बस इतना ही समझना है। इस मैं और हूँ के के बीच जो कुछ भी है वो तुम नही हो.. तुम सिर्फ हो! और कहाँ नही हो? किसमें नहीं हो? कण कण में तुम, क्षण क्षण में तुम पर तुम कुछ किसी एक को ओढ़ के पहनके अपने आप को वही समझने लगते हो, सीमित “मैं” में सीमित कर लेते हो और अपनी असीमितता को भूल जाते हो…और जन्मों लगा लेते हो स्व स्वरुप में आने को…
अपना होना अनुभव में आते ही “मैं” भाव जागृत हो जाता है। अहम् ज्ञान के जगते ही लगता है कि मैं आदमी हूं , औरत हूं , भाई हूं , बहन हूं , अमीर हूं , गरीब हूं , ऊंच हूं , नीच हूं , सुखी हूं , दुखी हूं , हिंदू हूं और मुसलमान हूं । “मैं हूं” का ज्ञान होने पर अन्य सर्व भाग खड़े होते हैं । “मैं हूं” सुप्त होते ही अन्य सर्व भाव सो जाते हैं । प्रथम स्वयं का होना भासता है ; इसके बाद संपूर्ण संसार का । “मैं” प्रथमाभाष है और “यह” द्वितीयाभाष है । “मैं” बुद्धि सारूप्य जागता है। अतः जैसे विचार होते हैं , वैसा ही “मैं” अनुभव में आता है । बाद में “मैं” के द्वारा अन्य सबका दर्शन होता है । बाद में शरीर का , बैठने का , उठने का और लिटने का भी अनुभव होता है ।
चेतना जब अंदर होती है या सुप्त होती है ; तो शरीर का पता नहीं रहता । अब देखो कि जो तुम्हें अनुभव में आ रहा है , वह तुम नहीं हो । जो अंदर जग रहा है , अनुभव कर रहा है ; वह तुम हो । जो – जो दिख जाए ,भाष जाए , उसका अंदर ही अंदर निषेध करो । यह “मैं” नहीं , यह भी “मैं” नहीं । फिर और , फिर और , फिर और अंदर देखो । जो अनुभव में आए , उसका भी निषेध करो । यह भी नहीं। घुसते जाओ ; घुसते जाओ ; देखते जाओ और निषेध करते जाओ । अंत में , जब सिवाय आपके कोई न बचे, कुछ न बचे , कोई विचार न बचे ; उस निर्विचार में जो बचे , वही तुम हो ।( अविचारा द्विभाषते ) क्योंकि , विचार भी पैदा हुए हैं । वह तुम नहीं हो। विचाराभाव में जो बचता है “सोऽहम्” , बस “सोऽहम” , बस “सोऽहम” , केवल “सोऽहम्” , बस केवल “सोऽहम” । अब “सो” भी नहीं, “हम्” , “हम् “, “हम्” केवल “हम्”। “हम्” भी नहीं , “हूं” , “हूं” , “हूं” बस “हूं” । फिर धीरे – धीरे हूं भी कम , कम और कम । यदि “हूं” भी गायब हो जाए , तो गायब हो जाने दो । रह जाए केवल अस्तित्व , अस्तित्व , सत्, चित् और आनंद । कल्पना नहीं , अस्तित्व । कल्पना नहीं , निर्विकल्प – निर्विकल्प । विचार नहीं , निर्विचार । शांत , मौन रह जाए केवल “है” । खो जाए सब ।
खो गया मन , खो गई बुद्धि, खो गया सब । बच गया कुछ ; बस वही तुम हो ; बस वही तुम हो इसके बाद वही तुम नहीं । सभी तुम हो ; सभी तुम हो ; सभी तुम हो । इस दशा में ठहरो, रुको और जागो । सोचो नहीं मन से ।देखो ! कहीं कोई नहीं है । दिल से बोलो , कोई नहीं है । प्राणों से बोलो , कोई नहीं है । केवल हूं , हूं , हूं । हाथ भी हूं , पैर भी हूं , श्वांस भी हूं , आंख भी हूं , विचार भी हूं । बस “मैं हूं” , “मैं हूं” , “मैं हूं” । बस देखोगे , खो गया सब । जो होना था , हो गया । मैं वही हूं । उसी दशा में मिलूंगा , उसी शून्य में , उसी अकेले में ।
मुझसे मिलना है , तो शुन्य हो जाओ ; मौन में डूबो । मैं वहां ही तुमको सब कुछ दूंगा । जो पूछते हो , उत्तर दूंगा ; प्रेरणा दूंगा ; शक्ति और शांति सब कुछ दे सकूंगा । किंतु , वहां , जहां बस तुम अकेले हो; न हो और कोई ; न हो और किसी का ख्याल । केवल मात्र तुम ; बस तुम ; बस तुम । यही है मेरी उपस्थिति का द्वार । मुझे भी भूल जाओ । बस वहां जो कुछ मिले , वही “मैं” हूं । बस वहीं यह रहस्य खुलेगा कि हम तुम कितने एक हैं । जहां एकता भी नहीं । बिछुड़ने का भी सवाल नहीं । बस एक मात्र “है” है । बस यहीं रुको ; इसी सत्य में जियो ; आनंदित होओ । सब दिखता रहे ; सुनाई देता रहे , फिर भी शांति , फिर भी आनंद । लिखते रहो; पढ़ते रहो ; फिर भी आनंद और जागरण तथा स्थिर चेतना ।
“सा काष्ठा सा परागति:”।।