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मुक्त पुरुष

अब कोई कहे कि आप •••? तो हम भी कई योनियों से गुजरे होंगे । और तो और इस योनि ( मनुष्य योनि ) में भी कई बार मनुष्य देह रहकर स्वार्थी बने, राक्षस बने, संसारी बने। यह बात ग्रंथों ने भी कही है। बार – बार हम मनुष्य देह में भी आये। एक ही बार में (ब्रह्मज्ञानी) नहीं बने। एकाध बार जब मनुष्य देह मिलेगा तो पुरानी वासना के अनुसार वही काम करोगे। इसलिए ध्यान रखना कि कई बार मनुष्य तो बने पर मुमुक्षु नहीं बने। मेरे को तो शंका इसी में है कि क्या आप सब मुमुक्षु हैं? पहले ये तीन हो जाएं —
मनुष्यत्वं मुमुक्षूत्वं महापुरुषसंश्रय:।
पहले मनुष्य फिर मुमुक्षु , फिर महापुरुषों का संग। जितना आपको प्रेमी – प्रेमिका अच्छे लगते हैं, जितनी आपको मटरगश्ती अच्छी लगती है, क्या उतने ही आपको महापुरुष अच्छे लगते हैं •••? महापुरुष का आश्रय जरूरी है।
देखो, गर्भ भी कई तरह से आश्रय लेता है। पहले मां के पेट का आश्रय लेता है । फिर क्या वह वहीं बना रहता है? जब बाहर आया तो दूध किसका पिया? बाप का पिया? फिर भी आश्रय मां का ही है। मां खिलाती है, मां बुलवाती है। इसलिए हम लोग कहते हैं आप कि मातृभाषा क्या है? बोलना भी हमने मां से ही सीखा है। दूध भी मां का पिया, खेले भी मां की गोद में, अर्थात मां ने हमको बड़ा किया। धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाएं। आवश्यकता है मुक्त होने की , जैसे मां के पेट से मुक्त होना जरूरी है; पर जल्दी नहीं, ऐसे ही माता के दूध से भी। क्या सारी जिंदगी मां का दूध ही पीते रहोगे? फिर दूध पीना छोड़ा। खाना शुरू किया। मां खिलाती थी, मां बनाती थी।

मैं क्या हूँ ? मैं कौन हूँ?


भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्धा।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
पंचभूत (भूमि), आप ( जल ), अनल (अग्नि), वायु और खम् (आकाश ) इसमें तीन और हैं ( मन , बुद्धि और अहंकार )। ये आठों (अष्टधा) अपरा अर्थात जड़ प्रकृति हैं । चैतन्य नहीं है। इसमें जो चिदाभास है वह चेतन ( परा ) की चेतन्य प्रकृति है। ये दोनों मिले हुए हैं। संपूर्ण सृष्टि इन दोनों प्रकृतियों से ही चल रही है। जगत को धारण किसने किया है? प्रकृति ने किया है, चैतन्य ने नहीं। चैतन्य को तो लेना – देना ही नहीं है । वह तो साधू है, वह तो ब्रह्म है, वह तो नपुंसक है। यह जो चैतन्य की चिदाभासात्मिका है वह मन से इन्द्रियों से मिल कर चलाती रहती है । परमात्मा इससे भिन्न है। वह इसमें लिप्त है ही नहीं।
सर्व निवासी सदा अलेपा।
वह बिल्कुल अलिप्त है। वह विकारी नहीं है । किसी में मिलता ही नहीं है । चिदाभास, प्रकृति से मिलकर प्रकृति के अनुसार बन गया। साक्षी बना नहीं। चिदाभास, वृत्ति के अनुसार , अंतःकरण के अनुसार होता है। साक्षी तो कभी कुछ होता ही नहीं है।
आदि शंकराचार्य का श्लोक देखिए —
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहम्
पंचभूत और मन, बुद्धि, चित्, अहंकार ये मैं नहीं हूं। ये हैं; पर ये मैं नहीं हूं। इनको मिटाने के चक्कर में मत पड़ना। कई लोग अहंकार से निपटने के चक्कर में पड़े हैं। मर गए अहंकार को मिटाते – मिटाते; पर अहंकार नहीं मिटा । यह तो प्रकृति का है। मैं नहीं हूं। मैं हूं , ये भी हैं ; पर ये मैं नहीं हूं।

भोग से प्रारब्ध का क्षय

पूर्व में मनुष्य के तीन प्रकार के कर्म बताए गये है क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। इनमे क्रियमाण कर्म पर मनुष्य का अधिकार है अच्छे कर्म करके इनसे होने वाले आगे के प्रभावों से वह बच सकता है । तथा निष्काम कर्म, आसक्ति रहित कर्म करके तथा फलाकांक्षा का त्याग करके वह कर्म बन्धन से बच सकता है।
किन्तु संचित कर्मो को नष्ट करने का उपाय केवल ज्ञान ही है।
ज्ञान से यह सारा संचित कोश नष्ट हो जाता है।
तथा अहंकार रहित हो जाने पर वह आगे कर्मों का संग्रह नही करता। फिर तीसरा प्रारब्ध शेष रहता है । जिसके कारण वर्तमान जीवन मिला है। उसका क्षय भोग से ही होता है। ज्ञान प्राप्ति पर भी इसका नाश बिना भोग के नही होता। अक्षुपनिषद मे कहा गया है:-
ज्ञान का उदय हो जाने पर पूर्वकृत कर्मोंके प्रारब्ध भोग तो भोगने ही पडते है उनका नाश नही होता। धनुष से छूटा हुआ तीर प्रहार करता ही है।
मीरा, रामकृष्ण, बुद्ध, आदि सब ने भोगा है व अन्तिम समय बडा़ कष्ट से गुजरा है किन्तु यह कष्ट शरीर तक ही सीमित था उनकी चेतना इन कष्टो से अप्रभावित रही क्योकि उनका शरीर  से तादात्मय छूट चुका था तथा वे आत्मा मे स्थित हो चुके थे। उन्होने शारीरिक सुख दुख नही माना क्योकि वे उससे पृथक हो चुके थे। अज्ञानी ऐसे सुख दुख को अपना सुख दुख मानता है। ज्ञानी और अज्ञानी मे यही अन्तर है यह भोग,अनिच्छा, परेच्छा तथा स्वेच्छा से ही हो सकता है। प्रायश्चित से भी नाश होता है। तथा सेवा से भी छुटकारा मिलता है।
                                                    

शहंशाह बनने का तरीका

न चेत् इहावेदिन् महति विनष्टी ।।
यदि उसको यही नहीं जाना तो बड़ा नुकसान किया हमने

सब कुछ पाने में समय लगाया पर उसके लिए समय नहीं बचाया जो सब में रहता है। जब तक हमारी जिंदगी है सौ काम लगे रहेंगे, हम अपने  सत् स्वरूप के आनंद को   नहीं पा सकेंगे  अगर हम शरीर के आधीन हो गए  तो। इसीलिए हम आनंद में रहे। साधु शहंशाह होता है, बादशाहो का बादशाह होता है। लोग अपने मालिक नहीं है, दूसरों के मालिक बनना चाहते हैं। भारत में संतों को स्वामी जी कहते हैं। स्वामी अर्थात अपने आनंद के आप स्वयं मालिक है। अपने जीवन के आप मालिक है। और जिसे सुख की भीख ना मांगना पड़े वह मालिक है। तो भारत में मांग के खाने वाले( फकीर) अपने आनंद के मालिक थे, गुलाम नहीं थे। और विशेषकर के ‘अपनेे आनंद के’ मालिक थे। यदि आनंद हमें किसी से लेना पड़ा तो हम भिखारी हो गए। इसलिए वोट मांगने वाले बड़े बादशाह नहीं होते। किसी से लेने की इच्छा सबसे बड़ी कमजोरी है। और सबसे बड़ी ताकत है किसी से कुछ लेना नहीं । जो किसी से अपेक्षा नहीं करते ऐसे मुनी के पीछे भगवान चलते हैं। जो हाथ में कुछ रुपया बांधकर नहीं रखते और किसी से कुछ चाहते नहीं ऐसे लोगों के पीछे भगवान चलते हैं कि इनकी चरण धूलि मेरे माथे पर पड़ जाए।अर्थात कामना से रहित जो महापुरुष है उनके पीछे भगवान चलते हैं। इसलिए भगवान के पीछे तो प्रारंभ में चलना है। जब आप आत्माराम हो जाएंगे, अपने आनंद में रहेंगे तो भगवान तुम्हारी चिंता करेगा। तुम्हें किसी की चिंता करने की आवश्यकता नहीं। देहाभिमान गलिते विज्ञाते परमात्मनी
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयाः।।
देह का अभिमान ‘मैं देह हूं’ यह अभिमान यदि गलित हो गया और ‘मैं आनंद हूं’ यदि यह समझ लिया तो मुझे किसी की जरूरत नहीं तो ऐसे व्यक्ति के पीछे परमात्मा चलते हैं कि उनकी धूल उड़ेगी तो हम पर पड़ेगी। आप अपने अंदर का आनंद अनुभव करो।

स्वीकार करो


तुममें जो शक्ति है, उसको स्वीकार करो और भगवान में जो शक्ति है, वह स्वीकार करो। तुममें अल्प शक्ति है। भगवान में महत् शक्ति है। विराट निर्माण की शक्ति भगवान में ही है। गृह निर्माण, कपड़ा निर्माण और अन्य निर्माणों की शक्ति तुममें है। आंखें खोलना और मींचना यह शक्ति तुमको दी गई है। यदि तुममें यह ताकत न होती, तो सब एक समय पर ही न सो जाते; एक समय पर ही न जग जाते? बिजली देना, पावर हाउस से कनेक्शन देना, यह उसका काम है। वहां से बिजली सप्लाई करना, यह उसका काम है; लेकिन, स्विच ऑन और ऑफ करना किसका काम है? क्या यह पावर हाउस वालों का काम है? तुम्हारे घर का स्विच ऑन और आंफ करने क्या वे लोग आएंगे? जगने और सोने का स्विच ऑन और ऑफ तुम करोगे कि वे करने आएंगे? सुबह चार बजे तुम उठोगे कि भगवान उठाएंगे? तुम्हें उठने की ताकत दे दी है; तुम चाहे चार बजे उठ जाओ, चाहे आठ बजे तक सोओ। यदि इंसान, इस विषय की भी जिम्मेदारी ईश्वर पर लादता है, तो वह बेईमान नहीं है? ईमानदारी से इस बात को कहना और कल से यह कहना छोड़ देना कि सब कुछ ईश्वर करता है।
जब तक शरीर है, तुम्हारा अपना कर्तव्य है। कर्तव्य नहीं करते हो, तो तुम बेईमान हो। बदमाशी तुम करो और भगवान पर डालो। शरारत तुम करो और ईश्वर के ऊपर मढ़ दो। दो पाप हुए। पहले तो गलती की और फिर ईश्वर पर डाल दी। तुम्हारे जैसा कोई और बेईमान होगा? तुम दोहरे पापी हो। पहले तो पाप किया और फिर उस पाप का जिम्मेदार भगवान को ठहराया। तुम महा पापी हो। इस पाप का क्षय कभी भी नहीं होगा। कम- से – कम यही स्वीकार कर लेते कि गलती तुम्हारी है , तो सुधरने की गुंजाइश थी। सुधरने की गुंजाइश थी , यदि तुम गलती करते होते? लेकिन, तुमने तो गलती करके भगवान पर डाल दी और अपने को निरपराध बना लिया । इसलिए , अब तुम कभी भी निष्पाप न हो सकोगे। कभी गलती सुधार न सकोगे। जो अपनी गलतियों का जिम्मेदार किसी और को समझता हो, वह बेईमान कभी ठीक नहीं होगा। सब लोग अपने बिगड़ने की जिम्मेदारी किसी और पर डाल देते हैं। आदमी जितना बेईमान, कोई जानवर भी नहीं है । आदमी महा बेईमान है।
मुस्लिम ईमान क्या है? वे ही लोग मुसलमान हैं, जिनका ईमान सही है, दुरस्त है। क्या मुसलमानों का ईमान सही है ? क्या वे सब कुरान के अनुसार चलते हैं? सिक्ख माने शिष्य। अब ये सब लोग क्या गुरु के शिष्य हैं, जो गुरुओं की वाणी में ही हेर – फेर करते हैं? ये तो गुरुओं के भी गुरु बन रहे हैं। जो गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को अपने ढंग से कहें; जो वाणी को हटाने का भी प्रयत्न करें; वे शिष्य हैं कि गुरु ? कम – से – कम सिक्ख तो सिक्ख बने रहें; मुसलमान तो मुसलमान बने रहें; मनुष्य तो मनुष्य बने रहें; तब तो बात भी है ।

एक सत्य


प्रकृति के नियम से ही मां बच्चे को दूध पिलाती है ।मां थोड़े ही दूध पिलाती है। मां दूध को रोक तो सकती है। मां नियंत्रण कर सकती है। मां शरम कर सकती हैं। मां अपने सौंदर्य को बचाने के लिए दूध पिलाने से अपने को रोक सकती है; पर दूध मां नहीं पिलाती। दूध तो भीतर से आता है। मां की अकल से नहीं आता है। दूध सुखाने का अपराध मां कर सकती है। पर , दूध पिलाने का श्रेय मां को नहीं है। वह तो प्रकृति की देन है। जो मां अपने बच्चे को दूध नहीं पिलाती; वह प्रकृति की दी हुई भेंट का अनादर करती है ।
ज्ञान भगवान से आता है। उस पर अधिकार तुम कर लेते हो। कहते हो कि यह मेरा ज्ञान है। लेकिन, ईमानदार लोग तो यही कहते हैं कि उन्हें तो जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह तो भगवान का ही ज्ञान है। यही चैतन्य परमात्मा है। बुद्धि और अहंकार कहता है कि “मेरा ज्ञान” है। देहाभिमानी “मेरा चैतन्य” कहते हैं। यह मेरा – तेरा क्या है? चैतन्य तो चैतन्य है; वह एक ही है ।
यही परमात्मा का आवरण रहित रूप है। चैतन्य एक ही तो देवता है; जो सब में समाया हुआ है; लेकिन, देहाभिमानी कहते हैं कि यह “मेरा ज्ञान” है, यह “मेरी” बुद्धि है, यह “मेरा” देह है। यहां “मेरा” और “तेरा” कुछ नहीं है। एक चैतन्य है। एक ही परमात्मा है। वह परमात्मा ही सबके भीतर समाया हुआ है। यही सत्य परमात्मा का नग्न रूप है। यही सत्य “नंगा परमात्मा है”।
इस सत्य को ही जानने की आप चेष्टा कीजिए । इस सत्य को जानकर आप जीवन में महान बन सकते हैं । आप आत्मज्ञानी हो सकते हैं । जीवन रहते तत्वज्ञान उपलब्ध करने का प्रयत्न करें । भगवान की आप पर महान कृपा हो और आपको यह ज्ञान प्राप्त हो ।

निर्ममेति

एक बार दीपक कहने लगा कि “जिस घर में मैं जलता हूं, उस घर में मैं अंधेरे को नहीं आने देता”। हमने कहा भई! ज्यादा न बोलो, जरा संभल के बोलो। ये कहो “जहां मैं रहता हूं, वहां अंधेरा आता ही नहीं है”। वहां अंधेरा रहता नहीं कि तू आने नहीं देता? अंधेरे को तो कोई धक्का दिये रहता है , जो नहीं आने देता । कोई रोके रहता है उसे?
“मेरा है ” कहते ही बंधन..
अभी जब यहां सत्संग चल रहा था, हम लाउडस्पीकरों की आवाज सुन रहे थे। इधर चार स्पीकर लगे हैं, उधर दो लगे हैं। हम खड़े होकर यह पता लगा रहे थे कि कहां की आवाज सुन रहे हैं? एक बालिश्त के फर्क में हम इधर के स्पीकरों की आवाज सुनते थे। और एक बालिश्त के फर्क से खड़े होते ही यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह आवाज होती है। केवल एक बालिश्त की दूरी का यह प्रभाव है। सच तो यह है कि एक बाल बराबर दूरी का भी यही प्रभाव होगा। यदि मशीन से सुना जाए, तो बाल बराबर इधर आते ही यह आवाज़ सुनोगे और बाल बराबर उधर जाते ही वह आवाज़ सुनोगे। एक सीमा रेखा होती है, बस इतना ही फर्क है।
जब भौतिक जगत् में, एक बाल बराबर दूरी से इतना फर्क पड़ सकता है, तो “मेरा नहीं है , भगवान का है” की जमीन पर खड़े होते ही, बस इतना सा ख्याल करते ही, आदमी मुक्त हो जाता है और “मेरा है” यह ख्याल आते ही वह बंध जाता है, फंस जाता है।

“द्वे पदे बंद मोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन् र्तनिर्ममेति विमुच्यते।।”

“निर्ममेति”, “मेरा नहीं है”, कहते ही मुक्त हो जाता है और “मेरा है”, कहते ही बंध जाता है। मैं कहता हूं, यह तो एक सूत्र है। ऋषियों ने ऐसे लाखों सूत्र दिए हैं। एक भी सूत्र पकड़ लो, तो मुक्त हो जाओगे।

मन का ज्ञाता साक्षी


मन जिससे महसूस होता हो; मन जिसके पहले न रहा हो; जिसने मन के होने को समझा हो, जिसे मन के विलय होने का पता रहता हो; जिसे मन के सो जाने का पता रहता हो; ऐसा जिसको पता चलता हो, उसी को तुम ब्रह्म जान लेना।
“तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि”
ब्रह्म को इन्द्रियों की सीमा में मत खोजते रहना ।
गो गोचर जहं लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।”
मन की सीमा में यदि परमात्मा मिल भी जाए; इंद्रियों की सीमा में परमात्मा आ भी जाए; तो वह परमात्मा का साकार रूप होगा, आराध्य रूप होगा। वह भी हमारे कल्याण का कारण बन सकता है; लेकिन, मृत्यु भय साकार भगवान से नहीं जाता। किसी भी साकार भगवान के दर्शन से, उनके मिलने से, मृत्यु भय नहीं गया। उनके उपदेश की बात मैं नहीं कहता।
अर्जुन भगवान के साथ ही तो था। उसका शोक नहीं गया; मृत्यु भय नहीं गया; राग-द्वेष नहीं गया। भगवान को उपदेश ही देना पड़ा। मान लो कि मैं भगवान हूं। क्या मेरे देखने से आपका अभिमान चला जाएगा? मेरे देख लेने के बाद, यदि आपको सांप काट ले, तो मरने के भय में फर्क पड़ेगा? क्या हो जाएगा? देह वाले की मौत वैसे ही रहेगी; चाहे भगवान नहीं भगवान के बाप ही क्यों न हों। मेरे ख्याल से भगवान के तो बाप ही नहीं होता। क्यों! भगवान के भी बाप होता होगा? भगवान तो होता ही सब का बाप है; इसलिए, भगवान का कोई बाप नहीं होता। भगवान बिना बाप का होता है। जो बिना बाप का होता है, उसी का नाम भगवान है । समझ गए! जो बिना बाप के हो, अर्थात अजन्मा हो आत्मा हो जिसने अपने भीतर उसकी उपस्थिति को समझ लिया हो, वही परमात्मा है। जिसका जन्म ही नहीं होता, उसका बाप कैसे होगा? वही बापों के बाप के बाप तुम भी हो सकते हो सिर्फ इस ब्रह्म ज्ञान का पान तो ठीक से करो।

मन या मौन

जब तक ध्यान में नहीं डूबेंगे तब तक कितने भी उत्तर मिल जाएं ।समाधान नहीं होगा ।

मौन जब पूर्ण होता है तो मन होता ही नहीं। मन की अवस्था का सवाल नहीं है। मौन का अर्थ है मन की मृत्यु। वहाँ मन नहीं है। वहाँ जो रह गया है उसी को हम आत्मा कहते हैं। तो मौन, मन की अवस्था नहीं है। मौन है मन की मृत्यु, मौन है मन का विलीन हो जाना।

• जैसे सागर में लहरें हैं , कोई हमसे आकर पूछे कि जब सागर शान्त होता है तो लहरों की क्या अवस्था होती है, तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, जब सागर शान्त होता है तो लहरें होती ही नहीं। लहरों की अवस्था का सवाल नहीं। सागर अशान्त होता है, तो लहरें होती हैं। असल में लहरें और अशान्ति एक ही चीज के दो नाम हैं। अशान्ति नहीं रही तो लहरें नहीं रहीं। रह गया सागर।

मन है अशान्ति, मन है लहर। जब सब मौन हो गया तो लहरें चली गईं, विचार चले गये, मन भी गया, रह गया सागर, रह गई आत्मा, रह गया परमात्मा।

• परमात्मा के सागर पर मन की जो लहरें हैं वे ही हम अलग-अलग व्यक्ति बन गये हैं। एक-एक लहर को अगर होश आ जाये तो वह कहेगी “मैं हूँ!” यह हमारी एक-एक मन की अशान्त लहरों का जोड़ है। ये लहरें विलीन हो जायेंगी तो आप नहीं रहेंगे, मन नहीं रहेगा। रह जायेगा परमात्मा, रह जायेगा एक चेतना का सागर।

• परिपूर्ण मौन, मन की अवस्था नहीं, मन की मृत्यु है। जैसे-जैसे हम मौन होते हैं वैसे-वैसे हम मन के पार जाते हैं। जितना ज्यादा हम विचार से भरे होते हैं उतना हम मन के भीतर होते हैं, जितना विचार के बाहर होते हैं उतना मन के बाहर होते हैं।

• तो ऐसा मत पूछिये कि उस समय मन की अवस्था कैसी है। अगर मन की कोई भी अवस्था है तो अभी मौन नहीं हुआ। जब मौन होगा तो मन नहीं होगा। जहाँ मन है वहाँ मौन नहीं, जहाँ मौन है वहाँ मन नहीं।

मैं चैतन्य हूँ

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं ; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।