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मुक्त पुरुष

अब कोई कहे कि आप •••? तो हम भी कई योनियों से गुजरे होंगे । और तो और इस योनि ( मनुष्य योनि ) में भी कई बार मनुष्य देह रहकर स्वार्थी बने, राक्षस बने, संसारी बने। यह बात ग्रंथों ने भी कही है। बार – बार हम मनुष्य देह में भी आये। एक ही बार में (ब्रह्मज्ञानी) नहीं बने। एकाध बार जब मनुष्य देह मिलेगा तो पुरानी वासना के अनुसार वही काम करोगे। इसलिए ध्यान रखना कि कई बार मनुष्य तो बने पर मुमुक्षु नहीं बने। मेरे को तो शंका इसी में है कि क्या आप सब मुमुक्षु हैं? पहले ये तीन हो जाएं —
मनुष्यत्वं मुमुक्षूत्वं महापुरुषसंश्रय:।
पहले मनुष्य फिर मुमुक्षु , फिर महापुरुषों का संग। जितना आपको प्रेमी – प्रेमिका अच्छे लगते हैं, जितनी आपको मटरगश्ती अच्छी लगती है, क्या उतने ही आपको महापुरुष अच्छे लगते हैं •••? महापुरुष का आश्रय जरूरी है।
देखो, गर्भ भी कई तरह से आश्रय लेता है। पहले मां के पेट का आश्रय लेता है । फिर क्या वह वहीं बना रहता है? जब बाहर आया तो दूध किसका पिया? बाप का पिया? फिर भी आश्रय मां का ही है। मां खिलाती है, मां बुलवाती है। इसलिए हम लोग कहते हैं आप कि मातृभाषा क्या है? बोलना भी हमने मां से ही सीखा है। दूध भी मां का पिया, खेले भी मां की गोद में, अर्थात मां ने हमको बड़ा किया। धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाएं। आवश्यकता है मुक्त होने की , जैसे मां के पेट से मुक्त होना जरूरी है; पर जल्दी नहीं, ऐसे ही माता के दूध से भी। क्या सारी जिंदगी मां का दूध ही पीते रहोगे? फिर दूध पीना छोड़ा। खाना शुरू किया। मां खिलाती थी, मां बनाती थी।

मन का ज्ञाता साक्षी


मन जिससे महसूस होता हो; मन जिसके पहले न रहा हो; जिसने मन के होने को समझा हो, जिसे मन के विलय होने का पता रहता हो; जिसे मन के सो जाने का पता रहता हो; ऐसा जिसको पता चलता हो, उसी को तुम ब्रह्म जान लेना।
“तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि”
ब्रह्म को इन्द्रियों की सीमा में मत खोजते रहना ।
गो गोचर जहं लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।”
मन की सीमा में यदि परमात्मा मिल भी जाए; इंद्रियों की सीमा में परमात्मा आ भी जाए; तो वह परमात्मा का साकार रूप होगा, आराध्य रूप होगा। वह भी हमारे कल्याण का कारण बन सकता है; लेकिन, मृत्यु भय साकार भगवान से नहीं जाता। किसी भी साकार भगवान के दर्शन से, उनके मिलने से, मृत्यु भय नहीं गया। उनके उपदेश की बात मैं नहीं कहता।
अर्जुन भगवान के साथ ही तो था। उसका शोक नहीं गया; मृत्यु भय नहीं गया; राग-द्वेष नहीं गया। भगवान को उपदेश ही देना पड़ा। मान लो कि मैं भगवान हूं। क्या मेरे देखने से आपका अभिमान चला जाएगा? मेरे देख लेने के बाद, यदि आपको सांप काट ले, तो मरने के भय में फर्क पड़ेगा? क्या हो जाएगा? देह वाले की मौत वैसे ही रहेगी; चाहे भगवान नहीं भगवान के बाप ही क्यों न हों। मेरे ख्याल से भगवान के तो बाप ही नहीं होता। क्यों! भगवान के भी बाप होता होगा? भगवान तो होता ही सब का बाप है; इसलिए, भगवान का कोई बाप नहीं होता। भगवान बिना बाप का होता है। जो बिना बाप का होता है, उसी का नाम भगवान है । समझ गए! जो बिना बाप के हो, अर्थात अजन्मा हो आत्मा हो जिसने अपने भीतर उसकी उपस्थिति को समझ लिया हो, वही परमात्मा है। जिसका जन्म ही नहीं होता, उसका बाप कैसे होगा? वही बापों के बाप के बाप तुम भी हो सकते हो सिर्फ इस ब्रह्म ज्ञान का पान तो ठीक से करो।

सरल वेदांत

यह वेदांत की एक सुंदर प्रक्रिया है; न कोई प्रकाश, न कोई कुंडलिनी, न कोई आनंद , न कोई चमत्कार , न कोई नशा, केवल चेतन। इस ख्याल (चेतन) के अतिरिक्त अन्य कोई बात ही न सोचें। दृष्टा भी नहीं, कर्ता भी नहीं ,पाना भी नहीं। किसके दृष्टा? कौन दृष्टा? किसलिए?—सर्व भावों से रहित, सर्वभावातीत, सर्व विकल्पशून्य, एक चिन्मात्र हो जायें। यदि कोई है तो जिस पर होती है सुषुप्ति, जिस पर होती है जागृति; परंतु स्वयं न जागता है और न सोता है। जिस दिन आप यह जानेंगे कि मैं न कभी जागता हूं, न कभी सोता हूं उस दिन आप ब्रह्म ही होंगे। अभी आप कहते हैं कि हमारे गुरु जी कभी नहीं सोते , भगवान कभी नहीं सोता। ठीक है, कई लोगों के गुरु कभी सोते होंगे या नहीं सोते होंगे। मैं भी यही कहता हूं कि आप भी कभी जागते नहीं, कभी सोते नहीं। जो जागता है, वह भी तुझ चेतन में कल्पित है और जो सोता है, वह भी तुझ चेतन में कल्पित है। जागने वाला सोता है और सोने वाला जागता है। आप न कभी जागते हैं और न कभी सोते हैं परंतु आप जागने वाले को “मैं” कह रहे हैं। आप जागने वाले को ही “मैं”– “मैं”कह करके फिर ठीक होने की कोशिश करते हैं। आप जागने वाले को “मैं” बनाकर कहते हैं कि कभी नींद न आए। गुरुजी ऐसा जगा दीजिए कि फिर न सो जाएं। अब, कैसे जगा दें कि आप कभी सो ना जाएं ?—-बस समझने लायक, सर्वोच्च ध्यान लायक एक ही प्रक्रिया है कि आप सोचें कि कौन है हो कभी नही सोता? कौन है जो आपके सपनों का गवाह है? कौन है जो आपकी सारी इंद्रियों को नष्ट करने पर भी रहेगा? उस चेतन उस स्व स्वरूप को सोचे अनुभव करें।

परमधाम

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।

गुरूदीक्षा

गूरू के पास अज्ञानी बनकर जाना चाहिए!
ज्ञान हमेशा झुककर हासिल किया जा सकता है।
एक शिष्य गुरू के पास आया। शिष्य पंडित था और मशहूर भी, गुरू से भी ज्यादा। सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे। समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था। ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की। संयोग से गुरू मिल गए। वह उनकी शरण में पहुंचा।

गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, ‘तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो। तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है। तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।’ शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे। वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा। कई हजार पृष्ठ भर गए। पोथी लेकर आया। गुरू ने फिर कहा, ‘यह बहुत ज्यादा है। मैं बूढ़ा हो गया। मेरी मृत्यु करीब है। इतना न पढ़ सकूंगा। तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।’

पंडित फिर चला गया। तीन महीने लग गए। अब केवल सौ पृष्ठ थे। गुरू ने कहा, मैं ‘यह भी ज्यादा है। इसे और संक्षिप्त कर लाओ।’ कुछ समय बाद शिष्य लौटा। एक ही पन्ने पर सार-सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे। कहा, ‘तुम्हारे लिए ही रूका हूं। तुम्हें समझ कब आएगी? और संक्षिप्त कर लाओ।’ शिष्य को होश आया। भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया। गुरू के हाथ में खाली कागज दिया। गुरू ने कहा, ‘अब तुम शिष्य हुए। मुझसे तुम्हारा संबंध बना रहेगा।’ कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।

छलांग

जो अनेक लोग जंगलों में जाकर प्राप्त करते थे, वह आम गृहस्थ, आम आदमी गुरु कृपा से क्षणों में प्राप्त कर सकता है ।इसमें कठिनाई क्या है?—-बस, आप किसी तल पर जागृत रहना सीख लें। यह प्रयत्न जागृत रहने तक ही करें। फिर जागृत रहें; परंतु जानना न चाहें। जैसे, दृष्टि तो रहे; परंतु देखना न चाहें। कान तो रहें; परंतु सुनना न चाहें। नाक तो रहे परंतु सूंघना न चाहें। मन तो रहे; परंतु कुछ जानना न चाहें, विचारना न चाहें। ऐसा करने से बुद्धि, बाद में इंद्रियां धीरे- धीरे स्वत: ही क्षीण हो जाएगी। अब हमें उनकी जरूरत ही नहीं। जरूरत पर उनके नाम पैदा हो जाते हैं; जरूरत पर ही उनके रूप पैदा हो जाते हैं। जिस समय जानना हुआ उस समय मन खड़ा हो जाता है। परंतु जब आपको लगेगा कि मुझे चेतन वगैरह कुछ नहीं जानना तो अपने आप मन खड़ा नहीं होगा। उस समय के उपरांत आप स्वयं अनुभव करेंगे कि मन गया, इंद्रियां गई, विचार गए।
“न किञ्चिदपि चिन्तयेत्”
अर्थात कुछ भी न सोचें, कुछ भी न चाहें। बिना चाहे, बिना किए “आप” हैं। वहां क्या करना?—
इसीलिए ज्ञानी कहते हैं कि इसके रखने के लिए आप क्या करेंगे?—-आप जो कुछ रखने की कोशिश कर रहे थे, वही बाधाएं थी। बुद्धि रख रहे थे, इंद्रियां रख रहे थे, सुनना रख रहे थे, जानना रख रहे थे, टिकाने में लगे थे कि देखना न खो जाए, सुनना न खो जाए, जानना न खो जाए,अरे! इनको जानें दें। केवल चेतन रहें । अब इसमें क्या है? बस, पड़े रहें, केवल चेतन रहें। कुछ देर बाद पड़े रहने से भी क्या लेना- देना? वह तो जरा सा सहारा है। जैसे, छलांग- बिंदु ( jumping – point ) होता है और पैर उठाकर छलांग लगाते हैं ऐसे ही शरीर तो छलांग के लिए है; छलांग के अलावा इससे भी कोई मतलब नहीं है। मन है एकदम साक्षी, एकदम चेतन। क्या? बस, मन है। मन में खड़े होकर एकदम मन से परे “चेतन” में कूद गए। हो गये चेतन। बस, आप हैं “चेतन” आप हैं “ब्रह्म”। सबमें आप और सबकुछ आपमें यही ब्रह्म है यही भगवान हैं

तत्वज्ञान


काग पलट गुरु हंसा कीन्हें,
दीन्ही नाम निशानी।
हंसा पहुंचा सुखसागर में, मुक्ति भरे जहाँ पानी।।


बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञान्वान्मां प्रपधते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।


(जो बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात वासुदेव के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।)


परमात्मा सब में है, ऐसा जानने वाला महात्मा दुर्लभ है अर्थात महात्मा ही नहीं मिलते। परमात्मा तो सब में है, वर्षों से सुन रहे हैं, परन्तु ऐसा जानने वाला महात्मा, अनुभवी महात्मा ही नहीं मिलता।


कहतें हैं, सब में भगवान ही भगवान है, भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं है, यानि सब निन्यानवें प्रतिशत और भगवान एक प्रतिशत? नहीं, ऐसा नहीं, बल्कि “वासुदेवः सर्वमिति”, सब वासुदेव ही है। सब में वासुदेव ही है।


“महात्मा सुदुर्लभः “ऐसा महात्मा ‘सुदुर्लभः’ अर्थात अति – दुर्लभ है। महात्मा दुर्लभ, भगवान सुलभ। भगवान का मिलना दुर्लभ नहीं है, ज्ञानी का मिलना दुर्लभ है हरि का मिलना दुर्लभ नही है, गुरु का मिलना दुर्लभ है। गुरु समय – समय पर मिलतें हैं, हरि तो सदा रहते हैं। गुरु का अभाव हुआ तो भगवान गये और गुरु आये तो किसी की ताकत नहीं कि भगवान चलें जाएं।


शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता, गुरौ रुष्टे न कश्चन।
(शिव के रुष्ट हो जाने पर गुरु बचा लेते हैं परन्तु गुरु के रुष्ट हो जाने पर कोई बचा नहीं सकता।)

मैं हूँ



बस इतना ही समझना है। इस मैं और हूँ के के बीच जो कुछ भी है वो तुम नही हो.. तुम सिर्फ हो! और कहाँ नही हो? किसमें नहीं हो? कण कण में तुम, क्षण क्षण में तुम पर तुम कुछ किसी एक को ओढ़ के पहनके अपने आप को वही समझने लगते हो, सीमित “मैं” में सीमित कर लेते हो और अपनी असीमितता को भूल जाते हो…और जन्मों लगा लेते हो स्व स्वरुप में आने को…

अपना होना अनुभव में आते ही “मैं” भाव जागृत हो जाता है। अहम् ज्ञान के जगते ही लगता है कि मैं आदमी हूं , औरत हूं , भाई हूं , बहन हूं , अमीर हूं , गरीब हूं , ऊंच हूं , नीच हूं , सुखी हूं , दुखी हूं , हिंदू हूं और मुसलमान हूं । “मैं हूं” का ज्ञान होने पर अन्य सर्व भाग खड़े होते हैं । “मैं हूं” सुप्त होते ही अन्य सर्व भाव सो जाते हैं । प्रथम स्वयं का होना भासता है ; इसके बाद संपूर्ण संसार का । “मैं” प्रथमाभाष है और “यह” द्वितीयाभाष है । “मैं” बुद्धि सारूप्य जागता है। अतः जैसे विचार होते हैं , वैसा ही “मैं” अनुभव में आता है । बाद में “मैं” के द्वारा अन्य सबका दर्शन होता है । बाद में शरीर का , बैठने का , उठने का और लिटने का भी अनुभव होता है ।
चेतना जब अंदर होती है या सुप्त होती है ; तो शरीर का पता नहीं रहता । अब देखो कि जो तुम्हें अनुभव में आ रहा है , वह तुम नहीं हो । जो अंदर जग रहा है , अनुभव कर रहा है ; वह तुम हो । जो – जो दिख जाए ,भाष जाए , उसका अंदर ही अंदर निषेध करो । यह “मैं” नहीं , यह भी “मैं” नहीं । फिर और , फिर और , फिर और अंदर देखो । जो अनुभव में आए , उसका भी निषेध करो । यह भी नहीं। घुसते जाओ ; घुसते जाओ ; देखते जाओ और निषेध करते जाओ । अंत में , जब सिवाय आपके कोई न बचे, कुछ न बचे , कोई विचार न बचे ; उस निर्विचार में जो बचे , वही तुम हो ।( अविचारा द्विभाषते ) क्योंकि , विचार भी पैदा हुए हैं । वह तुम नहीं हो। विचाराभाव में जो बचता है “सोऽहम्” , बस “सोऽहम” , बस “सोऽहम” , केवल “सोऽहम्” , बस केवल “सोऽहम” । अब “सो” भी नहीं, “हम्” , “हम् “, “हम्” केवल “हम्”। “हम्” भी नहीं , “हूं” , “हूं” , “हूं” बस “हूं” । फिर धीरे – धीरे हूं भी कम , कम और कम । यदि “हूं” भी गायब हो जाए , तो गायब हो जाने दो । रह जाए केवल अस्तित्व , अस्तित्व , सत्, चित् और आनंद । कल्पना नहीं , अस्तित्व । कल्पना नहीं , निर्विकल्प – निर्विकल्प । विचार नहीं , निर्विचार । शांत , मौन रह जाए केवल “है” । खो जाए सब ।
खो गया मन , खो गई बुद्धि, खो गया सब । बच गया कुछ ; बस वही तुम हो ; बस वही तुम हो इसके बाद वही तुम नहीं । सभी तुम हो ; सभी तुम हो ; सभी तुम हो । इस दशा में ठहरो, रुको और जागो । सोचो नहीं मन से ।देखो ! कहीं कोई नहीं है । दिल से बोलो , कोई नहीं है । प्राणों से बोलो , कोई नहीं है । केवल हूं , हूं , हूं । हाथ भी हूं , पैर भी हूं , श्वांस भी हूं , आंख भी हूं , विचार भी हूं । बस “मैं हूं” , “मैं हूं” , “मैं हूं” । बस देखोगे , खो गया सब । जो होना था , हो गया । मैं वही हूं । उसी दशा में मिलूंगा , उसी शून्य में , उसी अकेले में ।
मुझसे मिलना है , तो शुन्य हो जाओ ; मौन में डूबो । मैं वहां ही तुमको सब कुछ दूंगा । जो पूछते हो , उत्तर दूंगा ; प्रेरणा दूंगा ; शक्ति और शांति सब कुछ दे सकूंगा । किंतु , वहां , जहां बस तुम अकेले हो; न हो और कोई ; न हो और किसी का ख्याल । केवल मात्र तुम ; बस तुम ; बस तुम । यही है मेरी उपस्थिति का द्वार । मुझे भी भूल जाओ । बस वहां जो कुछ मिले , वही “मैं” हूं । बस वहीं यह रहस्य खुलेगा कि हम तुम कितने एक हैं । जहां एकता भी नहीं । बिछुड़ने का भी सवाल नहीं । बस एक मात्र “है” है । बस यहीं रुको ; इसी सत्य में जियो ; आनंदित होओ । सब दिखता रहे ; सुनाई देता रहे , फिर भी शांति , फिर भी आनंद । लिखते रहो; पढ़ते रहो ; फिर भी आनंद और जागरण तथा स्थिर चेतना ।


“सा काष्ठा सा परागति:”।।

मोक्ष के लिए दृश्य से मुक्ति आवश्यक

यदि, मन को समाप्त करना है; यदि मोक्ष पाना है; तो पहले दृश्य से मुक्त हो जाओ; क्योंकि, दृश्य ही, दृष्टा  के जीने के लिए हमें लकड़ी देता रहता है। अधिक खतरे की बात तो यह है कि दृष्टा अपने को न देखें, तो दृश्य ही दृश्य भाषता रहता है। यद्यपि, लकड़ियां सुलगती हैं – कुछ देर अधिक धुआं उठता है – विचार और द्वंद मचता है; लेकिन, यदि नई लकड़ियां मिल जाती हैं, तो लपटे उठती हैं। अब दृष्टा और दृश्य के बीच में एक प्रकार का संघर्ष पैदा होता है। इसका फैसला नहीं कर सकते। ये तो तब हो, जब लकड़ियों को कुछ दूर करें। तब हमें लगे कि हम कुछ हैं और ये कुछ हैं।
       यदि इस प्रकार की आग, दस – बीस  जगह जल रही है और उनकी अपनी – अपनी लकड़ियां और अपनी-अपनी आग है, तो वे  सब अपने को कहती होंगी कि वे अग्नि हैं। ये उनकी लकड़ियां हैं। इनको  वे जलाएंगी। यदि थोड़ी देर के लिए उन्हें लकड़ियां न दी जाएं, तो कितने “मैं” रह जाएंगे? “मैं” अग्नि हूं, अग्नि हूं। हर एक का यह दावा था कि अग्नि “मैं” हूं। कितनी अग्नि रह जाएंगी? सारी अग्नियां शांत हो जाएंगी। शायद कई रह जाएंगी। जिनको आज तक देखा नहीं है।
        
      जिस अग्नि को आज तक नहीं देखा है, वह अव्यक्त आग रह जाएगी। जो दृश्य नहीं है, जो दिखाई नहीं देती। जिससे वह अव्यक्त भी होती है इसीलिए कहा है कि —
      “अव्यक्तातपुरुष: पर:”
      जहां अव्यक्त भी नहीं रहता। वह अव्यक्त के भी परे है। जो शुद्ध चैतन्य है; परमात्मा है; वही तमाम रूपों में, जितने भी  “मैं”  हैं, उनमें प्रकट हुआ है ।
मैं से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ, जो तेजोमय प्रकाश युक्त रत्न है, वह भलीभांति धुल जाने पर चमकने लगता है; उसी प्रकार इस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप अत्यंत स्वच्छ होने पर भी अनन्त जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों से मलिन हो जाने के कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता; परन्तु जब मनुष्य ध्यान योग के साधन द्वारा समस्त मलों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति प्रत्यक्ष कर लेता है, तब वह अकेला (अर्थात उसका जो जड़ पदार्थों के साथ संयोग हो रहा था, उसका नाश होकर) कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकार के दुःखों का अन्त होकर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है। उसका मनुष्य जन्म सार्थक हो जाता है। फिर जब वह योगी इस स्थिति में दीपक के सदृश निर्मल प्रकाशमय आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्म तत्व को भलीभांति प्रत्यक्ष देख लेता है, तब वह उस अजन्मा, निश्छल तथा समस्त तत्वों से असंग—सर्वथा विशुद्ध परम देव परमात्मा को तत्व से जानकर सब बन्धनों से सदा के लिए छूट जाता है।

जो स्वयं ब्रह्म हो.. वो गुरु ही पार लगा सकता है

जब परमपिता स्वरुप सतगुरु ने हमें अपनाया है, तो इसमें तो दो मत ही नहीं, सागर खुद नदियों को अपने में मिलाने बांहें फैलाए खड़ा है ,और नदियां तत्पर है सागर में समाने के लिए फिर मन में संसय क्यों? हमारे अंतर कल्याण की भावना भी उसी की कृपा में लगी है और कल्याण करने के लिए खुद सागर ही गुरु रूप में अपनी इन नदियों को समाने के लिए आये हैं।
क्योंकि अब हम निश्चय होकर इसी पंक्ति पर टिके रहें-


अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।

बादल तो सब जगह बरसते हैं, किंतु फसल वहीं पैदा होती है जहां जमीन में किसान ने बीज बोए हों।ठीक वैसे ही परमात्मा की कृपा भी बरसती है, लेकिन अहसास केवल उन्हीं को हो पाता है जिन साधकों ने हृदय-भूमि में सदगुरु के सत्संग वचन बोये हों। बडे भाग्यशाली है वो तेरे बन्दे जिन्होंने आपसे दिल लगाया है।… जिन्होंने आपका आश्रय लिया है। आपके सत्संग से प्रीति की है, आपके वचनों में श्रद्धा की है।

मैंने कई शिष्यों के जीवन मे देखा।
उनके अंदर में ईश्वर को पाने की प्यास तो थी परंतु उन्होंने वह भी गुरु की इच्छा में मिला दी।
उन्होंने कभी शंका नहीं की कि हमें ईश्वर मिलेगा अथवा नहीं।

किंतु ऐसे लोगों में सबसे बड़ा गुण यह था, उन्होंने प्रेम बहुत किया सदगुरु से। और यही उनका सबसे बड़ा साधन बन गया ईश्वर पाने का।

गुरु प्रेम में सभी साधन आ गए, क्योंकि अब अपने बल पर ईश्वर प्राप्ति नहीं करनी थी । जिसके कारण अपने में अहम पोषित नहीं हो पाया। बल्कि गुरुप्रेम रूपी नाव में बैठ जाने के कारण, वह नाव सहज में ही, ईश्वर की ओर उनको लेती चली गई।

वह ईश्वर जो बड़े-बड़े तपस्वी और योगियों को भी जंगल और पर्वतों में साधन भजन और तपस्या करने पर भी दुर्लभता से प्राप्त होता है। बड़े-बड़े शास्त्रों के विद्वानों और पंडितों को भी नहीं मिल पाता।वही दुर्लभ ईश्वर ऐसे गुरु भक्तों को सहज में ही प्राप्त हो गया।

जिन लोगों को ऐसे भक्त पागल ही लगते थे, उन पागलों ने ही अपने आप को गुरु चरणों में समर्पण करके सर्वप्रथम बाजी मार ली।
और अपने बल पर उस परमेश्वर को पाने वाले तो देखते ही देखते ही रह गए।