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मोक्ष के लिए दृश्य से मुक्ति आवश्यक

यदि, मन को समाप्त करना है; यदि मोक्ष पाना है; तो पहले दृश्य से मुक्त हो जाओ; क्योंकि, दृश्य ही, दृष्टा  के जीने के लिए हमें लकड़ी देता रहता है। अधिक खतरे की बात तो यह है कि दृष्टा अपने को न देखें, तो दृश्य ही दृश्य भाषता रहता है। यद्यपि, लकड़ियां सुलगती हैं – कुछ देर अधिक धुआं उठता है – विचार और द्वंद मचता है; लेकिन, यदि नई लकड़ियां मिल जाती हैं, तो लपटे उठती हैं। अब दृष्टा और दृश्य के बीच में एक प्रकार का संघर्ष पैदा होता है। इसका फैसला नहीं कर सकते। ये तो तब हो, जब लकड़ियों को कुछ दूर करें। तब हमें लगे कि हम कुछ हैं और ये कुछ हैं।
       यदि इस प्रकार की आग, दस – बीस  जगह जल रही है और उनकी अपनी – अपनी लकड़ियां और अपनी-अपनी आग है, तो वे  सब अपने को कहती होंगी कि वे अग्नि हैं। ये उनकी लकड़ियां हैं। इनको  वे जलाएंगी। यदि थोड़ी देर के लिए उन्हें लकड़ियां न दी जाएं, तो कितने “मैं” रह जाएंगे? “मैं” अग्नि हूं, अग्नि हूं। हर एक का यह दावा था कि अग्नि “मैं” हूं। कितनी अग्नि रह जाएंगी? सारी अग्नियां शांत हो जाएंगी। शायद कई रह जाएंगी। जिनको आज तक देखा नहीं है।
        
      जिस अग्नि को आज तक नहीं देखा है, वह अव्यक्त आग रह जाएगी। जो दृश्य नहीं है, जो दिखाई नहीं देती। जिससे वह अव्यक्त भी होती है इसीलिए कहा है कि —
      “अव्यक्तातपुरुष: पर:”
      जहां अव्यक्त भी नहीं रहता। वह अव्यक्त के भी परे है। जो शुद्ध चैतन्य है; परमात्मा है; वही तमाम रूपों में, जितने भी  “मैं”  हैं, उनमें प्रकट हुआ है ।
मैं से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ, जो तेजोमय प्रकाश युक्त रत्न है, वह भलीभांति धुल जाने पर चमकने लगता है; उसी प्रकार इस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप अत्यंत स्वच्छ होने पर भी अनन्त जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों से मलिन हो जाने के कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता; परन्तु जब मनुष्य ध्यान योग के साधन द्वारा समस्त मलों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति प्रत्यक्ष कर लेता है, तब वह अकेला (अर्थात उसका जो जड़ पदार्थों के साथ संयोग हो रहा था, उसका नाश होकर) कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकार के दुःखों का अन्त होकर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है। उसका मनुष्य जन्म सार्थक हो जाता है। फिर जब वह योगी इस स्थिति में दीपक के सदृश निर्मल प्रकाशमय आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्म तत्व को भलीभांति प्रत्यक्ष देख लेता है, तब वह उस अजन्मा, निश्छल तथा समस्त तत्वों से असंग—सर्वथा विशुद्ध परम देव परमात्मा को तत्व से जानकर सब बन्धनों से सदा के लिए छूट जाता है।

ब्रह्म होना ही असल में मरना है

बुलबुले अलग-अलग हैं और पानी हैं। हैं तो दोनों बातें बड़ी स्पष्ट; लेकिन, जिनको वे स्पष्ट हैं, उन्हीं को स्पष्ट हैं। ये बातें तो समझ में आ जाती हैं कि बुलबुले पानी हैं। सर्वत्र हम ही हैं, यह बात युक्ति से, दृस्टान्त से तो समझ में आ जाती है; लेकिन, हम ही सर्वत्र हैं, यह समझ में नहीं आता। सर्वत्र आत्मानुभूति नहीं होती कि सबका सब “मैं” हूं। ऐसा दिख जाए , तो फिर द्वैष कहां, ईर्ष्या कहां और दुर्व्यवहार कहां? ऐसा दिखते ही दिल में शांति आवेगी। बुद्धि के धर्म शांत हो जाएंगे। जब आत्मबोध जागता है, तो प्रज्ञा ही ब्रह्म रूप हो जाती हैं। जब मन की ब्रह्म हो जाएगा, तब मति के धर्म, राग – द्वेष कहां रहेंगे? जब ब्राह्मीभूत हो जाएगा, तो मन में क्रोध कैसे रहेगा? जब ओला पिघल गया, तो उसकी कठोरता का दोष कैसे रहेगा? मन रहे, तो मन का धर्म भी रहे। ब्रह्मबोधाग्नि में मन पिघल जाएगा —-
“मन्सूर चढ़ा जब सूली पर,
तब रूह कफस से जाती थी।
मैं बंदा नहीं अनलहक हूं ,
आवाज खून से आती थी।।”
ऐसी कहावत है। यह कहावत कहां तक सच है, पता नहीं। लेकिन, भाव यह है कि यदि हमारा रोम भी छेद कर देखा जाए, यदि हमारा खून भी देखा जाए, तो वहां सिवाय “हूं” के और कुछ न मिले। वह स्त्री नहीं , पुरुष नहीं; गरीबी नहीं, अमीरी नहीं। हमारे खून में गरीबी का अनुभव न हो। हमारा खून भी ब्रह्म हो, हमारा मन भी ब्रह्म हो। हमारी इन्द्रियां भी ब्रह्म हों। एकदम शांत हों। ब्रह्म और कुछ नहीं। जिसकी इतनी निश्चित दशा होती है, क्या वह कभी मर सकता है? वे तो शांत रहकर बलिदान हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि जरा – सी द्वेष भावना हुई कि खून गरम हो गया।

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

सबसे बड़ा पाप

कई जगह शादी को संबंध भी बोलते हैं, रिश्ता भी बोलते हैं, विवाह भी बोलते हैं। तो तुम्हारा अभी नाशी से रिश्ता हुआ है। शरीर नाशी है, इससे तुम्हारा रिश्ता हुआ है और इसीलिए चिंता है। तुमने जिससे ब्याह किया है ना! वह मांगलिक ग्रह वाला है, वह जाएगा। और यह रिश्ता सब ने कर रखा है। यह मत समझो कि गृहस्थी करते हैं, साधु तक किए बैठे हैं यह रिश्ता नाशी से। और जब ऐसे मांगलिक से कर लोगे तो चिंता होगी ही कि यह नहीं रहेगा, चला जाएगा। तो अब हमें क्या करना है? यहां तो ( श्रीमद्भागवत कथा में ) रुक्मणी जी का श्याम से, भगवान से विवाह हुआ है। तो तुम्हारा भी भगवान से ही कराना पड़ेगा पर रुक्मणी जैसी बात हो! कोई किसी के कहे से न कर ले। नहीं तो  उनके घर के लोग कहीं और कराना चाहते थे, ठीक है! तो आप भी अभी तो बिना किसी से कहें, सहज ही शरीर से तुम्हारा रिश्ता हो गया है, संबंध हो गया है। यह शरीर आपका हो गया है, आप इसके हो गए हो। इसके धर्म आपके और आपका धर्म इसका हो गया है। जैसे लोहे को गरम आग में डाल दो तो यदि लंबी लंबी सरिया है तो आग लंबी लंबी हो जाती है और सरिया गरम नहीं है पर वह गर्म हो जाती है, सरिया का धर्म आग को मिल गया। लंबाई सरिया की है वह मिल गई आग को और गर्मी किसकी है आग कि, वह मिल गई लोहे को। इसको अन्योन्याध्यास  बोलते हैं। तो जो जीव है वह देह हो गया और जो जड़ है वह चेतन हो गया। वह चेतन हो गया क्योंकि तुम्हारी चैतन्यता देह को मिल गई और देह की जड़ता, मृत्यु तुम्हें मिल गई। यह अन्याेन्याध्यास है। तो इसका तो हमें तलाक दिलाना पड़ेगा। शादी तो बाद में करेंगे पहले तलाक दो। अष्टावक्र गीता में कहा है यदि देहं पृथक्कृत्य चितिविश्रम्य तिष्ठसि ।अधुनैव सुखी शांतो बंध मुक्तिर्भविष्यसी।।यदि तुम यही देह से मैं पन हटाओ, देह से रिश्ता तोड़ो और चैतन्य में विश्राम करो, अपना संबंध अंतरात्मा से कर लो तो अभी मुक्त हो जाओगे। इसलिए अब क्या करना है? यह मैं जो है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यह  चार ही इस देह को  मैं मानते है। यही मुड़कर के  करके आत्मा को, स्वरूप को मैं मान सकते है। अभी मैं को सीधा सीधा नहीं….. जैसे  मैं देह नहीं है, मैं ने देह का अभिमान किया है।  देह अभिमान तो मैं ने किया। यदि नींद ना खुले तो देह का अभिमान होगा क्या? देह में मैं पन नहीं हुआ, इसमें रहने वाला  चिदाभास कहो या मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार कहो उसने इस देह से मैं का रिश्ता जोड़ दिया, इसको मैं बना कर मेरे बना लिए। फिर मैं-मेरे का दुख हो गया। इसलिए अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश बस यही पांच क्लेश है। और यही सबसे बड़ी परेशानी, भ्रम की तुम ये शरीर हो, नाम हो, रूप हो जिस दिन कोई भी व्यक्ति इसे सही सही समझ गया कि वो शरीर नही, ये शरीर उसका है जो कि प्रारब्ध वश मिला है इसमें रहने वाला वो तत्व जिसके निकल जाने से ये निष्क्रिय हो जाता है किसी काम का नही रहता वो कौन है उसे जानो ये उनके जानने को मिला यही मानव देह कुंजी है इसलिए ही ये देह रूपी मौका उसे मिला है क्योंकि जानवर ये नही सोच सकता। आप ही सोच सकते हो समझ सकते हो। इसलिए मेरे गुरुदेव कहते है-

“देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप हैं।

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्रों का ये बाप है।।

नियंत्रण

किसको भय देना, किसको अभय? किसको सलाह देना, किसे ताकतवर बनाना? कंस ताकतवर हो जाएगा तो क्या करेगा? वह तो भगवान ना आते तो जाने क्या करता कंस! और भी….. वह सिद्धि आ गई कि तुम्हें कोई मार नहीं सकता, वरदान ले लिया। अब पूरा ही यदि वरदान मिल जाए या चलो एक सिद्धि मिल जाए कि तुमको कोई देख ही नहीं पाएगा, तुम चाहे जहां जाओ दिखाई ना पड़ोगे लोगों को। अभी तो दिखाई पड़ते हो इसलिए चोरों को पता है कि लोग मुझे देख लेंगे। चरित्रहीन को पता है कि मैं दिखाई दे सकता हूं इसलिए दिमाग लगाता है कोई देख ना ले। अब मान लो यह सिद्धि तुम्हें आ जाए, जब चाहे दिखाई पड़े जब चाहे दिखाई ना पड़े! यदि यह चमत्कार तुम्हारे पास हो जाता तो ताकत से शरीर चाहे जितना हनुमान जितना बड़ा कर लो छोटा कर लो तो? अभी नहीं है आपके पास पर यदि ऐसी सिद्धि तुम्हें मिल जाए ना तो आप……. । हमारे गुरुदेव से कुछ संतों ने कहा जो उनको सिद्ध मानते थे कि हम को भी मंत्र सिखा दो कि जिसको मंत्र मारे वह जल जाएगा। तो गुरुदेव ने नहीं सिखाया। कहते थे – तुम यह मंत्र सिखके पता नहीं किस पर नाराज हो जाओगे! ठीक है? तो यह मंत्र और सिद्धि भी उनको मिलने चाहिए जिनका अपने मन पर कंट्रोल हो। और चलो वह सिद्धि तो जाने दो, यह सिद्धि कि जिनको पांच इंद्रियां मिली है उनके भी अंदर भगवान यह सामर्थ्य दे की इंद्रियों को तुम कंट्रोल कर सको। कहो तो यही इंद्रियां तुमको तार देती है और यही इंद्रियां तुम को मार देती है। यही तुम्हें अकल्याण में, गलत रास्ते में ले जाती है। इसलिए जिनकी इंद्रिया बस में है उन्हींकी ये मित्र है। “हमारी इंद्रियां हमारी मित्र है यदि कंट्रोल में है और यदि हमारी इंद्रियां कंट्रोल में नहीं है तो यही हमारी दुश्मन है।”