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मैं क्या हूँ ? मैं कौन हूँ?


भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्धा।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
पंचभूत (भूमि), आप ( जल ), अनल (अग्नि), वायु और खम् (आकाश ) इसमें तीन और हैं ( मन , बुद्धि और अहंकार )। ये आठों (अष्टधा) अपरा अर्थात जड़ प्रकृति हैं । चैतन्य नहीं है। इसमें जो चिदाभास है वह चेतन ( परा ) की चेतन्य प्रकृति है। ये दोनों मिले हुए हैं। संपूर्ण सृष्टि इन दोनों प्रकृतियों से ही चल रही है। जगत को धारण किसने किया है? प्रकृति ने किया है, चैतन्य ने नहीं। चैतन्य को तो लेना – देना ही नहीं है । वह तो साधू है, वह तो ब्रह्म है, वह तो नपुंसक है। यह जो चैतन्य की चिदाभासात्मिका है वह मन से इन्द्रियों से मिल कर चलाती रहती है । परमात्मा इससे भिन्न है। वह इसमें लिप्त है ही नहीं।
सर्व निवासी सदा अलेपा।
वह बिल्कुल अलिप्त है। वह विकारी नहीं है । किसी में मिलता ही नहीं है । चिदाभास, प्रकृति से मिलकर प्रकृति के अनुसार बन गया। साक्षी बना नहीं। चिदाभास, वृत्ति के अनुसार , अंतःकरण के अनुसार होता है। साक्षी तो कभी कुछ होता ही नहीं है।
आदि शंकराचार्य का श्लोक देखिए —
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहम्
पंचभूत और मन, बुद्धि, चित्, अहंकार ये मैं नहीं हूं। ये हैं; पर ये मैं नहीं हूं। इनको मिटाने के चक्कर में मत पड़ना। कई लोग अहंकार से निपटने के चक्कर में पड़े हैं। मर गए अहंकार को मिटाते – मिटाते; पर अहंकार नहीं मिटा । यह तो प्रकृति का है। मैं नहीं हूं। मैं हूं , ये भी हैं ; पर ये मैं नहीं हूं।

आपका जीवन साथी कौन है?

माँ
पिता
बीवी
बेटा
पति
बेटी
दोस्त…????

बिल्कुल नहीं

आपका असली जीवन साथी
आपका शरीर है ..

एक बार जब आपका शरीर जवाब देना बंद कर देता है तो कोई भी आपके साथ नहीं है।

आप और आपका शरीर जन्म से लेकर मृत्यु तक एक साथ रहते हैं।

जितना अधिक आप इसकी परवाह करते हैं,  उतना ही ये आपका साथ निभाएगा।

आप क्या खाते हो,
फ़िट होने के लिए आप क्या करते हैं,
आप तनाव से कैसे निपटते हैं

आप कितना आराम करते हैं
आपका शरीर वैसा ही जवाब देगा।
याद रखें कि आपका शरीर एकमात्र स्थायी पता है जहां आप रहते हैं।

आपका शरीर आपकी संपत्ति है, जो कोई और साझा नही  कर सकता ।

आपका शरीर आपकी
ज़िम्मेदारी है।
इसलिये,
तुम हो इसके असली
जीवनसाथी।

हमेशा के लिए फिट रहो
अपना ख्याल रखो,
पैसा आता है और चला जाता है
रिश्तेदार और दोस्त भी
स्थायी नहीं हैं।

याद रखिये,
कोई भी आपके  अलावा आपके शरीर की मदद नहीं कर सकता है।

आप करें:-
* प्राणायाम – फेफड़ों के लिए
* ध्यान – मन के लिए
* योग-आसन – शरीर के लिए
* चलना – दिल के लिए
* अच्छा भोजन – आंतों के लिए
* अच्छे विचार – आत्मा के लिए
* अच्छे  कर्म – दुनिया के लिए                                          

स्वस्थ रहें, मस्त रहें

गुरूदीक्षा

गूरू के पास अज्ञानी बनकर जाना चाहिए!
ज्ञान हमेशा झुककर हासिल किया जा सकता है।
एक शिष्य गुरू के पास आया। शिष्य पंडित था और मशहूर भी, गुरू से भी ज्यादा। सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे। समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था। ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की। संयोग से गुरू मिल गए। वह उनकी शरण में पहुंचा।

गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, ‘तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो। तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है। तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।’ शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे। वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा। कई हजार पृष्ठ भर गए। पोथी लेकर आया। गुरू ने फिर कहा, ‘यह बहुत ज्यादा है। मैं बूढ़ा हो गया। मेरी मृत्यु करीब है। इतना न पढ़ सकूंगा। तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।’

पंडित फिर चला गया। तीन महीने लग गए। अब केवल सौ पृष्ठ थे। गुरू ने कहा, मैं ‘यह भी ज्यादा है। इसे और संक्षिप्त कर लाओ।’ कुछ समय बाद शिष्य लौटा। एक ही पन्ने पर सार-सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे। कहा, ‘तुम्हारे लिए ही रूका हूं। तुम्हें समझ कब आएगी? और संक्षिप्त कर लाओ।’ शिष्य को होश आया। भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया। गुरू के हाथ में खाली कागज दिया। गुरू ने कहा, ‘अब तुम शिष्य हुए। मुझसे तुम्हारा संबंध बना रहेगा।’ कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।

ब्रह्म विद्या

जिसका बोध सच्चा है, उसका खून शीतल होता है। खून बदल जाता है,रोम -रोम बदल जाता है। देखिए,आपकी नाड़ियां क्या कहती हैं? नाड़ी हूं कि ब्रह्म हूं? आपका मन क्या कहता है? ब्रह्म हूं कि मन हूं? केवल “हूं” कहता है- ब्रह्म भी न कहो। केवल साक्षी हूं। कहता है कि शरीर हूं।कहता है कि यह देखो कि अन्दर तुम्हारी सतत् जागृति किस भाव में है? अभी पता चलेगा कि अविद्या क्या, अभी तो शरीर का अभिनिवेष भी नहीं गया। जाति का, कुटुंब का और मजहबों का अभिनिवेष अभी चित्त में है। यह अभिनिवेष अभी नहीं गया। यदि अभिनिवेष नहीं है, तो हम खाली आदमी रहेंगे। यदि खाली आदमी हों, तो फिर जल्दी मरेंगे और जल्दी मरेंगे, तो ब्रह्म हो जायेंगे। यह ब्रह्म होना ही असल में मरना है।
परम शांति किसे प्राप्त होती है ?
जो मर जाता है उसी को हम सन्यासी कहते हैं और वह जो मरना नहीं चाहता, वही अज्ञानी है जो मरने को तैयार है, वह साधक है; जो मर गया है, वह सिद्ध (सन्यासी) है। जो मर गया, वही ब्रह्म और जो मर गया है, वहीं अमर हो गया है। इसीलिए, सन्यासी फिर कभी नहीं मरता; क्योंकि, जिसे मरना था, वह पहले ही मर गया है। और जो नहीं मरता है, वही बचा है; वह कभी नहीं मर सकता। किसी का मारा भी नहीं मरता; क्योंकि, वह दुश्मन की भी आत्मा है। दुश्मन की भी “मैं” है ।यदि मारने को खड़ा होगा, तो दूसरी “मैं” को मारेगा; लेकिन, अपने आप की “मैं” को कैसे मारेगा? इस प्रकार जो वेदांत का श्रवण, मनन और निदिद्यासन करता है, वह परम शांति को प्राप्त होता है।

अजन्य को जानो

साधनाजन्य अवस्था के कारण तुम्हारा रोना नहीं मिटेगा। चलो, तुम्हें बहुत अच्छा शरीर मिल गया, गदहे का नहीं मिला, कुत्ते का नहीं मिला पर क्या तुम्हारा रोना मिटा?  अवस्था मिल भी जाएगी तो क्या उसके जाने का रोना मिटेगा?  मैं कहा करता हूँ कि भोगी जवानी के खोने से रोता है और योगी समाधि के खोने रोता है। रोना तो दोनों का ही नहीं मिटा। रोना तो सिर्फ आत्म ज्ञानी का ही मिटता है। इसलिए सत्य की प्राप्ति के लिए चित्त में योग्यता चाहिए और योग्यता साधना से आती है पर समझ  तो गुरु वाक्यों से, महावाक्यों से, ग्रंथों से आती है।

     इसलिए साधना को नकारना नहीं, साधना आवश्यक है। यदि साधना नहीं करोगे तो इतनी गहरी समझ नहीं आ सकती और यदि साधना से सुख लेने लगे, समाधि का आनंद लेते रहे तो फिर विलगाव का दुःख भोगोगे । प्रधानमंत्री तो कोई न कोई बनेगा ही, बनाना पड़ेगा क्योंकि काम करना है। अब सदा के लिए वही बना रहे तो रोएगा।  ऐसे ही जवानी तो होगी। साधु का भी शरीर होगा पर उसको यदि रखना चाहेगा तो रोएगा। ऐसे ही समाधि  बहुत अच्छी अवस्था है पर जाएगी तो रोना होगा। तो फिर कौन है जो नहीं जाएगा, समाधि कि सत्य ? जो नहीं जाएगा वह सत्य है और जो जाएगा वह प्रकृतिजन्य है, साधनाजन्य है। समाधि साधनाजन्य है, आत्मा अजन्य है अविनाशी है। जब तक अविनाशी, अजन्य को नहीं जानोगे तब तक सूक्ष्म के प्रवाह में फँसे रहोगे। एक स्थूल में फँसा है, एक सूक्ष्म में फँसा है। ज्ञानी सबसे मुक्त है, गुणातीत है।
इस सत्य को सुनो और समझो।

उदाहरण

गुरुदेव इतनी सरल भाषा में वेदांतदर्शन समझाते हैं कि कभी कभी विश्वास नहीं होता कि जिसके लिए बड़े बड़े ज्ञानी लोग कितना भटके यहाँ गुरुदेव के चरणों में बैठ कर उस बंधे हुए ज्ञान को सरलता से गांठ की तरह खोल देते हैं।

देखो, यह एक गाँठ है। (एक कपड़े में अलग-अलग तीन गाँठें लगाईं)। पहले नंबर की गाँठ का नाम रख लो जाग्रत, दूसरे नंबर की गाँठ का नाम  स्वप्न और तीसरे नंबर का  नाम सुषुप्ति।  अब ये तीनों चक्कर लगाएंगी। जब पहली चली जाती है तो दूसरी आती है।  जब दूसरी चली जाती है तब तीसरी आ जाती है। और जब तीसरी जाती है तब फिर पहली वाली आ जाती है। इस तरह यह प्रक्रिया चलती रहती है । इनमें कोई भी परमानेंट नहीं है और किसी ने किसी को देखा भी नहीं है। कोई एक चौथा है जिसने पहली को भी देखा, दूसरी को भी देखा और तीसरी को भी देखा। वही चौथा बता पाता है कि जाग्रत आया था फिर स्वप्न आया फिर सुषुप्ति आयी थी। अर्थात्  इन का गवाही कौन है, साक्षी कौन है ? क्या जाग्रत मेरी गैरहाजिरी में हुई? स्वप्न, सुषुप्ति क्या मेरी गैरहाजिरी में हुईं? क्या सुषुप्ति(गहरी नींद)  जाग्रत की गवाह है या जाग्रत सुषुप्ति की गवाह है? इन तीनों में जो गवाह है वह आप हैं।

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

अपना जगत खो कर स्वयं जगत हो जाओ

मन के अमन हो जाने पर द्वैत नहीं रहता। द्वैत तो है ही मन के खड़े होने पर। बाहरी द्वैत देह के अभिमान में है। भीतरी द्वैत मन के रहते है। स्मृति में भी जो है वह भी द्वैत है और वह भी आपके मन के कारण है। मन नींद में चला गया तो द्वैत गया। मन आत्मा में चला गया तो द्वैत खो गया।  द्वैत नींद में भी नहीं रहता।  यहाँ नींद का अर्थ है- गहरी नींद।  कई बार ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर गलती कर जाते हैं क्योंकि नींद का हम दो जगह प्रयोग करते हैं। सपनों के समय की नींद को भी नींद कहती हैं और गहरी नींद को भी नींद कहते हैं और सच तो यह है कि जगत के देखने को भी हम नींद ही कहते हैं। इसलिए तीनों अवस्थाएं स्वप्न हैं।  मैं सो गया था, यह भी स्वप्न है। मैं स्वप्न में था यह भी स्वप्न है। मैं आदमी हूँ, जगत है; यह भी स्वप्न है।  केवल जागना है-  मैं ब्रह्म हूँ और कुछ नहीं हूँ।  जागना उसी को कहते हैं जिस सेकंड में जागे हो करके तुम्हारे सिवा कुछ नहीं है। इसलिए ब्रहम ज्ञानी का जगत खो जाता है।

सबसे बड़ा पाप

कई जगह शादी को संबंध भी बोलते हैं, रिश्ता भी बोलते हैं, विवाह भी बोलते हैं। तो तुम्हारा अभी नाशी से रिश्ता हुआ है। शरीर नाशी है, इससे तुम्हारा रिश्ता हुआ है और इसीलिए चिंता है। तुमने जिससे ब्याह किया है ना! वह मांगलिक ग्रह वाला है, वह जाएगा। और यह रिश्ता सब ने कर रखा है। यह मत समझो कि गृहस्थी करते हैं, साधु तक किए बैठे हैं यह रिश्ता नाशी से। और जब ऐसे मांगलिक से कर लोगे तो चिंता होगी ही कि यह नहीं रहेगा, चला जाएगा। तो अब हमें क्या करना है? यहां तो ( श्रीमद्भागवत कथा में ) रुक्मणी जी का श्याम से, भगवान से विवाह हुआ है। तो तुम्हारा भी भगवान से ही कराना पड़ेगा पर रुक्मणी जैसी बात हो! कोई किसी के कहे से न कर ले। नहीं तो  उनके घर के लोग कहीं और कराना चाहते थे, ठीक है! तो आप भी अभी तो बिना किसी से कहें, सहज ही शरीर से तुम्हारा रिश्ता हो गया है, संबंध हो गया है। यह शरीर आपका हो गया है, आप इसके हो गए हो। इसके धर्म आपके और आपका धर्म इसका हो गया है। जैसे लोहे को गरम आग में डाल दो तो यदि लंबी लंबी सरिया है तो आग लंबी लंबी हो जाती है और सरिया गरम नहीं है पर वह गर्म हो जाती है, सरिया का धर्म आग को मिल गया। लंबाई सरिया की है वह मिल गई आग को और गर्मी किसकी है आग कि, वह मिल गई लोहे को। इसको अन्योन्याध्यास  बोलते हैं। तो जो जीव है वह देह हो गया और जो जड़ है वह चेतन हो गया। वह चेतन हो गया क्योंकि तुम्हारी चैतन्यता देह को मिल गई और देह की जड़ता, मृत्यु तुम्हें मिल गई। यह अन्याेन्याध्यास है। तो इसका तो हमें तलाक दिलाना पड़ेगा। शादी तो बाद में करेंगे पहले तलाक दो। अष्टावक्र गीता में कहा है यदि देहं पृथक्कृत्य चितिविश्रम्य तिष्ठसि ।अधुनैव सुखी शांतो बंध मुक्तिर्भविष्यसी।।यदि तुम यही देह से मैं पन हटाओ, देह से रिश्ता तोड़ो और चैतन्य में विश्राम करो, अपना संबंध अंतरात्मा से कर लो तो अभी मुक्त हो जाओगे। इसलिए अब क्या करना है? यह मैं जो है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यह  चार ही इस देह को  मैं मानते है। यही मुड़कर के  करके आत्मा को, स्वरूप को मैं मान सकते है। अभी मैं को सीधा सीधा नहीं….. जैसे  मैं देह नहीं है, मैं ने देह का अभिमान किया है।  देह अभिमान तो मैं ने किया। यदि नींद ना खुले तो देह का अभिमान होगा क्या? देह में मैं पन नहीं हुआ, इसमें रहने वाला  चिदाभास कहो या मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार कहो उसने इस देह से मैं का रिश्ता जोड़ दिया, इसको मैं बना कर मेरे बना लिए। फिर मैं-मेरे का दुख हो गया। इसलिए अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश बस यही पांच क्लेश है। और यही सबसे बड़ी परेशानी, भ्रम की तुम ये शरीर हो, नाम हो, रूप हो जिस दिन कोई भी व्यक्ति इसे सही सही समझ गया कि वो शरीर नही, ये शरीर उसका है जो कि प्रारब्ध वश मिला है इसमें रहने वाला वो तत्व जिसके निकल जाने से ये निष्क्रिय हो जाता है किसी काम का नही रहता वो कौन है उसे जानो ये उनके जानने को मिला यही मानव देह कुंजी है इसलिए ही ये देह रूपी मौका उसे मिला है क्योंकि जानवर ये नही सोच सकता। आप ही सोच सकते हो समझ सकते हो। इसलिए मेरे गुरुदेव कहते है-

“देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप हैं।

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्रों का ये बाप है।।

तुम भी अवतार हो सकते हो

श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक तरह के विषय आते हैं जिससे हमें सीखने को मिलता है। आज एक यह सीखने को मिलेगा की जैसी हो भवितव्यता तैसी मिले सहाय जैसा होना होता है वैसे सहयोग करने वाले मिलते हैं। आपने जावे कहां पर ताहि तहां ले जाए।। चूंकि कंस की मृत्यु के लिए भगवान का जन्म होना है तो आपने सुना ही है कि पहले वह बहन को ही मार देना चाहता था। पर सलाह देने वालों ने कहा कि बच्चे को मार देना। बहन को क्यों मार रहे हो? तो सोचा कि चलो आठवें बच्चे के लिए कहा है तो आठवें को मार देंगे। तो किसी ने कह दिया कि बीच में भी आठवां हो सकता है। तो वह तो  एक एक करके सभी बच्चे मारने लगा। यह सब होते हुए भी हुआ वही जो  होना था। तो जो होना है वह होता ही है। दूसरा है भगवान के जन्म का विषय भारत यद्यपि वेदांत और अध्यात्मिक ज्ञानी गुरुओं का देश है, बहुत लोग अवतार भी मानते हैं पर  हमारी दृष्टि से अवतार नहीं माने तो हम बहुत कुछ खो देंगे। हमारा सब का जन्म  वासनाओं से होता है। कोई ना कोई पहले वासना थी जो यहां आए इस जन्म में कोई वासना होगी तो अगला जन्म लेंगे। यदि कल्याण की अधिक वासना होगी, मोक्ष की वासना होगी तो ज्ञान हो जाएगा और मुक्ति प्राप्त करेंगे।

पर भगवान कोई अपनी वासना से नहीं आते। उनको जब अपने भक्तों का उद्धार करना होता है तब वह अवतार लेते हैं। कहते हैं ना निज इच्छा निर्मित तनु अपनी इच्छा से शरीर बना लेना। हमारा शरीर हमारी इच्छा से नहीं वासना से बना। परंतु भगवान को जो जो करना है वैसी ही सामर्थ्य लेकर के आए। हम लोग चाहे भी तो नहीं कर सकते। इसलिए भगवान का, अवतारों का जो शरीर है वह आग में नहीं जलता, गड्ढे में फेंकने पर भी नहीं मरता, तो ऐसा शरीर हमारा तो नहीं है, हम आग से जल जाएंगे। हमारा शरीर यदि पहाड़ी से फेंक दिया जाए तो बिगड़ जाएगा। तो जो भगवान हैं वह जैसी जरूरत वैसा शरीर लेकर अपनी इच्छा से आते हैं। हमारा शरीर सब तरह की क्षमता लेकर नहीं आया इसलिए भगवान के स्मरण का, उनके दर्शन का, उनके सुमिरन का, उनके ध्यान का बड़ा लाभ होता है। यही लाभ उठाते उठाते आप जिस दिन परमात्मा को समझ गए और अपनी आत्मा में उसको एकीकार मान लिया जान लिया उस दिन तुम भी परमात्मा हो जाओगे। तुम भी अवतार लोगे लोगों का कल्याण करने न कि पुरानी चाहों को इस जन्म में पूरा करने आओगे और नई चाहें बना के फिर नया देह पाओगे।