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मन का ज्ञाता साक्षी


मन जिससे महसूस होता हो; मन जिसके पहले न रहा हो; जिसने मन के होने को समझा हो, जिसे मन के विलय होने का पता रहता हो; जिसे मन के सो जाने का पता रहता हो; ऐसा जिसको पता चलता हो, उसी को तुम ब्रह्म जान लेना।
“तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि”
ब्रह्म को इन्द्रियों की सीमा में मत खोजते रहना ।
गो गोचर जहं लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।”
मन की सीमा में यदि परमात्मा मिल भी जाए; इंद्रियों की सीमा में परमात्मा आ भी जाए; तो वह परमात्मा का साकार रूप होगा, आराध्य रूप होगा। वह भी हमारे कल्याण का कारण बन सकता है; लेकिन, मृत्यु भय साकार भगवान से नहीं जाता। किसी भी साकार भगवान के दर्शन से, उनके मिलने से, मृत्यु भय नहीं गया। उनके उपदेश की बात मैं नहीं कहता।
अर्जुन भगवान के साथ ही तो था। उसका शोक नहीं गया; मृत्यु भय नहीं गया; राग-द्वेष नहीं गया। भगवान को उपदेश ही देना पड़ा। मान लो कि मैं भगवान हूं। क्या मेरे देखने से आपका अभिमान चला जाएगा? मेरे देख लेने के बाद, यदि आपको सांप काट ले, तो मरने के भय में फर्क पड़ेगा? क्या हो जाएगा? देह वाले की मौत वैसे ही रहेगी; चाहे भगवान नहीं भगवान के बाप ही क्यों न हों। मेरे ख्याल से भगवान के तो बाप ही नहीं होता। क्यों! भगवान के भी बाप होता होगा? भगवान तो होता ही सब का बाप है; इसलिए, भगवान का कोई बाप नहीं होता। भगवान बिना बाप का होता है। जो बिना बाप का होता है, उसी का नाम भगवान है । समझ गए! जो बिना बाप के हो, अर्थात अजन्मा हो आत्मा हो जिसने अपने भीतर उसकी उपस्थिति को समझ लिया हो, वही परमात्मा है। जिसका जन्म ही नहीं होता, उसका बाप कैसे होगा? वही बापों के बाप के बाप तुम भी हो सकते हो सिर्फ इस ब्रह्म ज्ञान का पान तो ठीक से करो।

मांडुक्योपनिषद

वेद में तीन कांड है, एक का नाम है कर्मकांड, दूसरा है उपासना कांड, तीसरा है ज्ञान कांड। कर्मकांड में यदि हम विधि से ना करें तो पुण्य की जगह पाप भी हो जाता है। इसलिए कर्मकांड में बहुत ध्यान रखना चाहिए। विधि का पालन करना चाहिए। उदाहरण में एक यह भी कर्मकांड ही है, जब आप पैर छूते हैं तो चलते में, लेटे में, पूजा पाठ करते में, भोजन करते में, छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए, दूर से हाथ जोड़ लेना चाहिए। यदि आप चलते में करते हैं तो पुण्य नहीं है,पाप है। ऐसा ही दान करने में यदि पात्र को दान नहीं देते तो भी पाप लगेगा। नशेड़ी को आप दान दे रहे हैं इसका मतलब नशा पीने के लिए आप सहयोग दे रहे हैं तो यह पाप है। दान देने में भी पाप लग जाता है। यती को स्वर्ण दान देना पाप है। सन्यासी को स्वर्ण दान नहीं करना चाहिए। यतय: कांचनं दत्वा तंबुलं ब्रह्मचारिणो। ब्रह्मचारी को पान देना पाप है और चोर बदमाश को अभय दान देना कि तुम चिंता मत करो हम संभाल लेंगे। अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है ।

अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है। हमको खुद भी नहीं पता था पर बहुत माताएं पुरुषों से ज्यादा जानती है। अभी भी कई माताएं है, यदि हम लेटे हैं तो कहती है स्वामीजी बैठ जाओ! तो पहले मैं नहीं समझा कि क्यों कहती है। हमने कहा क्यों? तो कहती है हमें प्रणाम करना है क्योंकि लेटे में प्रणाम नहीं करना चाहिए। ऐसे ही हम चलते हो तो या तो कहो कि स्वामी जी जरा रुक जाओ, हम रुक जाए तो प्रणाम करो! चलते में नहीं करना चाहिए। तो अभिप्राय है कर्मकांड में विधि का महत्व है। और यह प्रयागराज है, इसमें भी……  विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्म कथा रविनंदिनी बरनी।। 
कर्म की कथा में विधि और निषेध है। यह करना है कि नहीं करना! अर्जुन को लगा ‘मैं लड़ूंगा तो पाप लगेगा’। अब भगवान ने कहा ‘नहीं तुम्हें पाप नहीं लगेगा!’ इसके लिए गीता सुनानी पड़ी अर्थात क्षत्रिय का कर्तव्य है कि ऐसी परिस्थिति हो तो युद्ध करना। सेना में लोग भर्ती है, यदि युद्ध के समय कहने लगे कि हिंसा हो जाएगी तो…..! वे युद्ध करेंगे तो वह युद्ध करना पाप नहीं है। और कोई रोज गीता पढ़ के घर में ही लड़ने लग जाए तो? इसलिए युद्ध करना भी कब, किसे पाप है, किसे पाप नहीं है (यह समझें)। गृहस्थ धर्म है परिवार का पालन करना,नहीं करता तो पाप लगता है। आप बच्चों को पैदा कर दिया और कर्तव्य का पालन नहीं करते हो तो ठीक नहीं। अर्थात् गृहस्थ का एक धर्म है, सन्यासी का एक धर्म है। अब यहां सब का एक ही धर्म नहीं है, सन्यासी का दूसरा धर्म है, गृहस्थ का अलग धर्म है, ब्रह्मचारी का अलग है। इसलिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास यह आश्रम है। किस आश्रम वाले को क्या करना चाहिए, ब्रह्मचारी को क्या करना है क्या नहीं करना है, गृहस्थ को क्या करना है क्या नहीं करना है, इसी तरह से सन्यास में भी। इसलिये कोई भी  आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए । जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए।

कोई भी  आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए। जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां तक दीक्षा में भी यही है। मुझे स्मरण हैं मेरे बड़े भाई को किसी ने कहा ‘दीक्षा ले लो मेरे गुरुदेव से, तो उन्होंने कहा’ अभी हम नहीं लेंगे अभी हमसे नियम का पालन नहीं होगा, इसलिए अभी हम नहीं लेंगे’। तो आप मंत्र को नहीं समझते। तो यह  सन्यास के ही लिए नहीं है मंत्र लेने के लिए भी है। जो गुरु की आज्ञा नहीं मान सकता, उनके बताए नियम का पालन नहीं करता उसे दीक्षा नहीं लेना चाहिए। तो उद्देश्य है…..विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्मकथा रविनंदिनी बरनी।। तो एक तो जमुना नदी है और दूसरी यहां गंगा है भक्ति की तरह। भगवान की कथा, उपासना, भक्ति यह गंगा है, कर्म जमुना है, और ब्रह्मज्ञान सरस्वती है ब्रह्म की चर्चा। तो…. अभी यहां पर इकट्ठे हुए हो तो वैसे भी यहां गंगा, जमुना, सरस्वती का संगम है और सत्संग में भी है। क्या करना ,क्या नहीं करना, यह सीख के पालन करो तो जमुना हो गई, भगवान की चर्चा भगवान का ध्यान-भजन ,जाप करते हो तो यह गंगा हो गई और ब्रह्म की कथा जब सुनोगे तो सरस्वती हो गई । तो दोनों तरह का इस समय यहां संगम है। कथा में भी प्रयागराज होता है और इस समय  दो प्रयागराज चल रहे हैं। वैसे भी प्रयागराज में हो और सत्संग का भी प्रयागराज है। यहां जिन्हें ब्रह्मज्ञान चाहिए वह भी मिलेगा, कर्मकांड आदि चाहिए तो वह भी मिलेगा और भगवान की उपासना भी।

उपासना के लिए भी एक सूत्र है ध्यान का। हम ध्यान कई तरह से कर सकते हैं, पिता का ध्यान, गुरु का ध्यान, प्रकाश का ध्यान, आकाश का ध्यान, भगवान राम का ध्यान, कृष्ण का ध्यान, यह साकार ध्यान है, यह हम सब कर सकते हैं। और…. सुषुप्ति का ध्यान, स्वप्न का ध्यान ‘स्वप्ननिद्रालंबनं वा’ स्वप्न और निद्रा का आलंबन करके ध्यान कर सकते हो। सहारा लेकर, आलंबन माने सहारा लेकर। तो नींद का सहारा ध्यान में लो। तो…. गहरी नींद का क्या सहारा है? नींद में आपको कौन सा दुख था? नींद में आपको कौन सी चिंता थी? नींद में गहरे में कौन सी कामना थी? अर्थात् गहरी नींद आपका अनुभव है और जिसका अनुभव है उसका ध्यान आसान है। ऐसा एक भी नहीं आया होगा शरीरधारी जिसको नींद का पता ना हो। ऐसा अनुभव तुम्हें जीवन में हुआ है जब तुम्हें दुख ना था, चिंता न थी, कामना न थी? और वह कब अनुभव हुआ? बोलो! गहरी नींद में यह अनुभव सबको प्राप्त हो गया है जहां तुम्हें कोई कामना नहीं है, जहां कोई भय नहीं था, जहां कोई चिंता नहीं थी, कुछ नहीं चाहते थे, यहां तक गलती का भय भी नहीं था। कोई गलती हो जाए तो डर लगता है पर गहरी नींद में डर नहीं था। (गहरी नींद) अनुभूत सत्य है जहां तुम्हें कोई भय नहीं था ।आप नहीं कह सकते कि हमें पता नहीं है। वहां कोई कामना नहीं थी । भगवान बड़ा कृपालु है, तुमको भेंट में गहरी नींद दे दी है। चाहो तो आप उसका सहारा ध्यान में ले सकते हो अर्थात् नींद के लक्षण ध्यान में ले आओ, पूरा स्मरण नींद का करो। आप क्या चाहते थे? क्या कमी थी ? क्या भय था ? तो……. ध्यान में बैठकर गहरी नींद की याद करो जहां तुम्हारे पास कोई दुख चिंता भय नहीं  । और इसको ( बुद्धि की अवस्थाएं) समझना हो तो मांडुक्योपनिषद जरूर पढ़ो। मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है।

मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है। मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है और मनुष्य मात्र की तीन अवस्थाएं होती है- जाग्रत, स्वप्न ,सुषुप्ति। तो एक तो गहरी नींद का स्मरण करना ध्यान है। स्मरण करो गहरी नींद में क्या था! धीरे-धीरे होश पूर्वक नींद में प्रवेश करो। बहुत पहले जब मैं ध्यान कराता था तो यह लाइन जरूर बोलता था –  ‘सब प्रपंच निज उदर मेलि  सोवे निद्रा तजि योगी।।’ 
इस लाइन को याद रखो, सब प्रपंच जैसे नींद में कोई प्रपंच नहीं था, सब प्रपंच निज उदर मेलि सोवे निद्रा तजी…. निद्रा तज कर सो गए, बिना नींद के सोए जैसा हो जाए, नींद के बिना सोवे, होश में सोए जैसा हो जाए और धीरे-धीरे चलते फिरते भी अंतः चेतना में सोए जैसा हो जाए। ना कोई कामना है ना कोई भय है! इसलिए भगवान ने गीता में कहा-  विहाय कामान् य: सर्वान् पूमान्श्चरति निस्पृह:।।
सभी कामनाएं छोड़कर विचरण करें । नींद में कोई कामना थी क्या? नहीं! तो जागृत में भी कामना रहित …..कुछ नहीं पाना !स्वर्ग नहीं पाना !थोड़ा समझ लिया हो तो अमर नहीं होना क्योंकि (अमर) हो ! सुख नहीं ढूंढना क्योंकि सुख स्वरूप हो ! सुख स्वरूप होकर सुख को भूल गए और भटक रहे हो सुख के लिए? रोटी के लिए भटकने वाला भिखारी नहीं है, वह आवश्यकता है ,पर जो सुख के लिए भटकते हैं वह सब भिखारी है। और कौन है ऐसा इस धरती पर जो सुख के लिए भागा नहीं फिरता! कम से कम सुख तो हमारा हो “निज का”!

क्या चेतन क्या चेतना

 एक चेतना है, एक चेतन है। यह आखिरी सूत्र है – चेतना और चेतन चेतना में परिवर्तन है। और भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, लोग तो पढ़ते- पढा़ते हैं पर गीता का मुख्य विषय क्या है? इच्छा द्वेष: सुखं-दुखं संघात्श्चेतना धृति।। यह चेतना भी प्रकृति का विकार है। शुद्ध चेतन नहीं चेतना! चेतना प्रकृति से मिली हुई चैतन्यता है इसलिए उसमें जगना है, सोना है, होश है, बेहोश है, कॉन्शसनेस है, सब कॉन्शसनेस है, अनकॉन्शसनेस है। पर चेतन कभी अनकॉन्शियस नहीं होता और साक्षी को, चेतन को चेतन रखने के लिए कोई प्रयत्न नहीं है, प्रयत्न चेतना को ही बनाए रखने का है।और चेतना बनाए रखने का एक अभ्यास करना चाहिए। समाधि क्या है? चेतना को देर तक बनाए रखना। और कुछ बनाए रखना नहीं! ख्याल बनाए रखना नहीं, देह ख्याल में बनाए रखना नहीं, चेतनता बनाए रखना! श्वास चलाए रखना नहीं, चेतनता बनाए रखना, श्वास रहे ना रहे, चले ना चले! स्मरण में कुछ बनाए रखना नहीं, स्मरण में कुछ रहे ना रहे पर आप चेतना बनाए रखना! अभी क्या करते हो? चेतना में कोई चीज रखते हो, चाहे मंत्र ही रखते हो पर जब मंत्र चला जाता है तो कहो आप बेखबर हो गए थे, मंत्र भूल गए थे। तो…. मंत्र को तो भूल जाओ मंत्र को याद रखना ही नहीं। हां मंत्र को रखने की इसलिए जरूरत है कि आप समझ सको कि मंत्र गया या चेतना गई? मंत्र से चेतना चली गई, चेतना से मंत्र चला गया या चेतना ही चली गई? यह फर्क समझो! चेतना से स्मृति चली गई, चेतना नहीं! क्योंकि मंत्र आप को दिया गया है इसलिए इस बात से आप परेशान हो जाते हो कि मंत्र भूल जाते हैं, मन और कहीं चला जाता है! तो यदि मंत्र चेतना से चला गया और चेतना में कुछ और आ गया तो चेतना है कि चली गई? तो आप चेतना नहीं रखना चाहते आप का मंत्र रखना आप चेतनता समझते हो। गुरु ने मंत्र देकर फंसा दिया। इसीलिए विपश्यना वाले मंत्र भी नहीं जपने देते क्योंकि एक झंझट तुम्हें दे दी, एक बीमारी दे दी कि हमारा मंत्र चला जाता है! यदि मंत्र चला गया, आपके ध्यान में घर आ गया तो चेतना चली गई क्या? तो  चूकिं आप चेतना नहीं रखना चाहते, मंत्र रखना चाहते हो इसलिए दुखी हो गए कि मेरे ध्यान से मंत्र चला गया, मेरे ध्यान में घर आ गया। हम ना तो घर रखने को कहते हैं ना तो मंत्र रखने को कहते हैं और ना भगवान रखने को कहते हैं। हम कहते हैं आप चेतना को रखो! मंत्र रहे तो रहे, जाए तो जाए; घर आए तो आए, घर जाए तो जाए; ना हमें घर रखना है, ना मंत्र रखना है, ना कोई और रखना। हमें चेतना रखनी है! पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं!!

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

मोह ये है के आप दृष्टा हो और अपने को दृष्टा नही मानते, देह मानते हो।  जिंदा हो, और मरा मानते हो सपने में! अभी जागृत की नहीं कहते। सपने में जिंदा होते हुए गर्दन काट दी किसी ने तो आप मर गए। तो दुखी कौन है? जिस ने मार दिया वह तो खुश है, तुम दुखी हो! और दुखी क्यों हो? तुम असल में देह मानते हो और गर्दन कट गई इसलिए तुम स्वीकार कर लेते हो, स्वप्न में! जागृत की तो अभी मैं छोड़ देता हूं। चूंकि  तुम देह अपने को मानते हो इसलिए स्वप्न में  गर्दन काट दी।  तुम चेतन उस समय भी हो! सपने में तो हो ना? जागृत की मौत की छोड़ दो। स्वप्न की मृत्यु में तुम चेतन हो। पर क्योंकि तुम देह को मैं मानते हो इसको बोलते हैं देहाध्यास। दर्द होने लगे इसका नाम देहाध्यास नहीं है। ‘देह हूं’ यह विचार देहाध्यास है और ‘देह हूं’ इस विचार के कारण जो मौत हुई है उस देहाध्यास के कारण तुम सोचने  लग गए कि मैं मर गया हूं। अंधेर है!! मैं सोचने लग गया कि मैं मर गया हूं! दुखी भी होने लगा और जिंदा भी हूं !! तो जागृत में भी क्या होगा? जब प्राणांत होने लगेगा तो तुम्हारे अंदर विचार आएगा कि मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ ! अब कोई क्रिया होगी, प्राण निकलने लगेगा, कुछ होगा तो आपको लगेगा कि मैं मर रहा हूं। जबकि आप जान रहे हो! इसलिए कई ने ध्यान का अभ्यास भी बताया है। जब प्राणांत हो, नाड़ी छूटने लगे तो उसके भी दृष्टा रहो! हो तो दृष्टा ही, पर मानते नहीं हो! ‘मर रहा हूं’ का विचार पकड़ लेता है, मर रहा हूं का ख्याल पकड़ता है। मैं मृत्यु हो रही है उसको देख रहा हूं, प्राण सिकुड़ रहा है मै देख रहा हूं, प्राणों के उत्क्रमण को मैं देख रहा हूं, प्राण निकल गया!
तो…. प्राणों को लिए हुए मैं जिंदा ही तो हूं!! देहांतर जाकर प्राप्त होगा पर तुम सोच ना पाओगे कि मैं निकल रहा हूं! देर छूट गया पर मैं बच गया! नहीं सोच पाओगे, घबरा जाओगे! मरने के नाम से ही चिंता हो जाती है। इसलिए पहला अभ्यास दृष्टा होने का है। बैठे में भी द्रष्टा रहो, लेटे में भी दृष्टा रहो और नींद के पहले भी देह के दृष्टा रहते सो जाओ। यह एक अभ्यास है।
दूसरा अभ्यास इससे  ज्यादा जोरदार है। अब नींद आ रही है उसके भी साक्षी रहो। आलस्य आ रहा है उसके भी साक्षी रहो। कभी-कभी ड्राइवर जो गाड़ी चलाते हैं उनकी एकाग्रता बहुत होती है। कभी-कभी वह सो भी लेते हैं एक-दो सेकंड को। अच्छा खुला रास्ता मिल जाता है और आलस्य बहुत है तो एक दो  सेकंड को भी सो लेते हैं। माने वह अपने आलस्य को जानता है, आंखें बंद करता है सावधानी से और फिर सावधान हो जाता है। तो जहां बुद्धि सो जाती है तो ‘नींद आ गई और नींद चली गई’ यह जरूर जानना चाहिए। नींद के आ जाने का और नींद के चले जाने का! अब यह दो बातें हैं- एक है चिदाभास और एक है चेतन। चेतन का आभास और चेतन! चिदाभास जाता है तो उसको चेतना भी कह सकते हैं। चेतना जगती है, चेतना सोती है। चेतना को हिंदी में भी और अंग्रेजी में भी कॉन्शसनेस, सबकॉन्शसनेस, अनकॉन्शसनेस कहते हैं। तो ‘अनकॉन्शसनेस होती है’ का प्रमाण क्या है? नींद होती है, इतनी देर होश नहीं रहा, इसमें सबूत कौन हैं? क्या बेहोशी का सबूत बेहोशी हो सकती है? उस बेहोशी का सबूत भी चेतन ही है!

मोह क्या है?

देह दृश्य है तुम दृष्टा हो! कितने ही नजदीक हो, तो भी दृष्टा हो, देह दृश्य है! देह दृष्टा नहीं है, दृष्टा देह नही है! यह अभ्यास आज से शुरू करो! आज क्यों कहते हैं? क्योंकि आज देवोत्थान एकादशी है। एकादशी बहुत होती है पर आज देवता के उठने की जागने की तिथि है। तो देवता दृष्टा है, इस देवता को जगाओ। और जागना क्या है? यह तो रोज जागा है, नहीं तो दृश्य कहां से दिखता? जागता रोज रहा है। बिना दृष्टा के देह दिखेगा ही नहीं। दिख जाएगा? तो… बिना दृष्टा के देह नहीं दिखा फिर भी जागा नहीं कहलाते इसलिए आज जगाते हैं। आज दृष्टा दृष्टा होकर जागे! दृष्टा देह मान के न जागे। दृष्टा अपने को देह मान के जागे नहीं। वह तो सपना देख रहा है और सपना देखने का मतलब होता है कि सोया है। यद्यपि कोई भी जागे बिना सपना नहीं देखता पर जो सपने को सच देखने लग जाए उसे सोया कहते हैं। तो यह दृष्टा सोया हुआ है। आज जगाना है! फिर कहूँ, जागा तो था पर दृष्टा अपने को देह जानता था अर्थात देह को मैं जानता था, यही स्वप्न है। स्वप्न  होता ही तब है जब सत्य को भूल जाए। तो तुम देह कब अपने को मानते हो? जब सोए हो। मोह निशा सब सोवनिहारा, देखहि स्वप्न अनेक प्रकारा!
यह दृष्टा सोया हुआ है। दृष्टा तो है पर सोया हुआ है। तो पहचान क्या है सोए की? कि देह को मैं मानता है। जो है नहीं वह मानता है। जो है नहीं वैसा मान लेवें  उसी का नाम सपना है और सपना बिना सोए होता नहीं है। और एक बात मैं दोहराता  रहता हूं कि स्वप्न में मृत्यु हो गई और मृत्यु का दुख जो मरता है उसे होता है कि नहीं? जो सपने सिर काटे कोई स्वप्न में किसी ने सिर काट लिया तो दुखी कौन होगा? जिसका सिर काट लिया। और जिस का सिर काट लिया वह दुखी है! तो दुखी है तो जिंदा है कि नहीं? बिना जिंदा हुए दुखी हो सकता है ? लोग दुखी हो, खुद दुखी ना हो तब तो हम मान ले कि मर गया। दुखी भी है, मर भी गया है और पता भी उसी को है तो इसे सपना नहीं कहे? और इसे बेहोशी नहीं कहे? इसको मोह नहीं कहे? कई लोग मोह का अर्थ ही बदल लेते हैं। आप लोग भी मोह का अर्थ करते हैं कि हमें परिवार से मोह है पर मोह यह है ही नहीं। मोह यह है कि आप दृष्टा होकर अपने को दृष्टा नहीं मानते देह मानते हो यही मोह है।