Posts tagged dharm

मैं हूँ



बस इतना ही समझना है। इस मैं और हूँ के के बीच जो कुछ भी है वो तुम नही हो.. तुम सिर्फ हो! और कहाँ नही हो? किसमें नहीं हो? कण कण में तुम, क्षण क्षण में तुम पर तुम कुछ किसी एक को ओढ़ के पहनके अपने आप को वही समझने लगते हो, सीमित “मैं” में सीमित कर लेते हो और अपनी असीमितता को भूल जाते हो…और जन्मों लगा लेते हो स्व स्वरुप में आने को…

अपना होना अनुभव में आते ही “मैं” भाव जागृत हो जाता है। अहम् ज्ञान के जगते ही लगता है कि मैं आदमी हूं , औरत हूं , भाई हूं , बहन हूं , अमीर हूं , गरीब हूं , ऊंच हूं , नीच हूं , सुखी हूं , दुखी हूं , हिंदू हूं और मुसलमान हूं । “मैं हूं” का ज्ञान होने पर अन्य सर्व भाग खड़े होते हैं । “मैं हूं” सुप्त होते ही अन्य सर्व भाव सो जाते हैं । प्रथम स्वयं का होना भासता है ; इसके बाद संपूर्ण संसार का । “मैं” प्रथमाभाष है और “यह” द्वितीयाभाष है । “मैं” बुद्धि सारूप्य जागता है। अतः जैसे विचार होते हैं , वैसा ही “मैं” अनुभव में आता है । बाद में “मैं” के द्वारा अन्य सबका दर्शन होता है । बाद में शरीर का , बैठने का , उठने का और लिटने का भी अनुभव होता है ।
चेतना जब अंदर होती है या सुप्त होती है ; तो शरीर का पता नहीं रहता । अब देखो कि जो तुम्हें अनुभव में आ रहा है , वह तुम नहीं हो । जो अंदर जग रहा है , अनुभव कर रहा है ; वह तुम हो । जो – जो दिख जाए ,भाष जाए , उसका अंदर ही अंदर निषेध करो । यह “मैं” नहीं , यह भी “मैं” नहीं । फिर और , फिर और , फिर और अंदर देखो । जो अनुभव में आए , उसका भी निषेध करो । यह भी नहीं। घुसते जाओ ; घुसते जाओ ; देखते जाओ और निषेध करते जाओ । अंत में , जब सिवाय आपके कोई न बचे, कुछ न बचे , कोई विचार न बचे ; उस निर्विचार में जो बचे , वही तुम हो ।( अविचारा द्विभाषते ) क्योंकि , विचार भी पैदा हुए हैं । वह तुम नहीं हो। विचाराभाव में जो बचता है “सोऽहम्” , बस “सोऽहम” , बस “सोऽहम” , केवल “सोऽहम्” , बस केवल “सोऽहम” । अब “सो” भी नहीं, “हम्” , “हम् “, “हम्” केवल “हम्”। “हम्” भी नहीं , “हूं” , “हूं” , “हूं” बस “हूं” । फिर धीरे – धीरे हूं भी कम , कम और कम । यदि “हूं” भी गायब हो जाए , तो गायब हो जाने दो । रह जाए केवल अस्तित्व , अस्तित्व , सत्, चित् और आनंद । कल्पना नहीं , अस्तित्व । कल्पना नहीं , निर्विकल्प – निर्विकल्प । विचार नहीं , निर्विचार । शांत , मौन रह जाए केवल “है” । खो जाए सब ।
खो गया मन , खो गई बुद्धि, खो गया सब । बच गया कुछ ; बस वही तुम हो ; बस वही तुम हो इसके बाद वही तुम नहीं । सभी तुम हो ; सभी तुम हो ; सभी तुम हो । इस दशा में ठहरो, रुको और जागो । सोचो नहीं मन से ।देखो ! कहीं कोई नहीं है । दिल से बोलो , कोई नहीं है । प्राणों से बोलो , कोई नहीं है । केवल हूं , हूं , हूं । हाथ भी हूं , पैर भी हूं , श्वांस भी हूं , आंख भी हूं , विचार भी हूं । बस “मैं हूं” , “मैं हूं” , “मैं हूं” । बस देखोगे , खो गया सब । जो होना था , हो गया । मैं वही हूं । उसी दशा में मिलूंगा , उसी शून्य में , उसी अकेले में ।
मुझसे मिलना है , तो शुन्य हो जाओ ; मौन में डूबो । मैं वहां ही तुमको सब कुछ दूंगा । जो पूछते हो , उत्तर दूंगा ; प्रेरणा दूंगा ; शक्ति और शांति सब कुछ दे सकूंगा । किंतु , वहां , जहां बस तुम अकेले हो; न हो और कोई ; न हो और किसी का ख्याल । केवल मात्र तुम ; बस तुम ; बस तुम । यही है मेरी उपस्थिति का द्वार । मुझे भी भूल जाओ । बस वहां जो कुछ मिले , वही “मैं” हूं । बस वहीं यह रहस्य खुलेगा कि हम तुम कितने एक हैं । जहां एकता भी नहीं । बिछुड़ने का भी सवाल नहीं । बस एक मात्र “है” है । बस यहीं रुको ; इसी सत्य में जियो ; आनंदित होओ । सब दिखता रहे ; सुनाई देता रहे , फिर भी शांति , फिर भी आनंद । लिखते रहो; पढ़ते रहो ; फिर भी आनंद और जागरण तथा स्थिर चेतना ।


“सा काष्ठा सा परागति:”।।

परमार्थ

पुज्य गुरूदेव ने ज्ञान का अनुभव करने के लिए मन को शान्त, निर्मल, खाली करने के लिए उपाय बताऐ हैं…


पुज्य महाराज श्री बताते हैं कि साधक को इस रहस्य को समझना चाहिए कि सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगता है। जब उससे ऐसा समरण रहने लगेगा कि मुझे जो मिल रहा है वह मेरे ही पूर्वकृत कर्मो का फल है तो वह राग देष से छूट सकता है।कयोकि मनुष्य सुख देने वाले माध्यम से राग औऱ दुख देने वाले माध्यम से द्वेष करने लगता है। वह भूल जाता है कि माध्यम तो केवल माध्यम है, वह न दुखदायी है और न ही सुखदाई।


पुज्य महाराज श्री समझाते हैं कि प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग करना चाहिए। दुःख के समय, दुःखी न होकर, भविष्य में कभी पाप न करने का निश्चय करना चाहिए तथा सुख के समय, सुख में डूबने की अपेक्षा, परमार्थ में अग्रसर होना चाहिए।


यह गूढ रहस्य पुज्य गुरूदेव ने हमें समझाया। हमें इसका अभ्यास प्रतिदिन करना है और अपने आप से पूछना है कि कितना हम सफल हुए। अगर मन शान्त, निर्मल, तथा खाली हो तभी उसमें ज्ञान (वचनों) की अनुभूति होती है।
गीता और उपनिषदों में लिखी बात तार्किक लगती है। जबकि अभी सिर्फ संसार ही सत्य लगता है इससे होने वाले सुख दुख ही सत्य लगते हैं। जिस दिन संसार बनाने वाले के बारे में सोचना शुरू कर दिया कि इस समस्त ब्राह्मण को आप जिस पृथ्वी पर हैं उसको आपको थामे कौन है, कौन है जो पचाता है? कौन है जो बड़ा कर रहा है? कौन है जो नींद में भी आपके सपनों की गवाह है? और जब पता चलेगा ये सब तुम हो, तुम्हारा ही अंश है या तुम उसके अंश हो, फिर सागर बूंद में मिले या बूंद सागर में बात बराबर होगी तुम सागर ही हो जाओगे… इस सत्य को धीरे धीरे समझो, समझ न आये पूछो। इसी बहाने सत्संग होगा रहेगा। संगत वैसी बनेगी और आप उस शाश्वत सत्य की खोज कर पाएंगे अपनी खोज कर पाएंगे ….अस्तु

गुरु, शास्त्र क्यों?


गुरु तुमने किस लिए बनाया था? शास्त्र किसलिए सुने/पढ़े थे? सत्संग किस लिए करते हो? पूजा आदि किस लिए शुरू की थी? ध्यान का प्रारंभ क्यों किया था – क्या बात थी – क्या मजबूरी थी? कोई न कोई तो गड़बड़ी होगी ही, जिसके दूर करने के लिए किया होगा। गड़बड़ी दूर हो गई कि नहीं? यदि दूर हो गई हो, तो उसे भी छोड़ दो। कांटे से कांटा निकाल कर कांटा फेंक दिया जाता है। यह मैं अपनी तरफ से नहीं कहता हूं; ऐसा ही किया जाता है। यह तथ्य है।
शायद किसी को काट प्रतीत होता हो। कांटे से कांटा निकालकर कांटा फेंक दिया जाता है। लेकिन, निकालने के पहले ही फेंक दें तो? जब फेंकना ही है, तो पहले ही फेंक दें। आगे या पीछे में क्या फर्क पड़ता है। कुछ फर्क पड़ता है कि नहीं? यदि कांटे में पड़ता है, तो ध्यान और समाधि छोड़ने में भी पहले और पीछे में फर्क पड़ता है। पहले फेंक देने से परेशानी नहीं जाएगी और परेशानी जाने के बाद फेंक देने से कोई परेशानी नहीं आएगी। इसीलिए, काम करने का जो प्रयोजन है, वह पूरा हो जाना चाहिए।
शास्त्र का भी अपना कोई प्रयोजन है कि बुद्धि को सूक्ष्म कर दे। जो बुद्धि बहिर्मुख है, उसे अंतर्मुख होने को तैयार कर दे। जो भगवान् हमने बाहर समझा है शास्त्र उन्हें तुम्हारे अंदर ही बता दे। शास्त्र तुम्हें भगवान् को पकड़कर नहीं देगा? उसका एक ही प्रयोजन है। जब उसने बता दिया कि भगवान तुम्हार अन्दर है, तो अपने अंदर शांत होकर ध्यान शुरू करो। सुनने के बाद ध्यान और समाधि शुरू करो। सुनने के पहले नहीं। पहले शास्त्र द्वारा परमात्मा को समझो, पढ़ो और विचारों की क्या चीज है, कहां है, कैसा है? जब पढ़ लोगे, तब पता चलेगा कि परमात्मा सर्वत्र है। हममें भी परमात्मा है, यह भी नहीं; बल्कि हम परमात्मा हैं। जब यह जान लिया, तो फिर बाहर की तलाश बंद। जब आप ध्यान के योग्य हो गए, अब आप समाधि के योग्य हो गए। जब परमात्मा हममें ही है, तो क्यों भटके? क्यों कहीं जाएं? केवल शांत होकर बैठ जाएं।

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

कर्म-धर्म

हमने इधर जाने का कभी प्रयास नहीं किया। वे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो अंतरात्मा में जाने का प्रयास करेंगे। इन दो बातों पर हमें बराबर विचार करना है कि गृहस्थों के लिए भी कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। उस कर्म का भले ही हो, जिसकी लोग कल्पना करते हैं। पर मुझे लगता है कि वैसे कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। यदि कर्म का विरोध होगा, तो रोटी का भी होगा; रोटी का होगा, तो शरीर का भी होगा। लेकिन , शरीर विरोधी नहीं है, बल्कि साधन है। जब शरीर मोक्ष पाने का साधन है, तो फिर भोजन भी साधन ही है। अगर भोजन साधन है, तो फिर रुपया भी साधन है। रुपया साधन है , तो फिर कामना भी साधन है। जब कामना भी साधन है, तो फिर कर्म कैसे मोक्ष का असाधन होगा? कर्म मोक्ष में सहयोगी है; मोक्ष का बाधक नहीं है।
जो लोग कर्म से दूर भागना चाहते हैं, उन लोगों को मोक्ष तो क्या, रोटी भी नहीं मिलेगी। तुम लोग अगर दुकान बंद कर दो, तो मोक्ष तो दूर रहा, रोटी भी मिलनी मुश्किल हो जाएगी और अगर मिलती भी है, तो किसी कर्म के बल पर ही मिलेगी। मान लो एक सन्यासी बिना कुछ किए खाता है। मैंने सुना है कि कई लोगों के मत में हल जोतने में कीड़े मर जाते हैं– हिंसा होती है। इसलिए हिंसा वाला काम नहीं करना चाहिए । अगर हल न जोतें, तो हम भी मर जाएंगे और उपदेशक भी मर जाएंगे। फिर न हम रहेंगे, न हमारा धर्म और न हिंसा ही रह जाएगी। सारा ही खेल खत्म हो जाएगा। इसीलिए, इस हिंसा के बल पर तो बहुत कुछ खड़ा हुआ है। हल जोतने में हिंसा होती है, इसको हम हिंसा में नहीं ले सकते।
यह तो शरीर का और प्रकृति का नियम है, इसको हम इंकार नहीं कर सकते। यदि शरीर है, तो हम रोटी को इंकार नहीं कर सकते। यह बात दूसरी है कि एक भाई हल जोतता है तो दूसरा दुकान करता है। बहुत सारे भाई हल जोतते हैं और दुकान भी करते हैं। एक भाई अगर सन्यासी हो जाए और संसार को ज्ञान दे, वह अलग बात है। लेकिन, अगर सारे भाई सन्यासी हो जाएं, हल जोतना छोड़ दे, तो सन्यासी भी मर जाएंगे और गृहस्थ भी मर जाएंगे। इसीलिए, सन्यास का मतलब यह है कि ऐसा व्यक्ति सन्यासी हो, जो तमाम संसार को संन्यासी बनाने का तरीका बताएं। गृहस्थ को संन्यासी बनाए, उसे संन्यासी की तरह जीना सिखाये। क्योंकि जो गृहस्थ होकर भी उसमें फंसता नहीं सिर्फ अपना कर्म करता है वो सन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि शरीर है, जीवन है तोह कर्म तो करना ही होगा, उदाहरण: जैसे पेट है तो खाना तो होगा। खाना सामने है तो हाथ से उठा के मुँह में भी डालना होगा। बिना कर्म किये बिना रह नही सकते, शरीर नही रख सकते और शरीर है तो इसे रखना भी होगा जब तक है स्वस्थ रखना होगा यही धर्म है।
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं ——
“काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं,कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:।।”

क्या सही पूजा करते हो?

मन में राग और द्वेष का त्याग करो। सुनते रहो, देखते रहो, देखना मना नहीं है, सुनना मना नहीं है। जो कुछ होता है होने दो पर होने वाली क्रियाओं के प्रति, विषयों के प्रति, राग और द्वेष का त्याग करो l अच्छा बुरा यह सोचना बंद करो। फिर बताएं…….. छोटा बच्चा जब किसी को देखता है तो अच्छा बुरा नहीं देखता बस देखता है। हम जब भी देखते हैं या तो अच्छा देखते हैं या बुरा देखते हैं, अच्छा सुनते हैं या बुरा सुनते हैं, यजुर्वेद  में एक प्रार्थना की गई है – यदि देखना सुनना ही है तो क्या करें? “भद्रं कर्णेभि: श्रूणुयाम् देवा”  हम कल्याण वाली बातें कानों से सुने, आंखों से कल्याण जिनके दर्शनों से होता है उनके दर्शन करें। इसलिए रामायण में कह दिया “संत दरस जिमि पातक टरही” संत के दर्शन से पातक टल जाते हैं l अर्थात “हम दिव्य लोगों का दर्शन करें, इससे हमारे मन की बुरी वृत्तियां खत्म होगी।” आंखों से अच्छा देखे, कानों से अच्छा सुने और हम हाथों से कौन सा काम करें? यज्ञ करें! निष्काम भावना से, पवित्र भावना से यज्ञ करें! जब यज्ञ करते हैं तब स्वाहा कहके आहुति डालते हैं  ऐसे ही हम अपने हाथों से यज्ञ करें, पूजा करें। भगवान ने गीता में एक बात और कही – “स्वकर्मणा तो व्यर्थ सिद्धिं विंदंति मानवः”  अपनी इंद्रियों के द्वारा शुभ कर्म करवाना। अपने कर्म से हम भगवान की पूजा करें माने हम जो भी करें वह भगवान की पूजा बन जाए। मंदिर में जाकर जो करते हैं वही पूजा नहीं सुबह से शाम तक हर कर्म को भगवान के लिए करें। “शुभ कर्मणा समाव्यया” अपने कर्मों से उसकी पूजा करें। हमारा उठना, हमारा बोलना, हमारा करना, हमारा सोचना जैसे सब भगवान के लिए हो! जैसे कोई मंदिर के लिए फूल लेने गया तो फूल लेना पूजा के अंतर्गत है। यद्यपि जा कहां रहा है? बगीचे में। पर फुल किसलिए? पूजा के लिए जा रहा है। तो मार्ग में जाना भी पूजा हो गई। भगवान राम फुल लेने गए “लेन प्रसून गए दो भाई” फुल लेने के लिए बगीचे में गए। किसके लिए? भगवान के लिए! गुरुदेव की पूजा के लिए! तो अभिप्राय है और तो हम सोचते नहीं। शादी हो गई, शादी भी भगवान के लिए करो। आप शादी करोगे, पुत्र पैदा होगा तो वह भगवान की सृष्टि को चलाने के लिए होगा, राष्ट्र के काम के लिए होगा। इसलिए हम शादी क्यों करते हैं की राष्ट्र की सेवा करें। शादी भी यज्ञ हो जाए!  बल्कि गीता में तो यह कह दिया कि जो खाओ वह भी पूजा बन जाए! भोजन को अंदर की अग्नि में आहूत करना यज्ञ है। क्या होगा? उससे रस रक्त बनेगा। इससे शरीर चलेगा और शरीर क्या करेगा? भगवान की भक्ति करेगा! तो हमारा जीवन ईश्वर की आराधना हो जाए! मंदिर जाना भी आवश्यक है, यह प्रतीक है। भगवान की पूजा करना यह भी। पर धीरे-धीरे पूरा जीवन ही भगवान की पूजा में लगा दे। कथा सुने। क्यों? क्योंकी कथा सुनने से ऐसी दृष्टि मिलेगी की पूरा जीवन ही पूजा बन जाएगा।  इसलिए खाना पूजा, खिलौना पूजा, शादी पूजा, बच्चों का पढ़ना पढ़ाना पूजा! “यदि पूजा करना  सीखना है तो सत्संग करो” तभी तो आएगा। ‘अपने कर्मों से भगवान की पूजा करो!” आपको लगता होगा कि भगवान के मंदिर गए तो ही पूजा होती है पर यहां यह भाव नहीं है।

Geeta Press Gorakhpur

Geeta Press Gorakhpur This name and the people associated with it have fond memories of childhood. My maternal grandfather had a lot of books from Geeta Press and Kalyan used to have a thick book every month. Not only for me, perhaps for every Hindustani, this book and the Krishna and Arjuna treadmark made on it will have their own significance, their own story. I like this name and trademark to be a valuable heritage of our country. With such beautiful covers, pictures and bindings at such low prices, that too, the work of our Vedas, Upanishads, Shastras, our heritage and our injured culture which has been recognized by the people through its publication is incomparable. I, who have faith in this literature, and believe it to be my life, want that this should reach the people, therefore I am writing this short article and some information about Geeta Press here.

Gita Press’ – This name in itself is its complete introduction. This institution is the very image of the divine resolve which worked as the motivating force for its establishment. Gita Press was established in 1923 A.D. in order to serve humanity for truth, love and peace. It is a unit of the Gobind Bhawan Karyalaya, Kolkata, registered under the Societies Registration Act, 1860, (presently governed by the West Bengal Societies Act, 1960). Since 1923 it has been propagating and promoting morality and spirituality through its literature throughout the world.
The founder of this institution was revered Shri Jayadayalji Goyandka (Sethji), a God-realized soul. He resorted to the Gita and started publishing moral and spiritual books in order to promote and propagate virtuous and righteous ideas and feelings on a wide scale.
Towards the fulfilment of object of the Gita Press, the blessed soul Late Shri Hanuman Prasadji Poddar (Bhaiji), the first editor of the spiritual monthly ‘Kalyan’ extended his whole hearted contribution to this holy enterprise. His lively message given through the ‘Kalyan’ is indeed unforgettable.
The main objective of the Gita Press is to publish the spiritual, moral and character-building books and magazines at subsidised prices, lower than their actual cost.
Out of 1744 current publications of the Gita Press, 826 are in Sanskrit and Hindi. The rest of the publications are in English and other Indian languages mainly Gujarati, Marathi, Tamil, Telugu, Kannad, Oriya and Bengali. The Press also brings out two monthly magazines – ‘Kalyan’ in Hindi and ‘Kalyana-Kalpataru’ in English. ‘Kalyan’ has a subscribership of 2.14 lakh. Through these magazines devotion, knowledge, righteousness, dispassion, good conduct. morality. spirituality, virtuous feelings and other divine traits are inculcated in people. Every year the first issue of these magazines is the main and special issue and the remaining eleven are monthly issues.
The publications of the Gita Press are available at its 19 branches, 42 station-stalls and with thousands of booksellers. New publications are advertised in ‘Kalyan’ and ‘Yuga-Kalyan’ etc. from time to time. These publications are also displayed and sold in book-fairs, book-exhibitions, and religious fairs etc.
This institution neither solicits any form of donation nor accepts commercial advertisements in its magazines.
During year 2012-13 books worth Rs. 47.30 crores were sold and the paper weighing 56.4 lakh kilogrammes was utilized for their publication. Sales during 2013-14 exceeded Rs. 50 crores.
Till March 2014, Gita Press had published 5825 lakh copies of books including 1142 lakh copies of Gita in Indian languages.
For the visitors to the Gita Press, its main entrance is a prime attraction. It represents temple architecture styles from around the country and has as its main mascot, the chariot of Lord Krishna and Arjuna at the time of the Gita-sermon.
In the Lila-Chitra-Mandira (Art Gallery), hand paintings have been exhibited. These include paintings and pictures of different Gods and Goddesses and are based on the sports played by Lord Ram and Krishna and some other incarnations. This Chitra-Mandira contains entire Gita engraved on the marble slabs on all the four inner walls.