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परम सिंधु को प्राप्त करो

जब व्यक्ति अंतरात्मा में लौट आता है, तो वह उस क्षितिज को पा लेता है, जिसको वह बाहर पाना चाहता था। क्षितिज बाहर नहीं है। यदि क्षितिज को छूना है; तो बाहर के द्वार बंद करके बैठ जाओ; चाहे अनुभव करके बैठना; चाहे व्याख्यान सुन कर बैठना; क्षितिज को छू सकोगे, जिसको तुम जिंदगी में कभी नहीं छू सके। यदि छू लिया होता, तो आज उस परम शांति में होते।
बुद्ध ने इसी क्षितिज को छुआ था। शंकर ने इसी क्षितिज को छुआ था। रामकृष्ण परमहंस इसी क्षितिज को छू गए हैं। उनको लगता ही नहीं कि आगे कहीं जाना है। जो इस क्षितिज को नहीं छू पावेगा, उसे लगेगा कि अभी जाना है; अभी जाना है। जैसे नदियां भागती हैं; परंतु, जब परम सिंधु को प्राप्त हो जाती हैं, तो उनका भागना बंद हो जाता है। इसी प्रकार, जब परमानंद सिंधु को पा जाओगे, तब जीवन में और आगे, और आगे बढ़ने की कामना शांत हो जाएगी। केवल जीवन निर्वाह होगा तथा परम शांति होगी

इसीलिए, इस आनंद आत्मसिंधु को पाने के लिए जागरूक रहो । यह काम इसी जीवन में करना है । तुम्ही को करना है । यह तुम्हारा अपना ही काम है——-

“आत्मार्थं पृथ्वीं त्यजेत् ।”

अपना जगत खो कर स्वयं जगत हो जाओ

मन के अमन हो जाने पर द्वैत नहीं रहता। द्वैत तो है ही मन के खड़े होने पर। बाहरी द्वैत देह के अभिमान में है। भीतरी द्वैत मन के रहते है। स्मृति में भी जो है वह भी द्वैत है और वह भी आपके मन के कारण है। मन नींद में चला गया तो द्वैत गया। मन आत्मा में चला गया तो द्वैत खो गया।  द्वैत नींद में भी नहीं रहता।  यहाँ नींद का अर्थ है- गहरी नींद।  कई बार ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर गलती कर जाते हैं क्योंकि नींद का हम दो जगह प्रयोग करते हैं। सपनों के समय की नींद को भी नींद कहती हैं और गहरी नींद को भी नींद कहते हैं और सच तो यह है कि जगत के देखने को भी हम नींद ही कहते हैं। इसलिए तीनों अवस्थाएं स्वप्न हैं।  मैं सो गया था, यह भी स्वप्न है। मैं स्वप्न में था यह भी स्वप्न है। मैं आदमी हूँ, जगत है; यह भी स्वप्न है।  केवल जागना है-  मैं ब्रह्म हूँ और कुछ नहीं हूँ।  जागना उसी को कहते हैं जिस सेकंड में जागे हो करके तुम्हारे सिवा कुछ नहीं है। इसलिए ब्रहम ज्ञानी का जगत खो जाता है।