज्ञान (वचनों) की अनुभूति होती है।
गीता और उपनिषदों में लिखी बात तार्किक लगती है। जबकि अभी सिर्फ संसार ही सत्य लगता है इससे होने वाले सुख दुख ही सत्य लगते हैं। जिस दिन संसार बनाने वाले के बारे में सोचना शुरू कर दिया कि इस समस्त ब्राह्मण को आप जिस पृथ्वी पर हैं उसको आपको थामे कौन है, कौन है जो पचाता है? कौन है जो बड़ा कर रहा है? कौन है जो नींद में भी आपके सपनों की गवाह है? और जब पता चलेगा ये सब तुम हो, तुम्हारा ही अंश है या तुम उसके अंश हो, फिर सागर बूंद में मिले या बूंद सागर में बात बराबर होगी तुम सागर ही हो जाओगे… इस सत्य को धीरे धीरे समझो, समझ न आये पूछो। इसी बहाने सत्संग होगा रहेगा। संगत वैसी बनेगी और आप उस शाश्वत सत्य की खोज कर पाएंगे अपनी खोज कर पाएंगे ….अस्तु

मौत किसकी, मृत्यु क्या?


“प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशय:।”
यदि प्रपंञ्च होता, तो निवृत्त भी होता; इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन, जब प्रपंच है ही नहीं, तो उसकी निवृत्ति कैसे हो? कैसे की जाए?
भ्रान्त्या प्रतीत: संसार
यह संसार भ्रान्ति से प्रतीत होता है, इसीलिए —
“विवेकान्निवर्तेत न तु कर्मभि:”
निवृत्त भी विवेक से ही हो सकता है, कर्म से निवृत्त नहीं हो सकता है। जो अज्ञान से प्रतीत होता हो, वह ज्ञान से ही समझ में आ जाएगा। इसीलिए, विवेक से ही अज्ञान की निवृत्ति हो सकती है; कर्म से नहीं। कारण यह है कि—
“रज्वारोपित: सर्प: घंटा घोषान्न निवर्तते:”
यदि रस्सी में कोई सांप हो और कोई शंख घड़ियाल बजावे कि वह भाग जाए; शोर मचाए कि वह रस्सी का सांप भाग जाए; तो क्या वह भाग जाएगा? पर, वह कर्म से नहीं भागेगा; जब भगेगा तब प्रकाश से भगेगा। प्रकाश से क्यों जाएगा? क्योंकि, वह अप्रकाश के कारण से है। यदि सचमुच का सर्प होता; तो लाठी से जाता; शंख बजाने से ज्यादा। यदि, बंधन होता; अपवित्रता होती और यदि मौत होती, तो किसी कर्म से मौत की निवृत्ति होती; किसी तप से मौत से मुक्ति होती। किसी साधन से मौत से मुक्ति होती या किसी पुरुषार्थ से मौत से मुक्ति होती
आत्मा अमर है, तो मौत किसकी?

कौन है? जो कभी नष्ट नहीं होता

साक्षी ही साक्षात ब्रह्म है। इसे विचारो। कब विचारोगे? क्या बुद्धि टिकेगी?  देखो हम अपने बताएं, जब ध्यान में रोशनी हुई तो बड़ी आसानी से टिक गए। टिके तो नहीं रहे पर टिक गए। ध्यान में टिक गए, आनंद में टिक गए। आप भी आनंद टिक जाते हैं ना? फिर क्या टिके ही रहते हैं?  जवानी में तुम कैसे टिकोगे, जब जवान ही नहीं टिकेगी। बचपन में तुम कैसे टिके  रहोगे? जब जगते थे, बचपन था। फिर सो गए, फिर बचपन। फिर जगे, फिर बचपन। धीरे-धीरे आप जगते-सोते रहे और बचपन खिसकता गया।फिर जवानी आ गई, उसमें तुम टिके रहना चाहते थे। तुम सो जाते थे और  जवानी तुम्हारे जगने-सोने पर भी जवानी रुकी नहीं।
तुम सोओ चाहे जागो, जवानी धीरे-धीरे सरक रही है और सरक गई। अब बुढ़ापा आ गया। यद्यपि बुढ़ापा अच्छा तो नहीं है पर मरने से तो अच्छा ही है। तो बुढ़ापे को ही बचा के रख लो। कई बूढ़े बेचारे इंजेक्शन लगवा कर, ऑक्सीजन चढ़वा के, हमारा हाथ सिर पर रखवा के बुढ़ापे को बचाने में लगे हैं। संस्त्रति संसारा, जो सरकता रहता है। संसार सरक जाए तो सरक जाए पर तुम भी थोड़ी देर को सरक जाते हो। जवानी बनी रही, पर तुम कहीं चले गए थे क्या? चाहे जहां गए हो, स्वप्न में गए, नींद में गए पर छोड़ तो गए। जवानी से फिर जागे,  फिर प्यार कर लिया, फिर सो गए,  फिर प्यार कर लिया। है कोई ऐसा जो चौबीसों घंटे स्त्री या पुरुष से प्यार कर सके,  सोए ना? 
भगवान को तो छोड़ो, यदि तुम स्त्री या पुरुष से अखंड प्यार कर सको तो मुक्ति की गारंटी मैं लेता हूँ।  हमारे एक मनोहर दास संत हुए हैं वो  कहते थे कि हटाओ।  ताश खेले फिर कहेंगे कि ये भी हटाओ। प्यार करो अब यह भी हटाओ, सो जाओ। तो कौन ऐसा है जो संसार कभी छोड़ता नहीं है। संसार से इतना प्रेम कोई कर ही नहीं सकता कि सदा जाग सके। तुम पत्नी से प्रेम करते हो,  तुम्हें चुनौती है कि तुम पत्नी को थोड़ी देर के लिए भी न छोड़ो। तुम्हें धन से प्यार है, मैं तुम्हें रुपया दूँगा गिनते रहना पर सोने नहीं दूँगा। कोई इतना कर ही नहीं सकता। कहने का आशय इतना है “कि जो दिसे सो, सकल विनाशी” जो दिख रहा है वो एक दिन नष्ट होगा ही इसलिए ऐसे को जानो खोजो मानो जो गुरुदेव बता रहे है जो की कभी नष्ट होता ही नही कहीं आता जाता है नही जिसका जिक्र गीता में श्री कृष्ण करते हैं।

सदैव सोचो तुम क्या हो, सच में क्या हो?

खैर, मेरा विषय है कि गर्मी पानी का स्वभाव नहीं है। वह आग का है। ऐसे ही मृत्यु, परिवर्तन आपका स्वभाव नहीं हैं। यह प्रकृति का है। प्रकृति और आपका स्वभाव एक हुए लगते हैं। न होने पर भी ये एकाकार हो जाते हैं। इसी को तादात्म्य कहते हैं। जब ये एकाकार हो गए तो अनित्य वस्तु से भी तुम्हें जीवन लगने लगा जैसे,  मिट्टी को घड़ा होने से अपना जीवन लगे।
क्या सचमुच मिट्टी घड़ा होने से जी रही है ?  घड़ा  न हो तो क्या वह  मर जाएगी? मिट्टी को घड़ा जीवन लगा जबकि वह मौत है। अपने को मरने वाले से एक कर लिया और फिर बचने की इच्छा। क्यों बचने की इच्छा है?  क्योंकि उसके स्वभाव में मृत्यु है नहीं। इसलिए मृत्यु पसंद नहीं है और मृत्यु होती भी नहीं है पर मरने वाले से जुड़कर मरना स्वीकार कर, अंदर जो छिपा स्वभाव है- बचे रहने का, वह लड़ रहे हैं।
तो  विवेक द्वारा यह समझ लें कि अनित्य क्या है?  अनित्य को नित्य बनाने की चेष्टा न करें । विवेक हो जाए तो फिर अनित्य से, अनात्मा से, अशुचि से, दुःख रूपी वस्तुओं से वैराग्य हो जाए। यह समझ लें कि शरीर दुःख है, सुख नहीं है। इसको आध्यात्मिक लोग अविद्या कहते हैं। अविद्या के कारण अशुचि में शुचि बुद्धि, अनात्मा में आत्म बुद्धि, अनित्य में नित्य बुद्धि, जो नहीं है उसमें ‘है’ बुद्धि और है का पता ही नहीं है जैसे, घड़ा है। तो घड़े होने में तो है बुद्धि हो गई और मिट्टी के होने का पता ही नहीं।