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एक सत्य


प्रकृति के नियम से ही मां बच्चे को दूध पिलाती है ।मां थोड़े ही दूध पिलाती है। मां दूध को रोक तो सकती है। मां नियंत्रण कर सकती है। मां शरम कर सकती हैं। मां अपने सौंदर्य को बचाने के लिए दूध पिलाने से अपने को रोक सकती है; पर दूध मां नहीं पिलाती। दूध तो भीतर से आता है। मां की अकल से नहीं आता है। दूध सुखाने का अपराध मां कर सकती है। पर , दूध पिलाने का श्रेय मां को नहीं है। वह तो प्रकृति की देन है। जो मां अपने बच्चे को दूध नहीं पिलाती; वह प्रकृति की दी हुई भेंट का अनादर करती है ।
ज्ञान भगवान से आता है। उस पर अधिकार तुम कर लेते हो। कहते हो कि यह मेरा ज्ञान है। लेकिन, ईमानदार लोग तो यही कहते हैं कि उन्हें तो जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह तो भगवान का ही ज्ञान है। यही चैतन्य परमात्मा है। बुद्धि और अहंकार कहता है कि “मेरा ज्ञान” है। देहाभिमानी “मेरा चैतन्य” कहते हैं। यह मेरा – तेरा क्या है? चैतन्य तो चैतन्य है; वह एक ही है ।
यही परमात्मा का आवरण रहित रूप है। चैतन्य एक ही तो देवता है; जो सब में समाया हुआ है; लेकिन, देहाभिमानी कहते हैं कि यह “मेरा ज्ञान” है, यह “मेरी” बुद्धि है, यह “मेरा” देह है। यहां “मेरा” और “तेरा” कुछ नहीं है। एक चैतन्य है। एक ही परमात्मा है। वह परमात्मा ही सबके भीतर समाया हुआ है। यही सत्य परमात्मा का नग्न रूप है। यही सत्य “नंगा परमात्मा है”।
इस सत्य को ही जानने की आप चेष्टा कीजिए । इस सत्य को जानकर आप जीवन में महान बन सकते हैं । आप आत्मज्ञानी हो सकते हैं । जीवन रहते तत्वज्ञान उपलब्ध करने का प्रयत्न करें । भगवान की आप पर महान कृपा हो और आपको यह ज्ञान प्राप्त हो ।

निर्ममेति

एक बार दीपक कहने लगा कि “जिस घर में मैं जलता हूं, उस घर में मैं अंधेरे को नहीं आने देता”। हमने कहा भई! ज्यादा न बोलो, जरा संभल के बोलो। ये कहो “जहां मैं रहता हूं, वहां अंधेरा आता ही नहीं है”। वहां अंधेरा रहता नहीं कि तू आने नहीं देता? अंधेरे को तो कोई धक्का दिये रहता है , जो नहीं आने देता । कोई रोके रहता है उसे?
“मेरा है ” कहते ही बंधन..
अभी जब यहां सत्संग चल रहा था, हम लाउडस्पीकरों की आवाज सुन रहे थे। इधर चार स्पीकर लगे हैं, उधर दो लगे हैं। हम खड़े होकर यह पता लगा रहे थे कि कहां की आवाज सुन रहे हैं? एक बालिश्त के फर्क में हम इधर के स्पीकरों की आवाज सुनते थे। और एक बालिश्त के फर्क से खड़े होते ही यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह आवाज होती है। केवल एक बालिश्त की दूरी का यह प्रभाव है। सच तो यह है कि एक बाल बराबर दूरी का भी यही प्रभाव होगा। यदि मशीन से सुना जाए, तो बाल बराबर इधर आते ही यह आवाज़ सुनोगे और बाल बराबर उधर जाते ही वह आवाज़ सुनोगे। एक सीमा रेखा होती है, बस इतना ही फर्क है।
जब भौतिक जगत् में, एक बाल बराबर दूरी से इतना फर्क पड़ सकता है, तो “मेरा नहीं है , भगवान का है” की जमीन पर खड़े होते ही, बस इतना सा ख्याल करते ही, आदमी मुक्त हो जाता है और “मेरा है” यह ख्याल आते ही वह बंध जाता है, फंस जाता है।

“द्वे पदे बंद मोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन् र्तनिर्ममेति विमुच्यते।।”

“निर्ममेति”, “मेरा नहीं है”, कहते ही मुक्त हो जाता है और “मेरा है”, कहते ही बंध जाता है। मैं कहता हूं, यह तो एक सूत्र है। ऋषियों ने ऐसे लाखों सूत्र दिए हैं। एक भी सूत्र पकड़ लो, तो मुक्त हो जाओगे।

मन का ज्ञाता साक्षी


मन जिससे महसूस होता हो; मन जिसके पहले न रहा हो; जिसने मन के होने को समझा हो, जिसे मन के विलय होने का पता रहता हो; जिसे मन के सो जाने का पता रहता हो; ऐसा जिसको पता चलता हो, उसी को तुम ब्रह्म जान लेना।
“तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि”
ब्रह्म को इन्द्रियों की सीमा में मत खोजते रहना ।
गो गोचर जहं लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।”
मन की सीमा में यदि परमात्मा मिल भी जाए; इंद्रियों की सीमा में परमात्मा आ भी जाए; तो वह परमात्मा का साकार रूप होगा, आराध्य रूप होगा। वह भी हमारे कल्याण का कारण बन सकता है; लेकिन, मृत्यु भय साकार भगवान से नहीं जाता। किसी भी साकार भगवान के दर्शन से, उनके मिलने से, मृत्यु भय नहीं गया। उनके उपदेश की बात मैं नहीं कहता।
अर्जुन भगवान के साथ ही तो था। उसका शोक नहीं गया; मृत्यु भय नहीं गया; राग-द्वेष नहीं गया। भगवान को उपदेश ही देना पड़ा। मान लो कि मैं भगवान हूं। क्या मेरे देखने से आपका अभिमान चला जाएगा? मेरे देख लेने के बाद, यदि आपको सांप काट ले, तो मरने के भय में फर्क पड़ेगा? क्या हो जाएगा? देह वाले की मौत वैसे ही रहेगी; चाहे भगवान नहीं भगवान के बाप ही क्यों न हों। मेरे ख्याल से भगवान के तो बाप ही नहीं होता। क्यों! भगवान के भी बाप होता होगा? भगवान तो होता ही सब का बाप है; इसलिए, भगवान का कोई बाप नहीं होता। भगवान बिना बाप का होता है। जो बिना बाप का होता है, उसी का नाम भगवान है । समझ गए! जो बिना बाप के हो, अर्थात अजन्मा हो आत्मा हो जिसने अपने भीतर उसकी उपस्थिति को समझ लिया हो, वही परमात्मा है। जिसका जन्म ही नहीं होता, उसका बाप कैसे होगा? वही बापों के बाप के बाप तुम भी हो सकते हो सिर्फ इस ब्रह्म ज्ञान का पान तो ठीक से करो।

जीव को शांति कहां मिलेगी ?

संसार में जो कुछ भी हम प्राप्त करते हैं, वह छूट जाता है। जिन साधनों से प्राप्त करते हैं, वे भी शिथिल हो जाते हैं। देखने में नेत्र असमर्थ हो जाते हैं। सुनने में कान असमर्थ हो जाते हैं। जिस शरीर से हम कुछ पाना चाहते हैं, वह शरीर भी शिथिल हो जाता है। जिस मन से हम कुछ पाया करते हैं, वह मन भी बदल जाता है। क्योंकि, संसार में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके लिए मन कहे कि नहीं छोड़ना। इसीलिए, ऋषियों ने खोजा की जीव को शांति कहां मिलेगी? जो उन्होंने खोजा, अनुभव किया, उसे ग्रंथों में लिखा। पर, हम तब तक उसका लाभ नहीं ले पाते; जब तक कि हमारी समझ में न आए। मोक्ष उस समझ के सिवा और कुछ नही है अगर इसे अनुभव कर लिया तो आप तक्षण मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष में ही विचरते हैं। बस यही समझना है कि हम सच में हैं क्या? ये नाक , कान, दृश्य या रसना और ये सब अगर शरीर से खत्म कर दे तो क्या बचेगा जो सुप्त अवस्था में आपके सपनों का साक्षी होता है। उसे जानिए, सोचिये क्योकि इसके अलावा जानने समझने लायक कुछ है ही नही।

धार्मिक चित्त

एक -दूसरे के विरोध के नमूने भारत और विदेश हैं। आजकल के साधुओं और गृहस्थों को पूर्णता की उपलब्धि नहीं हुई। भारत, विदेश के विज्ञान का भूखा है और विदेश भारत के अध्यात्म के भूखे हैं। गृहस्थ भोगों से अतृप्त है, शांति का भूखा है तथा सामान्य साधु – समाज, अर्थ और आश्रय का भूखा है और इसी के पाने की चिंता में निमग्न है। साधुओं में इन्हीं के लिए संघर्ष होते हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से चित्त अंतर्मुख और शांत नहीं हो पाता। अशान्त और बहिर्मुख चित्त दृढ़ आत्मस्मृति को भी उपलब्ध नहीं होता। अतः, पदार्था भाव में आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से अध्यात्मिक साधन भी असंभव हो जाते हैं और चित्त पदार्थों की तरफ गतिमान होने लगता है। धर्म के अभाव में चित्त, आत्मा, परमात्मा, सत्य, मुक्ति और शांति इनके विषय में बिल्कुल ही अपरिचित रह जाता है। इनकी खोज में धार्मिक चित्त ही प्रवृत्त होता है। जो इनकी खोज में साधन रत है, उसी को मैं धार्मिक चित्त कहता हूं।
धर्मविहीन जीवन बिल्कुल बाह्य हो जाता है। उसका उद्देश्य शरीर – रक्षा, भोग -प्राप्ति, महत्त्वाकांक्षा और अधिकार- रक्षा का रूप ले लेता है। वह कठिन से कठिन श्रम करके भी इन इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता; क्योंकि; बाह्य पहलू-बाहर की यात्रा, “क्षितिज” को छूने जैसा प्रयास है; जो सदा समीप, पृथ्वी को छूता हुआ और प्राप्य भासता है। किंतु, “क्षितिज” की प्राप्ति, कठिन ही नहीं असम्भव है। मृगतृष्णा का जल दिखता है, पर, प्राप्त नहीं होता। और इसी इक्क्षा में मनुष्य जन्म जन्मांतरों तक भटकता रहता है। उसे चाहिये कि किसी ब्रह्मनिष्ठ गुरु को खोजे उनकी शरण जाए और इसे समझे यही मानव मात्र का ध्येय और उद्देश्य होना चाहिए। यही धर्म का विज्ञान है, धर्म है। धर्म अनुशासन सिखाता है और अनुशाषित व्यक्ति ही स्वयं को जीत सकता है ये कोई बाहरी लड़ाई नही सिर्फ अंतर युद्ध शिक्षा देता है।

कितने जागरूक?


कोई यह कह सकता है कि अध्यात्मवाद व्यर्थ है। मैं तो नहीं कह सकता कि अध्यात्म मार्ग गलत है। हो सकता है कि उसके शोधन में कोई दोष हो,उसके सेवन में कोई दोष हो। इसलिए, हमारा एक ही निवेदन है कि आप अपने जीवन की उस अभिलाषा की ओर भी जागरूक हो जावे कि आपको क्या चाहिए? उसके लिए आप कितने जागरूक हैं? सच्चाई से शोधन करें कि कितना समाज रोटी और कपड़े के लिए जागरुक है? जितना मनुष्य बिल्डिंग के लिए जागरुक है क्या उतना कल्याण के लिए भी जागरुक है? क्या समाज सतर्क और सावधान है? लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि रोटी, कपड़ा और मकान की ओर न जागें।
शरीर और आत्मा दोनों ही की ओर जागें। बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनकी रोटी की भी समस्या है, जिनकी कपड़े और मकान की भी समस्या है। हमारे देश की नौका दोनों तरफ ही डगमगा गई है। हम लोग धर्म की तरफ भी चूक गए हैं और भौतिकवाद की तरफ भी चूक गए हैं। आज हमको ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, जो संसार के विषय में भी सोचें और मोक्ष के विषय में भी सोचें। ऐसे मानव का जन्म होना चाहिए, जो दोनों पहलुओं पर विचार करें। हम बहुत दिनों तक एकांगी रहे हैं ।

जिस तरह शरीर की पूर्ति आवश्यक है उसी तरह मन या आत्मा की पर समस्या यही है कि जो दिखता नही उसे आप मानते नहीं, पर कब तक क्योंकि एक न दिन तो मानना ही पड़ेगा सोचना ही पड़ेगा फलों में स्वाद कहाँ से आया, तुम्हारा भोजन किसने पचाया, कौन है जो तुम्हारी नींद में तुम्हारे सपनों को देखता है…इसको जानना अत्यंत आवश्यक है आज नही तो कल इस जन्म नही तो अगले यह ही जानना होगा तभी इस प्रपंच से पार होंगे

महाकाश


प्रश्न— आत्मा सर्वाधार है तो प्राण ,मन क्या करता है पूज्य गुरुदेव समझाते हैं—


} प्राण शरीर को जीवित रखता है,चेतन नहीं रखता।शरीर को जीवित रखना, सड़ने नहीं देना, गलने नहीं देना, बिगड़ने नहीं देना, शरीर की सुरक्षा करना प्राण का काम है।सुख,दुख, दर्द आदि मन से होता है। मन नींद में सो जाता है।


} प्राण नींद में,कोमा में भी काम करता है। प्राण जब तक शरीर में रहता है, तब तक मन कहीं जाये (जैसे सो जाये, बेहोश हो जाये) फिर आ जायेगा।


} प्राण कार ,जहाज है,मन ड्राइवर,पायलट है। पायलट जहाँ ले जाना चाहता है, जहाज़ को उड़ा ले जाता है।जहाज़ अपनी मर्जी से नहीं जाता।पायलट की ही मर्जी से जाता है।जहाज़ ड्राइवर के अधीन है। इसलिए दूसरे शरीर में मन प्राण के साथ जाता है। अकेला मन दूसरे शरीर में नहीं जा सकता। लेकिन इस अर्थ में मन की प्रधानता है कि जहाँ चाहे प्राण को ले जाये।


} प्राण का अपना महत्व है। इसलिए सबको प्राणी बोलते हैं। पेड़ प्राणी है लेकिन जीवधारी नहीं है। जीव तब होता है जब मन और इन्द्रियाँ हो। जब मन और इन्द्रियाँ नहीं हैं, तो प्राणी हो। सुषुप्ति में आप प्राणी हो,जीवित भी हो मरे नहीं हो सुख, दुख, ज्ञान आदि कुछ नहीं है। एक तरह से आप पेड़ हो।


} आत्मा के बल पर प्राण भी है, मन भी है,तथा इन्द्रियाँ भी है। यहाँ तक कि पेड़, पहाड़,पृथ्वी, जल, दीवार जिसके सहारे हैं,वह आत्मा है। पर आत्मा के कारण दुख -सुख नहीं हैं। वे मन के कारण है। प्राण के कारण जीवित हैं, आत्मा के कारण नहीं।इसलिए जिसमें प्राण नहीं है वह निर्जव है।

जीव और ब्रह्म में इतना ही भेद है,जितना पृथ्वी में और मिट्टी में।हम पृथ्वी को भी सत्य नहीं मानते।जितना झूठा घड़ा है,उतनी झूठी पृथ्वी; पर घडो़ं का नाश हमने देखा है,पृथ्वी का नाश हमने नहीं देखा।इसलिए पृथ्वी अक्षर लगती है,घड़ा क्षर लगता है।


} मिट्टी में पृथ्वी कल्पित है। एक होता है –घटाकाश और एक है–महाकाश।महाकाश ईश्वर है, घटाकाश जीव है।”महा” और “घटा” क्या होता है। महा माने ईश्वर, मकान; घटा माने जीव,घड़ा। घड़ा तोड़ो,महा कौन है। छोटा कौन है। सिर्फ आकाश है। तो घट उपाधि से महाकाश कल्पित है। यदि जीव झूठा है तो ईश्वर अपने आप झूठा है। ब्रह्म सत्य है,ब्रह्म माने आकाश। दूसरा उदाहरण; आप छोटे भाई हो या बड़े। यदि बड़ा भाई न हो तो तुम कौन से भाई हो। अर्थात इकलौती संतान हो न छोटा न बड़ा।


} पूज्य गुरुदेव समझाते हैं, चेतन एक है,वह न ईश्वर है,न जीव है। घटाकाश,महाकाश से मिल नहीं पाया। जब मिला तो न घटाकाश रहा, न महाकाश। पहले मैं चेला था, वे गुरु थे। जब समझ में आया न मैं चेला न वे गुरु। स्वामी राम कहते हैं कि मैं न बन्दा था,न खुदा था मुझे मालूम न था; दोनो इल्लत, दोनों उपाधि, दोनों ख्याल थे।यह घटाकाश, महाकाश यह हमारे ख्याल हैं।आकाश आकाश है; न छोटा ,न बड़ा। दोनों इल्लत से जुदा था,मुझे मालूम न था।

वजह मालूम

हूई तुझसे न मिलने की सनम
खुद मैं ही परदा बना था मुझे मालूम न था।

तटस्थ

गृहस्थ का लक्षण है, सदा अभाव में जीना।

वह उसका मूल लक्षण है। हमेशा जो उसे चाहिए, वह उसके पास नहीं है। जिस मकान में आप रह रहे हैं, वह आपको चाहिए नहीं। आपको चाहिए कोई बड़ा, जो नहीं है। जिस कार में आप चल रहे हैं, वह आपके लिए नहीं है। आपको कोई और गाड़ी चाहिए, जो नहीं है। जो कपड़े आप पहन रहे हैं, वह आपके योग्य नहीं हैं। आपको कोई और कपड़े चाहिए। जिस पत्नी के साथ आपका विवाह हो गया है, वह आपके योग्य नहीं है। आपको कोई और स्त्री चाहिए।
पूरे वक्त जो नहीं है, वह चाहिए। जो है, वह व्यर्थ मालूम पड़ता है, और जो नहीं है, वह सार्थक मालूम पड़ता है। वह भी मिल जाएगा, उसको भी आप व्यर्थ कर लेंगे, क्योंकि आप कलाकार हैं। ऐसी कोई स्त्री नहीं है, जिसको आप एक न एक दिन तलाक देने को राजी न हों, क्योंकि तलाक स्त्री से नहीं आते, आपकी वृत्ति से आते हैं। जो आपके पास नहीं होता, वह पाने योग्य मालूम पड़ता है; जो आपके पास होता है, वह जाना-माना परिचित है; कुछ पाने योग्य मालूम नहीं होता।
ऐसा पति अगर आप खोज लें, जो अपनी पत्नी को ही प्रेम किए जा रहा है, अनूठा है, साधु है। बड़ा कठिन है अपनी पत्नी को प्रेम करना; बड़ी साधना है। दूसरे की पत्नी के प्रेम में पड़ना एकदम आसान है। जो दूर है, वह आकर्षित करता है। दूर के ढोल ही सुहावने नहीं होते, दूर की सभी चीजें सुहावनी होती हैं।
साधु का लक्षण है, संतोष। गृहस्थ का लक्षण है, अभाव। गृहस्थ उस पर आंख टिकाए रखता है, जो उसके पास नहीं है और जो उसके पास है वह बेकार है। साधु उस पर आंख रखता है, जो है; वही सार्थक है। जो नहीं है, उसका उसे विचार भी नहीं होता। जो है वही सार्थक है, ऐसी प्रतीति का नाम संतोष है। इसलिए जरूरी नहीं है कि आप घर-द्वार छोड़ें तब साधु हो पाएंगे। जो है, अगर आप उससे संतुष्ट हो जाएं, तो साधुता आपके पास–जहां आप हैं वहीं आ जाएगी।
संतुष्ट जो हो जाए, वह साधु है। असाधुता गिर गई। लेकिन जिनको आप साधु कहते हैं, वे भी संतुष्ट नहीं हैं। हो सकता है उनके असंतोष की दिशा बदल गई हो। वे कुछ नई चीजों के लिए असंतुष्ट हो रहे हों, जिनके लिए पहले नहीं होते थे। मगर असंतुष्ट हैं। वहां भी बड़ी प्रतिस्पर्धा है। कौन महात्मा का नाम ज्यादा हुआ जा रहा है, तो बेचैनी शुरू हो जाती है। कौन महात्मा की प्रसिद्धि ज्यादा हुई जा रही है, तो छोटे महात्मा उसकी निंदा में लग जाते हैं। क्योंकि उसे नीचे खींचना, सीमा में रखना जरूरी है।
महात्माओं की बातें सुनें तो बड़ी हैरानी होगी कि वे उसी तरह की चर्चाओं में लगे हुए हैं, जैसे आम आदमी लगा हुआ है। सिर्फ फर्क इतना है कि उनका धंधा जरा अलग है,
इसलिए जब वे एक महात्मा के खिलाफ बोलते हैं तो आपको ऐसा नहीं लगता है कि कुछ गड़बड़ कर रहे हैं। लेकिन जब एक दुकानदार दूसरे दुकानदार के खिलाफ बोलता है तो आप समझते हैं कि कुछ गड़बड़ कर रहा है; नुकसान पहुंचाना चाहता है। उनकी भी आकांक्षाएं हैं। वहां भी चेष्टा बनी हुई है कि और…और…और…। ऐसा भी हो सकता है कि वे परमात्मा को पाने के लिए ही चिंतारत हों और सोच रहे हों, और परमात्मा कैसे मिले, और परमात्मा कैसे मिले? अभी एक समाधि मिल गई है, अब और गहरी समाधि कैसे मिले? लेकिन ध्यान भविष्य पर लगा हुआ है, तो गृहस्थ ही चल रहा है।
संन्यस्त का अर्थ है कि जो है, हम उससे इतने राजी हैं कि अगर अब कुछ भी न हो, तो असंतोष पैदा न होगा।

इसी पर गुरुदेव एक पंक्ति कहते हैं कभी कभी..

हम राज़ी हैं उसमें, जिसमें तेरी रज़ा है।

यहाँ ऐसे भी वाह वाह है, वैसे भी वाह वाह है।।

ब्रह्म होना ही असल में मरना है

बुलबुले अलग-अलग हैं और पानी हैं। हैं तो दोनों बातें बड़ी स्पष्ट; लेकिन, जिनको वे स्पष्ट हैं, उन्हीं को स्पष्ट हैं। ये बातें तो समझ में आ जाती हैं कि बुलबुले पानी हैं। सर्वत्र हम ही हैं, यह बात युक्ति से, दृस्टान्त से तो समझ में आ जाती है; लेकिन, हम ही सर्वत्र हैं, यह समझ में नहीं आता। सर्वत्र आत्मानुभूति नहीं होती कि सबका सब “मैं” हूं। ऐसा दिख जाए , तो फिर द्वैष कहां, ईर्ष्या कहां और दुर्व्यवहार कहां? ऐसा दिखते ही दिल में शांति आवेगी। बुद्धि के धर्म शांत हो जाएंगे। जब आत्मबोध जागता है, तो प्रज्ञा ही ब्रह्म रूप हो जाती हैं। जब मन की ब्रह्म हो जाएगा, तब मति के धर्म, राग – द्वेष कहां रहेंगे? जब ब्राह्मीभूत हो जाएगा, तो मन में क्रोध कैसे रहेगा? जब ओला पिघल गया, तो उसकी कठोरता का दोष कैसे रहेगा? मन रहे, तो मन का धर्म भी रहे। ब्रह्मबोधाग्नि में मन पिघल जाएगा —-
“मन्सूर चढ़ा जब सूली पर,
तब रूह कफस से जाती थी।
मैं बंदा नहीं अनलहक हूं ,
आवाज खून से आती थी।।”
ऐसी कहावत है। यह कहावत कहां तक सच है, पता नहीं। लेकिन, भाव यह है कि यदि हमारा रोम भी छेद कर देखा जाए, यदि हमारा खून भी देखा जाए, तो वहां सिवाय “हूं” के और कुछ न मिले। वह स्त्री नहीं , पुरुष नहीं; गरीबी नहीं, अमीरी नहीं। हमारे खून में गरीबी का अनुभव न हो। हमारा खून भी ब्रह्म हो, हमारा मन भी ब्रह्म हो। हमारी इन्द्रियां भी ब्रह्म हों। एकदम शांत हों। ब्रह्म और कुछ नहीं। जिसकी इतनी निश्चित दशा होती है, क्या वह कभी मर सकता है? वे तो शांत रहकर बलिदान हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि जरा – सी द्वेष भावना हुई कि खून गरम हो गया।

वेदान्त किसे कहते हैं?


जो दर्शन इसकी एकता कर दे; इस भेद को नष्ट कर दे; हमारी चेतना में जो जमा हुआ भेद है, वह समाप्त कर दे; उस दर्शन को हम वेदांत कहते हैं। पर,जो भेद को स्थापित करें; भले ही वह शांति दे दे; भले ही वह शरीर के पार ले जावे; राग और द्वेष क्षीण करें; किंतु, अस्मिता का अंत नहीं होगा। वह परिच्छिन्न अस्मिता को खड़ी रखता है; परंतु, वेदांत अस्मिता पर कुठाराघात करता है। वेदांत अस्मिता को मारता है। सारे दर्शन अभिनिवेश को हटाते हैं; लेकिन, परिच्छिन्नता वह भेद को नष्ट नहीं करते। अस्मिता को खड़ी रखते हैं।
ध्यान से “हूं” तो बच जाएगा; लेकिन, अभिनिवेश अलग हो जाएंगे। जाति का अभिनिवेश हटेगा; ऊंच-नीच का अभिनिवेष हटेगा; अमीरी – गरीबी का हटेगा; चित्त शांत हो जाएगा; अंह को शांति मिलेगी; समाधि प्राप्त हो जाएगी। परंतु, यह “हूं” सब के साथ अभिन्नता का अनुभव नहीं करेगा। यह “हूं” जब बचे , तब “अहंब्रह्मास्मि ” आदि वाक्य काम करेंगे। जब साधक शरीर से मुक्त होकर शांत हो जाता है; तब वेदांत कहता है, “वह तू है”। इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है —–
“नाशान्त मनसो ह्याशुबुद्धि: पर्यवतिष्ठति”
जिसका चित्त शांत नहीं है, वेदांत में उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती। मैं सर्वत्र हूं, यह बात समझ में नहीं आती। जो शरीर से पृथक् नहीं हो पाया, वह “मैं ब्रह्म हूं”, यह वेदान्त की बात कैसे समझेगा? इस ब्रह्मभाव और वेदांत तक पहुंचने के लिए योग और सांख्य, ये दो साधन हैं। योग और सांख्य द्वारा पहले शरीर से पार जाओ। वेदांत कहता है कि यह जो चेतना है, सर्वत्र रहने वाली है। यह जो सत्ता है, यह ब्रह्म है। वेदांत, योग और सांख्य के पीछे आता है।
बोधसार नामक पुस्तक में एक प्रसंग आता है कि सांख्य और योग, इन दो हाथों के द्वारा वेदांत को उपलब्ध करो। यम, नियम और आसन आदि पांच – पांच अंगुलियों वाले दो – दो हाथ हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे पांच – पांच उंगलियों के दो-दो हाथ हैं। सांख्य और योग के , पांच – पांच अंगुलियों वाले दो हाथों से, हम जिसको हस्तगत करना चाहते हैं , वह वेदांत है। इसलिए, सांख्य और योग के द्वारा अद्वैत वेदांत का रहस्य ज्ञात होता है। अद्वैत माने, जहां कोई और नहीं है। तात्पर्य यह कि सब शरीर रहेंगे, सारे मकान रहेंगे, सारे ढेले रहेंगे; लेकिन, मिट्टी एक हो जाएगी।

🙏🚩ॐ श्री गुरुवे नमः 🚩🙏
( गुरुवाणी ) ग्रंथ – दो दिशाओं की यात्रा एक साथ भाग -13