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निर्ममेति

एक बार दीपक कहने लगा कि “जिस घर में मैं जलता हूं, उस घर में मैं अंधेरे को नहीं आने देता”। हमने कहा भई! ज्यादा न बोलो, जरा संभल के बोलो। ये कहो “जहां मैं रहता हूं, वहां अंधेरा आता ही नहीं है”। वहां अंधेरा रहता नहीं कि तू आने नहीं देता? अंधेरे को तो कोई धक्का दिये रहता है , जो नहीं आने देता । कोई रोके रहता है उसे?
“मेरा है ” कहते ही बंधन..
अभी जब यहां सत्संग चल रहा था, हम लाउडस्पीकरों की आवाज सुन रहे थे। इधर चार स्पीकर लगे हैं, उधर दो लगे हैं। हम खड़े होकर यह पता लगा रहे थे कि कहां की आवाज सुन रहे हैं? एक बालिश्त के फर्क में हम इधर के स्पीकरों की आवाज सुनते थे। और एक बालिश्त के फर्क से खड़े होते ही यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह आवाज होती है। केवल एक बालिश्त की दूरी का यह प्रभाव है। सच तो यह है कि एक बाल बराबर दूरी का भी यही प्रभाव होगा। यदि मशीन से सुना जाए, तो बाल बराबर इधर आते ही यह आवाज़ सुनोगे और बाल बराबर उधर जाते ही वह आवाज़ सुनोगे। एक सीमा रेखा होती है, बस इतना ही फर्क है।
जब भौतिक जगत् में, एक बाल बराबर दूरी से इतना फर्क पड़ सकता है, तो “मेरा नहीं है , भगवान का है” की जमीन पर खड़े होते ही, बस इतना सा ख्याल करते ही, आदमी मुक्त हो जाता है और “मेरा है” यह ख्याल आते ही वह बंध जाता है, फंस जाता है।

“द्वे पदे बंद मोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन् र्तनिर्ममेति विमुच्यते।।”

“निर्ममेति”, “मेरा नहीं है”, कहते ही मुक्त हो जाता है और “मेरा है”, कहते ही बंध जाता है। मैं कहता हूं, यह तो एक सूत्र है। ऋषियों ने ऐसे लाखों सूत्र दिए हैं। एक भी सूत्र पकड़ लो, तो मुक्त हो जाओगे।

जीव को शांति कहां मिलेगी ?

संसार में जो कुछ भी हम प्राप्त करते हैं, वह छूट जाता है। जिन साधनों से प्राप्त करते हैं, वे भी शिथिल हो जाते हैं। देखने में नेत्र असमर्थ हो जाते हैं। सुनने में कान असमर्थ हो जाते हैं। जिस शरीर से हम कुछ पाना चाहते हैं, वह शरीर भी शिथिल हो जाता है। जिस मन से हम कुछ पाया करते हैं, वह मन भी बदल जाता है। क्योंकि, संसार में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके लिए मन कहे कि नहीं छोड़ना। इसीलिए, ऋषियों ने खोजा की जीव को शांति कहां मिलेगी? जो उन्होंने खोजा, अनुभव किया, उसे ग्रंथों में लिखा। पर, हम तब तक उसका लाभ नहीं ले पाते; जब तक कि हमारी समझ में न आए। मोक्ष उस समझ के सिवा और कुछ नही है अगर इसे अनुभव कर लिया तो आप तक्षण मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष में ही विचरते हैं। बस यही समझना है कि हम सच में हैं क्या? ये नाक , कान, दृश्य या रसना और ये सब अगर शरीर से खत्म कर दे तो क्या बचेगा जो सुप्त अवस्था में आपके सपनों का साक्षी होता है। उसे जानिए, सोचिये क्योकि इसके अलावा जानने समझने लायक कुछ है ही नही।

“मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

“हमारे” दो हिस्से हो गए हैं -एक चैतन्य का हिस्सा और दूसरा प्रकृति का प्रकृति और पुरुष मिलकर हम “मैं” हो गए हैं। यदि, इनसे प्रकृति सब हटा दी जाए, तो एक रह जायेगा। सब “मैं” समाप्त हो जाएंगे। इसीलिए कहते हैं कि यह नानात्व भ्रम हैं। “हम” केवल भ्रम हैं। जो नहीं हैं, उनके मरने का सवाल क्या है? “हम” कुछ नहीं हैं। यह बहम है कि “हम” भी कुछ हैं। इसीलिए मुक्ति का चक्कर है। मुक्ति मिलती नहीं है। “मैं” का ही छुटकारा है। “मैं” से छुटकारा पा जाओ, बस मुक्त ही मुक्त हो। तुम जो “मैं” बन बैठे हो, यही मौत है। इसीलिए “मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है। “मैं” की मुक्ति नहीं होती। तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी। तुम ही नहीं रहोगे, यही मुक्ति है।
हम क्या हैं ?
यही देखना है कि “हम” क्या हैं? आग कहती है कि “मैं” न मरूं। अपने जीने के लिए लकड़ियां समेटने की जो आग की प्रवृत्ति है, यही अज्ञान है। यह पता चल गया कि आप सदा जीवित है। साइंटिस्ट लोग लकड़ीयां नहीं समेटते। वे कहते हैं कि हम आग को फिर प्रकट कर लेंगे। यह तो पहले के लोग कंडे (उपले ) गाड़- गाड़ कर आग को टिकाया करते थे; क्योंकि, उन्हें मालूम नहीं था। सोचते थे आग बुझ न जाए। उनको पता नहीं था कि आप कभी बुझा नहीं करती। वह हमेशा है, नित्य है और अव्यक्त है। चाहे जब उसे प्रकट किया जा सकता है। क्योंकि, जब पहले प्रकट हुई है; तो फिर भी प्रकट हो सकती है।
चेतना कितनी ही बार प्रकट हुई है। जो अव्यक्त चैतन्य है; वह नित्य विद्यमान है; फिर प्रकट हो सकता है। लेकिन, यह “मैं” घबरा जाता है कि ” मैं” मर न जाऊं, “मैं” मर न जाऊं। तेरे जैसे कितने “मैं” हो गए हैं और अभी होने की भी क्या कमी है? जो अभी बना है और बना रहेगा; लेकिन, यह “मैं” कहता है कि “मैं” मर ना जाऊं। जैसे अग्नि चिंतित है कि “मैं” बुझ न जाऊं। इसीलिए, मेरे में लकड़ियां डाल दो, मुझ में कंडे डाल दो।अग्नि खतरे में पड़ गई है। वही हाल तुम्हारा भी हो गया है। शरीर मिल जाए, और शरीर मिल जाए, और प्रकृति मिल जाए, और थोड़ा शरीर मिले, नहीं तो “मैं” मर जाऊंगा। शरीर खत्म होता जा रहा है और हम शरीर पाने को बैठे हैं। हम मर न जाएं, यही तो प्रवृत्ति है। यदि तुम जान गए होते कि तुम मरते कहां हो? हम हैं क्या? जो है, वह आज तक कभी नहीं मरा। वही तो “मैं” के रूपों में प्रकट है और फिर ये “मैं” अप्रकट रूप में चले जाते हैं, मरते नहीं।


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।


भगवान कृष्ण कहते हैं कि सारे प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे। बीच में व्यक्त हुए और मरते पर फिर अव्यक्त हो जाते हैं। तो रोने की या दुख की क्या बात है? लेकिन शायद किसी विरले को ही ये बात समझ आती है बाकी का तो मनोरंजन है वेदांत सुनना।

जो स्वयं ब्रह्म हो.. वो गुरु ही पार लगा सकता है

जब परमपिता स्वरुप सतगुरु ने हमें अपनाया है, तो इसमें तो दो मत ही नहीं, सागर खुद नदियों को अपने में मिलाने बांहें फैलाए खड़ा है ,और नदियां तत्पर है सागर में समाने के लिए फिर मन में संसय क्यों? हमारे अंतर कल्याण की भावना भी उसी की कृपा में लगी है और कल्याण करने के लिए खुद सागर ही गुरु रूप में अपनी इन नदियों को समाने के लिए आये हैं।
क्योंकि अब हम निश्चय होकर इसी पंक्ति पर टिके रहें-


अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।

बादल तो सब जगह बरसते हैं, किंतु फसल वहीं पैदा होती है जहां जमीन में किसान ने बीज बोए हों।ठीक वैसे ही परमात्मा की कृपा भी बरसती है, लेकिन अहसास केवल उन्हीं को हो पाता है जिन साधकों ने हृदय-भूमि में सदगुरु के सत्संग वचन बोये हों। बडे भाग्यशाली है वो तेरे बन्दे जिन्होंने आपसे दिल लगाया है।… जिन्होंने आपका आश्रय लिया है। आपके सत्संग से प्रीति की है, आपके वचनों में श्रद्धा की है।

मैंने कई शिष्यों के जीवन मे देखा।
उनके अंदर में ईश्वर को पाने की प्यास तो थी परंतु उन्होंने वह भी गुरु की इच्छा में मिला दी।
उन्होंने कभी शंका नहीं की कि हमें ईश्वर मिलेगा अथवा नहीं।

किंतु ऐसे लोगों में सबसे बड़ा गुण यह था, उन्होंने प्रेम बहुत किया सदगुरु से। और यही उनका सबसे बड़ा साधन बन गया ईश्वर पाने का।

गुरु प्रेम में सभी साधन आ गए, क्योंकि अब अपने बल पर ईश्वर प्राप्ति नहीं करनी थी । जिसके कारण अपने में अहम पोषित नहीं हो पाया। बल्कि गुरुप्रेम रूपी नाव में बैठ जाने के कारण, वह नाव सहज में ही, ईश्वर की ओर उनको लेती चली गई।

वह ईश्वर जो बड़े-बड़े तपस्वी और योगियों को भी जंगल और पर्वतों में साधन भजन और तपस्या करने पर भी दुर्लभता से प्राप्त होता है। बड़े-बड़े शास्त्रों के विद्वानों और पंडितों को भी नहीं मिल पाता।वही दुर्लभ ईश्वर ऐसे गुरु भक्तों को सहज में ही प्राप्त हो गया।

जिन लोगों को ऐसे भक्त पागल ही लगते थे, उन पागलों ने ही अपने आप को गुरु चरणों में समर्पण करके सर्वप्रथम बाजी मार ली।
और अपने बल पर उस परमेश्वर को पाने वाले तो देखते ही देखते ही रह गए।

कितने जागरूक?


कोई यह कह सकता है कि अध्यात्मवाद व्यर्थ है। मैं तो नहीं कह सकता कि अध्यात्म मार्ग गलत है। हो सकता है कि उसके शोधन में कोई दोष हो,उसके सेवन में कोई दोष हो। इसलिए, हमारा एक ही निवेदन है कि आप अपने जीवन की उस अभिलाषा की ओर भी जागरूक हो जावे कि आपको क्या चाहिए? उसके लिए आप कितने जागरूक हैं? सच्चाई से शोधन करें कि कितना समाज रोटी और कपड़े के लिए जागरुक है? जितना मनुष्य बिल्डिंग के लिए जागरुक है क्या उतना कल्याण के लिए भी जागरुक है? क्या समाज सतर्क और सावधान है? लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि रोटी, कपड़ा और मकान की ओर न जागें।
शरीर और आत्मा दोनों ही की ओर जागें। बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनकी रोटी की भी समस्या है, जिनकी कपड़े और मकान की भी समस्या है। हमारे देश की नौका दोनों तरफ ही डगमगा गई है। हम लोग धर्म की तरफ भी चूक गए हैं और भौतिकवाद की तरफ भी चूक गए हैं। आज हमको ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, जो संसार के विषय में भी सोचें और मोक्ष के विषय में भी सोचें। ऐसे मानव का जन्म होना चाहिए, जो दोनों पहलुओं पर विचार करें। हम बहुत दिनों तक एकांगी रहे हैं ।

जिस तरह शरीर की पूर्ति आवश्यक है उसी तरह मन या आत्मा की पर समस्या यही है कि जो दिखता नही उसे आप मानते नहीं, पर कब तक क्योंकि एक न दिन तो मानना ही पड़ेगा सोचना ही पड़ेगा फलों में स्वाद कहाँ से आया, तुम्हारा भोजन किसने पचाया, कौन है जो तुम्हारी नींद में तुम्हारे सपनों को देखता है…इसको जानना अत्यंत आवश्यक है आज नही तो कल इस जन्म नही तो अगले यह ही जानना होगा तभी इस प्रपंच से पार होंगे

ब्रह्म विद्या

जिसका बोध सच्चा है, उसका खून शीतल होता है। खून बदल जाता है,रोम -रोम बदल जाता है। देखिए,आपकी नाड़ियां क्या कहती हैं? नाड़ी हूं कि ब्रह्म हूं? आपका मन क्या कहता है? ब्रह्म हूं कि मन हूं? केवल “हूं” कहता है- ब्रह्म भी न कहो। केवल साक्षी हूं। कहता है कि शरीर हूं।कहता है कि यह देखो कि अन्दर तुम्हारी सतत् जागृति किस भाव में है? अभी पता चलेगा कि अविद्या क्या, अभी तो शरीर का अभिनिवेष भी नहीं गया। जाति का, कुटुंब का और मजहबों का अभिनिवेष अभी चित्त में है। यह अभिनिवेष अभी नहीं गया। यदि अभिनिवेष नहीं है, तो हम खाली आदमी रहेंगे। यदि खाली आदमी हों, तो फिर जल्दी मरेंगे और जल्दी मरेंगे, तो ब्रह्म हो जायेंगे। यह ब्रह्म होना ही असल में मरना है।
परम शांति किसे प्राप्त होती है ?
जो मर जाता है उसी को हम सन्यासी कहते हैं और वह जो मरना नहीं चाहता, वही अज्ञानी है जो मरने को तैयार है, वह साधक है; जो मर गया है, वह सिद्ध (सन्यासी) है। जो मर गया, वही ब्रह्म और जो मर गया है, वहीं अमर हो गया है। इसीलिए, सन्यासी फिर कभी नहीं मरता; क्योंकि, जिसे मरना था, वह पहले ही मर गया है। और जो नहीं मरता है, वही बचा है; वह कभी नहीं मर सकता। किसी का मारा भी नहीं मरता; क्योंकि, वह दुश्मन की भी आत्मा है। दुश्मन की भी “मैं” है ।यदि मारने को खड़ा होगा, तो दूसरी “मैं” को मारेगा; लेकिन, अपने आप की “मैं” को कैसे मारेगा? इस प्रकार जो वेदांत का श्रवण, मनन और निदिद्यासन करता है, वह परम शांति को प्राप्त होता है।

द्वेत जानना ही होगा


तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:


उसे कहां शोक, कहां मोह, कहां चिंता और कहां भय। ये हमारे वेद वाक्य हैं, उपनिषद् वाक्य हैं। बड़े भाग्यशाली हो, जो सुनने को मिलता है। सुनते – सुनते निष्ठा बनती है और धीरे-धीरे कमियां दूर होती हैं। कोई चाहे जैसा हो, सब में अभी कमियां हैं। सिद्ध कोई नहीं है, प्रयास करो, प्रमाद मत करो। और किसी को देखने से, अपने में कोई फर्क नहीं पड़ जाता है। इसीलिए, जो जहां तक है, ठीक है। हो सके, तो अपनी गहराई को देखते जाओ, घबराओ बिल्कुल नहीं।
अब हम अपने अंदर अभिनिवेश नहीं पाते हैं। अस्मिता नहीं, अभिनिवेश। अस्मिता के तो छोड़ने का अभ्यास करते हैं; अभिनिवेश से तो निवृत्त हैं। अभिनिवेश से मुक्त हैं; पर, अस्मिता से अभी मुक्त नहीं है। अस्मिता से मुक्त न होने के कारण “मैं” जब तक मजबूत रहता है, तब तक द्वैष और भेद भी कभी-कभी उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि, मैं अलग हूं, तो मेरा सम्मान अलग, मेरी भूख अलग, मेरा जीवन और उन्नति अलग। जब तक मैं अलग हूं, तब तक मेरा सब कुछ अलग रहेगा। इसीलिए, अभी तो हम अस्मिता का अभ्यास करते हैं। हम किसी और को कैसे कह दें। ध्यान, अभ्यास और साक्षी भाव से आदमी अस्मिता पर जाता है, शरीर से पृथकता का बोध होता है।
मैं अपनी बात बताऊं। मुझे शरीर से पृथकता का तो बोध है; लेकिन, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति अभी गहरी नहीं है। यदि, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति गहरी हो जाएगी, तो तुम्हारे प्रति कभी विकार और क्रोध नहीं हो सकता। कहा है कि —–

“क्रोध की द्वैतक बुद्धि बिनु ,,
द्वैत कि बिनु अज्ञान।
माया बस परिच्छिन्न जड़,
जीव कि ईश समान।।”

ये सत्य बात है कि जिस दिन हमारे जीवन से द्वैत भाव चला जाएगा, उस दिन क्रोध भी चला जाएगा; क्योंकि , अपने – आपसे क्या कभी द्वैष होता है? अपने मित्र से और पत्नी से द्वेष हो सकता है। अपने पिता से भी लड़ाई हो सकती है; लेकिन,अपना नुकसान करने की वृत्ति कभी होती है क्या? क्या कोई अपने आप का अहित अपने आप का नुकसान करेगा? क्या कोई अपने आप को दुखी करेगा? दूसरे को दुखी देखकर खुशी होती है। दूसरा यदि आपत्ति में फंसा हो, तो परवाह नहीं होती; लेकिन, स्वयं आपत्ति में फंसे हो क्योकि द्वैत समझते हो सब ये जग तुम और तुम ये जग नही हो जाते तब तक शांति मिल नही सकती इसलिए सद्गुरु का सिखाया द्वेत समझ न आ जाये…

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

साक्षी के ध्यान को सीखो और शाश्वत हो जाओ


पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं! अनासक्त हो जाओ!
राग द्वेष वियुक्तैस्तु राग और द्वेष का त्याग कर दो। कोई आवे, कोई जावे, मैं एक चेतना का दीप जलाए बैठा हूं। चेतना का दीप! जब हम कोई ऑब्जेक्ट रखना चाहते हैं, विषय रखना चाहते हैं तो परेशानी पैदा कर लेते हैं। तो आप चेतना को रखो। अब आखरी बात खतरे की है, उसमें जरूर थोड़ी गहरी सोच चाहिए। यहां तक तो आप इमानदारी से चाहे तो अनुभव कर सकते हो। एक संकल्प करो कि आज हम ध्यान में किसी को लाने या हटाने का काम नहीं करेंगे! घर हटाना नहीं, मंत्र लाना नहीं, अच्छे को लाना नहीं बुरे को हटाना नहीं! तुम्हें क्या करना है? अच्छे बुरे का आग्रह छोड़ देना है और जागे रहना है।  ‘मैं जगा हूं’ यह ख्याल आया, अच्छा आ गया या बुरा आ गया दोनों ख्यालों में जगे रहो! पर आप का आग्रह जब किसी चीज का होगा तो उसके आने से जागा मानोगे जाने से सोया मानोगे। तो आग्रह छोड़ दो, बिल्कुल आग्रह छोड़ दो! आप का आग्रह है कि मैं जग रहा हूं, श्वास आई, नहीं आई, धीमी हो गई, ख्याल आया, नहीं आया,  मैं जागा हूं! तो यह मंत्र का मूल महामंत्र है! यह महामंत्र है कि मेरे सामने यह हुआ, यह हुआ, यह हुआ, मेरे सामने हुआ इसका मतलब मैं अध्यक्ष हूं! मेरी अध्यक्षता में सब हुआ! मेरी आंखों के सामने हुआ! इन आंखों के नहीं, मैं ही आंख हूँ! इसीलिए स+आखी= साखी, साक्षी, मैं आंख हूँ! मेरे सामने यह हुआ! मेरे सामने! मेरे सामने! मेरे सामने! ठीक है? आप आंख हो! इन आंखों से(चर्मचक्षनओं से) तो बहुत दिन देखा है अब यह आँख आप खोलो!  प्रमाद मत करो! आपको लगे, हां! मेरे ख्याल में यह आया! यदि आप चुनाव करोगे तो परेशान हो जाओगे। इसीलिए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, ठीक है? अब चुनाव ना करो, जागो!

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, अाप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता। चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो!
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो  उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता।  तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि  अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं।  वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं!
तब भी थे तुम ही! अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी  है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!

जगत बना है हमसे

जो चेतन सब जगह भरपूर है, कहीं कम ज्यादा नहीं वह सिर्फ वहा मालूम पड़ता है जहां मन बुद्धि है, बस यही जीवाध्यास है, यही बंधन है, यही समस्या है । तो…… सब जगह बराबर! और
एतावदेव जीज्ञास्यं तत्व जिज्ञासुनात्मना। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात सर्वत्र सर्वदा।।

जो चेतन सर्वत्र है, सदा है, एक समान है और एक रस है ,जरा भी कम ज्यादा नहीं अब ऐसा चेतन हमको अपने में एक रस नहीं मालूम पड़ता। चेतन सर्वत्र तो मालूम ही नहीं पड़ता और जहा मालूम पड़ता है वहां भी एक रस मालूम नहीं पड़ता। जाग्रत में, स्वप्न में, सुषुप्ति में चेतन बदल जाता है ऐसा लगता है , जग जाता है, सो जाता है ऐसा लगता है। तो अभी आप आत्मा और ब्रह्म को जल्दी स्वीकार करें या ना करें पर ग्रंथ कहते हैं कि वह एक ही है , एक रस है, साक्षी हैं । करोड़ों नास्तिक स्वीकार नहीं करते इस बात को । तो जो स्वीकार नहीं करते वह नास्तिक और जो स्वीकार करते हुए नहीं मालूम पड़ता वे आस्तिक। स्वीकार तो करते हैं कि एक रस है, सर्वत्र हैं ,एक है। ना नहीं करते पर मालूम नहीं पड़ता। ऐसे ही हम पहले एक बात करेंगे कि जहां चेतन मालूम पड़ता है। चेतन सब जगह मालूम नहीं पड़ता क्योंकि दो चीजें जानी गई-
यत् स्यात सर्वत्र सर्वदा। तो अभी हम सर्वदा पर विचार करते हैं। सब जगह चेतन नहीं मालूम पड़ता यह तो मालूम पड़ता है पर (अपनी और हाथ दिखाते हुए )यदि यहां चेतन ना मालूम पड़ता तो समस्या ही कोई नहीं थी । यदि चेतनता आपको मालूम ही नहीं पड़ती की हूं तो दुख क्या था? बंधन क्या था ? चिंता क्या थी? चेतन सब जगह मालूम नहीं पड़ता जहा देह, मन, बुद्धि है वहां मालूम पड़ता है। तो जब चेतन एक रस है तो कभी मालूम पड़ता है कभी मालूम नहीं पड़ता यही चक्कर है। एक रस, सदा, सर्वत्र तो छोड़ दिया। अब विचार करना है तत् पद और त्वं पद पर। तत् पद भी अभी छोड़ दें विचार करे त्वं पद। तुम या मैं। मैं भी एक समान चेतन हूं यह मालूम नहीं पड़ता। चेतन हो जाता हूं, जड़ हो जाता हूं, जग जाता हूं, सो जाता हूं ऐसा मालूम पड़ता है। हमारे गुरुदेव इसके विषय में क्या कहते थे! चेतन वहाँ मालूम पड़ता है जहां मन बुद्धि है और मन बुद्धि एक समान रहते नहीं इसलिए कभी मालूम पड़ते हैं कभी नहीं। और जहां मन बुद्धि नहीं है वहाँ मालूम ही नहीं पड़ता। तो सर्वत्र नहीं मालूम पड़ने का कारण सब जगह मन बुद्धि का अभाव। और एक जगह भी एक समान मालूम नहीं पड़ता क्योंकि मालूम पड़ते हैं मन बुद्धि के कारण और मन बुद्धि एक समान रहते नहीं। तो एक समान हम हैं ऐसा मालूम ही नहीं पड़ता।

नित्य दो हैं। परमात्मा नित्य है, जीव नित्य है और यह प्रवाह चलता रहता है। अर्थात् अगला जन्म और देह की प्राप्ति होती रहती है। यद्यपि बीच में छूटता भी है जैसे, जगने के बाद सोना और सोने के बाद जगना। यह जगना सोना खत्म नहीं हो रहा, चल रहा है। वैसे तो रोज खत्म होता है लेकिन फिर भी चल रहा है। खत्म होने का मतलब यह नहीं कि खत्म हो ही गया। खाना रोज खत्म करते हो कि नहीं? देखो, खाते-खाते खाना बंद कर देते हैं फिर भी एक अर्थ में बंद नहीं करते। अभी बंद कर दिया कुछ देर बाद फिर भूख लगी, फिर खा लिया। इसी तरह सृष्टि और शरीर की प्राप्ति भी होती रहती है। यह बंद नहीं होती। एक शरीर छूटा, दूसरा मिलेगा। दूसरा शरीर छूटा तीसरा मिलेगा।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
ये शब्द आदि शंकराचार्य ने कहे हैं । ये शब्द किसी वैष्णव के नहीं हैं। इसका मतलब, देह की मृत्यु को वह भी इंकार नहीं करते। हाँ, उपाय कर रहे हैं कि यह ना हो। नास्तिक लोग शरीर को ही मैं मानते हैं, जीव भाव को नहीं मानते, आगे जन्म नहीं मानते। इसलिए वे मृत्यु को प्राप्त होते हैं। मैं एकबार रूस में बोला था कि नास्तिकता से मृत्यु की प्राप्ति होती है। जीव भाव से पुनर्जन्म होता है। पुनर्जन्म से एक तरह से अमृत की प्राप्ति हुई। हम मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे, भले ही अगला जन्म हो । अर्थात् मृत्यु से हम बच गए।

गुरुदेव का वाक्य है जो हम सुना करते थे, हम कोई नई बात नहीं कहते। सूकर खेत में तुलसीदास ने सुनी थी तो वे कहते हैं कि तब मुझ में अज्ञान था, तब मैंने समझी नहीं। अब गुरु जी नहीं है तो समझ में आ गई। क्योंकि तब तो उनके पास रहते थे। जैसे कुत्ता या छोटा बच्चा अपने मालिक के साथ साथ जब रहता है तो निश्चिंत रहता है, ऐसे ही उस समय अपने को कोई परवाह ही नहीं थी। तो गुरुदेव यह कहा करते थे कि जब मैं नहीं रहूंगा तब लोग कहेंगे तुम अपने को ब्रह्म कहते हो, तब पता चलेगा! तो जैसे तुलसीदास जी को उस समय समझ नहीं आई पर जो सुना था तब नहीं, बाद में समझ आई। तो गुरुदेव कहते थे-

जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति, है बुद्धि की अवस्था
जगती है बुद्धि तुम जगे लगने लगते हो, आती है बुद्धि तुम आए लगते हो, सोती है बुद्धि तुम सोए लगने लगते हो, होती है बुद्धि तुम हूं लगने लगते हो। बुद्धि के कारण तुम हूं लगने लगते हो और बुद्धि जब नहीं रहती, लगना बंद हो जाता है। कहीं चले जाते हो ?मर जाते हो? ऐसा कुछ नहीं है ।इसलिए बुद्धि के कारण जितना मालूम पड़ता है बुद्धि के ही कारण बदलता भी रहता दिखता है। तो बुद्धि के रहते जब यह भ्रम टूट जाए कि मैं केवल बुद्धि तक नहीं हूं, जब बुद्धि नहीं थी मैं तब भी था और जहां बुद्धि नहीं है वहां भी मैं हूं, यह स्वीकार करना बहुत श्रद्धा का काम है! इसलिए श्रद्धावान लभते ज्ञानम्
केवल तर्क ही नहीं श्रद्धा! क्योंकि बार-बार हमारी बुद्धि कहेगी ‘मैं यहां नहीं हूं’ और हम देह में हैं! कब तक देह में है यह पता चलता है? जब तक मन, बुद्धि है। बुद्धि के न रहने पर आप देह में थे? कहां थे? तो सारी अनुभूतियां हमारी मन बुद्धि पर निर्भर है। पर थोड़ा सा श्रद्धा से समझोगे तो जब बुद्धि नहीं रहती नींद में, सुषुप्ति में तब देह आदि का विशेष ध्यान ही नहीं होता। जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति है बुद्धि की अवस्था!
मैें बुद्धि से परे हूं याते सदा शिवोsहम्।।

बुद्धि का आश्रय भी मैं ही हूं। तो बुद्धि का आश्रय मैं हूं और बुद्धि प्रत्यय जितने हैं उन अनुभूतियों का आश्रय भी मैं ही हूं साक्षी। इसलिए मैं बुद्धि से परे हूं! याते सदा शिवोsहम्! अब सदा शिव हूं ,कल्याण रूप हूं, जगता सोता नहीं हूं। बुद्धि से परे भी हूं और बुद्धि को धरे भी हूं। पर ऐसा भी नहीं ,जब बुद्धि है तब उसका आश्रय हूं। जैसे घड़े आदि उपाधि की मिट्टी आश्रय भी है। घड़ा किस में रहेगा? स्वतंत्र तो रह नहीं सकता तो कोई अनुभूति….. चाहे जागृत हो, स्वप्न या सुषुप्ति हो, कोई अनुभूति चेतन का आश्रय लिए बिना रह ही नहीं सकती। यहां तक यदि कोई यह सोचे कि इतनी देर मैं नहीं रहा। यदि यह सच्चा अनुभव है कि मैं नहीं रहा, अनुभव हुआ भले चाहे जैसा हो, यदि यह अनुभव हुआ तो किसे हुआ होगा आपके बिना? यदि अपने न रहने का आपको अनुभव हो गया कि इतनी देर मैं नहीं था या मुझे होश नहीं था तो होश के अभाव का साक्षी चेतन ही रहा होगा। यह कोई जड़ कहेगा क्या? क्या यह कोई जड़ कहेगा? इसका मतलब बेहोशी का साक्षी भी चेतन होता है। इसलिए बाहर भीतर एक रस जो चेतन भरपूर। विभु नभ सम सो ब्रह्म है ,नहीं नेरे नहीं दूर

चेतन कभी दूर भी नहीं होता। जागृत कभी दूर हो जाता है, सपना नजदीक हो जाता है। कभी नींद बहुत नजदीक होती है, कभी नींद चली जाती है। यह सब नेरे हो जाते हैं , दूर हो जाते हैं। पर अपना आप कब नेरे होगा? कब दूर होगा ? इसलिए नहीं नेरे नहीं दूर अपना आप कभी नजदीक नहीं होता, अपना आप कभी दूर नहीं होता अपने से। इसलिए दूर और पास होना, होना और खो जाना, जागना और सो जाना मायामात्र है सच्चाई नहीं। आत्मा को सही सही जानकर कोई कर्तव्य मोक्ष के लिए शेष नहीं रहता तो देखो जैसे मिट्टी घड़े के कभी पास हो सकती है, कभी घड़े का अभाव हो सकता है। कभी घड़ा है मिट्टी में, कभी नहीं। कहीं है कहीं नहीं। आपमें कभी अंतःकरण है कभी नहीं है। कभी कोई अवस्था है कभी नहीं है। आप कब अपने पास नहीं है? कब नहीं है? पर हममें ये अवस्थाएं है ही नहीं इसलिए इसको कहेंगे अनात्माध्यास। अनात्म में आत्मबुद्धि। यह मुझे “मैं” लगते हैं तो इन का अभाव मुझे मैं का अभाव लगता है। जागना मुझे अपना जागना लगता है। इसलिए जागने का अभाव मुझे अपना सोना लगता है। जबकि जागना और जागने का अभाव दोनों मेरे बिना नहीं हो सकते ।मेरे बिना जागना-सोना संभव ही नहीं। लेकिन यह गुरुदेव से सुना ,जाने क्या कहते थे……… ‘भ्रम ना सकै कोउ टार’
रजत सीपी मां भास जिमी यथा भानु कर बारि।

यद्यपि मृषा तिहूं काल में भ्रम ना सकै कोउ टार।।
गुरुदेव यह भी बोल देते थे कोई नहीं टाल सकता? गुरुजी को यह पसंद नहीं था। तो हमारा कैसे गया? (महाराज जी की तरफ देखते हुए) आपका कैसे गया? कोउ ना टार सकै यह गड़बड़ है ,तो कहते थे भ्रमण यह “भ्रमना” सकै कोउ टार । यह भ्रमना कोई कोई टार सकता है। भ्रमना अर्थात यह भटकना सकै कोउ टार अर्थात कोई टाल सकता है। यह गुरुदेव का तर्क है। हमारे गुरुदेव पढ़े नहीं थे पर ऐसा कुछ नहीं है जो क्लियर नहीं करते थे। इसी तरह यह जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति का बुद्धि से परे हूं यह तो लिखा है पर गुरुदेव “बुद्धि को धरे हूं” अपनी तरफ से बोलते थे। ऐसे ही विचार करके देखो प्यारे जगत बना है मन से यह तो बोल देते थे, अब कहीं उस कीर्तन में यह शब्द ही नहीं है तो गुरुदेव बोलते थे जगत बना है मन से फिर कहते मन बना है हमसे हमसे हमसे!!
मन कहां से आया? कहते थे हमसे!