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गुणातीत

“यह गुन साधन तें नहिं होई

हम तुमको कहें कि अपने स्वरूप की याद करो। तुम से बनेगा ही नहीं। अपने स्वरूप को, निर्विकारिता को आप क्यों नहीं याद कर पाते? मैं निर्विकार हूँ,चेतन हूँ, अजन्मा हूँ, अविनाशी हूँ याद कर पाओगे? बनेगा ही नहीं। क्योंकि एक दिन भी अनुभव हुआ ही नहीं तो कैसे कर लोगे अपने स्वरूप की याद? देह हूँ; यह अनुभव हुआ है। दुःखी- सुखी अनुभव हुआ है। मैं चैतन्य हूँ, निर्विकार हूँ; यह अनुभव हुआ ही नहीं।

इसलिए ध्यान करके सुमिरन करके थोड़ा सा चित्त को एकाग्र करो तो कुछ अनुभव आएगा। उस समय लगेगा कि आनंद है, उस समय कोई चिंता नहीं, कोई दुःख नहीं लेकिन फिर धीरे-धीरे चिंता आ गई, फिर चित्त एकाग्र हुआ, चिंता हट गई, फिट भ्रांति आयी और हट गयी।

जो निश्चिन्त हुआ था वह जीव है। जीव ध्यान करते- करते निश्चिंतता में चला गया, फिर चिंता में आ गया। आता-जाता है, परिवर्तन है पर इसके पीछे भी एक छिपा है जो सदा अलेप है। सर्व निवासी सदा अलेप, उसको प्राप्त करना है।

से कैसे प्राप्त करें? साधना करके? यह गुन साधन तें नहिं होई। इसलिए साधन करे न कोई। यद्यपि यह बात बहुत ऊंची स्थित वाले के लिए कही गई है। यदि तुम साधन नहीं करोगे तो नदी में तिनके की तरह बहते चले जाओगे। टिक ही नहीं सकते। इसलिए कहते हैं कि यह गुन साधन तें नहिं होई और साधन के बिन कुछ नहीं होई। साधना के बिना कुछ नहीं होगा। लेकिन साधना से कर्मजन्य वृत्तिरूप होगा। इसलिए साधना से जो प्राप्त होता है वह अनित्य होता है। साधना तो एक अवस्था तक ले जाएगी जैसे, प्रैक्टिस से सतोगुणी बन जाओ; पर गुणातीत कैसे बनोगे? तमोगुणी रजोगुणी हो सकता है। रजोगुणी सतोगुणी हो सकता है। गुणातीत होने के लिए क्या करोगे? इसलिए जब तक गुरु के वाक्य क्लियर ना हो तब तक गुणातीत नहीं हो सकोगे।