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तत्वज्ञान


काग पलट गुरु हंसा कीन्हें,
दीन्ही नाम निशानी।
हंसा पहुंचा सुखसागर में, मुक्ति भरे जहाँ पानी।।


बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञान्वान्मां प्रपधते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।


(जो बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात वासुदेव के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।)


परमात्मा सब में है, ऐसा जानने वाला महात्मा दुर्लभ है अर्थात महात्मा ही नहीं मिलते। परमात्मा तो सब में है, वर्षों से सुन रहे हैं, परन्तु ऐसा जानने वाला महात्मा, अनुभवी महात्मा ही नहीं मिलता।


कहतें हैं, सब में भगवान ही भगवान है, भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं है, यानि सब निन्यानवें प्रतिशत और भगवान एक प्रतिशत? नहीं, ऐसा नहीं, बल्कि “वासुदेवः सर्वमिति”, सब वासुदेव ही है। सब में वासुदेव ही है।


“महात्मा सुदुर्लभः “ऐसा महात्मा ‘सुदुर्लभः’ अर्थात अति – दुर्लभ है। महात्मा दुर्लभ, भगवान सुलभ। भगवान का मिलना दुर्लभ नहीं है, ज्ञानी का मिलना दुर्लभ है हरि का मिलना दुर्लभ नही है, गुरु का मिलना दुर्लभ है। गुरु समय – समय पर मिलतें हैं, हरि तो सदा रहते हैं। गुरु का अभाव हुआ तो भगवान गये और गुरु आये तो किसी की ताकत नहीं कि भगवान चलें जाएं।


शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता, गुरौ रुष्टे न कश्चन।
(शिव के रुष्ट हो जाने पर गुरु बचा लेते हैं परन्तु गुरु के रुष्ट हो जाने पर कोई बचा नहीं सकता।)

स्वामी

सब कुछ पाने में समय लगाया पर उसके लिए समय नहीं बचाया जो सब में रहता है। जब तक हमारी जिंदगी है सौ काम लगे रहेंगे, हम अपने  सत् स्वरूप के आनंद को  नहीं पा सकेंगे  अगर हम शरीर के आधीन हो गए  तो। इसीलिए हम आनंद में रहे। साधु शहंशाह होता है, बादशाहो का बादशाह होता है । लोग अपने मालिक नहीं है, दूसरों के मालिक बनना चाहते हैं । भारत में संतों को स्वामी जी कहते हैं। स्वामी अर्थात अपने आनंद के आप स्वयं मालिक है। अपने जीवन के आप मालिक है। और जिसे सुख की भीख ना मांगना पड़े वह मालिक है। तो भारत में मांग के खाने वाले( फकीर) अपने आनंद के मालिक थे, गुलाम नहीं थे। और विशेषकर के ‘अपने आनंद के‘ मालिक थे। यदि आनंद हमें किसी से लेना पड़ा तो हम भिखारी हो गए। इसलिए वोट मांगने वाले बड़े बादशाह नहीं होते। किसी से लेने की इच्छा सबसे बड़ी कमजोरी है। और सबसे बड़ी ताकत है किसी से कुछ लेना नहीं। जो किसी से अपेक्षा नहीं करते ऐसे मुनी के पीछे भगवान चलते हैं। जो हाथ में कुछ रुपया बांधकर नहीं रखते और किसी से कुछ चाहते नहीं ऐसे लोगों के पीछे भगवान चलते हैं कि इनकी चरण धूलि मेरे माथे पर पड़ जाए। अर्थात कामना से रहित जो महापुरुष है उनके पीछे भगवान चलते हैं। इसलिए भगवान के पीछे तो प्रारंभ में चलना है। जब आप आत्माराम हो जाएंगे, अपने आनंद में रहेंगे तो भगवान तुम्हारी चिंता करेगा। तुम्हें किसी की चिंता करने की आवश्यकता नहीं। देहाभिमान गलिते विज्ञाते परमात्मनी।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयाः।।

 देह का अभिमान ‘मैं देह हूं’ यह अभिमान यदि गलित हो गया और ‘मैं आनंद हूं’ यदि यह समझ लिया तो मुझे किसी की जरूरत नहीं तो ऐसे व्यक्ति के पीछे परमात्मा चलते हैं कि उनकी धूल उड़ेगी तो हम पर पड़ेगी। आप अपने अंदर का आनंद अनुभव करो। अपने को जानो

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

मोह ये है के आप दृष्टा हो और अपने को दृष्टा नही मानते, देह मानते हो।  जिंदा हो, और मरा मानते हो सपने में! अभी जागृत की नहीं कहते। सपने में जिंदा होते हुए गर्दन काट दी किसी ने तो आप मर गए। तो दुखी कौन है? जिस ने मार दिया वह तो खुश है, तुम दुखी हो! और दुखी क्यों हो? तुम असल में देह मानते हो और गर्दन कट गई इसलिए तुम स्वीकार कर लेते हो, स्वप्न में! जागृत की तो अभी मैं छोड़ देता हूं। चूंकि  तुम देह अपने को मानते हो इसलिए स्वप्न में  गर्दन काट दी।  तुम चेतन उस समय भी हो! सपने में तो हो ना? जागृत की मौत की छोड़ दो। स्वप्न की मृत्यु में तुम चेतन हो। पर क्योंकि तुम देह को मैं मानते हो इसको बोलते हैं देहाध्यास। दर्द होने लगे इसका नाम देहाध्यास नहीं है। ‘देह हूं’ यह विचार देहाध्यास है और ‘देह हूं’ इस विचार के कारण जो मौत हुई है उस देहाध्यास के कारण तुम सोचने  लग गए कि मैं मर गया हूं। अंधेर है!! मैं सोचने लग गया कि मैं मर गया हूं! दुखी भी होने लगा और जिंदा भी हूं !! तो जागृत में भी क्या होगा? जब प्राणांत होने लगेगा तो तुम्हारे अंदर विचार आएगा कि मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ ! अब कोई क्रिया होगी, प्राण निकलने लगेगा, कुछ होगा तो आपको लगेगा कि मैं मर रहा हूं। जबकि आप जान रहे हो! इसलिए कई ने ध्यान का अभ्यास भी बताया है। जब प्राणांत हो, नाड़ी छूटने लगे तो उसके भी दृष्टा रहो! हो तो दृष्टा ही, पर मानते नहीं हो! ‘मर रहा हूं’ का विचार पकड़ लेता है, मर रहा हूं का ख्याल पकड़ता है। मैं मृत्यु हो रही है उसको देख रहा हूं, प्राण सिकुड़ रहा है मै देख रहा हूं, प्राणों के उत्क्रमण को मैं देख रहा हूं, प्राण निकल गया!
तो…. प्राणों को लिए हुए मैं जिंदा ही तो हूं!! देहांतर जाकर प्राप्त होगा पर तुम सोच ना पाओगे कि मैं निकल रहा हूं! देर छूट गया पर मैं बच गया! नहीं सोच पाओगे, घबरा जाओगे! मरने के नाम से ही चिंता हो जाती है। इसलिए पहला अभ्यास दृष्टा होने का है। बैठे में भी द्रष्टा रहो, लेटे में भी दृष्टा रहो और नींद के पहले भी देह के दृष्टा रहते सो जाओ। यह एक अभ्यास है।
दूसरा अभ्यास इससे  ज्यादा जोरदार है। अब नींद आ रही है उसके भी साक्षी रहो। आलस्य आ रहा है उसके भी साक्षी रहो। कभी-कभी ड्राइवर जो गाड़ी चलाते हैं उनकी एकाग्रता बहुत होती है। कभी-कभी वह सो भी लेते हैं एक-दो सेकंड को। अच्छा खुला रास्ता मिल जाता है और आलस्य बहुत है तो एक दो  सेकंड को भी सो लेते हैं। माने वह अपने आलस्य को जानता है, आंखें बंद करता है सावधानी से और फिर सावधान हो जाता है। तो जहां बुद्धि सो जाती है तो ‘नींद आ गई और नींद चली गई’ यह जरूर जानना चाहिए। नींद के आ जाने का और नींद के चले जाने का! अब यह दो बातें हैं- एक है चिदाभास और एक है चेतन। चेतन का आभास और चेतन! चिदाभास जाता है तो उसको चेतना भी कह सकते हैं। चेतना जगती है, चेतना सोती है। चेतना को हिंदी में भी और अंग्रेजी में भी कॉन्शसनेस, सबकॉन्शसनेस, अनकॉन्शसनेस कहते हैं। तो ‘अनकॉन्शसनेस होती है’ का प्रमाण क्या है? नींद होती है, इतनी देर होश नहीं रहा, इसमें सबूत कौन हैं? क्या बेहोशी का सबूत बेहोशी हो सकती है? उस बेहोशी का सबूत भी चेतन ही है!

मोह क्या है?

देह दृश्य है तुम दृष्टा हो! कितने ही नजदीक हो, तो भी दृष्टा हो, देह दृश्य है! देह दृष्टा नहीं है, दृष्टा देह नही है! यह अभ्यास आज से शुरू करो! आज क्यों कहते हैं? क्योंकि आज देवोत्थान एकादशी है। एकादशी बहुत होती है पर आज देवता के उठने की जागने की तिथि है। तो देवता दृष्टा है, इस देवता को जगाओ। और जागना क्या है? यह तो रोज जागा है, नहीं तो दृश्य कहां से दिखता? जागता रोज रहा है। बिना दृष्टा के देह दिखेगा ही नहीं। दिख जाएगा? तो… बिना दृष्टा के देह नहीं दिखा फिर भी जागा नहीं कहलाते इसलिए आज जगाते हैं। आज दृष्टा दृष्टा होकर जागे! दृष्टा देह मान के न जागे। दृष्टा अपने को देह मान के जागे नहीं। वह तो सपना देख रहा है और सपना देखने का मतलब होता है कि सोया है। यद्यपि कोई भी जागे बिना सपना नहीं देखता पर जो सपने को सच देखने लग जाए उसे सोया कहते हैं। तो यह दृष्टा सोया हुआ है। आज जगाना है! फिर कहूँ, जागा तो था पर दृष्टा अपने को देह जानता था अर्थात देह को मैं जानता था, यही स्वप्न है। स्वप्न  होता ही तब है जब सत्य को भूल जाए। तो तुम देह कब अपने को मानते हो? जब सोए हो। मोह निशा सब सोवनिहारा, देखहि स्वप्न अनेक प्रकारा!
यह दृष्टा सोया हुआ है। दृष्टा तो है पर सोया हुआ है। तो पहचान क्या है सोए की? कि देह को मैं मानता है। जो है नहीं वह मानता है। जो है नहीं वैसा मान लेवें  उसी का नाम सपना है और सपना बिना सोए होता नहीं है। और एक बात मैं दोहराता  रहता हूं कि स्वप्न में मृत्यु हो गई और मृत्यु का दुख जो मरता है उसे होता है कि नहीं? जो सपने सिर काटे कोई स्वप्न में किसी ने सिर काट लिया तो दुखी कौन होगा? जिसका सिर काट लिया। और जिस का सिर काट लिया वह दुखी है! तो दुखी है तो जिंदा है कि नहीं? बिना जिंदा हुए दुखी हो सकता है ? लोग दुखी हो, खुद दुखी ना हो तब तो हम मान ले कि मर गया। दुखी भी है, मर भी गया है और पता भी उसी को है तो इसे सपना नहीं कहे? और इसे बेहोशी नहीं कहे? इसको मोह नहीं कहे? कई लोग मोह का अर्थ ही बदल लेते हैं। आप लोग भी मोह का अर्थ करते हैं कि हमें परिवार से मोह है पर मोह यह है ही नहीं। मोह यह है कि आप दृष्टा होकर अपने को दृष्टा नहीं मानते देह मानते हो यही मोह है।