Posts tagged guruvani

कितने जागरूक?


कोई यह कह सकता है कि अध्यात्मवाद व्यर्थ है। मैं तो नहीं कह सकता कि अध्यात्म मार्ग गलत है। हो सकता है कि उसके शोधन में कोई दोष हो,उसके सेवन में कोई दोष हो। इसलिए, हमारा एक ही निवेदन है कि आप अपने जीवन की उस अभिलाषा की ओर भी जागरूक हो जावे कि आपको क्या चाहिए? उसके लिए आप कितने जागरूक हैं? सच्चाई से शोधन करें कि कितना समाज रोटी और कपड़े के लिए जागरुक है? जितना मनुष्य बिल्डिंग के लिए जागरुक है क्या उतना कल्याण के लिए भी जागरुक है? क्या समाज सतर्क और सावधान है? लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि रोटी, कपड़ा और मकान की ओर न जागें।
शरीर और आत्मा दोनों ही की ओर जागें। बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनकी रोटी की भी समस्या है, जिनकी कपड़े और मकान की भी समस्या है। हमारे देश की नौका दोनों तरफ ही डगमगा गई है। हम लोग धर्म की तरफ भी चूक गए हैं और भौतिकवाद की तरफ भी चूक गए हैं। आज हमको ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, जो संसार के विषय में भी सोचें और मोक्ष के विषय में भी सोचें। ऐसे मानव का जन्म होना चाहिए, जो दोनों पहलुओं पर विचार करें। हम बहुत दिनों तक एकांगी रहे हैं ।

जिस तरह शरीर की पूर्ति आवश्यक है उसी तरह मन या आत्मा की पर समस्या यही है कि जो दिखता नही उसे आप मानते नहीं, पर कब तक क्योंकि एक न दिन तो मानना ही पड़ेगा सोचना ही पड़ेगा फलों में स्वाद कहाँ से आया, तुम्हारा भोजन किसने पचाया, कौन है जो तुम्हारी नींद में तुम्हारे सपनों को देखता है…इसको जानना अत्यंत आवश्यक है आज नही तो कल इस जन्म नही तो अगले यह ही जानना होगा तभी इस प्रपंच से पार होंगे

श्रवण, मनन, निदिध्यासन

वृक्ष को जन्म देने के लिए, बीज को शांत होकर जमीन में बैठ जाना होगा। जब हमने शास्त्रों द्वारा सुन लिया, गुरुजनों से सुन लिया कि “मैं आत्मा हूं” या ” मैं ही ब्रह्म हूं “तो अब पाने की अभिलाषा खत्म। अभी मिला नहीं है, अनुभव में नहीं आया है, तो भी शास्त्र – बल से तुम्हारी बुद्धि, जो बहिर्मुखी थी, वह शांत हो गई। गुरु – वचनों से तुम्हें लगा कि तुम जो मर जाने वाले थे, नहीं मरते। लेकिन, अभी पूर्ण शांति नहीं आई। अभी चित्त थोड़ा सा शांत हुआ है। जब हम ही हैं, तो कहां जाएं। क्योंकि, वह हम में है, तभी बुद्धि शांत होने शुरू हुई। जब बुद्धि शांत हुई, तो अंदर का जो साक्षी है, अंदर जो चैतन्य है, अंदर जो आत्मा है, वह आंखों में आना शुरू हो जाएगा। यह हुआ ध्यान।
पहले हुआ श्रवण; फिर श्रवण किए हुए पर विचार किया। जब मन को सच्चा लगने लगा, तो बुद्धि अपने – आप वैसी ही होनी शुरू हो जाती है। यह बुद्धि का नियम है। यदि तुम्हारे मन में आवे कि वहां मूत्र होने के लायक जगह है, तो वहीं मूत्र के लिए जाओगे। छोटी सी क्रिया के प्रति हम जो फैसला करते हैं, वैसी ही क्रिया होने लग जाती है। जब तुम्हारे चित्त में यह फैसला हो जाए की अंदर की आत्मा अविनाशी है और वह अंदर ही है; तो आनंद की जो तलाश बाहर थी, वह रुकेगी और अंदर बैठना शुरू होगा।
इस बैठने को ही हम उपासना कहते हैं। सुनने को कर्म कहते हैं। पा जाने को (अनुभव में आ जाने को ) ज्ञान कहते हैं। यह जो सुनते हो उसे श्रवण कहते हैं। यदि तुमको सुनने में अच्छा लगे और वैसा ही तुम्हारा मन अंदर से शांत होने लगे, तो उसे “मनन” कहते हैं। तुमको यदि जंच गया और मन शांत होकर अंदर आनंद की अनुभूति होने लगी, तो उसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। अंदर साक्षात्कार न हुआ हो; परंतु, अनुभव में आने की तैयारी होने लग जाए, सच्चा लगने लग जाए; तो इसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। यदि पूर्ण साक्षात्कार हो जाए, तो श्रवण, मनन और निदिध्यासन व्यर्थ है।
ध्यान शब्द का अर्थ है “निदिध्यासन”। निदिध्यासन को कई जगह ध्यान भी कहा गया है। ध्यान का अर्थ है कि सुने हुए का अनुभव करने के लिए चित्त तद्रूप होकर शांत होता जाए। वृत्ति निश्चल होती जाए, यह ध्यान है। उस ध्यान के निश्चलता में यदि बुद्धि की वृत्ति बिल्कुल शांत होकर उस आनंद में निमग्न हो जाए, अंतर्साक्षी का अनुभव होने लग जाए, तो उसे हम साक्षात्कार कहते हैं। इसी को समाधि कहते हैं।

मौत किसकी, मृत्यु क्या?


“प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशय:।”
यदि प्रपंञ्च होता, तो निवृत्त भी होता; इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन, जब प्रपंच है ही नहीं, तो उसकी निवृत्ति कैसे हो? कैसे की जाए?
भ्रान्त्या प्रतीत: संसार
यह संसार भ्रान्ति से प्रतीत होता है, इसीलिए —
“विवेकान्निवर्तेत न तु कर्मभि:”
निवृत्त भी विवेक से ही हो सकता है, कर्म से निवृत्त नहीं हो सकता है। जो अज्ञान से प्रतीत होता हो, वह ज्ञान से ही समझ में आ जाएगा। इसीलिए, विवेक से ही अज्ञान की निवृत्ति हो सकती है; कर्म से नहीं। कारण यह है कि—
“रज्वारोपित: सर्प: घंटा घोषान्न निवर्तते:”
यदि रस्सी में कोई सांप हो और कोई शंख घड़ियाल बजावे कि वह भाग जाए; शोर मचाए कि वह रस्सी का सांप भाग जाए; तो क्या वह भाग जाएगा? पर, वह कर्म से नहीं भागेगा; जब भगेगा तब प्रकाश से भगेगा। प्रकाश से क्यों जाएगा? क्योंकि, वह अप्रकाश के कारण से है। यदि सचमुच का सर्प होता; तो लाठी से जाता; शंख बजाने से ज्यादा। यदि, बंधन होता; अपवित्रता होती और यदि मौत होती, तो किसी कर्म से मौत की निवृत्ति होती; किसी तप से मौत से मुक्ति होती। किसी साधन से मौत से मुक्ति होती या किसी पुरुषार्थ से मौत से मुक्ति होती
आत्मा अमर है, तो मौत किसकी?

सार्वभौमिक सत्य

यदि एक बार यह बात अनुभव में आ जाए कि मैं शरीर से संबंध रहित हूं; मन से मेरा कोई संबंध नहीं है; तो यह नहीं है कि संबंध हो गया है और छूट जाएगा। इसलिए गोस्वामी जी बड़ी अच्छी चौपाई कहते हैं—
“जड़ चेतनहिं ग्रन्थि परि गई।
यदपि मृषा छूटत कठिनई।।”
यद्यपि यह झूठी है, अर्थात यदि हम मान ले कि अंतःकरण से आत्मा ढक जाता है, तो फिर छोड़ना अनिवार्य होगा; छोड़ना भी सत्य होगा। लेकिन, गोस्वामी जी की भाषा कहती है कि जड़ और चेतन की गांठ नहीं लगती अर्थात आत्मा का अंतः करण से तादात्म्य भी सच्चा नहीं है। अतः, संबंध भी सच्चा नहीं है। संबंध झूठा है।
आकाश में गंदगी का संबंध झूठा है; आकाश में गंदा होने का भाव झूठा है। प्रतीत तो होता है कि गंदगी हो गई; लेकिन, आकाश उस समय भी गंदा नहीं होता; केवल प्रतीत होता है। ये समस्त जगत एक प्रतीति मात्र है यदि, सचमुच गंदा होता, तो उसे शुद्ध करने का प्रश्न था। इसी प्रकार यह आत्मा, यह जो “मैं” है, जब अंतःकरण के कारण लगता है कि “मैं” कुछ हो गया हूं , तब भी यह आत्मा, हो कुछ नहीं जाता। जब कुछ (गंदा) हो नहीं गया , तो शुद्ध करने की बात ही गलत है, इसीलिए, वेदांत दर्शन यह भी कहता है कि जब यह कुछ नहीं हुआ, तो मुक्ति भी कुछ नहीं है; क्योंकि गंदा न हो, संबंध न हो, तो संबंध छूटे कैसे? ये सबकुछ ओढ़ा हुआ है परवश होके समझा हुआ है अब गुरु सार्वभौमिक सत्य को बता रहे हैं इसे समझो हर रोज़ बार बार समझो जब तक पहले वाले कि तरह ये गाढ़ा ना हो जाए।
जगद् गुरू आद्य शंकराचार्य जी ने माडूक्य उपनिषद का भाष्य किया है । उसी उपनिषद में कुछ कारिकायें हैं । उसमें एक कारिका है—
प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशय:

ज्ञान का अभिप्राय

पूज्य गुरुदेव ज्ञान का अभिप्राय समझाते हैं—
जि

सको ज्ञान हो जाता है, वह शरीर, मन और बुद्धि से विलक्षण होकर चित्त स्वरूप में क्षण भर के लिए अवस्थित हो जाता है, जिसे विशुद्ध आत्मा का क्षण भर को भी बोध हो जाता है।

वह इन्द्रियों से अतीत सत्य को जानने के कारण, इन्द्रियातीत आनंद को पा लेने के कारण, इन्द्रीयों के द्वारा पाने की इच्छा से रहित हो जाता है। उसे इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ मिलता है, वह नरक लगता है।

यदि तुम्हारा मन इच्छाएं नहीं छोड़ता, तो तुम मन से तादात्म्य अ‌‍र्थात मन से सम्बन्ध तोड़ दो। मन कहीं भी जिए,वह अपनी पूर्ति करता रहे।मन की इच्छा की पूर्ति न करो। बल्कि ,मन की इच्छा का त्याग कर दो।


पूज्य गुरुदेव समझाते हैं यदि, तुम्हें असंगता का और साक्षीपने का बोध हो जाएः तो जीवन में तुम्हें शान्ति, आनंद और प्रसन्नता मिलने लग जाएगी। इसलिए हम आपको बार बार कहते हैं कि ध्यान के क्षणों में किसी भी सत्र पर भोक्ता मत बनो।भोक्ता हमेशा दुखी होगा। वह चाहे बाहर का आनंद ले, चाहे भीतर का; जब मन आनंद लेने लगता है, तो उसके बिना फिर वह रह ही नहीं पाता। इसलिए, अपने मन को जानो और मन से उपरांत हो जाओ। उसको महत्त्व मत दो। तुम मन की उपेक्षा करो।जब तुम अपने आप से मतलब रखोगे, तो तुम देखोगे कि सब शांत हो गया। यही ज्ञान का अभिप्राय है।

ब्रह्म होना ही असल में मरना है

बुलबुले अलग-अलग हैं और पानी हैं। हैं तो दोनों बातें बड़ी स्पष्ट; लेकिन, जिनको वे स्पष्ट हैं, उन्हीं को स्पष्ट हैं। ये बातें तो समझ में आ जाती हैं कि बुलबुले पानी हैं। सर्वत्र हम ही हैं, यह बात युक्ति से, दृस्टान्त से तो समझ में आ जाती है; लेकिन, हम ही सर्वत्र हैं, यह समझ में नहीं आता। सर्वत्र आत्मानुभूति नहीं होती कि सबका सब “मैं” हूं। ऐसा दिख जाए , तो फिर द्वैष कहां, ईर्ष्या कहां और दुर्व्यवहार कहां? ऐसा दिखते ही दिल में शांति आवेगी। बुद्धि के धर्म शांत हो जाएंगे। जब आत्मबोध जागता है, तो प्रज्ञा ही ब्रह्म रूप हो जाती हैं। जब मन की ब्रह्म हो जाएगा, तब मति के धर्म, राग – द्वेष कहां रहेंगे? जब ब्राह्मीभूत हो जाएगा, तो मन में क्रोध कैसे रहेगा? जब ओला पिघल गया, तो उसकी कठोरता का दोष कैसे रहेगा? मन रहे, तो मन का धर्म भी रहे। ब्रह्मबोधाग्नि में मन पिघल जाएगा —-
“मन्सूर चढ़ा जब सूली पर,
तब रूह कफस से जाती थी।
मैं बंदा नहीं अनलहक हूं ,
आवाज खून से आती थी।।”
ऐसी कहावत है। यह कहावत कहां तक सच है, पता नहीं। लेकिन, भाव यह है कि यदि हमारा रोम भी छेद कर देखा जाए, यदि हमारा खून भी देखा जाए, तो वहां सिवाय “हूं” के और कुछ न मिले। वह स्त्री नहीं , पुरुष नहीं; गरीबी नहीं, अमीरी नहीं। हमारे खून में गरीबी का अनुभव न हो। हमारा खून भी ब्रह्म हो, हमारा मन भी ब्रह्म हो। हमारी इन्द्रियां भी ब्रह्म हों। एकदम शांत हों। ब्रह्म और कुछ नहीं। जिसकी इतनी निश्चित दशा होती है, क्या वह कभी मर सकता है? वे तो शांत रहकर बलिदान हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि जरा – सी द्वेष भावना हुई कि खून गरम हो गया।

वेदान्त किसे कहते हैं?


जो दर्शन इसकी एकता कर दे; इस भेद को नष्ट कर दे; हमारी चेतना में जो जमा हुआ भेद है, वह समाप्त कर दे; उस दर्शन को हम वेदांत कहते हैं। पर,जो भेद को स्थापित करें; भले ही वह शांति दे दे; भले ही वह शरीर के पार ले जावे; राग और द्वेष क्षीण करें; किंतु, अस्मिता का अंत नहीं होगा। वह परिच्छिन्न अस्मिता को खड़ी रखता है; परंतु, वेदांत अस्मिता पर कुठाराघात करता है। वेदांत अस्मिता को मारता है। सारे दर्शन अभिनिवेश को हटाते हैं; लेकिन, परिच्छिन्नता वह भेद को नष्ट नहीं करते। अस्मिता को खड़ी रखते हैं।
ध्यान से “हूं” तो बच जाएगा; लेकिन, अभिनिवेश अलग हो जाएंगे। जाति का अभिनिवेश हटेगा; ऊंच-नीच का अभिनिवेष हटेगा; अमीरी – गरीबी का हटेगा; चित्त शांत हो जाएगा; अंह को शांति मिलेगी; समाधि प्राप्त हो जाएगी। परंतु, यह “हूं” सब के साथ अभिन्नता का अनुभव नहीं करेगा। यह “हूं” जब बचे , तब “अहंब्रह्मास्मि ” आदि वाक्य काम करेंगे। जब साधक शरीर से मुक्त होकर शांत हो जाता है; तब वेदांत कहता है, “वह तू है”। इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है —–
“नाशान्त मनसो ह्याशुबुद्धि: पर्यवतिष्ठति”
जिसका चित्त शांत नहीं है, वेदांत में उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती। मैं सर्वत्र हूं, यह बात समझ में नहीं आती। जो शरीर से पृथक् नहीं हो पाया, वह “मैं ब्रह्म हूं”, यह वेदान्त की बात कैसे समझेगा? इस ब्रह्मभाव और वेदांत तक पहुंचने के लिए योग और सांख्य, ये दो साधन हैं। योग और सांख्य द्वारा पहले शरीर से पार जाओ। वेदांत कहता है कि यह जो चेतना है, सर्वत्र रहने वाली है। यह जो सत्ता है, यह ब्रह्म है। वेदांत, योग और सांख्य के पीछे आता है।
बोधसार नामक पुस्तक में एक प्रसंग आता है कि सांख्य और योग, इन दो हाथों के द्वारा वेदांत को उपलब्ध करो। यम, नियम और आसन आदि पांच – पांच अंगुलियों वाले दो – दो हाथ हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे पांच – पांच उंगलियों के दो-दो हाथ हैं। सांख्य और योग के , पांच – पांच अंगुलियों वाले दो हाथों से, हम जिसको हस्तगत करना चाहते हैं , वह वेदांत है। इसलिए, सांख्य और योग के द्वारा अद्वैत वेदांत का रहस्य ज्ञात होता है। अद्वैत माने, जहां कोई और नहीं है। तात्पर्य यह कि सब शरीर रहेंगे, सारे मकान रहेंगे, सारे ढेले रहेंगे; लेकिन, मिट्टी एक हो जाएगी।

🙏🚩ॐ श्री गुरुवे नमः 🚩🙏
( गुरुवाणी ) ग्रंथ – दो दिशाओं की यात्रा एक साथ भाग -13

ब्रह्म बोध


ब्रह्म बोध किसे कहते हैं ?


अस्मिता जब सारे विश्व के साथ हो जाती है, तो उसी को ब्रह्मबोध कहते हैं। इसीलिए, “विश्वरूप रघुवंश मणि” कहा है। भगवान् विश्वरूप हैं। जो आदमी अस्मिता को पार कर जाता है, उसकी अस्मिता विश्वरूप हो जाती है। उसका “मैं” “”सर्व”” हो जाता है और वह “”सर्व”” हो जाता है। अपने को सब में देखता है, सब को अपने में देखता है। यह गीता में लिखा है। लेकिन, हमें दिखता है क्या? बात सच्ची है; गीता में लिखी है और भगवान् की वाणी है। गलत नहीं है। लेकिन, हमें अभी समझ में नहीं आती।
ज्ञानी अध्यापक ने सवाल लगाया और उत्तर सही निकाल दिया; लेकिन, जब हम सवाल लगाने बैठे, तो उत्तर नहीं आया। हमें तो नहीं आया ‌ हमें तो सब अपना नहीं दिखता। हम नहीं कहते कि गीता गलत है। लेकिन, हमारे लिए गीता का तब तक कोई अस्तित्व नहीं है, जब तक हमें सब अपने नहीं दिखते। हम अपने को सर्वत्र नहीं देख पाते। यदि हमारी अस्मिता, अपनी अस्मिता को “है” में अभिन्न करे; यदि, बुलबुला अपने को पानी हो जाने दे; पानी “हूं” जानकर फिर सब बुलबुलों को देखे; तो किस बुलबुले को कहेगा कि “मैं” नहीं हूं?
यदि एक बार मेरी अस्मिता गल जाए, ब्रह्म हो जाए और ब्रह्म होने के बाद फिर अस्मिता खड़ी हो, तब वह कहेगी कि सर्व एक है। बुलबुले हैं तो अलग-अलग (सब में भिन्नता है ); लेकिन , वे पानी के माध्यम से एक हो गए हैं। देखना यह है कि पानी की दृष्टि में वे क्या हैं ? पानी है और पानी के स्मृति के माध्यम से वे देखते हैं। बुलबुला सीधे ही यह नहीं कहता है कि “यह” सब “मैं” हूं; क्योंकि, यह कहना ही “मैं” को “यह” से अलग करता है। बुलबुले का “यह” कहना ही अलग होना है। तुम “मैं” हूं, यह कहना नहीं जंचता। औरत भी “मैं” हूं; शराब भी “मैं” हूं और जानवर भी “मैं” हूं; यह नहीं जंचता। बुलबुला (ज्ञानी ) सीधा यह वाक्य नहीं कहता कि “मैं” तुम हूं। “मैं” लहर भी हूं और “मैं” फेन भी हूं , ऐसा नहीं कहता।

सब नाशी

कुछ अनुभूतियाँ हैं जैसे, अनुकूलता और प्रतिकूलता। जो प्रतिकूल है वह दुःख है और जो अनुकूल है वह सुख है। यह तो सभी लोग जानते ही हैं लेकिन अनुकूल क्यों है, प्रतिकूल क्यों है, उसके पीछे हेतु क्या है? इसी तरह जो पसंद है यदि वह मिल जाए तो क्या अनुभव होगा? (सुख) । और जो पसंद नहीं है यदि वह मिल जाए तो आपको क्या मिलता है? दुःख। अच्छा, पसंद क्यों करते हैं, अपसंद क्यों करते हैं, इसके पीछे जड़ में क्या है?
आज मैं कोई नई बात नहीं कह रहा। सब पहले बोली हुई हैं, पर आज हम उसे नए ढंग से रख रहे हैं, इसलिए नयी लगेगी।

आप अपसंद क्यों करते हैं? जैसे हम सब लोग उचित मात्रा में नमकीन, खट्टा -मीठा पसंद करते हैं। यदि उससे बहुत ज्यादा या कम हो जाए तो हमें अच्छा क्यों नहीं लगता? यह कम – ज्यादा क्यों अच्छा नहीं लगता? तुम्हारी गलती है क्या? मान लो, आपको ज्यादा नमक पसंद है पर बहुत ज्यादा डाल दें तो क्यों पसंद नहीं करते? इस “क्यों” को हम कैसे जानें? माने, हमारी इंद्रियाँ ऐसी ही बनी हैं। आँखों को रोशनी पसंद है पर तेज रोशनी आंखों को पसंद नहीं आती। जब हम लोग पूज्य गुरुदेव के साथ रहते थे तो एक गुरु भाई साधुओं को परेशान करने के लिए यही तरीका अपनाते थे कि जब कोई सोने को जा रहा हो तो उसकी आंख में लाइट कर दी । तो वो चिल्लाता था की यह मेरी तरफ क्यों कर दी? सोने जा रहे हो और कोई ज्यादा लाइट कर दे तो परेशानी तो होगी। ऐसे ही तुम पढ़ रहे हो और मैं एकदम लाइट बंद कर दूँ तो तुम्हें कैसा लगेगा?

अब यह चाहे कोई जान कर करें या बेवकूफी से करें। जानकर करे तो ज्यादा अपराधी है और यदि अज्ञानता से हो जाए तो कम अपराधी है। लेकिन, जो ड्यूटी ली है उसमें जानकारी क्यों न करे? यदि आप कार चला रहो हो और नियम ना जानो और कहीं भिड़ गये, एक्सीडेंट हो गया। फिर कह दो कि हम तो जानते नहीं थे। तो हम कहेंगे कि तू बुद्धू है। कार क्यों चला रहा है? ऐसे ही शादी के बाद कोई कहे कि मैं जानता नहीं था तो शादी क्यों की। अरे भाई! जिस रास्ते पर चलना है उस रास्ते की जानकारी करो।

कोई भी आवश्यकता सतत चौबीसों घंटे समान नहीं रहती । इसलिए आवश्यकता बदलते ही वस्तु का मूल्य बदल जाता है। पर जीने की इच्छा, आनंद की इच्छा कभी नहीं बदलती। भोजन करना, न करना बदल जाता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है कि जो भोजन करना बंद न करता हो । एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो लगातार भोजन कर सके। यदि कर सके तो आज हमारे यहाँ उसका निमंत्रण है, पर शर्त यह है कि भोजन शुरू करके बंद नहीं करने देंगे और साथ में ₹100000 इनाम की भी देंगे । इसलिए जिसकी इच्छा हो वह शर्त लगा सकता है। तुम किसी भूखे को ले आना। जिस बेचारे को पेट भर ना मिला हो, उसे हम खिलाएंगे, बशर्ते बंद ना करे। किसी कामी को ले आना….., किसी लोभी को ले आना। उसे रुपए गिनने को बिठएंगे, सोने नहीं देंगे।

कहने का आशय है कि खाना शुरू करोगे तो किस लिए? आनंद के लिए। और जब बंद करोगे तो क्या दुःख चाहोगे? सुख के लिए खाते रहे और सुख लिए ही बंद कर दिया। हम सब काम सुख के लिए करते हैं। जिस में सुख मिलता है उसे करने लगते हैं और जिसमें सुख नहीं मिलता उसे छोड़ देते हैं। यहां तक कि जीने में जब आनंद नहीं मिलता तो भगवान को, गुरु को मनाने लगते हैं कि हे प्रभु हमें मरने का आशीर्वाद दे दो।

गीता अमृत है।

आप भी उस सत्य को खोजो और चैन पाओ। कोई भी तुम्हें बचाएगा तो ज्ञान देकर ही बचाएगा। मरना, मरना मानते रहोगे तो तुम्हें कौन बचाएगा? क्या हम बचा लेंगे? हम भी बचाएंगे तो ज्ञान देकर ही बचाएंगे। कृष्ण भगवान भी बचाएंगे तो गीता सुनाकर ही बचाएंगे। नहीं तो अर्जुन को गीता सुनाने की क्या जरूरत थी? ऐसे ही अर्जुन के सिर पर हाथ रख देते। सिर पर हाथ रखकर युद्ध जिता सकते हैं, सिर पर हाथ रख कर थोड़ी देर को तकलीफ दूर कर सकते हैं। लेकिन अज्ञान को सिर्फ हाथ रखकर कैसे हटाओगे? वह तो गीता से ही दूर करना होगा। इसलिए गीता अमृत है।

इसलिए तुम भी किसी अच्छे संत से गीता सुनो। और यह भी है कि जो कथा नहीं सुनाते वे बुरे नहीं हैं,अच्छे हैं, उनका दर्शन करो, आनंद लो। लेकिन यह भी है कि किसी और के दर्शन का आनंद लेने की तुलना में गुरु के पास बैठकर आनंद लेते हो तो यह बहुत अच्छी बात है। तुम जरूर अच्छे ह्रदय के हो वरना संत के पास आनंद कहाँ है? आपने देखा होगा कि कभी-कभी मंदिर के दरवाजे बंद होते हैं और लोग मंदिर के बाहर बैठे रहते हैं। बाहर बैठकर दर्शन करो, आनंद लो। गुरु भी एक मंदिर ही है, दर्शन करो, मौन रहो और आनंद लो। मंदिर के भीतर भी सबको थोड़े जाने दिया जाता है। तो क्या मंदिर जाना बंद कर दोगे? बाहर से दर्शन कर लो। पर झगड़ा तो इस बात का है कि उनको अंदर क्यों जाने दिया? हमें क्यों रोक दिया? क्या यह मंदिर पंडित की बपौती है? अभिप्राय यह है कि आपके अंदर पहले दर्शन की प्रसन्नता होनी चाहिए, बाहर- भीतर से कोई अन्तर नहीं पड़ता।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन करई कपट गान।।
“कपट तज गान” कोई चालाकी नहीं। सचमुच उनकी महिमा अच्छी लगे। उनके गुणगान गाने पर ह्रदय प्रसन्नचित हो। लोग तो अपने गुणगान ज्यादा गाते हैं, गुरु के, भगवान के कम गाते हैं। जबकि गुरु की, भगवान की महिमा गा कर आपको अच्छा लगना चाहिए। यह चौथी भक्ति है।