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एक सत्य


प्रकृति के नियम से ही मां बच्चे को दूध पिलाती है ।मां थोड़े ही दूध पिलाती है। मां दूध को रोक तो सकती है। मां नियंत्रण कर सकती है। मां शरम कर सकती हैं। मां अपने सौंदर्य को बचाने के लिए दूध पिलाने से अपने को रोक सकती है; पर दूध मां नहीं पिलाती। दूध तो भीतर से आता है। मां की अकल से नहीं आता है। दूध सुखाने का अपराध मां कर सकती है। पर , दूध पिलाने का श्रेय मां को नहीं है। वह तो प्रकृति की देन है। जो मां अपने बच्चे को दूध नहीं पिलाती; वह प्रकृति की दी हुई भेंट का अनादर करती है ।
ज्ञान भगवान से आता है। उस पर अधिकार तुम कर लेते हो। कहते हो कि यह मेरा ज्ञान है। लेकिन, ईमानदार लोग तो यही कहते हैं कि उन्हें तो जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह तो भगवान का ही ज्ञान है। यही चैतन्य परमात्मा है। बुद्धि और अहंकार कहता है कि “मेरा ज्ञान” है। देहाभिमानी “मेरा चैतन्य” कहते हैं। यह मेरा – तेरा क्या है? चैतन्य तो चैतन्य है; वह एक ही है ।
यही परमात्मा का आवरण रहित रूप है। चैतन्य एक ही तो देवता है; जो सब में समाया हुआ है; लेकिन, देहाभिमानी कहते हैं कि यह “मेरा ज्ञान” है, यह “मेरी” बुद्धि है, यह “मेरा” देह है। यहां “मेरा” और “तेरा” कुछ नहीं है। एक चैतन्य है। एक ही परमात्मा है। वह परमात्मा ही सबके भीतर समाया हुआ है। यही सत्य परमात्मा का नग्न रूप है। यही सत्य “नंगा परमात्मा है”।
इस सत्य को ही जानने की आप चेष्टा कीजिए । इस सत्य को जानकर आप जीवन में महान बन सकते हैं । आप आत्मज्ञानी हो सकते हैं । जीवन रहते तत्वज्ञान उपलब्ध करने का प्रयत्न करें । भगवान की आप पर महान कृपा हो और आपको यह ज्ञान प्राप्त हो ।

निर्ममेति

एक बार दीपक कहने लगा कि “जिस घर में मैं जलता हूं, उस घर में मैं अंधेरे को नहीं आने देता”। हमने कहा भई! ज्यादा न बोलो, जरा संभल के बोलो। ये कहो “जहां मैं रहता हूं, वहां अंधेरा आता ही नहीं है”। वहां अंधेरा रहता नहीं कि तू आने नहीं देता? अंधेरे को तो कोई धक्का दिये रहता है , जो नहीं आने देता । कोई रोके रहता है उसे?
“मेरा है ” कहते ही बंधन..
अभी जब यहां सत्संग चल रहा था, हम लाउडस्पीकरों की आवाज सुन रहे थे। इधर चार स्पीकर लगे हैं, उधर दो लगे हैं। हम खड़े होकर यह पता लगा रहे थे कि कहां की आवाज सुन रहे हैं? एक बालिश्त के फर्क में हम इधर के स्पीकरों की आवाज सुनते थे। और एक बालिश्त के फर्क से खड़े होते ही यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह आवाज होती है। केवल एक बालिश्त की दूरी का यह प्रभाव है। सच तो यह है कि एक बाल बराबर दूरी का भी यही प्रभाव होगा। यदि मशीन से सुना जाए, तो बाल बराबर इधर आते ही यह आवाज़ सुनोगे और बाल बराबर उधर जाते ही वह आवाज़ सुनोगे। एक सीमा रेखा होती है, बस इतना ही फर्क है।
जब भौतिक जगत् में, एक बाल बराबर दूरी से इतना फर्क पड़ सकता है, तो “मेरा नहीं है , भगवान का है” की जमीन पर खड़े होते ही, बस इतना सा ख्याल करते ही, आदमी मुक्त हो जाता है और “मेरा है” यह ख्याल आते ही वह बंध जाता है, फंस जाता है।

“द्वे पदे बंद मोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन् र्तनिर्ममेति विमुच्यते।।”

“निर्ममेति”, “मेरा नहीं है”, कहते ही मुक्त हो जाता है और “मेरा है”, कहते ही बंध जाता है। मैं कहता हूं, यह तो एक सूत्र है। ऋषियों ने ऐसे लाखों सूत्र दिए हैं। एक भी सूत्र पकड़ लो, तो मुक्त हो जाओगे।

मैं चैतन्य हूँ

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं ; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।

सरल वेदांत

यह वेदांत की एक सुंदर प्रक्रिया है; न कोई प्रकाश, न कोई कुंडलिनी, न कोई आनंद , न कोई चमत्कार , न कोई नशा, केवल चेतन। इस ख्याल (चेतन) के अतिरिक्त अन्य कोई बात ही न सोचें। दृष्टा भी नहीं, कर्ता भी नहीं ,पाना भी नहीं। किसके दृष्टा? कौन दृष्टा? किसलिए?—सर्व भावों से रहित, सर्वभावातीत, सर्व विकल्पशून्य, एक चिन्मात्र हो जायें। यदि कोई है तो जिस पर होती है सुषुप्ति, जिस पर होती है जागृति; परंतु स्वयं न जागता है और न सोता है। जिस दिन आप यह जानेंगे कि मैं न कभी जागता हूं, न कभी सोता हूं उस दिन आप ब्रह्म ही होंगे। अभी आप कहते हैं कि हमारे गुरु जी कभी नहीं सोते , भगवान कभी नहीं सोता। ठीक है, कई लोगों के गुरु कभी सोते होंगे या नहीं सोते होंगे। मैं भी यही कहता हूं कि आप भी कभी जागते नहीं, कभी सोते नहीं। जो जागता है, वह भी तुझ चेतन में कल्पित है और जो सोता है, वह भी तुझ चेतन में कल्पित है। जागने वाला सोता है और सोने वाला जागता है। आप न कभी जागते हैं और न कभी सोते हैं परंतु आप जागने वाले को “मैं” कह रहे हैं। आप जागने वाले को ही “मैं”– “मैं”कह करके फिर ठीक होने की कोशिश करते हैं। आप जागने वाले को “मैं” बनाकर कहते हैं कि कभी नींद न आए। गुरुजी ऐसा जगा दीजिए कि फिर न सो जाएं। अब, कैसे जगा दें कि आप कभी सो ना जाएं ?—-बस समझने लायक, सर्वोच्च ध्यान लायक एक ही प्रक्रिया है कि आप सोचें कि कौन है हो कभी नही सोता? कौन है जो आपके सपनों का गवाह है? कौन है जो आपकी सारी इंद्रियों को नष्ट करने पर भी रहेगा? उस चेतन उस स्व स्वरूप को सोचे अनुभव करें।

परमधाम

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।

श्वेत कागज

मैं जीवन को एक कोरे कागज की भांति मानता हूं, जिसमें बहुत कुछ लिखा जा चुका है। किंतु, ऐसा नहीं मानता कि जो लिख दिया गया है, वह मिटाया नहीं जा सकता। यद्यपि, प्रतिदिन कुछ न कुछ लिखा ही जायेगा; किन्तु, मिटाने में कुछ कठिनाई अवश्य होगी। इस तरह अनुभव से गुजरते- गुजरते एक दिन अच्छा लिखने की योग्यता आ जायेगी। एक दिन ऐसा भी आयगा कि प्रतिक्षण लिखते हुए भी कागज कोरा ही बना रह जाएगा। ऐसा होने पर भी लोग पढ़कर लाभ उठा सकेंगे; किन्तु, उसके जीवन में कुछ भी अंकित नहीं रह जाएगा। और जहां अंकित नही रहेगा वही मुक्त विचरेगा। शुद्ध भावना, निश्चल मन, विशाल मन के साथ प्रायः मनुष्य हर दिन कुछ न कुछ नया लिखता है और उसे याद करता, ढोता रहता है। जबकि ब्रह्म समझने के बाद, आत्मा-परमात्मा समझने के बाद, इस नाशी संसार को समझने के बाद याद रखने जैसी कोई चीज ही नही रह जाती। निराकार को कौन याद रखे याद के लिए तो आकार की आवश्यकता है पर यदि हर आकर में जिस दिन तुम मुझ निराकार को ही देखोगे तुम मुक्त मेरे जैसे ही हो जाओगे; कृष्ण का गीता में कहा ये कथन शत प्रतिशत सत्य है…..अस्तु

जीव को शांति कहां मिलेगी ?

संसार में जो कुछ भी हम प्राप्त करते हैं, वह छूट जाता है। जिन साधनों से प्राप्त करते हैं, वे भी शिथिल हो जाते हैं। देखने में नेत्र असमर्थ हो जाते हैं। सुनने में कान असमर्थ हो जाते हैं। जिस शरीर से हम कुछ पाना चाहते हैं, वह शरीर भी शिथिल हो जाता है। जिस मन से हम कुछ पाया करते हैं, वह मन भी बदल जाता है। क्योंकि, संसार में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके लिए मन कहे कि नहीं छोड़ना। इसीलिए, ऋषियों ने खोजा की जीव को शांति कहां मिलेगी? जो उन्होंने खोजा, अनुभव किया, उसे ग्रंथों में लिखा। पर, हम तब तक उसका लाभ नहीं ले पाते; जब तक कि हमारी समझ में न आए। मोक्ष उस समझ के सिवा और कुछ नही है अगर इसे अनुभव कर लिया तो आप तक्षण मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष में ही विचरते हैं। बस यही समझना है कि हम सच में हैं क्या? ये नाक , कान, दृश्य या रसना और ये सब अगर शरीर से खत्म कर दे तो क्या बचेगा जो सुप्त अवस्था में आपके सपनों का साक्षी होता है। उसे जानिए, सोचिये क्योकि इसके अलावा जानने समझने लायक कुछ है ही नही।

छलांग

जो अनेक लोग जंगलों में जाकर प्राप्त करते थे, वह आम गृहस्थ, आम आदमी गुरु कृपा से क्षणों में प्राप्त कर सकता है ।इसमें कठिनाई क्या है?—-बस, आप किसी तल पर जागृत रहना सीख लें। यह प्रयत्न जागृत रहने तक ही करें। फिर जागृत रहें; परंतु जानना न चाहें। जैसे, दृष्टि तो रहे; परंतु देखना न चाहें। कान तो रहें; परंतु सुनना न चाहें। नाक तो रहे परंतु सूंघना न चाहें। मन तो रहे; परंतु कुछ जानना न चाहें, विचारना न चाहें। ऐसा करने से बुद्धि, बाद में इंद्रियां धीरे- धीरे स्वत: ही क्षीण हो जाएगी। अब हमें उनकी जरूरत ही नहीं। जरूरत पर उनके नाम पैदा हो जाते हैं; जरूरत पर ही उनके रूप पैदा हो जाते हैं। जिस समय जानना हुआ उस समय मन खड़ा हो जाता है। परंतु जब आपको लगेगा कि मुझे चेतन वगैरह कुछ नहीं जानना तो अपने आप मन खड़ा नहीं होगा। उस समय के उपरांत आप स्वयं अनुभव करेंगे कि मन गया, इंद्रियां गई, विचार गए।
“न किञ्चिदपि चिन्तयेत्”
अर्थात कुछ भी न सोचें, कुछ भी न चाहें। बिना चाहे, बिना किए “आप” हैं। वहां क्या करना?—
इसीलिए ज्ञानी कहते हैं कि इसके रखने के लिए आप क्या करेंगे?—-आप जो कुछ रखने की कोशिश कर रहे थे, वही बाधाएं थी। बुद्धि रख रहे थे, इंद्रियां रख रहे थे, सुनना रख रहे थे, जानना रख रहे थे, टिकाने में लगे थे कि देखना न खो जाए, सुनना न खो जाए, जानना न खो जाए,अरे! इनको जानें दें। केवल चेतन रहें । अब इसमें क्या है? बस, पड़े रहें, केवल चेतन रहें। कुछ देर बाद पड़े रहने से भी क्या लेना- देना? वह तो जरा सा सहारा है। जैसे, छलांग- बिंदु ( jumping – point ) होता है और पैर उठाकर छलांग लगाते हैं ऐसे ही शरीर तो छलांग के लिए है; छलांग के अलावा इससे भी कोई मतलब नहीं है। मन है एकदम साक्षी, एकदम चेतन। क्या? बस, मन है। मन में खड़े होकर एकदम मन से परे “चेतन” में कूद गए। हो गये चेतन। बस, आप हैं “चेतन” आप हैं “ब्रह्म”। सबमें आप और सबकुछ आपमें यही ब्रह्म है यही भगवान हैं

परमार्थ

पुज्य गुरूदेव ने ज्ञान का अनुभव करने के लिए मन को शान्त, निर्मल, खाली करने के लिए उपाय बताऐ हैं…


पुज्य महाराज श्री बताते हैं कि साधक को इस रहस्य को समझना चाहिए कि सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगता है। जब उससे ऐसा समरण रहने लगेगा कि मुझे जो मिल रहा है वह मेरे ही पूर्वकृत कर्मो का फल है तो वह राग देष से छूट सकता है।कयोकि मनुष्य सुख देने वाले माध्यम से राग औऱ दुख देने वाले माध्यम से द्वेष करने लगता है। वह भूल जाता है कि माध्यम तो केवल माध्यम है, वह न दुखदायी है और न ही सुखदाई।


पुज्य महाराज श्री समझाते हैं कि प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग करना चाहिए। दुःख के समय, दुःखी न होकर, भविष्य में कभी पाप न करने का निश्चय करना चाहिए तथा सुख के समय, सुख में डूबने की अपेक्षा, परमार्थ में अग्रसर होना चाहिए।


यह गूढ रहस्य पुज्य गुरूदेव ने हमें समझाया। हमें इसका अभ्यास प्रतिदिन करना है और अपने आप से पूछना है कि कितना हम सफल हुए। अगर मन शान्त, निर्मल, तथा खाली हो तभी उसमें ज्ञान (वचनों) की अनुभूति होती है।
गीता और उपनिषदों में लिखी बात तार्किक लगती है। जबकि अभी सिर्फ संसार ही सत्य लगता है इससे होने वाले सुख दुख ही सत्य लगते हैं। जिस दिन संसार बनाने वाले के बारे में सोचना शुरू कर दिया कि इस समस्त ब्राह्मण को आप जिस पृथ्वी पर हैं उसको आपको थामे कौन है, कौन है जो पचाता है? कौन है जो बड़ा कर रहा है? कौन है जो नींद में भी आपके सपनों की गवाह है? और जब पता चलेगा ये सब तुम हो, तुम्हारा ही अंश है या तुम उसके अंश हो, फिर सागर बूंद में मिले या बूंद सागर में बात बराबर होगी तुम सागर ही हो जाओगे… इस सत्य को धीरे धीरे समझो, समझ न आये पूछो। इसी बहाने सत्संग होगा रहेगा। संगत वैसी बनेगी और आप उस शाश्वत सत्य की खोज कर पाएंगे अपनी खोज कर पाएंगे ….अस्तु

जीवन का सत्य

क्रिया जनित सुख में “राग” ही विषयानंद की वासना है। क्रिया द्वारा मिले हुए सुख का संस्कार मन पर छूट जाता है; फिर उस विषय की चर्चा से, समघटना के दर्शन से या एकांत चिंतन से, क्रिया जनित सुख का पड़ा हुआ संस्कार जाग जाता है। बस यही है “काम”; जिससे फिर उसी कर्म करने की मन में कामना होती है। यदि कामना की पूर्ति की गई, तो पराधीनता, कामना वृद्धि, शक्ति -ह्रास और असमर्थता है। कामना दमित की गई, तो बार-बार याद आएगी और संस्कार गहरा होगा तथा अन्त: में प्रवेश कर जाएगा। अन्त में, ओझल तक हो जाएगा; किंतु, मिटेगा नहीं और फिर कभी न कभी बाहर आएगा। फिर दमन के लिए उतना ही बल प्रयोग करना पड़ेगा।
दमन से संस्कार की मौत नहीं होती या क्रिया जनित सुख का राग – विषासक्ति नहीं मिटती। अतः क्रिया रहित होकर मन में होने वाले संस्कारों को उठने दिया जाए और साक्षी, असंग, शांत और मौन होकर सहज भाव से देखा जाए। उठने वाले संस्कार का न तो रस लिया जाए और न उससे द्वेष किया जाए; तो संस्कार अपने- आप आना बंद कर देंगे। उस स्मृतिशून्य, अप्रयत्न दशा में, जो आनंद स्वयं में मिलेगा; उससे क्रिया जनित सुख का राग मिट जाएगा; विषयासक्ति नहीं रहेगी; तब आवश्यक कर्म स्वत: होने लगेंगे। स्व में, आनंद से पूर्ण दशा में, सहज होने वाले कर्म का नाम ही सदाचार है। आत्मतृप्ति के बिना सदाचार का जन्म हो ही नहीं सकता। आत्मतृप्ति के अभाव में, विषय सुख के प्रति आकर्षण रहेगा। विषयाकर्षण के रहते, विषय का त्याग सदाचार नहीं है; इसे मिथ्याचार कह सकते हैं।

“कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।”

इस साक्षी साधना और ध्यान से बड़ी कोई ध्यान-साधना नही है।