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भोग-योग रूप

पुरुष और प्रकृति, इन दोनों के मेल से जिन जीवो का जन्म हुआ है, वे जन्म से शरीराभिमानी ही होते हैं। वे अपने को शरीर मानते हुए ही पैदा होते हैं और शरीर मानते हुए ही प्राय: मर जाते हैं। कोई ऐसे भी हैं, जो कितनी ही बार जन्म लेने पर भी बार-बार शरीर भाव को ही प्राप्त होते हैं। ऐसे कुछ ही महान् पुरुष होते हैं, जो शरीर में रहते हुए भी, शरीर भाव से मुक्त होकर, अपने परमात्मभाव को प्राप्त होते हैं। जैसे कोई जन्म से लड़की हो और बाद में लड़का हो जाए। पहले माता की तरह हो, पीछे पिता की तरह हो जाए। इसी प्रकार, जीव पहले जन्म – मरण वाला हो, सुख-दुख वाला हो, कर्ता और भोक्ता हो; बाद में अकर्त्ता, अभोक्ता और आनंदमय हो जाए। भोग से व्यक्ति प्रकृति रूप और योग से ब्रह्मरूप बन जाता है।
यदि कोई आत्मा को अनुभव करेगा, तो परमात्मा भाव को प्राप्त होगा और यदि प्रकृति के साथ, शरीर के साथ तादात्म्य करेगा, तो जड़ता को प्राप्त होगा; मरण को प्राप्त होगा। इस प्रकार दो भावों वाला यह जीव ही हो सकता है। परमात्मा नित्य परमात्मा है; प्रकृति नित्य प्रकृति है। यह जीव ही प्रकृतिभाव वाला और परमात्मभाव वाला होता है।
अब आपको यह देखना है कि आप जिस भाव में हैं, उस भाव में आपको चैन है? जैसे कोई लड़की हो और उसे लड़की के जीवन में चैन ना हो -पीड़ा होती हो कि वह लड़का होती तो अच्छा होता। उसी प्रकार से हमारे जीवन में भी एक पीड़ा है। हम अभी लड़की की तरह हो गए हैं। हम प्रकृति के भाव वाले शरीर के रूप में पैदा हो गए हैं। हमें लगता है कि हम मरे नहीं, दुखी ना हो, अशान्त न हों और परेशान न हों। हमारे हृदय में एक ऐसी पीड़ा है, जो हमें भगवान् होने को बाध्य करती है। यदि हम भगवान के भाव को प्राप्त न हों या भगवान् हमें प्राप्त न हों, तो हमको जीवन में चैन नहीं आता। इसीलिए, जहां शरीर की व्यवस्था का प्रश्न है, वहीं जीव की आंतरिक मांग का सवाल भी हमारे सामने रहता है।

अपने विराट स्वरूप को पहचाने

पुज्य गुरूदेव बताते हैं ब्रह्म साक्षात्कार आत्म साक्षात्कार के बिना नही हो सकता। आत्म साक्षात्कार कैसे हो, पुज्य गुरूदेव उदाहरण से समझाते हैं—


1) जैसे जब दीपक जलता है, तो जो चीजें पास में होती है, वे प्रकाशित हो जाती है। प्रकाश चीजों के बारे में सोेचता नहीं है; वह उनके बारे में विचार भी नहीं करता।प्रकाश की तरह ही चैतन्यता तुम्हारे अंदर स्वभाव से है।उसे लानी नहीं है। बाहर से कोई योजना नहीं बनानी है। इसलिए तुम अपने अंदर झाकों।


2) पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि स्वामी राम ने तो यहाँ तक कह दिया जब भी तुम्हारा ध्यान पीर, पैगम्बर,अवतार आदि की तरफ जाता है, तो तुमने अपनी बेच दी। तुमने अपनी आत्मा को गवाँ दिया है। तुम कौन हो? मेरे और तुम्हारे मूल तत्व में कितना कम ज्यादा होगा?


3) इसलिए पुज्य गुरूदेव समझाते हैं थोडा विचार करने से,थोडा धैर्य रखने से,थोडा दिमाग लगाने से तुम भगवान हो जाओगे। खाली तथा निर्मल मन से सूक्ष्म तथा दिव्य बुद्धि से अभ्यास करके आत्मा का अनुभव करो। तुम स्वयं आनन्द स्वरूप ज्ञान स्वरूप हो।

4) एक बार देह का अभिमान गल जाए (अर्थात “मै” देह हूँ, यह वृत्ति छुट जाए)और चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाए, तो फिर जहाँ जहाँ मन जाए,समाधि ही समाधि है।समझाते हैं—

a) जब हमारे अन्दर से द्वैत समाफ्त हो जाता है,तब चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है। मन में केवल परमात्मा का भाव होता है।


b) यह द्बैत “मैं” के कारण जिंदा है। एक देह के कारण अन्य जिंदा है। इसलिए देह का भाव मिटाएँ।यदि नहीं मिटा पा रहे हो, तो अन्य देह बन जाए। वह देह यदि अपनी देह की अपेक्षा अधिक सच्ची लगाने लगे, तो इसको झूठा करना आसान हो जाएगा। जैसे अगर दूसरों का बचपन प्यार से देखें तो आपको अपना बचपन याद आ जाएगा।इसके लिए खाली मन तथा एकाग्रता की आवश्यकता है।


5) पुज्य गुरूदेव समझाते हैं; मन में अन्नत शक्ति है।इसका प्रयोग करें।आप मन के द्वारा इस प्रकार डूबना सीखे, स्मरण करना सीखे कि आप आप न रहे।आप व्यक्ति न रहे, आप विराट हो जाएँ।आप चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं।