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स्वीकार करो


तुममें जो शक्ति है, उसको स्वीकार करो और भगवान में जो शक्ति है, वह स्वीकार करो। तुममें अल्प शक्ति है। भगवान में महत् शक्ति है। विराट निर्माण की शक्ति भगवान में ही है। गृह निर्माण, कपड़ा निर्माण और अन्य निर्माणों की शक्ति तुममें है। आंखें खोलना और मींचना यह शक्ति तुमको दी गई है। यदि तुममें यह ताकत न होती, तो सब एक समय पर ही न सो जाते; एक समय पर ही न जग जाते? बिजली देना, पावर हाउस से कनेक्शन देना, यह उसका काम है। वहां से बिजली सप्लाई करना, यह उसका काम है; लेकिन, स्विच ऑन और ऑफ करना किसका काम है? क्या यह पावर हाउस वालों का काम है? तुम्हारे घर का स्विच ऑन और आंफ करने क्या वे लोग आएंगे? जगने और सोने का स्विच ऑन और ऑफ तुम करोगे कि वे करने आएंगे? सुबह चार बजे तुम उठोगे कि भगवान उठाएंगे? तुम्हें उठने की ताकत दे दी है; तुम चाहे चार बजे उठ जाओ, चाहे आठ बजे तक सोओ। यदि इंसान, इस विषय की भी जिम्मेदारी ईश्वर पर लादता है, तो वह बेईमान नहीं है? ईमानदारी से इस बात को कहना और कल से यह कहना छोड़ देना कि सब कुछ ईश्वर करता है।
जब तक शरीर है, तुम्हारा अपना कर्तव्य है। कर्तव्य नहीं करते हो, तो तुम बेईमान हो। बदमाशी तुम करो और भगवान पर डालो। शरारत तुम करो और ईश्वर के ऊपर मढ़ दो। दो पाप हुए। पहले तो गलती की और फिर ईश्वर पर डाल दी। तुम्हारे जैसा कोई और बेईमान होगा? तुम दोहरे पापी हो। पहले तो पाप किया और फिर उस पाप का जिम्मेदार भगवान को ठहराया। तुम महा पापी हो। इस पाप का क्षय कभी भी नहीं होगा। कम- से – कम यही स्वीकार कर लेते कि गलती तुम्हारी है , तो सुधरने की गुंजाइश थी। सुधरने की गुंजाइश थी , यदि तुम गलती करते होते? लेकिन, तुमने तो गलती करके भगवान पर डाल दी और अपने को निरपराध बना लिया । इसलिए , अब तुम कभी भी निष्पाप न हो सकोगे। कभी गलती सुधार न सकोगे। जो अपनी गलतियों का जिम्मेदार किसी और को समझता हो, वह बेईमान कभी ठीक नहीं होगा। सब लोग अपने बिगड़ने की जिम्मेदारी किसी और पर डाल देते हैं। आदमी जितना बेईमान, कोई जानवर भी नहीं है । आदमी महा बेईमान है।
मुस्लिम ईमान क्या है? वे ही लोग मुसलमान हैं, जिनका ईमान सही है, दुरस्त है। क्या मुसलमानों का ईमान सही है ? क्या वे सब कुरान के अनुसार चलते हैं? सिक्ख माने शिष्य। अब ये सब लोग क्या गुरु के शिष्य हैं, जो गुरुओं की वाणी में ही हेर – फेर करते हैं? ये तो गुरुओं के भी गुरु बन रहे हैं। जो गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को अपने ढंग से कहें; जो वाणी को हटाने का भी प्रयत्न करें; वे शिष्य हैं कि गुरु ? कम – से – कम सिक्ख तो सिक्ख बने रहें; मुसलमान तो मुसलमान बने रहें; मनुष्य तो मनुष्य बने रहें; तब तो बात भी है ।

परमधाम

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।

श्वेत कागज

मैं जीवन को एक कोरे कागज की भांति मानता हूं, जिसमें बहुत कुछ लिखा जा चुका है। किंतु, ऐसा नहीं मानता कि जो लिख दिया गया है, वह मिटाया नहीं जा सकता। यद्यपि, प्रतिदिन कुछ न कुछ लिखा ही जायेगा; किन्तु, मिटाने में कुछ कठिनाई अवश्य होगी। इस तरह अनुभव से गुजरते- गुजरते एक दिन अच्छा लिखने की योग्यता आ जायेगी। एक दिन ऐसा भी आयगा कि प्रतिक्षण लिखते हुए भी कागज कोरा ही बना रह जाएगा। ऐसा होने पर भी लोग पढ़कर लाभ उठा सकेंगे; किन्तु, उसके जीवन में कुछ भी अंकित नहीं रह जाएगा। और जहां अंकित नही रहेगा वही मुक्त विचरेगा। शुद्ध भावना, निश्चल मन, विशाल मन के साथ प्रायः मनुष्य हर दिन कुछ न कुछ नया लिखता है और उसे याद करता, ढोता रहता है। जबकि ब्रह्म समझने के बाद, आत्मा-परमात्मा समझने के बाद, इस नाशी संसार को समझने के बाद याद रखने जैसी कोई चीज ही नही रह जाती। निराकार को कौन याद रखे याद के लिए तो आकार की आवश्यकता है पर यदि हर आकर में जिस दिन तुम मुझ निराकार को ही देखोगे तुम मुक्त मेरे जैसे ही हो जाओगे; कृष्ण का गीता में कहा ये कथन शत प्रतिशत सत्य है…..अस्तु

छलांग

जो अनेक लोग जंगलों में जाकर प्राप्त करते थे, वह आम गृहस्थ, आम आदमी गुरु कृपा से क्षणों में प्राप्त कर सकता है ।इसमें कठिनाई क्या है?—-बस, आप किसी तल पर जागृत रहना सीख लें। यह प्रयत्न जागृत रहने तक ही करें। फिर जागृत रहें; परंतु जानना न चाहें। जैसे, दृष्टि तो रहे; परंतु देखना न चाहें। कान तो रहें; परंतु सुनना न चाहें। नाक तो रहे परंतु सूंघना न चाहें। मन तो रहे; परंतु कुछ जानना न चाहें, विचारना न चाहें। ऐसा करने से बुद्धि, बाद में इंद्रियां धीरे- धीरे स्वत: ही क्षीण हो जाएगी। अब हमें उनकी जरूरत ही नहीं। जरूरत पर उनके नाम पैदा हो जाते हैं; जरूरत पर ही उनके रूप पैदा हो जाते हैं। जिस समय जानना हुआ उस समय मन खड़ा हो जाता है। परंतु जब आपको लगेगा कि मुझे चेतन वगैरह कुछ नहीं जानना तो अपने आप मन खड़ा नहीं होगा। उस समय के उपरांत आप स्वयं अनुभव करेंगे कि मन गया, इंद्रियां गई, विचार गए।
“न किञ्चिदपि चिन्तयेत्”
अर्थात कुछ भी न सोचें, कुछ भी न चाहें। बिना चाहे, बिना किए “आप” हैं। वहां क्या करना?—
इसीलिए ज्ञानी कहते हैं कि इसके रखने के लिए आप क्या करेंगे?—-आप जो कुछ रखने की कोशिश कर रहे थे, वही बाधाएं थी। बुद्धि रख रहे थे, इंद्रियां रख रहे थे, सुनना रख रहे थे, जानना रख रहे थे, टिकाने में लगे थे कि देखना न खो जाए, सुनना न खो जाए, जानना न खो जाए,अरे! इनको जानें दें। केवल चेतन रहें । अब इसमें क्या है? बस, पड़े रहें, केवल चेतन रहें। कुछ देर बाद पड़े रहने से भी क्या लेना- देना? वह तो जरा सा सहारा है। जैसे, छलांग- बिंदु ( jumping – point ) होता है और पैर उठाकर छलांग लगाते हैं ऐसे ही शरीर तो छलांग के लिए है; छलांग के अलावा इससे भी कोई मतलब नहीं है। मन है एकदम साक्षी, एकदम चेतन। क्या? बस, मन है। मन में खड़े होकर एकदम मन से परे “चेतन” में कूद गए। हो गये चेतन। बस, आप हैं “चेतन” आप हैं “ब्रह्म”। सबमें आप और सबकुछ आपमें यही ब्रह्म है यही भगवान हैं

गुरु की बुद्धि

यह शरीर रथ है, इन्द्रियां घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है, आत्मा रथी है। चाहे कितना अच्छा रथी हो, यदि सारथी चाहे तो रोड में उतर जाये, गड्ढे में डाल दे। यह बुद्धि तुम्हें मार भी सकती है, गिरा भी सकती है, और बचा भी सकती है और यही बुद्धि तुम्हें लक्ष्य तक पहुंचा सकती है।

यह आत्मा – परमात्मा सारी बातें बुद्धि के हाथ में है। यह बुद्धि ही तो आदमी बना दे या ब्रह्म बना दे। ‘देहोअहम् से शिवोहम्’ बना दे।

“मैं ब्रह्म हूँ” ;यह बुद्धि बनी रहे। जैसे आदमी होना एक समझ से स्वीकारा। मैं पैदा हुआ, बूढ़ा हो जाऊंगा, आदमी के धर्म आपको समझ आ गये। यदि ब्रह्म का समझ आ जाये कि मैं ब्रह्म हूँ तो आप नहीं मरोगे।


परन्तु देहाध्यास जन्म से है और ब्रह्माभ्यास बिना गुरु के नहीं हो सकता। इसके लिए गुरु से “मैं ब्रह्म हूँ” यह समझ आ जाय फिर बार – बार ब्रह्माभ्यास हो सकता है। एक बार यह जानना जरुरी है तभी ध्यान और इसका अभ्यास बढ़ेगा।


मैं होश में हूँ तो दुख – चिंता, मान – अपमान या संसारी विषय आ रहे हैं परन्तु पूर्ण होश होने से ये पता चलते हुए भी विचलित नहीं कर सकते।


गुरु के कृपा द्वारा बुद्धि जाग्रत हो। मैं अपने आप में पूर्ण शुद्ध हूँ। यह सही – सही समझ आ जाये। यही “ज्ञान समाधि” है।


मैं ब्रह्म हूँ, मैं ब्रह्म हूँ ‘शब्द दोहराओगे’ मैं ब्रह्म हूँ ‘का मतलब सर्वत्र मैं हूं, सब में’ मैं ‘हूँ। यह गुरु द्वारा दी हुई बुद्धि के द्वारा ही जाना जा सकता है।

जीवन का सत्य

क्रिया जनित सुख में “राग” ही विषयानंद की वासना है। क्रिया द्वारा मिले हुए सुख का संस्कार मन पर छूट जाता है; फिर उस विषय की चर्चा से, समघटना के दर्शन से या एकांत चिंतन से, क्रिया जनित सुख का पड़ा हुआ संस्कार जाग जाता है। बस यही है “काम”; जिससे फिर उसी कर्म करने की मन में कामना होती है। यदि कामना की पूर्ति की गई, तो पराधीनता, कामना वृद्धि, शक्ति -ह्रास और असमर्थता है। कामना दमित की गई, तो बार-बार याद आएगी और संस्कार गहरा होगा तथा अन्त: में प्रवेश कर जाएगा। अन्त में, ओझल तक हो जाएगा; किंतु, मिटेगा नहीं और फिर कभी न कभी बाहर आएगा। फिर दमन के लिए उतना ही बल प्रयोग करना पड़ेगा।
दमन से संस्कार की मौत नहीं होती या क्रिया जनित सुख का राग – विषासक्ति नहीं मिटती। अतः क्रिया रहित होकर मन में होने वाले संस्कारों को उठने दिया जाए और साक्षी, असंग, शांत और मौन होकर सहज भाव से देखा जाए। उठने वाले संस्कार का न तो रस लिया जाए और न उससे द्वेष किया जाए; तो संस्कार अपने- आप आना बंद कर देंगे। उस स्मृतिशून्य, अप्रयत्न दशा में, जो आनंद स्वयं में मिलेगा; उससे क्रिया जनित सुख का राग मिट जाएगा; विषयासक्ति नहीं रहेगी; तब आवश्यक कर्म स्वत: होने लगेंगे। स्व में, आनंद से पूर्ण दशा में, सहज होने वाले कर्म का नाम ही सदाचार है। आत्मतृप्ति के बिना सदाचार का जन्म हो ही नहीं सकता। आत्मतृप्ति के अभाव में, विषय सुख के प्रति आकर्षण रहेगा। विषयाकर्षण के रहते, विषय का त्याग सदाचार नहीं है; इसे मिथ्याचार कह सकते हैं।

“कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।”

इस साक्षी साधना और ध्यान से बड़ी कोई ध्यान-साधना नही है।

दुःख को सदा के लिए ही मिटाएं

दुःख सबको एक ही है और अनादि है। इसीलिए, वह बना ही रहता है यदि मिटेगा, तो सदा के लिए ही मिटेगा। कष्ट आवश्यकताओं की अपूर्ति से होता है और आवश्ककतायें सामयिक होती हैं-सदा नहीं रहती। कष्ट भी सदा नहीं रहते, आते – जाते रहते हैं। शरीर रहते कष्ट सदा के लिए नहीं मिटते; किन्तु ,दु:ख जब भी मिटता है, सदा के लिए मिटता है। प्राणी मात्र की एक और मांग स्वभाविक है। यह कुसंग या सुसंग से पैदा नहीं हुई और न कुसंग या सुसंग से इसकी निवृत्ति ही हो सकती है। आत्मविस्मृति से आनंदमय जीवन की मांग पैदा हुई है और आत्म जागरण से ही इसकी पूर्ति होगी। आवश्यकताएं भी कुसंग और सुसंग से पैदा नहीं हुई। वे प्राकृतिक हैं। उनकी निवृत्ति कुसंग या सुसंग से नहीं हो सकती। उनकी पूर्ति पदार्थों से ही हो सकती है।
लोभ , काम , मोह , अभिमान और अहंकार में भेद
आत्मविस्मृति से पैदा हुई मांग की पूर्ति न होने से अंदर अभाव का अनुभव होता है। उनकी पूर्ति के लिए, बाह्य पदार्थों से जो आशा का जन्म हुआ है; उसी का नाम इच्छा है। इसीलिए, तत्व बोध के बिना इच्छाओं की समाप्ति नहीं हो सकती। आंतरिक आनंद के अभाव में वस्तु से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम लोभ है। स्त्री या पति से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम काम है, परिवार से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम मोह है, पद से सुख पूर्ति की इच्छा का नाम अभिमान है और इंद्रियों तथा विषयों से सुख पूर्ति का नाम अहंकार है। जब इन ऊपरी चीजों की इक्षा को सर्वस्य समझ कर पूरी करते रहोगे फसे रहोगे तब तक, जब तक आंतरिक इक्षा या सत्य नही जान लेते और उसे जानकर स्वयं सर्वस्य नही हो जाते।

मोक्ष के लिए दृश्य से मुक्ति आवश्यक

यदि, मन को समाप्त करना है; यदि मोक्ष पाना है; तो पहले दृश्य से मुक्त हो जाओ; क्योंकि, दृश्य ही, दृष्टा  के जीने के लिए हमें लकड़ी देता रहता है। अधिक खतरे की बात तो यह है कि दृष्टा अपने को न देखें, तो दृश्य ही दृश्य भाषता रहता है। यद्यपि, लकड़ियां सुलगती हैं – कुछ देर अधिक धुआं उठता है – विचार और द्वंद मचता है; लेकिन, यदि नई लकड़ियां मिल जाती हैं, तो लपटे उठती हैं। अब दृष्टा और दृश्य के बीच में एक प्रकार का संघर्ष पैदा होता है। इसका फैसला नहीं कर सकते। ये तो तब हो, जब लकड़ियों को कुछ दूर करें। तब हमें लगे कि हम कुछ हैं और ये कुछ हैं।
       यदि इस प्रकार की आग, दस – बीस  जगह जल रही है और उनकी अपनी – अपनी लकड़ियां और अपनी-अपनी आग है, तो वे  सब अपने को कहती होंगी कि वे अग्नि हैं। ये उनकी लकड़ियां हैं। इनको  वे जलाएंगी। यदि थोड़ी देर के लिए उन्हें लकड़ियां न दी जाएं, तो कितने “मैं” रह जाएंगे? “मैं” अग्नि हूं, अग्नि हूं। हर एक का यह दावा था कि अग्नि “मैं” हूं। कितनी अग्नि रह जाएंगी? सारी अग्नियां शांत हो जाएंगी। शायद कई रह जाएंगी। जिनको आज तक देखा नहीं है।
        
      जिस अग्नि को आज तक नहीं देखा है, वह अव्यक्त आग रह जाएगी। जो दृश्य नहीं है, जो दिखाई नहीं देती। जिससे वह अव्यक्त भी होती है इसीलिए कहा है कि —
      “अव्यक्तातपुरुष: पर:”
      जहां अव्यक्त भी नहीं रहता। वह अव्यक्त के भी परे है। जो शुद्ध चैतन्य है; परमात्मा है; वही तमाम रूपों में, जितने भी  “मैं”  हैं, उनमें प्रकट हुआ है ।
मैं से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ, जो तेजोमय प्रकाश युक्त रत्न है, वह भलीभांति धुल जाने पर चमकने लगता है; उसी प्रकार इस जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप अत्यंत स्वच्छ होने पर भी अनन्त जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों से मलिन हो जाने के कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता; परन्तु जब मनुष्य ध्यान योग के साधन द्वारा समस्त मलों को धोकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति प्रत्यक्ष कर लेता है, तब वह अकेला (अर्थात उसका जो जड़ पदार्थों के साथ संयोग हो रहा था, उसका नाश होकर) कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकार के दुःखों का अन्त होकर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है। उसका मनुष्य जन्म सार्थक हो जाता है। फिर जब वह योगी इस स्थिति में दीपक के सदृश निर्मल प्रकाशमय आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्म तत्व को भलीभांति प्रत्यक्ष देख लेता है, तब वह उस अजन्मा, निश्छल तथा समस्त तत्वों से असंग—सर्वथा विशुद्ध परम देव परमात्मा को तत्व से जानकर सब बन्धनों से सदा के लिए छूट जाता है।

“मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है

“हमारे” दो हिस्से हो गए हैं -एक चैतन्य का हिस्सा और दूसरा प्रकृति का प्रकृति और पुरुष मिलकर हम “मैं” हो गए हैं। यदि, इनसे प्रकृति सब हटा दी जाए, तो एक रह जायेगा। सब “मैं” समाप्त हो जाएंगे। इसीलिए कहते हैं कि यह नानात्व भ्रम हैं। “हम” केवल भ्रम हैं। जो नहीं हैं, उनके मरने का सवाल क्या है? “हम” कुछ नहीं हैं। यह बहम है कि “हम” भी कुछ हैं। इसीलिए मुक्ति का चक्कर है। मुक्ति मिलती नहीं है। “मैं” का ही छुटकारा है। “मैं” से छुटकारा पा जाओ, बस मुक्त ही मुक्त हो। तुम जो “मैं” बन बैठे हो, यही मौत है। इसीलिए “मैं” से छुट्टी हो जाना ही मुक्ति है। “मैं” की मुक्ति नहीं होती। तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी। तुम ही नहीं रहोगे, यही मुक्ति है।
हम क्या हैं ?
यही देखना है कि “हम” क्या हैं? आग कहती है कि “मैं” न मरूं। अपने जीने के लिए लकड़ियां समेटने की जो आग की प्रवृत्ति है, यही अज्ञान है। यह पता चल गया कि आप सदा जीवित है। साइंटिस्ट लोग लकड़ीयां नहीं समेटते। वे कहते हैं कि हम आग को फिर प्रकट कर लेंगे। यह तो पहले के लोग कंडे (उपले ) गाड़- गाड़ कर आग को टिकाया करते थे; क्योंकि, उन्हें मालूम नहीं था। सोचते थे आग बुझ न जाए। उनको पता नहीं था कि आप कभी बुझा नहीं करती। वह हमेशा है, नित्य है और अव्यक्त है। चाहे जब उसे प्रकट किया जा सकता है। क्योंकि, जब पहले प्रकट हुई है; तो फिर भी प्रकट हो सकती है।
चेतना कितनी ही बार प्रकट हुई है। जो अव्यक्त चैतन्य है; वह नित्य विद्यमान है; फिर प्रकट हो सकता है। लेकिन, यह “मैं” घबरा जाता है कि ” मैं” मर न जाऊं, “मैं” मर न जाऊं। तेरे जैसे कितने “मैं” हो गए हैं और अभी होने की भी क्या कमी है? जो अभी बना है और बना रहेगा; लेकिन, यह “मैं” कहता है कि “मैं” मर ना जाऊं। जैसे अग्नि चिंतित है कि “मैं” बुझ न जाऊं। इसीलिए, मेरे में लकड़ियां डाल दो, मुझ में कंडे डाल दो।अग्नि खतरे में पड़ गई है। वही हाल तुम्हारा भी हो गया है। शरीर मिल जाए, और शरीर मिल जाए, और प्रकृति मिल जाए, और थोड़ा शरीर मिले, नहीं तो “मैं” मर जाऊंगा। शरीर खत्म होता जा रहा है और हम शरीर पाने को बैठे हैं। हम मर न जाएं, यही तो प्रवृत्ति है। यदि तुम जान गए होते कि तुम मरते कहां हो? हम हैं क्या? जो है, वह आज तक कभी नहीं मरा। वही तो “मैं” के रूपों में प्रकट है और फिर ये “मैं” अप्रकट रूप में चले जाते हैं, मरते नहीं।


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।


भगवान कृष्ण कहते हैं कि सारे प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे। बीच में व्यक्त हुए और मरते पर फिर अव्यक्त हो जाते हैं। तो रोने की या दुख की क्या बात है? लेकिन शायद किसी विरले को ही ये बात समझ आती है बाकी का तो मनोरंजन है वेदांत सुनना।

भोग-योग रूप

पुरुष और प्रकृति, इन दोनों के मेल से जिन जीवो का जन्म हुआ है, वे जन्म से शरीराभिमानी ही होते हैं। वे अपने को शरीर मानते हुए ही पैदा होते हैं और शरीर मानते हुए ही प्राय: मर जाते हैं। कोई ऐसे भी हैं, जो कितनी ही बार जन्म लेने पर भी बार-बार शरीर भाव को ही प्राप्त होते हैं। ऐसे कुछ ही महान् पुरुष होते हैं, जो शरीर में रहते हुए भी, शरीर भाव से मुक्त होकर, अपने परमात्मभाव को प्राप्त होते हैं। जैसे कोई जन्म से लड़की हो और बाद में लड़का हो जाए। पहले माता की तरह हो, पीछे पिता की तरह हो जाए। इसी प्रकार, जीव पहले जन्म – मरण वाला हो, सुख-दुख वाला हो, कर्ता और भोक्ता हो; बाद में अकर्त्ता, अभोक्ता और आनंदमय हो जाए। भोग से व्यक्ति प्रकृति रूप और योग से ब्रह्मरूप बन जाता है।
यदि कोई आत्मा को अनुभव करेगा, तो परमात्मा भाव को प्राप्त होगा और यदि प्रकृति के साथ, शरीर के साथ तादात्म्य करेगा, तो जड़ता को प्राप्त होगा; मरण को प्राप्त होगा। इस प्रकार दो भावों वाला यह जीव ही हो सकता है। परमात्मा नित्य परमात्मा है; प्रकृति नित्य प्रकृति है। यह जीव ही प्रकृतिभाव वाला और परमात्मभाव वाला होता है।
अब आपको यह देखना है कि आप जिस भाव में हैं, उस भाव में आपको चैन है? जैसे कोई लड़की हो और उसे लड़की के जीवन में चैन ना हो -पीड़ा होती हो कि वह लड़का होती तो अच्छा होता। उसी प्रकार से हमारे जीवन में भी एक पीड़ा है। हम अभी लड़की की तरह हो गए हैं। हम प्रकृति के भाव वाले शरीर के रूप में पैदा हो गए हैं। हमें लगता है कि हम मरे नहीं, दुखी ना हो, अशान्त न हों और परेशान न हों। हमारे हृदय में एक ऐसी पीड़ा है, जो हमें भगवान् होने को बाध्य करती है। यदि हम भगवान के भाव को प्राप्त न हों या भगवान् हमें प्राप्त न हों, तो हमको जीवन में चैन नहीं आता। इसीलिए, जहां शरीर की व्यवस्था का प्रश्न है, वहीं जीव की आंतरिक मांग का सवाल भी हमारे सामने रहता है।