Posts tagged mentor

शाहीन

बाज पक्षी जिसे हम ईगल या शाहीन भी कहते है। जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है उस उम्र में एक मादा बाज अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है।  पक्षियों की दुनिया में ऐसी Tough and tight training किसी भी ओर की नही होती।
मादा बाज अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Kmt.  ऊपर ले जाती है।  जितने ऊपर अमूमन जहाज उड़ा करते हैं और वह दूरी तय करने में मादा बाज 7 से 9 मिनट का समय लेती है।
यहां से शुरू होती है उस नन्हें चूजे की कठिन परीक्षा। उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस लिए पैदा हुआ है? तेरी दुनिया क्या है? तेरी ऊंचाई क्या है? तेरा धर्म बहुत ऊंचा है और फिर मादा बाज उसे अपने पंजों से छोड़ देती है।
धरती की ओर ऊपर से नीचे आते वक्त लगभग 2 Kmt. उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है। 7 Kmt. के अंतराल के आने के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने लगते है।
लगभग 9 Kmt. आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते है। यह जीवन का पहला दौर होता है जब बाज का बच्चा पंख फड़फड़ाता है।
अब धरती से वह लगभग 3000 मीटर दूर है लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है। अब धरती के बिल्कुल करीब आता है जहां से वह देख सकता है उसके स्वामित्व को। अब उसकी दूरी धरती से महज 700/800 मीटर होती है लेकिन उसका पंख अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है की वो उड़ सके।
धरती से लगभग 400/500 मीटर दूरी पर उसे अब लगता है कि उसके जीवन की शायद अंतिम यात्रा है। फिर अचानक से एक पंजा उसे आकर अपनी गिरफ्त मे लेता है और अपने पंखों के दरमियान समा लेता है।
यह पंजा उसकी मां का होता है जो ठीक उसके उपर चिपक कर उड़ रही होती है। और उसकी यह ट्रेनिंग निरंतर चलती रहती है जब तक कि वह उड़ना नहीं सीख जाता।
यह ट्रेनिंग एक कमांडो की तरह होती है।. तब जाकर दुनिया को एक शाहीन यानि बाज़ मिलता है l शाहीन अपने से दस गुना अधिक वजनी प्राणी का भी शिकार करता है।
हिंदी में एक कहावत है… “बाज़ के बच्चे मुँडेर पर नही उड़ते।”
बेशक अपने बच्चों को अपने से चिपका कर रखिए पर एक शाहीन की तरह उसे दुनियां की मुश्किलों से रूबरू कराइए, उन्हें लड़ना सिखाइए। बिना आवश्यकता के भी संघर्ष करना सिखाइए। ये Tv के रियलिटी शो और अंग्रेजी स्कूल की बसों ने मिलकर आपके बच्चों को “ब्रायलर मुर्गे” जैसा बना दिया है जिसके पास मजबूत टंगड़ी तो है पर चल नही सकता। वजनदार पंख तो है पर उड़ नही सकता क्योंकि…
गमले के पौधे और जंगल के पौधे में बहुत फ़र्क होता है।

मन का ज्ञाता साक्षी


मन जिससे महसूस होता हो; मन जिसके पहले न रहा हो; जिसने मन के होने को समझा हो, जिसे मन के विलय होने का पता रहता हो; जिसे मन के सो जाने का पता रहता हो; ऐसा जिसको पता चलता हो, उसी को तुम ब्रह्म जान लेना।
“तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि”
ब्रह्म को इन्द्रियों की सीमा में मत खोजते रहना ।
गो गोचर जहं लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।”
मन की सीमा में यदि परमात्मा मिल भी जाए; इंद्रियों की सीमा में परमात्मा आ भी जाए; तो वह परमात्मा का साकार रूप होगा, आराध्य रूप होगा। वह भी हमारे कल्याण का कारण बन सकता है; लेकिन, मृत्यु भय साकार भगवान से नहीं जाता। किसी भी साकार भगवान के दर्शन से, उनके मिलने से, मृत्यु भय नहीं गया। उनके उपदेश की बात मैं नहीं कहता।
अर्जुन भगवान के साथ ही तो था। उसका शोक नहीं गया; मृत्यु भय नहीं गया; राग-द्वेष नहीं गया। भगवान को उपदेश ही देना पड़ा। मान लो कि मैं भगवान हूं। क्या मेरे देखने से आपका अभिमान चला जाएगा? मेरे देख लेने के बाद, यदि आपको सांप काट ले, तो मरने के भय में फर्क पड़ेगा? क्या हो जाएगा? देह वाले की मौत वैसे ही रहेगी; चाहे भगवान नहीं भगवान के बाप ही क्यों न हों। मेरे ख्याल से भगवान के तो बाप ही नहीं होता। क्यों! भगवान के भी बाप होता होगा? भगवान तो होता ही सब का बाप है; इसलिए, भगवान का कोई बाप नहीं होता। भगवान बिना बाप का होता है। जो बिना बाप का होता है, उसी का नाम भगवान है । समझ गए! जो बिना बाप के हो, अर्थात अजन्मा हो आत्मा हो जिसने अपने भीतर उसकी उपस्थिति को समझ लिया हो, वही परमात्मा है। जिसका जन्म ही नहीं होता, उसका बाप कैसे होगा? वही बापों के बाप के बाप तुम भी हो सकते हो सिर्फ इस ब्रह्म ज्ञान का पान तो ठीक से करो।

आत्मा का स्वभाव


एक सज्जन ने पूछा है कि आत्मा निर्गुण है, उसमें देखने का गुण नहीं हो सकता और प्रकृति जड़ है, इसलिए वह देख नहीं सकती। फिर देखा कैसे जाता है? ( देखता कौन है )?
देखना, जानना और अनुभव करना किसका धर्म है ?
परमात्मा या आत्मा, जो चैतन्य है, उसमें देखने का गुण नहीं है; क्योंकि, वह निर्गुण है। जिसमें कोई गुण नहीं होता, उसमें देखने का भी गुण नहीं होता; तभी तो उसे निर्गुण कहते हैं। निर्गुण देख नहीं सकता। प्रकृति गुण वाली है, उसमें गुण हो सकते हैं; लेकिन, वह स्वयं जड़ है; इसलिए, उसमें भी देखने का गुण संभव नहीं है। जानने का गुण संभव नहीं है। फिर यह देखना, जानना और अनुभव करना किस का गुण है? कौन अनुभव करता है? इस प्रश्न पर विचार करना है।
आप लोग यह जानते हैं कि आपको आंखों से रूप दिखाई दे रहा है और कानों से प्रवचन सुनाई पड़ रहा है। यह स्पष्ट है। इस सत्य को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। आप यह भी जानते हैं कि स्वप्न के समय इन आंखों से दिखाई देना और कानों से सुनाई देना बंद हो जाता है। फिर यह देखना धर्म किसका है?
यदि हम दूरबीन ले लेते हैं, तो बहुत दूर तक दिखाई देने लग जाता है और यदि हम दूरबीन को उतार देते हैं, तो जिस चीज को देख रहे थे, उस चीज का दिखना बंद हो जाता है। हम एक खुर्दबीन ले लेते हैं, तो ऐसे अवयव, जो कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं, दिखाई देने लगते हैं। जब हम उसे हटा देते हैं, तो दिखाई देना बंद हो जाता है। ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो आंखों से सीधी नहीं दिखाई देती। देखना गुण क्या दूरबीन का है या खुर्दबीन का है या नेत्र का है? क्या कहेंगे? दूरबीन से वह वस्तु दिखाई पड़ती है और दूरबीन के बिना दिखाई नहीं पड़ती। तो देखने की जो सामर्थ्य है, वह नेत्र की है या दूरबीन की है?
हम इस बात को और स्पष्ट करेंगे। यदि आप देखना गुण खुर्दबीन या दूरबीन का कहेंगे, तो हम आपकी आंखें हटा लेते हैं। अब कहो खुर्दबीनें और दूरबीनें देखेंगी? एक के बाद एक कितनी ही दूरबीनें लगा दीजिए; किंतु, वस्तु का दर्शन नहीं होगा। आप यह भी जानते हैं कि यदि दूरबीन हटा लेते हैं, तो वस्तु दिखाई देना बंद हो जाती है। इस समय भी आंखों में देखने का गुण है; किंतु, दिखाई नहीं देता दूरबीन उसका साधन बनती है; साधन न होने पर दिखना बंद हो जाता है। इसी तरह आँखे भी साधन ही हैं। साधन और साध्य को समझना होगा बारीकी से जानना होगा तभी मानोगे और बुद्धि में छपेगा नहीं तो सुनने का मनोरंजन होगा कल तक सब भूल जाओगे इसलिए इसे समझने का सतत प्रयास ही इस से भलीभांति अवगत करा सकता है।

श्रवण, मनन, निदिध्यासन

वृक्ष को जन्म देने के लिए, बीज को शांत होकर जमीन में बैठ जाना होगा। जब हमने शास्त्रों द्वारा सुन लिया, गुरुजनों से सुन लिया कि “मैं आत्मा हूं” या ” मैं ही ब्रह्म हूं “तो अब पाने की अभिलाषा खत्म। अभी मिला नहीं है, अनुभव में नहीं आया है, तो भी शास्त्र – बल से तुम्हारी बुद्धि, जो बहिर्मुखी थी, वह शांत हो गई। गुरु – वचनों से तुम्हें लगा कि तुम जो मर जाने वाले थे, नहीं मरते। लेकिन, अभी पूर्ण शांति नहीं आई। अभी चित्त थोड़ा सा शांत हुआ है। जब हम ही हैं, तो कहां जाएं। क्योंकि, वह हम में है, तभी बुद्धि शांत होने शुरू हुई। जब बुद्धि शांत हुई, तो अंदर का जो साक्षी है, अंदर जो चैतन्य है, अंदर जो आत्मा है, वह आंखों में आना शुरू हो जाएगा। यह हुआ ध्यान।
पहले हुआ श्रवण; फिर श्रवण किए हुए पर विचार किया। जब मन को सच्चा लगने लगा, तो बुद्धि अपने – आप वैसी ही होनी शुरू हो जाती है। यह बुद्धि का नियम है। यदि तुम्हारे मन में आवे कि वहां मूत्र होने के लायक जगह है, तो वहीं मूत्र के लिए जाओगे। छोटी सी क्रिया के प्रति हम जो फैसला करते हैं, वैसी ही क्रिया होने लग जाती है। जब तुम्हारे चित्त में यह फैसला हो जाए की अंदर की आत्मा अविनाशी है और वह अंदर ही है; तो आनंद की जो तलाश बाहर थी, वह रुकेगी और अंदर बैठना शुरू होगा।
इस बैठने को ही हम उपासना कहते हैं। सुनने को कर्म कहते हैं। पा जाने को (अनुभव में आ जाने को ) ज्ञान कहते हैं। यह जो सुनते हो उसे श्रवण कहते हैं। यदि तुमको सुनने में अच्छा लगे और वैसा ही तुम्हारा मन अंदर से शांत होने लगे, तो उसे “मनन” कहते हैं। तुमको यदि जंच गया और मन शांत होकर अंदर आनंद की अनुभूति होने लगी, तो उसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। अंदर साक्षात्कार न हुआ हो; परंतु, अनुभव में आने की तैयारी होने लग जाए, सच्चा लगने लग जाए; तो इसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। यदि पूर्ण साक्षात्कार हो जाए, तो श्रवण, मनन और निदिध्यासन व्यर्थ है।
ध्यान शब्द का अर्थ है “निदिध्यासन”। निदिध्यासन को कई जगह ध्यान भी कहा गया है। ध्यान का अर्थ है कि सुने हुए का अनुभव करने के लिए चित्त तद्रूप होकर शांत होता जाए। वृत्ति निश्चल होती जाए, यह ध्यान है। उस ध्यान के निश्चलता में यदि बुद्धि की वृत्ति बिल्कुल शांत होकर उस आनंद में निमग्न हो जाए, अंतर्साक्षी का अनुभव होने लग जाए, तो उसे हम साक्षात्कार कहते हैं। इसी को समाधि कहते हैं।

वेदान्त किसे कहते हैं?


जो दर्शन इसकी एकता कर दे; इस भेद को नष्ट कर दे; हमारी चेतना में जो जमा हुआ भेद है, वह समाप्त कर दे; उस दर्शन को हम वेदांत कहते हैं। पर,जो भेद को स्थापित करें; भले ही वह शांति दे दे; भले ही वह शरीर के पार ले जावे; राग और द्वेष क्षीण करें; किंतु, अस्मिता का अंत नहीं होगा। वह परिच्छिन्न अस्मिता को खड़ी रखता है; परंतु, वेदांत अस्मिता पर कुठाराघात करता है। वेदांत अस्मिता को मारता है। सारे दर्शन अभिनिवेश को हटाते हैं; लेकिन, परिच्छिन्नता वह भेद को नष्ट नहीं करते। अस्मिता को खड़ी रखते हैं।
ध्यान से “हूं” तो बच जाएगा; लेकिन, अभिनिवेश अलग हो जाएंगे। जाति का अभिनिवेश हटेगा; ऊंच-नीच का अभिनिवेष हटेगा; अमीरी – गरीबी का हटेगा; चित्त शांत हो जाएगा; अंह को शांति मिलेगी; समाधि प्राप्त हो जाएगी। परंतु, यह “हूं” सब के साथ अभिन्नता का अनुभव नहीं करेगा। यह “हूं” जब बचे , तब “अहंब्रह्मास्मि ” आदि वाक्य काम करेंगे। जब साधक शरीर से मुक्त होकर शांत हो जाता है; तब वेदांत कहता है, “वह तू है”। इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है —–
“नाशान्त मनसो ह्याशुबुद्धि: पर्यवतिष्ठति”
जिसका चित्त शांत नहीं है, वेदांत में उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती। मैं सर्वत्र हूं, यह बात समझ में नहीं आती। जो शरीर से पृथक् नहीं हो पाया, वह “मैं ब्रह्म हूं”, यह वेदान्त की बात कैसे समझेगा? इस ब्रह्मभाव और वेदांत तक पहुंचने के लिए योग और सांख्य, ये दो साधन हैं। योग और सांख्य द्वारा पहले शरीर से पार जाओ। वेदांत कहता है कि यह जो चेतना है, सर्वत्र रहने वाली है। यह जो सत्ता है, यह ब्रह्म है। वेदांत, योग और सांख्य के पीछे आता है।
बोधसार नामक पुस्तक में एक प्रसंग आता है कि सांख्य और योग, इन दो हाथों के द्वारा वेदांत को उपलब्ध करो। यम, नियम और आसन आदि पांच – पांच अंगुलियों वाले दो – दो हाथ हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे पांच – पांच उंगलियों के दो-दो हाथ हैं। सांख्य और योग के , पांच – पांच अंगुलियों वाले दो हाथों से, हम जिसको हस्तगत करना चाहते हैं , वह वेदांत है। इसलिए, सांख्य और योग के द्वारा अद्वैत वेदांत का रहस्य ज्ञात होता है। अद्वैत माने, जहां कोई और नहीं है। तात्पर्य यह कि सब शरीर रहेंगे, सारे मकान रहेंगे, सारे ढेले रहेंगे; लेकिन, मिट्टी एक हो जाएगी।

🙏🚩ॐ श्री गुरुवे नमः 🚩🙏
( गुरुवाणी ) ग्रंथ – दो दिशाओं की यात्रा एक साथ भाग -13

द्वेत जानना ही होगा


तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:


उसे कहां शोक, कहां मोह, कहां चिंता और कहां भय। ये हमारे वेद वाक्य हैं, उपनिषद् वाक्य हैं। बड़े भाग्यशाली हो, जो सुनने को मिलता है। सुनते – सुनते निष्ठा बनती है और धीरे-धीरे कमियां दूर होती हैं। कोई चाहे जैसा हो, सब में अभी कमियां हैं। सिद्ध कोई नहीं है, प्रयास करो, प्रमाद मत करो। और किसी को देखने से, अपने में कोई फर्क नहीं पड़ जाता है। इसीलिए, जो जहां तक है, ठीक है। हो सके, तो अपनी गहराई को देखते जाओ, घबराओ बिल्कुल नहीं।
अब हम अपने अंदर अभिनिवेश नहीं पाते हैं। अस्मिता नहीं, अभिनिवेश। अस्मिता के तो छोड़ने का अभ्यास करते हैं; अभिनिवेश से तो निवृत्त हैं। अभिनिवेश से मुक्त हैं; पर, अस्मिता से अभी मुक्त नहीं है। अस्मिता से मुक्त न होने के कारण “मैं” जब तक मजबूत रहता है, तब तक द्वैष और भेद भी कभी-कभी उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि, मैं अलग हूं, तो मेरा सम्मान अलग, मेरी भूख अलग, मेरा जीवन और उन्नति अलग। जब तक मैं अलग हूं, तब तक मेरा सब कुछ अलग रहेगा। इसीलिए, अभी तो हम अस्मिता का अभ्यास करते हैं। हम किसी और को कैसे कह दें। ध्यान, अभ्यास और साक्षी भाव से आदमी अस्मिता पर जाता है, शरीर से पृथकता का बोध होता है।
मैं अपनी बात बताऊं। मुझे शरीर से पृथकता का तो बोध है; लेकिन, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति अभी गहरी नहीं है। यदि, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति गहरी हो जाएगी, तो तुम्हारे प्रति कभी विकार और क्रोध नहीं हो सकता। कहा है कि —–

“क्रोध की द्वैतक बुद्धि बिनु ,,
द्वैत कि बिनु अज्ञान।
माया बस परिच्छिन्न जड़,
जीव कि ईश समान।।”

ये सत्य बात है कि जिस दिन हमारे जीवन से द्वैत भाव चला जाएगा, उस दिन क्रोध भी चला जाएगा; क्योंकि , अपने – आपसे क्या कभी द्वैष होता है? अपने मित्र से और पत्नी से द्वेष हो सकता है। अपने पिता से भी लड़ाई हो सकती है; लेकिन,अपना नुकसान करने की वृत्ति कभी होती है क्या? क्या कोई अपने आप का अहित अपने आप का नुकसान करेगा? क्या कोई अपने आप को दुखी करेगा? दूसरे को दुखी देखकर खुशी होती है। दूसरा यदि आपत्ति में फंसा हो, तो परवाह नहीं होती; लेकिन, स्वयं आपत्ति में फंसे हो क्योकि द्वैत समझते हो सब ये जग तुम और तुम ये जग नही हो जाते तब तक शांति मिल नही सकती इसलिए सद्गुरु का सिखाया द्वेत समझ न आ जाये…

उदाहरण

गुरुदेव इतनी सरल भाषा में वेदांतदर्शन समझाते हैं कि कभी कभी विश्वास नहीं होता कि जिसके लिए बड़े बड़े ज्ञानी लोग कितना भटके यहाँ गुरुदेव के चरणों में बैठ कर उस बंधे हुए ज्ञान को सरलता से गांठ की तरह खोल देते हैं।

देखो, यह एक गाँठ है। (एक कपड़े में अलग-अलग तीन गाँठें लगाईं)। पहले नंबर की गाँठ का नाम रख लो जाग्रत, दूसरे नंबर की गाँठ का नाम  स्वप्न और तीसरे नंबर का  नाम सुषुप्ति।  अब ये तीनों चक्कर लगाएंगी। जब पहली चली जाती है तो दूसरी आती है।  जब दूसरी चली जाती है तब तीसरी आ जाती है। और जब तीसरी जाती है तब फिर पहली वाली आ जाती है। इस तरह यह प्रक्रिया चलती रहती है । इनमें कोई भी परमानेंट नहीं है और किसी ने किसी को देखा भी नहीं है। कोई एक चौथा है जिसने पहली को भी देखा, दूसरी को भी देखा और तीसरी को भी देखा। वही चौथा बता पाता है कि जाग्रत आया था फिर स्वप्न आया फिर सुषुप्ति आयी थी। अर्थात्  इन का गवाही कौन है, साक्षी कौन है ? क्या जाग्रत मेरी गैरहाजिरी में हुई? स्वप्न, सुषुप्ति क्या मेरी गैरहाजिरी में हुईं? क्या सुषुप्ति(गहरी नींद)  जाग्रत की गवाह है या जाग्रत सुषुप्ति की गवाह है? इन तीनों में जो गवाह है वह आप हैं।

साक्षी के ध्यान को सीखो और शाश्वत हो जाओ


पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं! अनासक्त हो जाओ!
राग द्वेष वियुक्तैस्तु राग और द्वेष का त्याग कर दो। कोई आवे, कोई जावे, मैं एक चेतना का दीप जलाए बैठा हूं। चेतना का दीप! जब हम कोई ऑब्जेक्ट रखना चाहते हैं, विषय रखना चाहते हैं तो परेशानी पैदा कर लेते हैं। तो आप चेतना को रखो। अब आखरी बात खतरे की है, उसमें जरूर थोड़ी गहरी सोच चाहिए। यहां तक तो आप इमानदारी से चाहे तो अनुभव कर सकते हो। एक संकल्प करो कि आज हम ध्यान में किसी को लाने या हटाने का काम नहीं करेंगे! घर हटाना नहीं, मंत्र लाना नहीं, अच्छे को लाना नहीं बुरे को हटाना नहीं! तुम्हें क्या करना है? अच्छे बुरे का आग्रह छोड़ देना है और जागे रहना है।  ‘मैं जगा हूं’ यह ख्याल आया, अच्छा आ गया या बुरा आ गया दोनों ख्यालों में जगे रहो! पर आप का आग्रह जब किसी चीज का होगा तो उसके आने से जागा मानोगे जाने से सोया मानोगे। तो आग्रह छोड़ दो, बिल्कुल आग्रह छोड़ दो! आप का आग्रह है कि मैं जग रहा हूं, श्वास आई, नहीं आई, धीमी हो गई, ख्याल आया, नहीं आया,  मैं जागा हूं! तो यह मंत्र का मूल महामंत्र है! यह महामंत्र है कि मेरे सामने यह हुआ, यह हुआ, यह हुआ, मेरे सामने हुआ इसका मतलब मैं अध्यक्ष हूं! मेरी अध्यक्षता में सब हुआ! मेरी आंखों के सामने हुआ! इन आंखों के नहीं, मैं ही आंख हूँ! इसीलिए स+आखी= साखी, साक्षी, मैं आंख हूँ! मेरे सामने यह हुआ! मेरे सामने! मेरे सामने! मेरे सामने! ठीक है? आप आंख हो! इन आंखों से(चर्मचक्षनओं से) तो बहुत दिन देखा है अब यह आँख आप खोलो!  प्रमाद मत करो! आपको लगे, हां! मेरे ख्याल में यह आया! यदि आप चुनाव करोगे तो परेशान हो जाओगे। इसीलिए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, ठीक है? अब चुनाव ना करो, जागो!

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, अाप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता। चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो!
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो  उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता।  तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि  अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं।  वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं!
तब भी थे तुम ही! अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी  है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!

गुणों के पार – मुक्त

पुज्य गुरूदेव बताते हैं, मुक्त कौन होगा ? जो गुणों से पार हो जाएगा।

गुण तीन प्रकार के हैं:

तमोगुण; मतलब आलस्य निद्रा। इस गुण में रहेंगे तो मरने के बाद अन्य योनियों में जाओगे। जैसे पक्षी, जानवर आदि।

रजोगुण; इस गुण में रहोगे तो मृत्यु के बाद भी मनुष्य योनी में ही आओगे।

सत्वगुण:बअगर इस दुनिया में सत्वगुणी रहोगे तो देवता बन जाओगे।

पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि तुम इन्हीं तीन गुणों में रहते हो। कभी जागृत कभी स्वप्न और कभी सुषुप्ति। इसको चक्र कहते हैं। उदाहरण से समझाते हैं, आपकी नाव पानी में चलती है। नाव में ही इस किनारे, फिर बीच में और आखिर में उस किनारे। नाव से तुम उतरे ही नही।
अपने को कैसे पहचाने कि हम तीन गुणों से बाहर गये।यह बहुत बडा रहस्य है। पुज्य गुरूदेव समझाते हैं—


जो जान जाएगा यह सब गुणों का काम है।मैं तो साक्षी हूँ। मेरा कोई आग्रह नही है।


जब सचमुच गहराई से दुख,चिन्ता, भय नही है। ऐसे ज्ञानी चुनाव रहित होते हैं। जो होता है,होने देते हैं।


जब अमर हैं तो धीर्घ आयु की जरूरत ही क्या है या मृत्यु का विरोध करोगे?


अगर खुद सुखस्वरूप हो तो सुख पाने की इच्छा करोगे। जब कमी ही नही है तो पूर्ति किसकी करोगे।


पुज्य गुरूदेव बताते हैं मुक्त वही है जो इन गुणों से पार हो जाएगा।ज्ञानी चुनाव छोड के गुणातीत होता है। जैसे सागर नदियों को बुलाता नहीं हैं अपने आप आ जाती हैं और मना भी नहीं करता है क्यों आ गये।सागर शान्त रहता है।उदाहरण से समझो—


जैसे नारियल में पहले सिर्फ पानी होता; फिर पानी और गिरी भी; और अन्त में खाली गिरी।कोश से चिपका नही।अलख होता है, बाहर नही।


जैसे ज्योति जल रही हैं। डक दी गई। बाहर वालों के लिए वह बुझी सी है, पर ज्योति से पूछो कि तुम जगी हो या सोई हो।

अयमात्मा ब्रह्म (महावाक्य)

यदि तुम जागे रहो तो स्वप्न तुम पर हावी नहीं हो सकता। स्वप्न तब आएगा जब तुम इस देह को भूलकर तुम खुद स्वप्न बन जाओ। साँप तुम्हें तभी डसेगा जब तुम देह हो, चाहे जाग्रत के देह हो, चाहे स्वप्न के देह हो। यदि तुम देह नहीं हो और साँप डस भी जाए तो किसे डसेगा? क्या तुम्हें डसेगा? भौतिकवादी कहेगा कि साँप है और डस गया । अरे, जिसमें चेतना ही न हो और साँप डस गया तो किसे डस गया? जिस मकान में कोई रहता ही नहीं है, यदि वो टूट भी जाए तो कौन सा फर्क पड़ने वाला है? अर्थात् चेतना जब भौतिक देह में होगी तो भौतिक जगत है, स्वप्न में है तो स्वप्न जगत है और यदि आत्म देह में है तो ब्रह्म है। इसलिए जब तुम आत्मा में होगे, तब तुम्हें परमात्मा मिलेगा। जब तक तुम आत्मा नहीं हो, तुम्हें परमात्मा नहीं मिलेगा। क्योंकि परमात्मा का अंश- व्यष्टि और समष्टि दोनों ही हैं। व्यष्टि जगत समष्टि जगत, व्यष्टि स्वप्न समष्टि स्वप्न, व्यष्टि आत्मा समष्टि आत्मा, परमात्मा हो तो ब्रह्म मिल गया। अयमात्मा ब्रह्म। और भी बताऊँ- तुम जीव होगे तो ईश्वर मिलेगा? नहीं मन और तन होगे तो संसार ही मिलेगा।