Posts tagged brahmgyam

मैं क्या हूँ ? मैं कौन हूँ?


भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्धा।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
पंचभूत (भूमि), आप ( जल ), अनल (अग्नि), वायु और खम् (आकाश ) इसमें तीन और हैं ( मन , बुद्धि और अहंकार )। ये आठों (अष्टधा) अपरा अर्थात जड़ प्रकृति हैं । चैतन्य नहीं है। इसमें जो चिदाभास है वह चेतन ( परा ) की चेतन्य प्रकृति है। ये दोनों मिले हुए हैं। संपूर्ण सृष्टि इन दोनों प्रकृतियों से ही चल रही है। जगत को धारण किसने किया है? प्रकृति ने किया है, चैतन्य ने नहीं। चैतन्य को तो लेना – देना ही नहीं है । वह तो साधू है, वह तो ब्रह्म है, वह तो नपुंसक है। यह जो चैतन्य की चिदाभासात्मिका है वह मन से इन्द्रियों से मिल कर चलाती रहती है । परमात्मा इससे भिन्न है। वह इसमें लिप्त है ही नहीं।
सर्व निवासी सदा अलेपा।
वह बिल्कुल अलिप्त है। वह विकारी नहीं है । किसी में मिलता ही नहीं है । चिदाभास, प्रकृति से मिलकर प्रकृति के अनुसार बन गया। साक्षी बना नहीं। चिदाभास, वृत्ति के अनुसार , अंतःकरण के अनुसार होता है। साक्षी तो कभी कुछ होता ही नहीं है।
आदि शंकराचार्य का श्लोक देखिए —
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहम्
पंचभूत और मन, बुद्धि, चित्, अहंकार ये मैं नहीं हूं। ये हैं; पर ये मैं नहीं हूं। इनको मिटाने के चक्कर में मत पड़ना। कई लोग अहंकार से निपटने के चक्कर में पड़े हैं। मर गए अहंकार को मिटाते – मिटाते; पर अहंकार नहीं मिटा । यह तो प्रकृति का है। मैं नहीं हूं। मैं हूं , ये भी हैं ; पर ये मैं नहीं हूं।

जीव को शांति कहां मिलेगी ?

संसार में जो कुछ भी हम प्राप्त करते हैं, वह छूट जाता है। जिन साधनों से प्राप्त करते हैं, वे भी शिथिल हो जाते हैं। देखने में नेत्र असमर्थ हो जाते हैं। सुनने में कान असमर्थ हो जाते हैं। जिस शरीर से हम कुछ पाना चाहते हैं, वह शरीर भी शिथिल हो जाता है। जिस मन से हम कुछ पाया करते हैं, वह मन भी बदल जाता है। क्योंकि, संसार में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके लिए मन कहे कि नहीं छोड़ना। इसीलिए, ऋषियों ने खोजा की जीव को शांति कहां मिलेगी? जो उन्होंने खोजा, अनुभव किया, उसे ग्रंथों में लिखा। पर, हम तब तक उसका लाभ नहीं ले पाते; जब तक कि हमारी समझ में न आए। मोक्ष उस समझ के सिवा और कुछ नही है अगर इसे अनुभव कर लिया तो आप तक्षण मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष में ही विचरते हैं। बस यही समझना है कि हम सच में हैं क्या? ये नाक , कान, दृश्य या रसना और ये सब अगर शरीर से खत्म कर दे तो क्या बचेगा जो सुप्त अवस्था में आपके सपनों का साक्षी होता है। उसे जानिए, सोचिये क्योकि इसके अलावा जानने समझने लायक कुछ है ही नही।

जगत का आधार

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त  किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया…..। माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते  उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है! 
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए…..वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है?