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भोग-योग रूप

पुरुष और प्रकृति, इन दोनों के मेल से जिन जीवो का जन्म हुआ है, वे जन्म से शरीराभिमानी ही होते हैं। वे अपने को शरीर मानते हुए ही पैदा होते हैं और शरीर मानते हुए ही प्राय: मर जाते हैं। कोई ऐसे भी हैं, जो कितनी ही बार जन्म लेने पर भी बार-बार शरीर भाव को ही प्राप्त होते हैं। ऐसे कुछ ही महान् पुरुष होते हैं, जो शरीर में रहते हुए भी, शरीर भाव से मुक्त होकर, अपने परमात्मभाव को प्राप्त होते हैं। जैसे कोई जन्म से लड़की हो और बाद में लड़का हो जाए। पहले माता की तरह हो, पीछे पिता की तरह हो जाए। इसी प्रकार, जीव पहले जन्म – मरण वाला हो, सुख-दुख वाला हो, कर्ता और भोक्ता हो; बाद में अकर्त्ता, अभोक्ता और आनंदमय हो जाए। भोग से व्यक्ति प्रकृति रूप और योग से ब्रह्मरूप बन जाता है।
यदि कोई आत्मा को अनुभव करेगा, तो परमात्मा भाव को प्राप्त होगा और यदि प्रकृति के साथ, शरीर के साथ तादात्म्य करेगा, तो जड़ता को प्राप्त होगा; मरण को प्राप्त होगा। इस प्रकार दो भावों वाला यह जीव ही हो सकता है। परमात्मा नित्य परमात्मा है; प्रकृति नित्य प्रकृति है। यह जीव ही प्रकृतिभाव वाला और परमात्मभाव वाला होता है।
अब आपको यह देखना है कि आप जिस भाव में हैं, उस भाव में आपको चैन है? जैसे कोई लड़की हो और उसे लड़की के जीवन में चैन ना हो -पीड़ा होती हो कि वह लड़का होती तो अच्छा होता। उसी प्रकार से हमारे जीवन में भी एक पीड़ा है। हम अभी लड़की की तरह हो गए हैं। हम प्रकृति के भाव वाले शरीर के रूप में पैदा हो गए हैं। हमें लगता है कि हम मरे नहीं, दुखी ना हो, अशान्त न हों और परेशान न हों। हमारे हृदय में एक ऐसी पीड़ा है, जो हमें भगवान् होने को बाध्य करती है। यदि हम भगवान के भाव को प्राप्त न हों या भगवान् हमें प्राप्त न हों, तो हमको जीवन में चैन नहीं आता। इसीलिए, जहां शरीर की व्यवस्था का प्रश्न है, वहीं जीव की आंतरिक मांग का सवाल भी हमारे सामने रहता है।

जीवन में शांति कैसे आए ?


मनुष्य के अंदर यही एक पीड़ा है। इस पीड़ा को निवृत्त करने के लिए ऋषियों ने अध्यात्मवाद के तथ्यों की खोज की। जैसे विज्ञान अपने भौतिक जगत में खोज करता है; ऐसे ही अध्यात्मिक पुरुषों ने आंतरिक जगत् में रिसर्च की, खोज की और हमारे सामने ऐसे तथ्य खोल कर रखें कि जिनसे जीवन में शांति आये। जैसे विज्ञान के बहुत सारे तथ्य उन्हीं को ज्ञात होते हैं,जो कि वैज्ञानिक होते हैं; परंतु, उनका बहुत कुछ लाभ है अवैज्ञानिक लोग भी उठाते हैं, पंखे का निर्माण करना या बिजली का विज्ञान आप नहीं जानते; पर उसका लाभ तो उठाते हैं? इसी प्रकार से आध्यात्मिक जगत के विषय में भी कुछ खोजे हैं, जिनके संबंध में आप न भी जानते हों, पर मान लें, तो थोड़ा बहुत लाभ होता ही है। लेकिन, पूर्ण लाभ उठाने के लिए आपको स्वयं बहुत बड़ा वैज्ञानिक होना पड़ेगा; उस आध्यात्मिक जगत में स्वयं प्रवेश कर लेना पड़ेगा। क्योंकि इसे जाने बिना ब्रह्म को समझे बिना इस क्या किसी भी जन्म में शाश्वत शांति पाना असंभव है। इसलिए बार बार गुरुदेव सिर्फ एक ही मार्ग, एक ही ज्ञान की ओर इशारा करते हैं सतत समझाते हैं जिनके अच्छे प्रारब्ध और संचित कर्म जमा है वो इसी क्षण या इसी जन्म में समझ जायेंगे जिनके नही अगर समझने की कोशिश करेंगे जो यहाँ से यात्रा तो शुरू हो ही जाएगी। फिर आपके ऊपर है कि चल रहे हो या दौड़ रहे हो या सद्गुरु रूपी जहाज लेकर उड़ रहे हो।

सजग होकर जीवन छोड़े

सुकरात की जब यह दशा हुई, तो अंत में वह और आनंदित हुआ। “मैं” आनंद में हूं। शरीर छूट रहा है। वह देख रहा है-आनंद में है; क्योंकि, वह मर ही नहीं रहा, वह देख रहा है, आनंद में है। वह तो जी रहा है और देख रहा है कि “मैं हूं”, “मैं हूं”। शरीर छूटता जा रहा है। शरीर शिथिल होता जा रहा है। अंत में वह कहने लगा कि देखो! इतने अंग और छूट गए, इतने कपड़े मैंने और उतार दिए। थोड़े उतारने और बाकी हैं। यह भी उतरने वाले हैं। इसलिए , आखिरी बार बोलता हूं; क्योंकि, बोलने का साधन जबान थी, वह भी उतार दे रहा हूं। चश्मा उतर जाएगा, देखना बंद हो जाएगा। “मैं” तुम्हें देख ना सकूंगा। लेकिन, यह मैं बताये देता हूं कि आंखें बंद हो जाएंगी, तो देखना बंद हो जाएगा। जबान उतर जाएगी, तो बोलना बंद हो जाएगा। परंतु , “मैं” जीवित हूं। आखिर समय तक “मैं” यह देखता चला जाऊंगा कि मौत क्या है? जो आखिरी समय तक मौत को देख लेता है, वह नहीं मरता है। जो आखिरी समय पर मौत को नहीं देखता, वह मर जाता है।
सुकरात तो बचता चला गया, बचता चला गया और मौत होती चली गई। जो बचता चला गया, वही देख पाया कि उसकी मौत कभी होती ही नहीं। यह तो वही देखता है, जो होश में होता है। इसलिए, बहुत बड़ी साधना की आवश्यकता है कि सजग होकर अपने जीवन को देखो। ऐसा कोई ही महापुरुष है, कोई ही निष्ठावान है, जो जीते जी मरने का अभ्यास करता है।
लोग कोठियां बनवाने में लगे हैं; अभी मृत्यु कि कौन सोचता है? यह कोठियां धरी रह जाएंगी, यह धन रखा हुआ रह जाएगा। कोई काम न आएगा। निर्भय होकर कोठियां बनाओ; खूब मकान बनाओ; लेकिन, मुक्त होकर बनाओ। जो पहले से अपना कल्याण नहीं कर पाते, अपना जीवन नहीं बना पाते; वे सत्य को नहीं पाते। वे जो कुछ पाएंगे, सब खो जाएंगे। अपने को तो पहले ही खो बैठे हैं। इसीलिए, सब खो देने वालों को इकट्ठा करो; लेकिन, स्वयं को तो पा लो। सब कुछ खोकर कोई स्वयं को पा ले, तो कोई हर्ज नहीं है, किंतु, लोग स्वयं को खो दें, इससे बड़ा अपराध संसार में नहीं है। उपनिषदों में आता है कि वे आत्महत्यारें हैं; बड़े ही कृपण लोग हैं; जो आत्मा को जाने बिना ही चले जाते हैं।

श्रवण, मनन, निदिध्यासन

वृक्ष को जन्म देने के लिए, बीज को शांत होकर जमीन में बैठ जाना होगा। जब हमने शास्त्रों द्वारा सुन लिया, गुरुजनों से सुन लिया कि “मैं आत्मा हूं” या ” मैं ही ब्रह्म हूं “तो अब पाने की अभिलाषा खत्म। अभी मिला नहीं है, अनुभव में नहीं आया है, तो भी शास्त्र – बल से तुम्हारी बुद्धि, जो बहिर्मुखी थी, वह शांत हो गई। गुरु – वचनों से तुम्हें लगा कि तुम जो मर जाने वाले थे, नहीं मरते। लेकिन, अभी पूर्ण शांति नहीं आई। अभी चित्त थोड़ा सा शांत हुआ है। जब हम ही हैं, तो कहां जाएं। क्योंकि, वह हम में है, तभी बुद्धि शांत होने शुरू हुई। जब बुद्धि शांत हुई, तो अंदर का जो साक्षी है, अंदर जो चैतन्य है, अंदर जो आत्मा है, वह आंखों में आना शुरू हो जाएगा। यह हुआ ध्यान।
पहले हुआ श्रवण; फिर श्रवण किए हुए पर विचार किया। जब मन को सच्चा लगने लगा, तो बुद्धि अपने – आप वैसी ही होनी शुरू हो जाती है। यह बुद्धि का नियम है। यदि तुम्हारे मन में आवे कि वहां मूत्र होने के लायक जगह है, तो वहीं मूत्र के लिए जाओगे। छोटी सी क्रिया के प्रति हम जो फैसला करते हैं, वैसी ही क्रिया होने लग जाती है। जब तुम्हारे चित्त में यह फैसला हो जाए की अंदर की आत्मा अविनाशी है और वह अंदर ही है; तो आनंद की जो तलाश बाहर थी, वह रुकेगी और अंदर बैठना शुरू होगा।
इस बैठने को ही हम उपासना कहते हैं। सुनने को कर्म कहते हैं। पा जाने को (अनुभव में आ जाने को ) ज्ञान कहते हैं। यह जो सुनते हो उसे श्रवण कहते हैं। यदि तुमको सुनने में अच्छा लगे और वैसा ही तुम्हारा मन अंदर से शांत होने लगे, तो उसे “मनन” कहते हैं। तुमको यदि जंच गया और मन शांत होकर अंदर आनंद की अनुभूति होने लगी, तो उसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। अंदर साक्षात्कार न हुआ हो; परंतु, अनुभव में आने की तैयारी होने लग जाए, सच्चा लगने लग जाए; तो इसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। यदि पूर्ण साक्षात्कार हो जाए, तो श्रवण, मनन और निदिध्यासन व्यर्थ है।
ध्यान शब्द का अर्थ है “निदिध्यासन”। निदिध्यासन को कई जगह ध्यान भी कहा गया है। ध्यान का अर्थ है कि सुने हुए का अनुभव करने के लिए चित्त तद्रूप होकर शांत होता जाए। वृत्ति निश्चल होती जाए, यह ध्यान है। उस ध्यान के निश्चलता में यदि बुद्धि की वृत्ति बिल्कुल शांत होकर उस आनंद में निमग्न हो जाए, अंतर्साक्षी का अनुभव होने लग जाए, तो उसे हम साक्षात्कार कहते हैं। इसी को समाधि कहते हैं।

मौत किसकी, मृत्यु क्या?


“प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशय:।”
यदि प्रपंञ्च होता, तो निवृत्त भी होता; इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन, जब प्रपंच है ही नहीं, तो उसकी निवृत्ति कैसे हो? कैसे की जाए?
भ्रान्त्या प्रतीत: संसार
यह संसार भ्रान्ति से प्रतीत होता है, इसीलिए —
“विवेकान्निवर्तेत न तु कर्मभि:”
निवृत्त भी विवेक से ही हो सकता है, कर्म से निवृत्त नहीं हो सकता है। जो अज्ञान से प्रतीत होता हो, वह ज्ञान से ही समझ में आ जाएगा। इसीलिए, विवेक से ही अज्ञान की निवृत्ति हो सकती है; कर्म से नहीं। कारण यह है कि—
“रज्वारोपित: सर्प: घंटा घोषान्न निवर्तते:”
यदि रस्सी में कोई सांप हो और कोई शंख घड़ियाल बजावे कि वह भाग जाए; शोर मचाए कि वह रस्सी का सांप भाग जाए; तो क्या वह भाग जाएगा? पर, वह कर्म से नहीं भागेगा; जब भगेगा तब प्रकाश से भगेगा। प्रकाश से क्यों जाएगा? क्योंकि, वह अप्रकाश के कारण से है। यदि सचमुच का सर्प होता; तो लाठी से जाता; शंख बजाने से ज्यादा। यदि, बंधन होता; अपवित्रता होती और यदि मौत होती, तो किसी कर्म से मौत की निवृत्ति होती; किसी तप से मौत से मुक्ति होती। किसी साधन से मौत से मुक्ति होती या किसी पुरुषार्थ से मौत से मुक्ति होती
आत्मा अमर है, तो मौत किसकी?

सार्वभौमिक सत्य

यदि एक बार यह बात अनुभव में आ जाए कि मैं शरीर से संबंध रहित हूं; मन से मेरा कोई संबंध नहीं है; तो यह नहीं है कि संबंध हो गया है और छूट जाएगा। इसलिए गोस्वामी जी बड़ी अच्छी चौपाई कहते हैं—
“जड़ चेतनहिं ग्रन्थि परि गई।
यदपि मृषा छूटत कठिनई।।”
यद्यपि यह झूठी है, अर्थात यदि हम मान ले कि अंतःकरण से आत्मा ढक जाता है, तो फिर छोड़ना अनिवार्य होगा; छोड़ना भी सत्य होगा। लेकिन, गोस्वामी जी की भाषा कहती है कि जड़ और चेतन की गांठ नहीं लगती अर्थात आत्मा का अंतः करण से तादात्म्य भी सच्चा नहीं है। अतः, संबंध भी सच्चा नहीं है। संबंध झूठा है।
आकाश में गंदगी का संबंध झूठा है; आकाश में गंदा होने का भाव झूठा है। प्रतीत तो होता है कि गंदगी हो गई; लेकिन, आकाश उस समय भी गंदा नहीं होता; केवल प्रतीत होता है। ये समस्त जगत एक प्रतीति मात्र है यदि, सचमुच गंदा होता, तो उसे शुद्ध करने का प्रश्न था। इसी प्रकार यह आत्मा, यह जो “मैं” है, जब अंतःकरण के कारण लगता है कि “मैं” कुछ हो गया हूं , तब भी यह आत्मा, हो कुछ नहीं जाता। जब कुछ (गंदा) हो नहीं गया , तो शुद्ध करने की बात ही गलत है, इसीलिए, वेदांत दर्शन यह भी कहता है कि जब यह कुछ नहीं हुआ, तो मुक्ति भी कुछ नहीं है; क्योंकि गंदा न हो, संबंध न हो, तो संबंध छूटे कैसे? ये सबकुछ ओढ़ा हुआ है परवश होके समझा हुआ है अब गुरु सार्वभौमिक सत्य को बता रहे हैं इसे समझो हर रोज़ बार बार समझो जब तक पहले वाले कि तरह ये गाढ़ा ना हो जाए।
जगद् गुरू आद्य शंकराचार्य जी ने माडूक्य उपनिषद का भाष्य किया है । उसी उपनिषद में कुछ कारिकायें हैं । उसमें एक कारिका है—
प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशय:

याद

मैं तुम्हें एक सूत्र बताता हूं। आज से जब ध्यान में बैठोगे, तो यह ख्याल करने की कोशिश करना कि तुम रहे हो या नहीं? तुम पहले से ही निर्णय मत ले लो।यह बात तुम अपने से ही पूछो,जब तुम देख रहे थे या सुन रहे थे,तब तुम्हारा ज्ञान मौजूद था क्या? नहीं तो ज्ञान तो रहेगा; ज्ञान का ज्ञान नहीं रहेगा। ध्यान का ध्यान नहीं रहेगा। मन तो रहेगा; पर, उसका पता नहीं रहेगा। साक्षी तो रहेगा; पर,सा‌क्षी का ज्ञान नहीं रहेगा। तुम देखते समय या सुनते समय अपने आप से पूछ लेना, जो तुम्हे मालूम पड़ रहा है,क्या तब ज्ञान के बिना मालूम पड़ रहा है? तुम्हें तुरन्त ही यह लगेगा कि ज्ञान का ध्यान आ गया है। द्रष्टा पर ध्यान लौट आया है।
तुम्हारा दृश्य में ध्यान लगा रहता है; विषय में ध्यान उलझा रहता है। अन्य बातों में ध्यान उलझा रहता है। यदि यह प्रश्र करोगे कि क्या अन्य की प्रतीति बिना तुम्हारे है क्या? तुम्हें तुरन्त ही अपनी याद आ जाएगी। तुम्हें अपनी याद आती रहेगी। फिर तुम कहोगे कि आज तुमको अपनी याद आती रही। याद रहेगी तो नहीं? याद आती रही। कुछ दिनों के बाद देखोगे कि अपनी याद बनी रही। फिर, इसके बाद कहोगे कि तुम्हें अपनी याद की ज़रूरत ही नहीं है; हम हैं ही। बिना हमारे कुछ होता ही नहीं है।

ज्ञान का अभिप्राय

पूज्य गुरुदेव ज्ञान का अभिप्राय समझाते हैं—
जि

सको ज्ञान हो जाता है, वह शरीर, मन और बुद्धि से विलक्षण होकर चित्त स्वरूप में क्षण भर के लिए अवस्थित हो जाता है, जिसे विशुद्ध आत्मा का क्षण भर को भी बोध हो जाता है।

वह इन्द्रियों से अतीत सत्य को जानने के कारण, इन्द्रियातीत आनंद को पा लेने के कारण, इन्द्रीयों के द्वारा पाने की इच्छा से रहित हो जाता है। उसे इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ मिलता है, वह नरक लगता है।

यदि तुम्हारा मन इच्छाएं नहीं छोड़ता, तो तुम मन से तादात्म्य अ‌‍र्थात मन से सम्बन्ध तोड़ दो। मन कहीं भी जिए,वह अपनी पूर्ति करता रहे।मन की इच्छा की पूर्ति न करो। बल्कि ,मन की इच्छा का त्याग कर दो।


पूज्य गुरुदेव समझाते हैं यदि, तुम्हें असंगता का और साक्षीपने का बोध हो जाएः तो जीवन में तुम्हें शान्ति, आनंद और प्रसन्नता मिलने लग जाएगी। इसलिए हम आपको बार बार कहते हैं कि ध्यान के क्षणों में किसी भी सत्र पर भोक्ता मत बनो।भोक्ता हमेशा दुखी होगा। वह चाहे बाहर का आनंद ले, चाहे भीतर का; जब मन आनंद लेने लगता है, तो उसके बिना फिर वह रह ही नहीं पाता। इसलिए, अपने मन को जानो और मन से उपरांत हो जाओ। उसको महत्त्व मत दो। तुम मन की उपेक्षा करो।जब तुम अपने आप से मतलब रखोगे, तो तुम देखोगे कि सब शांत हो गया। यही ज्ञान का अभिप्राय है।

महाकाश


प्रश्न— आत्मा सर्वाधार है तो प्राण ,मन क्या करता है पूज्य गुरुदेव समझाते हैं—


} प्राण शरीर को जीवित रखता है,चेतन नहीं रखता।शरीर को जीवित रखना, सड़ने नहीं देना, गलने नहीं देना, बिगड़ने नहीं देना, शरीर की सुरक्षा करना प्राण का काम है।सुख,दुख, दर्द आदि मन से होता है। मन नींद में सो जाता है।


} प्राण नींद में,कोमा में भी काम करता है। प्राण जब तक शरीर में रहता है, तब तक मन कहीं जाये (जैसे सो जाये, बेहोश हो जाये) फिर आ जायेगा।


} प्राण कार ,जहाज है,मन ड्राइवर,पायलट है। पायलट जहाँ ले जाना चाहता है, जहाज़ को उड़ा ले जाता है।जहाज़ अपनी मर्जी से नहीं जाता।पायलट की ही मर्जी से जाता है।जहाज़ ड्राइवर के अधीन है। इसलिए दूसरे शरीर में मन प्राण के साथ जाता है। अकेला मन दूसरे शरीर में नहीं जा सकता। लेकिन इस अर्थ में मन की प्रधानता है कि जहाँ चाहे प्राण को ले जाये।


} प्राण का अपना महत्व है। इसलिए सबको प्राणी बोलते हैं। पेड़ प्राणी है लेकिन जीवधारी नहीं है। जीव तब होता है जब मन और इन्द्रियाँ हो। जब मन और इन्द्रियाँ नहीं हैं, तो प्राणी हो। सुषुप्ति में आप प्राणी हो,जीवित भी हो मरे नहीं हो सुख, दुख, ज्ञान आदि कुछ नहीं है। एक तरह से आप पेड़ हो।


} आत्मा के बल पर प्राण भी है, मन भी है,तथा इन्द्रियाँ भी है। यहाँ तक कि पेड़, पहाड़,पृथ्वी, जल, दीवार जिसके सहारे हैं,वह आत्मा है। पर आत्मा के कारण दुख -सुख नहीं हैं। वे मन के कारण है। प्राण के कारण जीवित हैं, आत्मा के कारण नहीं।इसलिए जिसमें प्राण नहीं है वह निर्जव है।

जीव और ब्रह्म में इतना ही भेद है,जितना पृथ्वी में और मिट्टी में।हम पृथ्वी को भी सत्य नहीं मानते।जितना झूठा घड़ा है,उतनी झूठी पृथ्वी; पर घडो़ं का नाश हमने देखा है,पृथ्वी का नाश हमने नहीं देखा।इसलिए पृथ्वी अक्षर लगती है,घड़ा क्षर लगता है।


} मिट्टी में पृथ्वी कल्पित है। एक होता है –घटाकाश और एक है–महाकाश।महाकाश ईश्वर है, घटाकाश जीव है।”महा” और “घटा” क्या होता है। महा माने ईश्वर, मकान; घटा माने जीव,घड़ा। घड़ा तोड़ो,महा कौन है। छोटा कौन है। सिर्फ आकाश है। तो घट उपाधि से महाकाश कल्पित है। यदि जीव झूठा है तो ईश्वर अपने आप झूठा है। ब्रह्म सत्य है,ब्रह्म माने आकाश। दूसरा उदाहरण; आप छोटे भाई हो या बड़े। यदि बड़ा भाई न हो तो तुम कौन से भाई हो। अर्थात इकलौती संतान हो न छोटा न बड़ा।


} पूज्य गुरुदेव समझाते हैं, चेतन एक है,वह न ईश्वर है,न जीव है। घटाकाश,महाकाश से मिल नहीं पाया। जब मिला तो न घटाकाश रहा, न महाकाश। पहले मैं चेला था, वे गुरु थे। जब समझ में आया न मैं चेला न वे गुरु। स्वामी राम कहते हैं कि मैं न बन्दा था,न खुदा था मुझे मालूम न था; दोनो इल्लत, दोनों उपाधि, दोनों ख्याल थे।यह घटाकाश, महाकाश यह हमारे ख्याल हैं।आकाश आकाश है; न छोटा ,न बड़ा। दोनों इल्लत से जुदा था,मुझे मालूम न था।

वजह मालूम

हूई तुझसे न मिलने की सनम
खुद मैं ही परदा बना था मुझे मालूम न था।

तटस्थ

गृहस्थ का लक्षण है, सदा अभाव में जीना।

वह उसका मूल लक्षण है। हमेशा जो उसे चाहिए, वह उसके पास नहीं है। जिस मकान में आप रह रहे हैं, वह आपको चाहिए नहीं। आपको चाहिए कोई बड़ा, जो नहीं है। जिस कार में आप चल रहे हैं, वह आपके लिए नहीं है। आपको कोई और गाड़ी चाहिए, जो नहीं है। जो कपड़े आप पहन रहे हैं, वह आपके योग्य नहीं हैं। आपको कोई और कपड़े चाहिए। जिस पत्नी के साथ आपका विवाह हो गया है, वह आपके योग्य नहीं है। आपको कोई और स्त्री चाहिए।
पूरे वक्त जो नहीं है, वह चाहिए। जो है, वह व्यर्थ मालूम पड़ता है, और जो नहीं है, वह सार्थक मालूम पड़ता है। वह भी मिल जाएगा, उसको भी आप व्यर्थ कर लेंगे, क्योंकि आप कलाकार हैं। ऐसी कोई स्त्री नहीं है, जिसको आप एक न एक दिन तलाक देने को राजी न हों, क्योंकि तलाक स्त्री से नहीं आते, आपकी वृत्ति से आते हैं। जो आपके पास नहीं होता, वह पाने योग्य मालूम पड़ता है; जो आपके पास होता है, वह जाना-माना परिचित है; कुछ पाने योग्य मालूम नहीं होता।
ऐसा पति अगर आप खोज लें, जो अपनी पत्नी को ही प्रेम किए जा रहा है, अनूठा है, साधु है। बड़ा कठिन है अपनी पत्नी को प्रेम करना; बड़ी साधना है। दूसरे की पत्नी के प्रेम में पड़ना एकदम आसान है। जो दूर है, वह आकर्षित करता है। दूर के ढोल ही सुहावने नहीं होते, दूर की सभी चीजें सुहावनी होती हैं।
साधु का लक्षण है, संतोष। गृहस्थ का लक्षण है, अभाव। गृहस्थ उस पर आंख टिकाए रखता है, जो उसके पास नहीं है और जो उसके पास है वह बेकार है। साधु उस पर आंख रखता है, जो है; वही सार्थक है। जो नहीं है, उसका उसे विचार भी नहीं होता। जो है वही सार्थक है, ऐसी प्रतीति का नाम संतोष है। इसलिए जरूरी नहीं है कि आप घर-द्वार छोड़ें तब साधु हो पाएंगे। जो है, अगर आप उससे संतुष्ट हो जाएं, तो साधुता आपके पास–जहां आप हैं वहीं आ जाएगी।
संतुष्ट जो हो जाए, वह साधु है। असाधुता गिर गई। लेकिन जिनको आप साधु कहते हैं, वे भी संतुष्ट नहीं हैं। हो सकता है उनके असंतोष की दिशा बदल गई हो। वे कुछ नई चीजों के लिए असंतुष्ट हो रहे हों, जिनके लिए पहले नहीं होते थे। मगर असंतुष्ट हैं। वहां भी बड़ी प्रतिस्पर्धा है। कौन महात्मा का नाम ज्यादा हुआ जा रहा है, तो बेचैनी शुरू हो जाती है। कौन महात्मा की प्रसिद्धि ज्यादा हुई जा रही है, तो छोटे महात्मा उसकी निंदा में लग जाते हैं। क्योंकि उसे नीचे खींचना, सीमा में रखना जरूरी है।
महात्माओं की बातें सुनें तो बड़ी हैरानी होगी कि वे उसी तरह की चर्चाओं में लगे हुए हैं, जैसे आम आदमी लगा हुआ है। सिर्फ फर्क इतना है कि उनका धंधा जरा अलग है,
इसलिए जब वे एक महात्मा के खिलाफ बोलते हैं तो आपको ऐसा नहीं लगता है कि कुछ गड़बड़ कर रहे हैं। लेकिन जब एक दुकानदार दूसरे दुकानदार के खिलाफ बोलता है तो आप समझते हैं कि कुछ गड़बड़ कर रहा है; नुकसान पहुंचाना चाहता है। उनकी भी आकांक्षाएं हैं। वहां भी चेष्टा बनी हुई है कि और…और…और…। ऐसा भी हो सकता है कि वे परमात्मा को पाने के लिए ही चिंतारत हों और सोच रहे हों, और परमात्मा कैसे मिले, और परमात्मा कैसे मिले? अभी एक समाधि मिल गई है, अब और गहरी समाधि कैसे मिले? लेकिन ध्यान भविष्य पर लगा हुआ है, तो गृहस्थ ही चल रहा है।
संन्यस्त का अर्थ है कि जो है, हम उससे इतने राजी हैं कि अगर अब कुछ भी न हो, तो असंतोष पैदा न होगा।

इसी पर गुरुदेव एक पंक्ति कहते हैं कभी कभी..

हम राज़ी हैं उसमें, जिसमें तेरी रज़ा है।

यहाँ ऐसे भी वाह वाह है, वैसे भी वाह वाह है।।