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जो स्वयं ब्रह्म हो.. वो गुरु ही पार लगा सकता है

जब परमपिता स्वरुप सतगुरु ने हमें अपनाया है, तो इसमें तो दो मत ही नहीं, सागर खुद नदियों को अपने में मिलाने बांहें फैलाए खड़ा है ,और नदियां तत्पर है सागर में समाने के लिए फिर मन में संसय क्यों? हमारे अंतर कल्याण की भावना भी उसी की कृपा में लगी है और कल्याण करने के लिए खुद सागर ही गुरु रूप में अपनी इन नदियों को समाने के लिए आये हैं।
क्योंकि अब हम निश्चय होकर इसी पंक्ति पर टिके रहें-


अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।

बादल तो सब जगह बरसते हैं, किंतु फसल वहीं पैदा होती है जहां जमीन में किसान ने बीज बोए हों।ठीक वैसे ही परमात्मा की कृपा भी बरसती है, लेकिन अहसास केवल उन्हीं को हो पाता है जिन साधकों ने हृदय-भूमि में सदगुरु के सत्संग वचन बोये हों। बडे भाग्यशाली है वो तेरे बन्दे जिन्होंने आपसे दिल लगाया है।… जिन्होंने आपका आश्रय लिया है। आपके सत्संग से प्रीति की है, आपके वचनों में श्रद्धा की है।

मैंने कई शिष्यों के जीवन मे देखा।
उनके अंदर में ईश्वर को पाने की प्यास तो थी परंतु उन्होंने वह भी गुरु की इच्छा में मिला दी।
उन्होंने कभी शंका नहीं की कि हमें ईश्वर मिलेगा अथवा नहीं।

किंतु ऐसे लोगों में सबसे बड़ा गुण यह था, उन्होंने प्रेम बहुत किया सदगुरु से। और यही उनका सबसे बड़ा साधन बन गया ईश्वर पाने का।

गुरु प्रेम में सभी साधन आ गए, क्योंकि अब अपने बल पर ईश्वर प्राप्ति नहीं करनी थी । जिसके कारण अपने में अहम पोषित नहीं हो पाया। बल्कि गुरुप्रेम रूपी नाव में बैठ जाने के कारण, वह नाव सहज में ही, ईश्वर की ओर उनको लेती चली गई।

वह ईश्वर जो बड़े-बड़े तपस्वी और योगियों को भी जंगल और पर्वतों में साधन भजन और तपस्या करने पर भी दुर्लभता से प्राप्त होता है। बड़े-बड़े शास्त्रों के विद्वानों और पंडितों को भी नहीं मिल पाता।वही दुर्लभ ईश्वर ऐसे गुरु भक्तों को सहज में ही प्राप्त हो गया।

जिन लोगों को ऐसे भक्त पागल ही लगते थे, उन पागलों ने ही अपने आप को गुरु चरणों में समर्पण करके सर्वप्रथम बाजी मार ली।
और अपने बल पर उस परमेश्वर को पाने वाले तो देखते ही देखते ही रह गए।

साक्षी के ध्यान को सीखो और शाश्वत हो जाओ


पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं! अनासक्त हो जाओ!
राग द्वेष वियुक्तैस्तु राग और द्वेष का त्याग कर दो। कोई आवे, कोई जावे, मैं एक चेतना का दीप जलाए बैठा हूं। चेतना का दीप! जब हम कोई ऑब्जेक्ट रखना चाहते हैं, विषय रखना चाहते हैं तो परेशानी पैदा कर लेते हैं। तो आप चेतना को रखो। अब आखरी बात खतरे की है, उसमें जरूर थोड़ी गहरी सोच चाहिए। यहां तक तो आप इमानदारी से चाहे तो अनुभव कर सकते हो। एक संकल्प करो कि आज हम ध्यान में किसी को लाने या हटाने का काम नहीं करेंगे! घर हटाना नहीं, मंत्र लाना नहीं, अच्छे को लाना नहीं बुरे को हटाना नहीं! तुम्हें क्या करना है? अच्छे बुरे का आग्रह छोड़ देना है और जागे रहना है।  ‘मैं जगा हूं’ यह ख्याल आया, अच्छा आ गया या बुरा आ गया दोनों ख्यालों में जगे रहो! पर आप का आग्रह जब किसी चीज का होगा तो उसके आने से जागा मानोगे जाने से सोया मानोगे। तो आग्रह छोड़ दो, बिल्कुल आग्रह छोड़ दो! आप का आग्रह है कि मैं जग रहा हूं, श्वास आई, नहीं आई, धीमी हो गई, ख्याल आया, नहीं आया,  मैं जागा हूं! तो यह मंत्र का मूल महामंत्र है! यह महामंत्र है कि मेरे सामने यह हुआ, यह हुआ, यह हुआ, मेरे सामने हुआ इसका मतलब मैं अध्यक्ष हूं! मेरी अध्यक्षता में सब हुआ! मेरी आंखों के सामने हुआ! इन आंखों के नहीं, मैं ही आंख हूँ! इसीलिए स+आखी= साखी, साक्षी, मैं आंख हूँ! मेरे सामने यह हुआ! मेरे सामने! मेरे सामने! मेरे सामने! ठीक है? आप आंख हो! इन आंखों से(चर्मचक्षनओं से) तो बहुत दिन देखा है अब यह आँख आप खोलो!  प्रमाद मत करो! आपको लगे, हां! मेरे ख्याल में यह आया! यदि आप चुनाव करोगे तो परेशान हो जाओगे। इसीलिए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, ठीक है? अब चुनाव ना करो, जागो!

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, अाप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता। चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो!
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो  उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता।  तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि  अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं।  वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं!
तब भी थे तुम ही! अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी  है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!

नशे की आदत

अच्छे गायकों के बीच में कई बार अनिभिज्ञ भी बैठते हैं जो उस विद्या के जानकार नहीं हैं फिर भी वे गायकी का आनंद लेते हैं। यद्यपि वे ज्यादा गहराई में तो नहीं जाते पर गायकी का आनंद लेते हैं। इसी तरह इस सृष्टि की भी बड़ी गहराई है और इस सृष्टि का रहस्य मनुष्य ही जान सकता है। वह भी तब जब कोई गुरुमुख जनाए। इसलिए यह भी आश्चर्य है। “आश्चर्यवत्  पश्यति कश्चित् एनम्।”
   
      किसी किसी को गुरुओं पर, ग्रंथों पर, ऋषियों की सोच पर आश्चर्य होता है। एक मूर्ख से कहो कि जगत कुछ भी नहीं है, ब्रह्म ही ब्रह्म है तो उसे क्या आनंद आएगा?  करोड़ों लोग ऐसे हैं जो ईश्वर को, ब्रह्म को गप्प मानते हैं। यदि उनसे कोई ब्रह्मवेत्ता शास्त्रार्थ करे और कह दे कि जगत नहीं है तो वह हार जाएगा। क्योंकि सब गवाही उसके होंगे। कहते हैं कि उल्लुओं ने अपने समाज में प्रस्ताव पास करा लिया कि सूर्य नहीं है जैसे, तमाम राजनैतिक व धार्मिक नास्तिक लोग कहते हैं कि यह ईश्वर है ही नहीं। कभी- कभी आपको भी लगता होगा कि पता नहीं कि ईश्वर है भी  या नहीं? यह भी एक झंझट ही है।  इसलिए बहुत से लोग ज्यादा इस पचड़े में नहीं पड़ते।  फिर भी हम लोग पता नहीं तुम्हें इस पचड़े में क्यों फँसाते हैं? जैसे नशेड़ी नशे की आदत डलवाता है ऐसे ही हम लोग तुम्हें बिना मतलब के इस पचड़े में डाले हुए।
मैं झूठ नहीं बोलता,  कभी-कभी लगता है कि तुम्हें इस पचड़े में न डालूँ । तुम से कह दूं कि जाओ आराम से पति की सेवा करो, घर का काम करो, बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ, देश का ख्याल करो। बाकी संत भी आपको इस पचड़े में कम डाल रहे हैं। वे सीधा-सीधा आपके काम की बात करते हैं, देश की बात करते हैं। और हम आपको पचड़े में डाले हुए हैं। क्यों पचड़ा कहते हैं? क्योंकि इसका लाभ तुम्हें अभी समझ ही नहीं आता । और हमें क्या लगता है? कि सब लाभ हो जाएं पर इस लाभ के बिना कोई लाभ लाभ नहीं है।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

     क्या इससे बड़ा कोई लाभ है? या ऐसा कोई लाभ जो हानि में न बदल जाए? ऐसा कोई लाभ बताओ जिसमें हानि ना हो?  पुत्र हुआ तो क्या हानि नहीं होनी?  कुछ सुख मिला तो क्या वह जाएगा नहीं? सब जाता है। नहीं जाने वाला कोई तत्व है तो वही एक है और तो सब मात्र प्रतीति हैं। वे रहें तो क्या, ना रहें तो क्या ? दिखें तो क्या, ना दिखें तो क्या?  क्या फर्क पड़ता है इनके होने, ना होने का।

इसलिए वेदांत सुनने के पहले विवेक और वैराग्य जरूरी हैं और इसके साथ ही शरीर रहते थोड़ा कष्ट सहने के लिए तैयार होना, थोड़ा संयम रखना, प्रारब्धवशात् कष्ट आएंगे। शरीर है तो कष्ट आएंगे। हमें भी कष्ट हुए हैं। यदि यह समझें कि कष्ट नहीं होना चाहिए, हम तो परमात्मा के रास्ते पर चल रहे हैं तो ज्ञान निष्ठा में फिर पक्के नहीं हो पाओगे। इसलिए  यदि कष्ट आएं तो उन्हें झेलो। दुःख मिला, दुःख मालूम पड़ा लेकिन दुःख से हमारे अपने मोक्ष के प्रति भय नहीं होना चाहिए।


यस्य प्रसादत् पतित स्वपावनः भवनति संसार सुतारण शिवाः।
मंण्डलेश्वराणाम् परमेश्वरं हरिम् श्री परमानन्द प्रभुं ईशमाश्रये।।
           जिनकी कृपा को पाकर अत्यन्त पतित प्राणी भी परम पवित्र होकर संसार को तारने की सामर्थ वाले और कल्याणकारी बन जाते हैं मंण्डलेश्वरों के भी ईश्वर उन प्रभु श्री परमानन्द जी महाराज को मैं चरण शरण ग्रहण करता हूँ। ….शिवहरे

“वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकरूपिणम् ।”
गुरु क्या हैं ?  गुरु बोध रूप हैं, चैतन्य रूप हैं, आत्म रूप हैं और साक्षी रूप हैं। गुरु साक्षी हैं। आपकी बुद्धि में जो साक्षी है, वह गुरु ही हैं। वे आपके भीतर बैठे हैं और आपको जान रहे हैं। आपके संकल्प को, आपकी वृत्ति को, आपकी चंचलता को, आपकी स्थिरता को परमात्मा जान रहे हैं। गुरु जान रहे हैं। परमात्मा आपके ह्दय में विराजमान हैं। वे आपके मन की एक – एक सैकण्ड की गति – विधि को जान रहे हैं। वे आपके सुमिरन को और श्वास की प्रक्रिया को भी जान रहे हैं। गुरु आपके भीतर विराजमान हैं। जिस दिन आप यह स्वीकार कर लेगें कि बाहर के इष्ट गुरु, बाहर के इष्ट परमात्मा आपके मन को जानने वाले हैं; आपकी बुद्धि के साक्षी हैं; आपके मन के प्रत्येक संकल्प को जानते हैं; उसी दिन आपको यह स्पष्ट हो जायेगा कि वे ही गुरु तुम्हारे भीतर हैं। उनसे कुछ छिपा नहीं है। वो जो स्वयं ब्रह्म होकर इस ब्रह्मांड में विराजमान हैं और वैसा ही जो तुम्हें बनाने आये हैं जो तुम अपने को सिर्फ अमुक शरीर ही समझे बैठे हो।

सच्ची समझ

पुज्य गुरूदेव समझाते हैं,जब आत्मा का अनुभव होता है।तब वह सबको अपने में तथा अपने को सब में देखता है। भेद-भ्रम का नाश हो जाता है,भेद उपयोगिता नष्ट नहीं होती। भेद (वस्तुओं के बीच में स्पष्ट अंतर जैसे मकान,घडा आदि) का नाश नही होता। भेद भ्रम का नाश हो जाता है। वृत्तियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन साक्षी (आत्मा) में कोई परिवर्तन नही होता है। उदाहरण से पुज्य गुरूदेव समझाते हैं—-

# जैसे-तत्त्वत: तत्व को जानने वाला)मिट्टी को जान लेने के बाद,घडे का और मकान का जो भेद है, वह भेद भ्रम नष्ट हो जाता है;भेद-उपयोगिता नष्ट नहीं होती।भेद की उपयोगिता तो रहती है,और उसका उपयोग भी होता है।(जैसे घडे में पानी भरना,तथा मकान मे रहना)

#तत्व दृष्टि और व्यवहारिक दृष्टि में भेद है।जैसे व्यवहार की दृष्टि से गहना है,अब यह गहना टूट गया, दूसरा गहना भी बन गया। तत्व की दृष्टि से “सोना ” गहना टूट जाने पर भी हैऔर दूसरा गहना बन जाने पर भी है। स्वर्ण का अभाव दोनों ही स्थितियों में नही है।

# पुज्य गुरूदेव बताते हैं, आत्मज्ञान की दृष्टि से ज्ञानी का कभी अभाव नहीं होता। तत्त्व की दृष्टि से ज्ञानी सदा वर्तमान है; लेकिन व्यवहार की दृष्टि से ज्ञानी कभी जगत में है,कभी नहीं है।

# अष्टावक्र जी कहते हैं कि ‘जैसी मति होती है वैसी गति होती है’, यह अध्यात्म का एक सूत्र है। एक सूत्र और है कि ‘अन्त मति सो गति’ अन्त यानी मृत्यु के समय जैसी मति होती है वैसी गति होती है।

# श्री कृष्ण जी ने गीता में कहा है कि “अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परम पद को प्राप्त होता है। जनकादि ज्ञानी जन भी आसक्ति रहित कर्म करते हुए ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।

# अध्यात्म में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि कर्म बन्धन नहीं हैं, उनके प्रति जो आसक्ति है, जो राग है वही बन्धन है। बन्धन के भय से कर्म छोड़ देना भी पाप है एवं आसक्ति त्याग कर कर्म करना ही मुक्ति का साधन है। निष्काम कर्म बन्धन नहीं बनता। किन्तु वे कर्म बन्धन बनते हैं जो आसक्ति, राग – द्वेष, ईर्ष्या की भावना से किये जाते हैं। कर्म का कारण शरीर नहीं मन है। मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। पाप पुण्य का फल न कर्म में होता है, न उसके फल में। वह कर्ता की भावना में होता है।

# अष्टावक्र जी कहते हैं कि “मैं मुक्त हूँ” ऐसा जो मानता है वह मुक्त है तथा अपने को जो बद्ध मानता है वह बद्ध है। केवल दृढ़ निश्चय के साथ मानना ही पर्याप्त है। मुक्ति कर्म का परिणाम नहीं, ज्ञान का फल है। आत्म ज्ञानी भी यदि अपने को बद्ध मानता है तो वह मुक्त नहीं है, वासना ग्रस्त है। वासनाएं उसे फिर खिंच लेंगी। आत्मज्ञान के बाद भी उसे मुक्ति की भावना करना आवश्यक है।

# यहाँ यह भेद समझ लेना चाहिए कि यह सूत्र जो कहा गया है वह अध्यात्मिक जो आत्मा का जिज्ञासु है, अपने स्व – स्वरुप में प्रतिष्ठित होना चाहता है उसके लिए कहा गया है, अज्ञानी, विषयों में रमण करने वालों के लिए नहीं कहा गया है।

इसलिए फालतू की फिक्रों को कुए में फेंके और आत्मसुख में गोता मारें..

चिन्ता से चतुराई घटे
घटे रूप और ञान।
चिन्ता बड़ी अभागिनी
चिन्ता चिता समान।
तुलसी भरोसे राम के,
निर्भय होके सोये
अनहोनी होनी नहीं,
होनी होय सो होय।

जब आप शाश्वत समझ जाते हैं तब तक ही चिंता है क्योंकि उसके बाद किसी चिंता का स्थान ही नही बचता।

हम विश्वगुरु हैं, थे और रहेंगे

“आदि गुरुवे नमः। जुगादि गुरुवे नमः। श्री सद्गुरुवे नमः।” जो आदि गुरु ने कहा था वही दूसरे ने कहा, वहीं तीसरे ने कहा, वही चौथे ने कहा। “इदं परंपरा प्राप्त” यह हमने परंपरा से पाया है, हमारी कल्पना नहीं है। हम कोई स्वयंभू गुरु नहीं है। “हमारा जन्म हमारे गुरु ने दिया है।” जैसे तुम स्वयं नहीं पैदा हुए, तुम्हारा पैदा करने वाला तुम्हारा बाप है और तुम्हारा बाप भी स्वयं पैदा नहीं हुआ, तुम्हारा बाप अपने आप हुआ था क्या? तुम्हारे बाप का बाप भी पैदा हुआ, बाप के बाप के बाप का बाप भी पैदा हुआ। ठीक है? “बिना पैदा हुआ बाप कौन है? केवल “स्वयंभू” जो स्वयं था! वही सब का पिता है” इसलिए उसको हम “परमपिता” कहने लगे। क्यों? जब से वेजिटेबल घी के नाम बिकने लगा तब उसे शुद्ध घी कहने लगे। शुद्ध घी नाम पहले था क्या? अच्छा  सौ दो सौ साल  पहले  शुद्ध घी होगा क्या ? शुध्द घी तो था पर शुद्ध घी नाम नही था, घी था सिर्फ।  तो शुद्ध नाम कब पड़ा? जब से फर्जी घी बन गया। तो जब से फर्जी बाप बन गए तब उसे परमपिता कहना पड़ा कि लोग कंफ्यूज ना हो जाए। जैसे सभी जननी बन बैठी तब उसे जगज्जननी कहा गया। ठीक है? तो सच्चाई यही है। तो अब हमें क्या करना है? हमे दो ही चीजें जाननी है- एक तो हम “सत्” है और दूसरा जानना है “सर्वत्र”, दो चीजें समझ लो। लोग माने ना माने, चाहे हिंदू को सांप्रदायिक कहे चाहे दकियानूसी कहे, चाहे कट्टर कहे और जो भी आरोप लगा सकते हैं, लगाएं “पर सच है कि यदि सत्य को ठीक ठीक समझा है तो भारत ने समझा है! ठीक ठीक समझाया है तो हमारे वेदों ने समझाया है और भारत के गुरुओं ने समझाया है!”  इसलिए किसी देश का धन, सोना अच्छा होगा, किसी देश की राजनीति होगी, किसी देश में धन बहुत होगा। “हमारे देश में गुरु है ! हम गुरुओं के धनी हैं!” (अंग्रेज ) राजनीति में कितने खिलाड़ी रहे जब विश्व मे शासन किया है! विश्व गुलाम रहा है, विश्व! शायद आप भी नही समझते ,भारत जिनका गुलाम था अमेरिका भी उनका गुलाम था, रूस भी उन्हीका गुलाम था। विश्व को गुलाम बना के रखा है अंग्रेजो ने, इतने दिमागदार थे राजनीति में! आज भी अभी उन्हीं की भाषा चलती है। कही चले जाओ, हिंदी के बिना काम चल जाएगा। साउथ में भी जाओ, हिंदी नही चल रही इसी देश में। और देश में तो छोड़ो। आज भी अभी हम गुलाम है उनकी भाषा के। पर फिर एक ये कह दूँ…. राजनीति में उनके हम गुलाम हो गए। (काफी वर्षों तक वे) रहे, मुश्किल से अभी वो गए पर अभी उनकी गुलामी नही गई, उनकी मानसिकता नही गई। “पर उपनिषद् विद्या के लिए आज भी वे भारत ही आते है।” रूस के आते हैं , अमेरिका के आते हैं, और भी कई देश के आते है। “तो  गुरु खोजना हो तो भारत में !” जैसे सेव कश्मीर के, कही के कुछ, कही के कुछ। जैसे हमारे जन्मभूमि के पास अमौली की हवन सामग्री फेमस थी, लेकिन कही के लोटे प्रसिद्ध है, कही के ताले प्रसिद्ध है। ठीक है? ऐसे ही कही का कुछ, कही का कुछ विश्व मे प्रसिद्ध है। पर “अध्यात्म जो है वो भारत का था, भारत में आज है, और भारत में ही रहेगा। इसलिए विश्वगुरु हम थे, विश्वगुरु हम आज है, और विश्व गुरु हम रहेंगे।”

ॐ शांति: शांति: शांति:

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

मोह ये है के आप दृष्टा हो और अपने को दृष्टा नही मानते, देह मानते हो।  जिंदा हो, और मरा मानते हो सपने में! अभी जागृत की नहीं कहते। सपने में जिंदा होते हुए गर्दन काट दी किसी ने तो आप मर गए। तो दुखी कौन है? जिस ने मार दिया वह तो खुश है, तुम दुखी हो! और दुखी क्यों हो? तुम असल में देह मानते हो और गर्दन कट गई इसलिए तुम स्वीकार कर लेते हो, स्वप्न में! जागृत की तो अभी मैं छोड़ देता हूं। चूंकि  तुम देह अपने को मानते हो इसलिए स्वप्न में  गर्दन काट दी।  तुम चेतन उस समय भी हो! सपने में तो हो ना? जागृत की मौत की छोड़ दो। स्वप्न की मृत्यु में तुम चेतन हो। पर क्योंकि तुम देह को मैं मानते हो इसको बोलते हैं देहाध्यास। दर्द होने लगे इसका नाम देहाध्यास नहीं है। ‘देह हूं’ यह विचार देहाध्यास है और ‘देह हूं’ इस विचार के कारण जो मौत हुई है उस देहाध्यास के कारण तुम सोचने  लग गए कि मैं मर गया हूं। अंधेर है!! मैं सोचने लग गया कि मैं मर गया हूं! दुखी भी होने लगा और जिंदा भी हूं !! तो जागृत में भी क्या होगा? जब प्राणांत होने लगेगा तो तुम्हारे अंदर विचार आएगा कि मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ ! अब कोई क्रिया होगी, प्राण निकलने लगेगा, कुछ होगा तो आपको लगेगा कि मैं मर रहा हूं। जबकि आप जान रहे हो! इसलिए कई ने ध्यान का अभ्यास भी बताया है। जब प्राणांत हो, नाड़ी छूटने लगे तो उसके भी दृष्टा रहो! हो तो दृष्टा ही, पर मानते नहीं हो! ‘मर रहा हूं’ का विचार पकड़ लेता है, मर रहा हूं का ख्याल पकड़ता है। मैं मृत्यु हो रही है उसको देख रहा हूं, प्राण सिकुड़ रहा है मै देख रहा हूं, प्राणों के उत्क्रमण को मैं देख रहा हूं, प्राण निकल गया!
तो…. प्राणों को लिए हुए मैं जिंदा ही तो हूं!! देहांतर जाकर प्राप्त होगा पर तुम सोच ना पाओगे कि मैं निकल रहा हूं! देर छूट गया पर मैं बच गया! नहीं सोच पाओगे, घबरा जाओगे! मरने के नाम से ही चिंता हो जाती है। इसलिए पहला अभ्यास दृष्टा होने का है। बैठे में भी द्रष्टा रहो, लेटे में भी दृष्टा रहो और नींद के पहले भी देह के दृष्टा रहते सो जाओ। यह एक अभ्यास है।
दूसरा अभ्यास इससे  ज्यादा जोरदार है। अब नींद आ रही है उसके भी साक्षी रहो। आलस्य आ रहा है उसके भी साक्षी रहो। कभी-कभी ड्राइवर जो गाड़ी चलाते हैं उनकी एकाग्रता बहुत होती है। कभी-कभी वह सो भी लेते हैं एक-दो सेकंड को। अच्छा खुला रास्ता मिल जाता है और आलस्य बहुत है तो एक दो  सेकंड को भी सो लेते हैं। माने वह अपने आलस्य को जानता है, आंखें बंद करता है सावधानी से और फिर सावधान हो जाता है। तो जहां बुद्धि सो जाती है तो ‘नींद आ गई और नींद चली गई’ यह जरूर जानना चाहिए। नींद के आ जाने का और नींद के चले जाने का! अब यह दो बातें हैं- एक है चिदाभास और एक है चेतन। चेतन का आभास और चेतन! चिदाभास जाता है तो उसको चेतना भी कह सकते हैं। चेतना जगती है, चेतना सोती है। चेतना को हिंदी में भी और अंग्रेजी में भी कॉन्शसनेस, सबकॉन्शसनेस, अनकॉन्शसनेस कहते हैं। तो ‘अनकॉन्शसनेस होती है’ का प्रमाण क्या है? नींद होती है, इतनी देर होश नहीं रहा, इसमें सबूत कौन हैं? क्या बेहोशी का सबूत बेहोशी हो सकती है? उस बेहोशी का सबूत भी चेतन ही है!

मोह क्या है?

देह दृश्य है तुम दृष्टा हो! कितने ही नजदीक हो, तो भी दृष्टा हो, देह दृश्य है! देह दृष्टा नहीं है, दृष्टा देह नही है! यह अभ्यास आज से शुरू करो! आज क्यों कहते हैं? क्योंकि आज देवोत्थान एकादशी है। एकादशी बहुत होती है पर आज देवता के उठने की जागने की तिथि है। तो देवता दृष्टा है, इस देवता को जगाओ। और जागना क्या है? यह तो रोज जागा है, नहीं तो दृश्य कहां से दिखता? जागता रोज रहा है। बिना दृष्टा के देह दिखेगा ही नहीं। दिख जाएगा? तो… बिना दृष्टा के देह नहीं दिखा फिर भी जागा नहीं कहलाते इसलिए आज जगाते हैं। आज दृष्टा दृष्टा होकर जागे! दृष्टा देह मान के न जागे। दृष्टा अपने को देह मान के जागे नहीं। वह तो सपना देख रहा है और सपना देखने का मतलब होता है कि सोया है। यद्यपि कोई भी जागे बिना सपना नहीं देखता पर जो सपने को सच देखने लग जाए उसे सोया कहते हैं। तो यह दृष्टा सोया हुआ है। आज जगाना है! फिर कहूँ, जागा तो था पर दृष्टा अपने को देह जानता था अर्थात देह को मैं जानता था, यही स्वप्न है। स्वप्न  होता ही तब है जब सत्य को भूल जाए। तो तुम देह कब अपने को मानते हो? जब सोए हो। मोह निशा सब सोवनिहारा, देखहि स्वप्न अनेक प्रकारा!
यह दृष्टा सोया हुआ है। दृष्टा तो है पर सोया हुआ है। तो पहचान क्या है सोए की? कि देह को मैं मानता है। जो है नहीं वह मानता है। जो है नहीं वैसा मान लेवें  उसी का नाम सपना है और सपना बिना सोए होता नहीं है। और एक बात मैं दोहराता  रहता हूं कि स्वप्न में मृत्यु हो गई और मृत्यु का दुख जो मरता है उसे होता है कि नहीं? जो सपने सिर काटे कोई स्वप्न में किसी ने सिर काट लिया तो दुखी कौन होगा? जिसका सिर काट लिया। और जिस का सिर काट लिया वह दुखी है! तो दुखी है तो जिंदा है कि नहीं? बिना जिंदा हुए दुखी हो सकता है ? लोग दुखी हो, खुद दुखी ना हो तब तो हम मान ले कि मर गया। दुखी भी है, मर भी गया है और पता भी उसी को है तो इसे सपना नहीं कहे? और इसे बेहोशी नहीं कहे? इसको मोह नहीं कहे? कई लोग मोह का अर्थ ही बदल लेते हैं। आप लोग भी मोह का अर्थ करते हैं कि हमें परिवार से मोह है पर मोह यह है ही नहीं। मोह यह है कि आप दृष्टा होकर अपने को दृष्टा नहीं मानते देह मानते हो यही मोह है।

शरीर का सत्य

आप लोग भी कई बार गीता में पढ़ चुके होंगे कि—-

“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय”
नवानि गृह् णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

  जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहनता है, ऐसे ही जीवात्मा शरीर रूपी पुराना कपड़ा उतार कर नया पहनता है। आज तक तुमने नहीं देखा होगा कि पुराना कपड़ा उतारकर नया पहनने में किसी को दु:ख होता है? लेकिन, ये कैसे कपड़े हैं, जिन्हें उतारने में बड़ा कष्ट होता है? क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि हमको यह बोध नहीं है कि ये कपड़े हैं; इन कपड़ों को हम पहनते हैं। गंदे कपड़े धोने को डालते हैं और दूसरे कपड़े पहन लेते हैं; धुला कर पहन लेते हैं। यह  शरीर भी रोज धुलवाकर पहनते हो। कपड़े तो सात दिन में धोने के लिए डालते हो; परंतु, इसे रोज धोबी के यहां डलना पड़ता है; रोज धुलवा करके पहनते हो।
        तुम्हें पता न होगा कि यह कब धोया जाता है, कब इस पर स्त्री की जाती है? तुमने देखा है कभी स्त्री करते? हमने देखा है। इसलिए, हम जानते हैं। गहरी नींद में इसको ठीक किया जाता है। नींद न आती होती, तो यह कपड़ा अभी तक न जाने क्या हो जाता। इसकी रोज की थकान दूर की जाती है; रोज की सिकुड़न दूर की जाती है; रोज दिमाग के तनाव दूर किए जाते हैं। शरीर में जितनी कमजोरी और थकान आती है, उसे दूर करने के लिए रोज गहरी नींद में धोने को डाल देते हैं। रोज ठीक करके सुबह ताजा कर दिया जाता है।  रोज पहनते हैं । इसके साथ ही और भी देखो कि ये आखिर में बदला जाता है। मौत भी वही काम करती है।
        यह शरीर बहुत दिन धोया गया। जब बिल्कुल धोने लायक नहीं रहता; धोने में ही फट जाएगा; तो आखिर में बिल्कुल बदल दिया जाता है और नया पहनाया जाता है। लेकिन, आदमी इस रहस्य को नहीं जानता। क्योंकि, जो कभी उतारते – पहनते देखता नहीं, धोते समय देखता नहीं, वह कैसे जानेगा? यदि देखा हुआ होता ; जागते समय धोने को डाला होता; तो देखता कि कैसे तरोताजा हो गया है।
     यह शरीर समाधि के द्वारा धुलता है; फिर इसे हम पहनते हैं। समाधि के द्वारा इसका ग्रहण और त्याग होता है। वह जान लेता है कि “मैं” शरीर से पृथक हूं। इसको समाधि में छोड़ता हूं; फिर जाग कर के पहनता हूं। यदि इसकी समाधि लगी होती, तो कपड़े के पहनने और उतारने का राज जान जाता। इसके कपड़े तो धोखे -धोखे में धोए गए हैं। कभी होश में उतारकर धोने के लिए धोबिन को दिए ही नहीं गए। बेहोशी में उतारकर धोने के लिए दे दिए गए हैं ।बेहोशी में ही कपड़े पहनाए गए थे; इससे जाना ही नहीं कि कौन धो गया है? कौन इसको ताजा कर गया है? यह कैसे ठीक हो गया? इसने  कभी प्रकृति का अध्ययन ही नहीं किया। प्रकृति ने बड़ी कृपा की है; लेकिन, यह कभी नहीं जान पाता। बेहोश रहता है। जो बेहोशी में हुआ है , वही होश में करने लग जाए। होश में कपड़ा उतार कर धोबिन को दें;  फिर धुलवाकर पहने; तो पता पड़े कि पुराना उतारकर नया पहनने में क्या दु:ख है?
  
      मृत्यु बहुत बड़ा रहस्य है। इस रहस्य को हमें जानना है। जब तक हम इस रहस्य को नहीं जानेंगे, तब तक हमेशा चिंतित और भयभीत रहेंगे। कोई भी आदमी खुशी के साथ कपड़ा उतारने को तैयार नहीं है। इसका कारण यह है कि हमने धोबिन से होश में एक दिन भी कपड़े नहीं धुलवाए। हम कहते हैं कि समाधि में रोज कपड़े दिया करो। यदि, जागते में  तुम शरीर को दे दो तो, फिर देखो कि कितना ताजा और प्रसन्न हो करके मिलता है। कितना स्वस्थ और शांत मिलता है। आपको प्रसन्नता रहेगी।
    प्रतिदिन होश में धुलाओगे, तो मौत के दिन भी दे दोगे कि ले जाओ, हम नया पहन लेते हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि मौत हमारी माता है। मां बड़ी दयालु है; बड़ी कृपा करती है। माता के जब एक स्तन पर दूध नहीं रहता, तो बच्चा स्तन काटने लगता है। मां जान जाती है कि इसमें दूध नहीं है, नीरस है। बच्चा दुखी हो रहा है। वह उसके मुंह से स्तन को छुड़ाती है। वह नहीं छोड़ता, तो मां जबरदस्ती उसे छुड़ाकर दूसरे स्तन पर लगाने की कोशिश करती है। जब बच्चे के मुंह से स्तन छूट जाता है, तो वह रोने लगता है। पर, जब दूसरा स्तन मिल जाता है, तो फिर खुश होकर पीने लगता है।
     जीव की भी ठीक यही दुर्दशा है। शरीर में आनंद के लिए लिप्त है। जब मौत इस शरीर को छोड़ाती है, तो रोता है।जब दूसरा फिर पा जाता है, तो खेलने – कूदने लगता है। यह जीव की दशा है। हां! कोई जानकार लड़का होता है – सयाना लड़का होता है तो उसकी मां नहीं छुड़ाती। वह स्वयं स्तन को  छोड़कर, दूसरे स्तन को पीने लगता है।
    योगी वह व्यक्ति है, जो एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर खुशी से ले लेता है। फिर सवाल ही नहीं रह जाता है कि मौत जबरदस्ती करे। यदि, समझदार बच्चा है; सयाना बच्चा है ; तो मां को कुछ भी करने की जरूरत नहीं। जो थोड़ा बहुत समझदार है, वह मौत से नहीं घबराता।  वह तो रोज शरीर बदलने को तैयार है। क्या बिगड़ता है? ज्ञानी मुक्ति नहीं चाहता। ब्रह्मविद पुरुष मुक्ति से भी हाथ धो बैठता है। कहता है कि जब हम अपने को शरीर जानते, अहंकार  होता, तो बंधन होता। हम ज्ञान से मुक्ति मानते हैं। शरीर होने और न होने का कोई प्रश्न नहीं। मोक्ष तो जीते जी हो जाता है।
लोगों ने मोक्ष की अलग-अलग परिभाषाएं भी की हैं। भगवान् कृष्ण के अनुसार शरीर को कपड़े की तरह उतारने को हमने कहा था, आप जीवन में कैसे उतार सकोगे? प्रेम से होश में उतारो। तुमने होश में कभी उतारा ही नहीं। हमेशा बेहोशी में ही उतारे हो। उतारने के पूर्व ही थोड़ा सा पता चल पाता है; फिर नहीं जानते कि कब उतारे और कब नहीं पहनाई गये।
     इसी बीच की दशा बिल्कुल बेहोशी में ही निकल जाती है; क्योंकि, जीते जी न कभी होश में उतारे और न कभी पहने। जागते समय अगर शरीर छोड़ते, तो जागते समय फिर पहन सकते थे। तभी तुम मरने के समय भी प्रेम से शरीर छोड़ सकोगे। कपड़ा छोड़ते समय, यदि तुम जागते रहते ; तो यह भी पता चल जाता कि “मैं” नहीं मरता हूं। अभी तुमको ऐसा प्रतीत हो रहा है कि “मैं” मरता हूं।  इसलिए, लगता है कि तुम अभी शरीर ही में चिपके हो – शरीर ही बने हो। इसीलिए , लगता है कि “मैं” मरता हूं। ” मैं”  शरीर हो गया हूं। यही तो बहुत बड़ा रहस्य है।

       हमें मरना सीखना चाहिए। मरना प्रसन्नता पूर्वक हो सकता है। मरते समय भी जीते रह सकते हैं। सुकरात की बहुत बड़ी कहानी है। सुकरात बहुत बड़ा ब्रह्मनिष्ट पुरुष था; आत्मविद् पुरुष था। उसने बराबर साधना की थी और जीते जी कई बार (शरीर रुपी ) कपड़े धोये थे। खुशी से धोये थे और खुशी से पहने थे। समाधि का अनुभव किया था और खुशी से जीता था। समाज को ज्ञानियों से हमेशा चिढ़ पैदा हुई है। क्यों पैदा हुई है? इसलिए कि समाज अपने को हमेशा शरीर मानता है; इससे, हमेशा ब्रह्म होने का दावा करने वाले से उसका जरुर संघर्ष पैदा हो जायेगा।अन्त में, लोगों ने सुकरात को जहर दे दिया।
      सुकरात के शरीर और पैरों में जहर चढ़ने लगा।यह तोआप जानते ही हैं कि थोड़ी देर जब पैर दबा रहता है, तो सुन्न हो जाता है। पैर नीले हो जाते हैं। उठाने में ऐसा लगता है कि जैसे भारी हो गए हों। जब जमीन पर रखो तो गुदगुदे गद्दे जैसी विशेष स्थिति हो जाती है। इस प्रकार उसे अपने पैरों का वजन प्रतीत होने लगता है। सुकरात को जहर चढ़ गया, शून्यता आने लगी, सुन्नता में पैरों का वजन बढ़ गया। बड़ी देर तक तो वह टहलता रहा; जब चलने लायक नहीं रहा, तो लेट गया। मित्र और शिष्य लोग रोने लगे। सुकरात कहता है कि “तुम क्यों रोते हो? प्रश्नपत्र मेरे सामने आया है, निष्ठा की परीक्षा मौत के समय होती है। तुम रोते हो”? यह प्रश्न पत्र आया है, प्रश्न पूछे गए हैं। यह आखरी प्रश्न है। जो इसमें पास हो जाता है, वही पास है।
      जिंदगी में तो लोग बहुत जीते रहे हैं ,जीते समय तो बहुत मरते रहे हैं; पर, मरते समय कौन जीता है? जो स्वयं में जीते रहे हैं, वह आज जिएंगे। जो पढ़ते रहे होंगे, वही आज पास होंगे। परंतु, जो खेलते रहे हैं, वे तो फेल ही होंगे। सुकरात कहता है, “मैं खेलता नहीं रहा, पढ़ता रहा हूं। मैंने प्रश्न को हल किया है। यह जानने में जी-जान लगाया है कि मौत क्या चीज है, शरीर क्या चीज है और मैं क्या चीज हूं? मैंने शरीर से जीते जी अलग होकर देखा है। तुम क्यों चिंता करते हो? यहां वही सवाल आया है, जो मैं रोज पढ़ता रहा हूं। आज कपड़े उतारने का समय आया है”।
जब मौत निकट आई, जहर और चढ़ा, तो हाथ और पैर सुन्न हो गए। जानते हो क्या कहता है सुकरात?  वह कहता है , इतने – इतने पैर  “मैंने” उतार दिए हैं। जैसे कुर्ते की यह बांह निकाल दें और अब इसको काटे तो दर्द नहीं होगा। इसमें हाथ पड़ा हो, फिर काटे तो दर्द होगा। इतना उतार दिया है , चेतना समिट चुकी है। अब इनको काटने से बिल्कुल दर्द नहीं होगा। पैर उतर गए , बांह उतर गई हैं। “मैं उतर रहा हूं। मैंने पहले भी जीते जी उतारना सीखा है। जीते जी सब शरीर सुन्न होता गया, केवल मैं चेतना पूर्वक बचता गया और यह शरीर बिल्कुल छूटता गया “।

      यही हम तुमको बराबर कई दिनों से कह रहे हैं कि जीते- जी अपनी चेतना को शान्त करो-शान्त करो। बिल्कुल अन्दर से देखते रहो;अन्दर इस घड़े में बैठे रहो। थोड़ी देर बाद देखोगे जैसे कि शरीर बिल्कुल चैतना रहित हो गया हो। उठाने में वजन प्रतीत होने लगता है। हाथ उठते नहीं। लगता है हाथ हैं ही नहीं; क्योंकि, उनमें चेतना कम हो जाती है। जैसे सोये हुए आदमी का शरीर पड़ा रहता है। लेकिन, नींद में तुम्हें यह प्रतीत नहीं होता कि चेतना अलग है और शरीर अलग पड़ा है। समाधि और ध्यान में क्या होता है? शरीर पड़ा रहता है,सुस्त हो जाता है और तुम अलग रहते हो। शरीर अलग है और प‌ड़ा है।यह शरीर सुस्त है,जड़ है और “मैं” चेतन हूं। यह देखने का मोका मिलता है। जो कुछ करे,जागते हुए होश में करे; तो आदमी स्वयं में पहुंचता है; आत्मा में पहुंचता है। इसलिए, हम कहते हैं कि—-
“जागे सो पावे ,सोवे सो खोबे”

     यह रहस्य जागने का है और जागने वाले ही इसे पाते हैं। मुझे एक बड़ी विचित्र कहानी याद आई है। मैं सुकरात वाली कहानी फिर कहूंगा। एक बहुत बड़े ज्योतिषी थे। एक गांव में गए। उस गांव में बहुत  भीखमंगे थे। उसी गांव में कुछ रईस भी थे, जो भीख  दिया करते थे। कुछ भीख मांगने वाले दिन भर भीख मांगा करते थे। सुबह निकल कर दिनभर भीख मांगते थे और थोड़ी देर के लिए घर जाते थे। जो पाते थे, कुछ तो वहीं खा लेते थे, और शेष घर ले आते थे। जैसे कुछ महात्मा शाम के लिए मांग लाते हैं और आश्रम में खा लेते हैं। इसी प्रकार भिखारी दिनभर पैसे मांगते थे।
      उनके पूर्वज बड़े रईस थे। पिता पैसे वाले थे और वे भीख मांगते थे। इनके पैदा होते ही इनके पिता, पता नहीं कहां चले गए थे? उनकी दृष्टि से ओझल हो गए थे या संन्यास ले लिया था। लड़के अबोध काल में ही पिता से विहीन हो गए थे – असहाय हो गए थे। अतः उन बेचारों ने मांगना शुरू कर दिया। शहर में इस प्रकार के बहुत  लड़के हो गए और बहुत दिन तक उनकी इस प्रकार भीख मांगने की स्थिति चलती रही। लेकिन, एक दिन एक ज्योतिषी ने उन बच्चों को भीख मांगते देखा, तो उसे उन पर तरस आ गया। जब ज्योतिषी ने उस भिखारी बच्चों का मुंह देखा, तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।
      उसने कहा प्यारे बच्चों! तुम भीख क्यों मांगते हो? बच्चों ने कहा यह भी कोई पूछने की बात है ? भीख क्यों मांगी जाती है? यह तो अंधा आदमी, नासमझ आदमी भी समझता है कि भीख क्यों मांगी जाती है ? ज्योतिषी कहने लगा “मुझे” आश्चर्य हो रहा है। बच्चे बोले तुम बेवकूफ हो। इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जिसके घर में कमी है, जो गरीब है, वह भीख मांगता है। हमारे घर में खाने- पीने को कुछ नहीं है; इसीलिए, भीख मांगते है।

    ज्योतिषी ने कहा कि “उसे इसलिए आश्चर्य हो रहा है कि घर में कोई कमी नहीं है और तुम लोग भीख मांगते हो।” लड़कों ने कहा तुमने कैसे जाना? उसने कहा “मैं ज्योतिषी हूं मेरी आंखें जमीन के अंदर देख लेती हैं। मैं तुम्हारी भाग्य रेखाएं देखता हूं। तुम क्यों भीख मांगते हो?” लड़कों को भी लगा यह जरूर कोई जानकार है। बच्चों ने कहा कि “अब हमें बताओ कि हम भी क्यों ना मांगे? हम रईस आदमी कैसे हैं?” इस प्रकार एक स्थिति आई और ज्योतिषी लड़कों को लिवा ले गया। ज्योतिषी कहने लगा तुम लोग क्या करते हो? बच्चों ने कहा वे दिन भर भीख मांगते हैं। कुछ तो वहां खा लेते हैं और कुछ लाकर घर में खा लेते हैं। लड़कों ने कहा कि घर में एक कमरा है, कमरे के अंदर एक अंधेरा कमरा है;, अपनी सुरक्षा के लिए हम वहीं पर सो जाते हैं।
     ज्योतिषी ने पूछा वहां तुमने कभी दिया  (दीपक ) नहीं जलाया? तब बच्चों ने कहा नहीं जलाया। ज्योतिषी ने कहा कि आज वहां दिया जलाना, जागना, देखना और खोदना। ज्योतिषी के कथानुसार लड़कों ने वैसा ही किया। ज्योतिषी ने कहा था भीख मांगना जारी रखना।अंदर दीपक जला कर के सो जाया करो। पर, जहां तुम सोते हो, वही दीपक जलाने की आवश्यकता है। जब तुम गुफा में जाकर सो जाते हो, वहीं जागना, देखना और वहीं खोदना। देखना वहां क्या होता है?
    उन बच्चों ने वही किया। सिर्फ भीख मांगने बाहर जाते थे, कुछ  खा लेते थे, कुछ अंदर बैठ कर खा लेते थे। फिर इसके बाद जब सोना होता था तब अंदर जाते थे। लेकिन, अब सोने के पहले भी जाने लगे। पहले तो सोने के लिए ही जाते थे, अब जागते हुए भी वहां जाने लगे। जब अंदर पहुंच गए, तो वहां प्रकाश में देखने लगे, ढूंढने लगे और वहीं खोजने लगे। एक दिन उन्हें इतना असीम धन मिल गया कि उस दिन से उनका भीख मांगना बंद हो गया। उस ज्योतिषी ने उनसे नहीं कहा कि वह भीख मांगना छोड़ दें; पर, लड़कों ने भीख मांगना बंद कर दिया। जिस कारण भीख मांगी जाती थी, उनका वह काम पूरा हो गया। अब मांगने की जरूरत ही नहीं रही।

झूठे अहंकार से मुक्त हों

जिस गुरु को स्वयं ही स्वरूप में शाश्वत शांति प्राप्त नहीं हुई, वह शिष्य को आश्रम में ही लगा सकता है; धंधे में ही लगा सकता है; लेकिन, ब्रह्मनिष्ट नहीं बना सकता। लोग चेलों को रखते हैं, गीता पढ़ा देते हैं, रामायण पढ़ा देते हैं, वेद पढ़ा देते हैं, और भाषण देना सिखा देते हैं। लेकिन, जब देखते हैं कि चेला भी चाहता है कि चेले अधिक बन जाएं; चेला भी चाहता है कि आश्रम अधिक बन जाएं; तब गुरु और शिष्य में आश्रमों के पीछे, चेलों के पीछे, राग- द्वेष पैदा हो जाता है; क्योंकि, गुरु भी उसी रास्ते पर रहे हैं और उसी पर ले जा सकते हैं। जो जिस रास्ते पर स्वयं नहीं जा पाया, वह समाज को उस रास्ते पर कैसे ले जा सकता है? जिसके बीज नहीं हैं, उसके वृक्ष पैदा नहीं हो सकते। यदि बीज हों, तो वृक्ष पैदा हो सकते हैं।
अब आवश्यकता है कि हम लोग स्वयं अपनी अनंत आत्मा में तृप्त हों; तब अपने पुत्र को कहें। जब हम स्वयं शाश्वत शांति की खोज में लग जाएं, तब अपनी बहू को कहें, बेटी को कहें। लेकिन, हम कौन सा मुंह लेकर कहें कि बहु तुम सत्संग में जाओ बहु स्वयं सास से कहती है कि “आप खुद ही ज्यादा अशान्त हो”। जब आप स्वयं परेशान हैं, स्वयं ज्यादा चिड़चिड़े हैं, स्वयं ज्यादा क्रोधी हैं, स्वयं ज्यादा हाय- हाय करते हैं, तो बहु से कैसे कह सकते हैं कि सत्संग में जाओ। बहु सिनेमा देख आती है, उससे खुश रहती है। सिनेमा देखने वाले लड़के भी आनंद से हैं। वे घर पर भी हंस- खेलकर तुम्हारी गाली को टाल देते हैं। लेकिन, तुम श्रेष्ठता के अभिमान से फूले हुए एक मिनट भी चैन से नहीं रहते।
जितने लोग श्रेष्ठ बने हुए हैं, मन से अपने को बड़ा अच्छा माने हुए हैं; वे एक मिनट भी चैन में नहीं हैं। अब हम उनका नाम सत्संगियों की लिस्ट में कैसे लिखें? अध्यात्मवादियों की लिस्ट में उनका नाम कैसे लिखें? गलतियां करने वाला तो दस गालियां सुनने में भी समर्थ है; लेकिन, दो-तीन भाषण सुन लेने वाले को तो सहन ही नहीं होता; क्योंकि, वह तो यह मानता है कि वह बड़ा सत्संगी है, बड़ा ज्ञानी है। तुमको तो हमारी दो बातें सहन हो जाती हैं; लेकिन, बाबा को देखकर तुम उठकर खड़े न हो, तो बाबा के आग लग जाती है। हम इतने बड़े हो जाते हैं कि भक्तों के उठकर न खड़े होने पर भी हमें अशांति का अनुभव होता है। तुम नीचे बैठकर भी शान्त तो हो। ज्यों- ज्यों हम धर्म के नाम पर आगे बढ़ते हैं, त्यों- त्यों अहंकार में बढ़ते चले जाते हैं। सबसे बड़ी आवश्यकता है अहंकार से रहित होने की । ज्यों- ज्यों हम निरहंकार होते जाएंगे , त्यों-त्यों शांत और आनंदित होते जाएंगे।