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निर्ममेति

एक बार दीपक कहने लगा कि “जिस घर में मैं जलता हूं, उस घर में मैं अंधेरे को नहीं आने देता”। हमने कहा भई! ज्यादा न बोलो, जरा संभल के बोलो। ये कहो “जहां मैं रहता हूं, वहां अंधेरा आता ही नहीं है”। वहां अंधेरा रहता नहीं कि तू आने नहीं देता? अंधेरे को तो कोई धक्का दिये रहता है , जो नहीं आने देता । कोई रोके रहता है उसे?
“मेरा है ” कहते ही बंधन..
अभी जब यहां सत्संग चल रहा था, हम लाउडस्पीकरों की आवाज सुन रहे थे। इधर चार स्पीकर लगे हैं, उधर दो लगे हैं। हम खड़े होकर यह पता लगा रहे थे कि कहां की आवाज सुन रहे हैं? एक बालिश्त के फर्क में हम इधर के स्पीकरों की आवाज सुनते थे। और एक बालिश्त के फर्क से खड़े होते ही यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह आवाज होती है। केवल एक बालिश्त की दूरी का यह प्रभाव है। सच तो यह है कि एक बाल बराबर दूरी का भी यही प्रभाव होगा। यदि मशीन से सुना जाए, तो बाल बराबर इधर आते ही यह आवाज़ सुनोगे और बाल बराबर उधर जाते ही वह आवाज़ सुनोगे। एक सीमा रेखा होती है, बस इतना ही फर्क है।
जब भौतिक जगत् में, एक बाल बराबर दूरी से इतना फर्क पड़ सकता है, तो “मेरा नहीं है , भगवान का है” की जमीन पर खड़े होते ही, बस इतना सा ख्याल करते ही, आदमी मुक्त हो जाता है और “मेरा है” यह ख्याल आते ही वह बंध जाता है, फंस जाता है।

“द्वे पदे बंद मोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन् र्तनिर्ममेति विमुच्यते।।”

“निर्ममेति”, “मेरा नहीं है”, कहते ही मुक्त हो जाता है और “मेरा है”, कहते ही बंध जाता है। मैं कहता हूं, यह तो एक सूत्र है। ऋषियों ने ऐसे लाखों सूत्र दिए हैं। एक भी सूत्र पकड़ लो, तो मुक्त हो जाओगे।

मैं हूँ



बस इतना ही समझना है। इस मैं और हूँ के के बीच जो कुछ भी है वो तुम नही हो.. तुम सिर्फ हो! और कहाँ नही हो? किसमें नहीं हो? कण कण में तुम, क्षण क्षण में तुम पर तुम कुछ किसी एक को ओढ़ के पहनके अपने आप को वही समझने लगते हो, सीमित “मैं” में सीमित कर लेते हो और अपनी असीमितता को भूल जाते हो…और जन्मों लगा लेते हो स्व स्वरुप में आने को…

अपना होना अनुभव में आते ही “मैं” भाव जागृत हो जाता है। अहम् ज्ञान के जगते ही लगता है कि मैं आदमी हूं , औरत हूं , भाई हूं , बहन हूं , अमीर हूं , गरीब हूं , ऊंच हूं , नीच हूं , सुखी हूं , दुखी हूं , हिंदू हूं और मुसलमान हूं । “मैं हूं” का ज्ञान होने पर अन्य सर्व भाग खड़े होते हैं । “मैं हूं” सुप्त होते ही अन्य सर्व भाव सो जाते हैं । प्रथम स्वयं का होना भासता है ; इसके बाद संपूर्ण संसार का । “मैं” प्रथमाभाष है और “यह” द्वितीयाभाष है । “मैं” बुद्धि सारूप्य जागता है। अतः जैसे विचार होते हैं , वैसा ही “मैं” अनुभव में आता है । बाद में “मैं” के द्वारा अन्य सबका दर्शन होता है । बाद में शरीर का , बैठने का , उठने का और लिटने का भी अनुभव होता है ।
चेतना जब अंदर होती है या सुप्त होती है ; तो शरीर का पता नहीं रहता । अब देखो कि जो तुम्हें अनुभव में आ रहा है , वह तुम नहीं हो । जो अंदर जग रहा है , अनुभव कर रहा है ; वह तुम हो । जो – जो दिख जाए ,भाष जाए , उसका अंदर ही अंदर निषेध करो । यह “मैं” नहीं , यह भी “मैं” नहीं । फिर और , फिर और , फिर और अंदर देखो । जो अनुभव में आए , उसका भी निषेध करो । यह भी नहीं। घुसते जाओ ; घुसते जाओ ; देखते जाओ और निषेध करते जाओ । अंत में , जब सिवाय आपके कोई न बचे, कुछ न बचे , कोई विचार न बचे ; उस निर्विचार में जो बचे , वही तुम हो ।( अविचारा द्विभाषते ) क्योंकि , विचार भी पैदा हुए हैं । वह तुम नहीं हो। विचाराभाव में जो बचता है “सोऽहम्” , बस “सोऽहम” , बस “सोऽहम” , केवल “सोऽहम्” , बस केवल “सोऽहम” । अब “सो” भी नहीं, “हम्” , “हम् “, “हम्” केवल “हम्”। “हम्” भी नहीं , “हूं” , “हूं” , “हूं” बस “हूं” । फिर धीरे – धीरे हूं भी कम , कम और कम । यदि “हूं” भी गायब हो जाए , तो गायब हो जाने दो । रह जाए केवल अस्तित्व , अस्तित्व , सत्, चित् और आनंद । कल्पना नहीं , अस्तित्व । कल्पना नहीं , निर्विकल्प – निर्विकल्प । विचार नहीं , निर्विचार । शांत , मौन रह जाए केवल “है” । खो जाए सब ।
खो गया मन , खो गई बुद्धि, खो गया सब । बच गया कुछ ; बस वही तुम हो ; बस वही तुम हो इसके बाद वही तुम नहीं । सभी तुम हो ; सभी तुम हो ; सभी तुम हो । इस दशा में ठहरो, रुको और जागो । सोचो नहीं मन से ।देखो ! कहीं कोई नहीं है । दिल से बोलो , कोई नहीं है । प्राणों से बोलो , कोई नहीं है । केवल हूं , हूं , हूं । हाथ भी हूं , पैर भी हूं , श्वांस भी हूं , आंख भी हूं , विचार भी हूं । बस “मैं हूं” , “मैं हूं” , “मैं हूं” । बस देखोगे , खो गया सब । जो होना था , हो गया । मैं वही हूं । उसी दशा में मिलूंगा , उसी शून्य में , उसी अकेले में ।
मुझसे मिलना है , तो शुन्य हो जाओ ; मौन में डूबो । मैं वहां ही तुमको सब कुछ दूंगा । जो पूछते हो , उत्तर दूंगा ; प्रेरणा दूंगा ; शक्ति और शांति सब कुछ दे सकूंगा । किंतु , वहां , जहां बस तुम अकेले हो; न हो और कोई ; न हो और किसी का ख्याल । केवल मात्र तुम ; बस तुम ; बस तुम । यही है मेरी उपस्थिति का द्वार । मुझे भी भूल जाओ । बस वहां जो कुछ मिले , वही “मैं” हूं । बस वहीं यह रहस्य खुलेगा कि हम तुम कितने एक हैं । जहां एकता भी नहीं । बिछुड़ने का भी सवाल नहीं । बस एक मात्र “है” है । बस यहीं रुको ; इसी सत्य में जियो ; आनंदित होओ । सब दिखता रहे ; सुनाई देता रहे , फिर भी शांति , फिर भी आनंद । लिखते रहो; पढ़ते रहो ; फिर भी आनंद और जागरण तथा स्थिर चेतना ।


“सा काष्ठा सा परागति:”।।

जीवन का सत्य

क्रिया जनित सुख में “राग” ही विषयानंद की वासना है। क्रिया द्वारा मिले हुए सुख का संस्कार मन पर छूट जाता है; फिर उस विषय की चर्चा से, समघटना के दर्शन से या एकांत चिंतन से, क्रिया जनित सुख का पड़ा हुआ संस्कार जाग जाता है। बस यही है “काम”; जिससे फिर उसी कर्म करने की मन में कामना होती है। यदि कामना की पूर्ति की गई, तो पराधीनता, कामना वृद्धि, शक्ति -ह्रास और असमर्थता है। कामना दमित की गई, तो बार-बार याद आएगी और संस्कार गहरा होगा तथा अन्त: में प्रवेश कर जाएगा। अन्त में, ओझल तक हो जाएगा; किंतु, मिटेगा नहीं और फिर कभी न कभी बाहर आएगा। फिर दमन के लिए उतना ही बल प्रयोग करना पड़ेगा।
दमन से संस्कार की मौत नहीं होती या क्रिया जनित सुख का राग – विषासक्ति नहीं मिटती। अतः क्रिया रहित होकर मन में होने वाले संस्कारों को उठने दिया जाए और साक्षी, असंग, शांत और मौन होकर सहज भाव से देखा जाए। उठने वाले संस्कार का न तो रस लिया जाए और न उससे द्वेष किया जाए; तो संस्कार अपने- आप आना बंद कर देंगे। उस स्मृतिशून्य, अप्रयत्न दशा में, जो आनंद स्वयं में मिलेगा; उससे क्रिया जनित सुख का राग मिट जाएगा; विषयासक्ति नहीं रहेगी; तब आवश्यक कर्म स्वत: होने लगेंगे। स्व में, आनंद से पूर्ण दशा में, सहज होने वाले कर्म का नाम ही सदाचार है। आत्मतृप्ति के बिना सदाचार का जन्म हो ही नहीं सकता। आत्मतृप्ति के अभाव में, विषय सुख के प्रति आकर्षण रहेगा। विषयाकर्षण के रहते, विषय का त्याग सदाचार नहीं है; इसे मिथ्याचार कह सकते हैं।

“कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।”

इस साक्षी साधना और ध्यान से बड़ी कोई ध्यान-साधना नही है।

“मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

“हमारे” दो हिस्से हो गए हैं -एक चैतन्य का हिस्सा और दूसरा प्रकृति का प्रकृति और पुरुष मिलकर हम “मैं” हो गए हैं। यदि, इनसे प्रकृति सब हटा दी जाए, तो एक रह जायेगा। सब “मैं” समाप्त हो जाएंगे। इसीलिए कहते हैं कि यह नानात्व भ्रम हैं। “हम” केवल भ्रम हैं। जो नहीं हैं, उनके मरने का सवाल क्या है? “हम” कुछ नहीं हैं। यह बहम है कि “हम” भी कुछ हैं। इसीलिए मुक्ति का चक्कर है। मुक्ति मिलती नहीं है। “मैं” का ही छुटकारा है। “मैं” से छुटकारा पा जाओ, बस मुक्त ही मुक्त हो। तुम जो “मैं” बन बैठे हो, यही मौत है। इसीलिए “मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है। “मैं” की मुक्ति नहीं होती। तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी। तुम ही नहीं रहोगे, यही मुक्ति है।
हम क्या हैं ?
यही देखना है कि “हम” क्या हैं? आग कहती है कि “मैं” न मरूं। अपने जीने के लिए लकड़ियां समेटने की जो आग की प्रवृत्ति है, यही अज्ञान है। यह पता चल गया कि आप सदा जीवित है। साइंटिस्ट लोग लकड़ीयां नहीं समेटते। वे कहते हैं कि हम आग को फिर प्रकट कर लेंगे। यह तो पहले के लोग कंडे (उपले ) गाड़- गाड़ कर आग को टिकाया करते थे; क्योंकि, उन्हें मालूम नहीं था। सोचते थे आग बुझ न जाए। उनको पता नहीं था कि आप कभी बुझा नहीं करती। वह हमेशा है, नित्य है और अव्यक्त है। चाहे जब उसे प्रकट किया जा सकता है। क्योंकि, जब पहले प्रकट हुई है; तो फिर भी प्रकट हो सकती है।
चेतना कितनी ही बार प्रकट हुई है। जो अव्यक्त चैतन्य है; वह नित्य विद्यमान है; फिर प्रकट हो सकता है। लेकिन, यह “मैं” घबरा जाता है कि ” मैं” मर न जाऊं, “मैं” मर न जाऊं। तेरे जैसे कितने “मैं” हो गए हैं और अभी होने की भी क्या कमी है? जो अभी बना है और बना रहेगा; लेकिन, यह “मैं” कहता है कि “मैं” मर ना जाऊं। जैसे अग्नि चिंतित है कि “मैं” बुझ न जाऊं। इसीलिए, मेरे में लकड़ियां डाल दो, मुझ में कंडे डाल दो।अग्नि खतरे में पड़ गई है। वही हाल तुम्हारा भी हो गया है। शरीर मिल जाए, और शरीर मिल जाए, और प्रकृति मिल जाए, और थोड़ा शरीर मिले, नहीं तो “मैं” मर जाऊंगा। शरीर खत्म होता जा रहा है और हम शरीर पाने को बैठे हैं। हम मर न जाएं, यही तो प्रवृत्ति है। यदि तुम जान गए होते कि तुम मरते कहां हो? हम हैं क्या? जो है, वह आज तक कभी नहीं मरा। वही तो “मैं” के रूपों में प्रकट है और फिर ये “मैं” अप्रकट रूप में चले जाते हैं, मरते नहीं।


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।


भगवान कृष्ण कहते हैं कि सारे प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे। बीच में व्यक्त हुए और मरते पर फिर अव्यक्त हो जाते हैं। तो रोने की या दुख की क्या बात है? लेकिन शायद किसी विरले को ही ये बात समझ आती है बाकी का तो मनोरंजन है वेदांत सुनना।

जो स्वयं ब्रह्म हो.. वो गुरु ही पार लगा सकता है

जब परमपिता स्वरुप सतगुरु ने हमें अपनाया है, तो इसमें तो दो मत ही नहीं, सागर खुद नदियों को अपने में मिलाने बांहें फैलाए खड़ा है ,और नदियां तत्पर है सागर में समाने के लिए फिर मन में संसय क्यों? हमारे अंतर कल्याण की भावना भी उसी की कृपा में लगी है और कल्याण करने के लिए खुद सागर ही गुरु रूप में अपनी इन नदियों को समाने के लिए आये हैं।
क्योंकि अब हम निश्चय होकर इसी पंक्ति पर टिके रहें-


अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।

बादल तो सब जगह बरसते हैं, किंतु फसल वहीं पैदा होती है जहां जमीन में किसान ने बीज बोए हों।ठीक वैसे ही परमात्मा की कृपा भी बरसती है, लेकिन अहसास केवल उन्हीं को हो पाता है जिन साधकों ने हृदय-भूमि में सदगुरु के सत्संग वचन बोये हों। बडे भाग्यशाली है वो तेरे बन्दे जिन्होंने आपसे दिल लगाया है।… जिन्होंने आपका आश्रय लिया है। आपके सत्संग से प्रीति की है, आपके वचनों में श्रद्धा की है।

मैंने कई शिष्यों के जीवन मे देखा।
उनके अंदर में ईश्वर को पाने की प्यास तो थी परंतु उन्होंने वह भी गुरु की इच्छा में मिला दी।
उन्होंने कभी शंका नहीं की कि हमें ईश्वर मिलेगा अथवा नहीं।

किंतु ऐसे लोगों में सबसे बड़ा गुण यह था, उन्होंने प्रेम बहुत किया सदगुरु से। और यही उनका सबसे बड़ा साधन बन गया ईश्वर पाने का।

गुरु प्रेम में सभी साधन आ गए, क्योंकि अब अपने बल पर ईश्वर प्राप्ति नहीं करनी थी । जिसके कारण अपने में अहम पोषित नहीं हो पाया। बल्कि गुरुप्रेम रूपी नाव में बैठ जाने के कारण, वह नाव सहज में ही, ईश्वर की ओर उनको लेती चली गई।

वह ईश्वर जो बड़े-बड़े तपस्वी और योगियों को भी जंगल और पर्वतों में साधन भजन और तपस्या करने पर भी दुर्लभता से प्राप्त होता है। बड़े-बड़े शास्त्रों के विद्वानों और पंडितों को भी नहीं मिल पाता।वही दुर्लभ ईश्वर ऐसे गुरु भक्तों को सहज में ही प्राप्त हो गया।

जिन लोगों को ऐसे भक्त पागल ही लगते थे, उन पागलों ने ही अपने आप को गुरु चरणों में समर्पण करके सर्वप्रथम बाजी मार ली।
और अपने बल पर उस परमेश्वर को पाने वाले तो देखते ही देखते ही रह गए।

याद

मैं तुम्हें एक सूत्र बताता हूं। आज से जब ध्यान में बैठोगे, तो यह ख्याल करने की कोशिश करना कि तुम रहे हो या नहीं? तुम पहले से ही निर्णय मत ले लो।यह बात तुम अपने से ही पूछो,जब तुम देख रहे थे या सुन रहे थे,तब तुम्हारा ज्ञान मौजूद था क्या? नहीं तो ज्ञान तो रहेगा; ज्ञान का ज्ञान नहीं रहेगा। ध्यान का ध्यान नहीं रहेगा। मन तो रहेगा; पर, उसका पता नहीं रहेगा। साक्षी तो रहेगा; पर,सा‌क्षी का ज्ञान नहीं रहेगा। तुम देखते समय या सुनते समय अपने आप से पूछ लेना, जो तुम्हे मालूम पड़ रहा है,क्या तब ज्ञान के बिना मालूम पड़ रहा है? तुम्हें तुरन्त ही यह लगेगा कि ज्ञान का ध्यान आ गया है। द्रष्टा पर ध्यान लौट आया है।
तुम्हारा दृश्य में ध्यान लगा रहता है; विषय में ध्यान उलझा रहता है। अन्य बातों में ध्यान उलझा रहता है। यदि यह प्रश्र करोगे कि क्या अन्य की प्रतीति बिना तुम्हारे है क्या? तुम्हें तुरन्त ही अपनी याद आ जाएगी। तुम्हें अपनी याद आती रहेगी। फिर तुम कहोगे कि आज तुमको अपनी याद आती रही। याद रहेगी तो नहीं? याद आती रही। कुछ दिनों के बाद देखोगे कि अपनी याद बनी रही। फिर, इसके बाद कहोगे कि तुम्हें अपनी याद की ज़रूरत ही नहीं है; हम हैं ही। बिना हमारे कुछ होता ही नहीं है।

ब्रह्म विद्या

जिसका बोध सच्चा है, उसका खून शीतल होता है। खून बदल जाता है,रोम -रोम बदल जाता है। देखिए,आपकी नाड़ियां क्या कहती हैं? नाड़ी हूं कि ब्रह्म हूं? आपका मन क्या कहता है? ब्रह्म हूं कि मन हूं? केवल “हूं” कहता है- ब्रह्म भी न कहो। केवल साक्षी हूं। कहता है कि शरीर हूं।कहता है कि यह देखो कि अन्दर तुम्हारी सतत् जागृति किस भाव में है? अभी पता चलेगा कि अविद्या क्या, अभी तो शरीर का अभिनिवेष भी नहीं गया। जाति का, कुटुंब का और मजहबों का अभिनिवेष अभी चित्त में है। यह अभिनिवेष अभी नहीं गया। यदि अभिनिवेष नहीं है, तो हम खाली आदमी रहेंगे। यदि खाली आदमी हों, तो फिर जल्दी मरेंगे और जल्दी मरेंगे, तो ब्रह्म हो जायेंगे। यह ब्रह्म होना ही असल में मरना है।
परम शांति किसे प्राप्त होती है ?
जो मर जाता है उसी को हम सन्यासी कहते हैं और वह जो मरना नहीं चाहता, वही अज्ञानी है जो मरने को तैयार है, वह साधक है; जो मर गया है, वह सिद्ध (सन्यासी) है। जो मर गया, वही ब्रह्म और जो मर गया है, वहीं अमर हो गया है। इसीलिए, सन्यासी फिर कभी नहीं मरता; क्योंकि, जिसे मरना था, वह पहले ही मर गया है। और जो नहीं मरता है, वही बचा है; वह कभी नहीं मर सकता। किसी का मारा भी नहीं मरता; क्योंकि, वह दुश्मन की भी आत्मा है। दुश्मन की भी “मैं” है ।यदि मारने को खड़ा होगा, तो दूसरी “मैं” को मारेगा; लेकिन, अपने आप की “मैं” को कैसे मारेगा? इस प्रकार जो वेदांत का श्रवण, मनन और निदिद्यासन करता है, वह परम शांति को प्राप्त होता है।

द्वेत जानना ही होगा


तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:


उसे कहां शोक, कहां मोह, कहां चिंता और कहां भय। ये हमारे वेद वाक्य हैं, उपनिषद् वाक्य हैं। बड़े भाग्यशाली हो, जो सुनने को मिलता है। सुनते – सुनते निष्ठा बनती है और धीरे-धीरे कमियां दूर होती हैं। कोई चाहे जैसा हो, सब में अभी कमियां हैं। सिद्ध कोई नहीं है, प्रयास करो, प्रमाद मत करो। और किसी को देखने से, अपने में कोई फर्क नहीं पड़ जाता है। इसीलिए, जो जहां तक है, ठीक है। हो सके, तो अपनी गहराई को देखते जाओ, घबराओ बिल्कुल नहीं।
अब हम अपने अंदर अभिनिवेश नहीं पाते हैं। अस्मिता नहीं, अभिनिवेश। अस्मिता के तो छोड़ने का अभ्यास करते हैं; अभिनिवेश से तो निवृत्त हैं। अभिनिवेश से मुक्त हैं; पर, अस्मिता से अभी मुक्त नहीं है। अस्मिता से मुक्त न होने के कारण “मैं” जब तक मजबूत रहता है, तब तक द्वैष और भेद भी कभी-कभी उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि, मैं अलग हूं, तो मेरा सम्मान अलग, मेरी भूख अलग, मेरा जीवन और उन्नति अलग। जब तक मैं अलग हूं, तब तक मेरा सब कुछ अलग रहेगा। इसीलिए, अभी तो हम अस्मिता का अभ्यास करते हैं। हम किसी और को कैसे कह दें। ध्यान, अभ्यास और साक्षी भाव से आदमी अस्मिता पर जाता है, शरीर से पृथकता का बोध होता है।
मैं अपनी बात बताऊं। मुझे शरीर से पृथकता का तो बोध है; लेकिन, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति अभी गहरी नहीं है। यदि, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति गहरी हो जाएगी, तो तुम्हारे प्रति कभी विकार और क्रोध नहीं हो सकता। कहा है कि —–

“क्रोध की द्वैतक बुद्धि बिनु ,,
द्वैत कि बिनु अज्ञान।
माया बस परिच्छिन्न जड़,
जीव कि ईश समान।।”

ये सत्य बात है कि जिस दिन हमारे जीवन से द्वैत भाव चला जाएगा, उस दिन क्रोध भी चला जाएगा; क्योंकि , अपने – आपसे क्या कभी द्वैष होता है? अपने मित्र से और पत्नी से द्वेष हो सकता है। अपने पिता से भी लड़ाई हो सकती है; लेकिन,अपना नुकसान करने की वृत्ति कभी होती है क्या? क्या कोई अपने आप का अहित अपने आप का नुकसान करेगा? क्या कोई अपने आप को दुखी करेगा? दूसरे को दुखी देखकर खुशी होती है। दूसरा यदि आपत्ति में फंसा हो, तो परवाह नहीं होती; लेकिन, स्वयं आपत्ति में फंसे हो क्योकि द्वैत समझते हो सब ये जग तुम और तुम ये जग नही हो जाते तब तक शांति मिल नही सकती इसलिए सद्गुरु का सिखाया द्वेत समझ न आ जाये…

जब तक सत्य ना पा लो चैन ना लेना!

जब तक स्पष्ट ना हो तब तक नींद हराम हो जानी चाहिए। मुझे अभी एक बात याद आ गई, पहले भी कह चुका हूँ, फिर भी कह देता हूँ कि एक साधु मेरी तरह पतला था और एक स्वामी सत्यानंद की तरह मोटा था। वैसे तो मैं भूमानंद जी का नाम लेता लेकिन बहुत लोग उनको जानते नहीं होंगे क्योंकि अब उनका शरीर नहीं रहा। तो पतला वाला साधु बोला – “झीने दास नैन न आवे निंदिया देही जमे न मांस।” यह सुनकर मोटा वाला बोलता है –

“जब तक हरि चीन्हना नहीं हमऊ बहुत झुरान ।
हरि चीन्हना धोखा मिटा हमऊ बहुत मुटान।।”

पहले हम भी बहुत दुबले पतले थे लेकिन जब से हरि को जाना तब से बहुत मोटे हो गए हैं। तो जब तक ब्रह्म ज्ञान न हो, बेचैनी रहनी ही चाहिए। और जब ब्रह्म ज्ञान हो जाए तो फिर क्या चिंता करनी? फिर तो निश्चिंतता आती है। फिर तो भजन भी नहीं , कुछ पाना ही नहीं, कुछ अधूरापन ही नहीं, फिर क्या करोगे ? क्या कुआँ खुद जाने के बाद फिर उसी को खोदोगे ? भगवान को पा लेने के बाद फिर भगवान को पाओगे क्या ? पा लेने के बाद फिर पाने का क्या करोगे? इसलिए परमात्मा के बोध के बाद सभी कर्तव्य पूरे हो जाते हैं। फिर चैन की जिंदगी रहती है। यदि कोई सामने आ गया तो उसे भी बता दिया। उसमें कोई धंधा नहीं, कोई ठगी नहीं है। जिन्हें चैन मिली है वो बता देते हैं।

अपना जगत खो कर स्वयं जगत हो जाओ

मन के अमन हो जाने पर द्वैत नहीं रहता। द्वैत तो है ही मन के खड़े होने पर। बाहरी द्वैत देह के अभिमान में है। भीतरी द्वैत मन के रहते है। स्मृति में भी जो है वह भी द्वैत है और वह भी आपके मन के कारण है। मन नींद में चला गया तो द्वैत गया। मन आत्मा में चला गया तो द्वैत खो गया।  द्वैत नींद में भी नहीं रहता।  यहाँ नींद का अर्थ है- गहरी नींद।  कई बार ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर गलती कर जाते हैं क्योंकि नींद का हम दो जगह प्रयोग करते हैं। सपनों के समय की नींद को भी नींद कहती हैं और गहरी नींद को भी नींद कहते हैं और सच तो यह है कि जगत के देखने को भी हम नींद ही कहते हैं। इसलिए तीनों अवस्थाएं स्वप्न हैं।  मैं सो गया था, यह भी स्वप्न है। मैं स्वप्न में था यह भी स्वप्न है। मैं आदमी हूँ, जगत है; यह भी स्वप्न है।  केवल जागना है-  मैं ब्रह्म हूँ और कुछ नहीं हूँ।  जागना उसी को कहते हैं जिस सेकंड में जागे हो करके तुम्हारे सिवा कुछ नहीं है। इसलिए ब्रहम ज्ञानी का जगत खो जाता है।