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ब्रह्म विद्या

जिसका बोध सच्चा है, उसका खून शीतल होता है। खून बदल जाता है,रोम -रोम बदल जाता है। देखिए,आपकी नाड़ियां क्या कहती हैं? नाड़ी हूं कि ब्रह्म हूं? आपका मन क्या कहता है? ब्रह्म हूं कि मन हूं? केवल “हूं” कहता है- ब्रह्म भी न कहो। केवल साक्षी हूं। कहता है कि शरीर हूं।कहता है कि यह देखो कि अन्दर तुम्हारी सतत् जागृति किस भाव में है? अभी पता चलेगा कि अविद्या क्या, अभी तो शरीर का अभिनिवेष भी नहीं गया। जाति का, कुटुंब का और मजहबों का अभिनिवेष अभी चित्त में है। यह अभिनिवेष अभी नहीं गया। यदि अभिनिवेष नहीं है, तो हम खाली आदमी रहेंगे। यदि खाली आदमी हों, तो फिर जल्दी मरेंगे और जल्दी मरेंगे, तो ब्रह्म हो जायेंगे। यह ब्रह्म होना ही असल में मरना है।
परम शांति किसे प्राप्त होती है ?
जो मर जाता है उसी को हम सन्यासी कहते हैं और वह जो मरना नहीं चाहता, वही अज्ञानी है जो मरने को तैयार है, वह साधक है; जो मर गया है, वह सिद्ध (सन्यासी) है। जो मर गया, वही ब्रह्म और जो मर गया है, वहीं अमर हो गया है। इसीलिए, सन्यासी फिर कभी नहीं मरता; क्योंकि, जिसे मरना था, वह पहले ही मर गया है। और जो नहीं मरता है, वही बचा है; वह कभी नहीं मर सकता। किसी का मारा भी नहीं मरता; क्योंकि, वह दुश्मन की भी आत्मा है। दुश्मन की भी “मैं” है ।यदि मारने को खड़ा होगा, तो दूसरी “मैं” को मारेगा; लेकिन, अपने आप की “मैं” को कैसे मारेगा? इस प्रकार जो वेदांत का श्रवण, मनन और निदिद्यासन करता है, वह परम शांति को प्राप्त होता है।

ब्रह्म होना ही असल में मरना है

बुलबुले अलग-अलग हैं और पानी हैं। हैं तो दोनों बातें बड़ी स्पष्ट; लेकिन, जिनको वे स्पष्ट हैं, उन्हीं को स्पष्ट हैं। ये बातें तो समझ में आ जाती हैं कि बुलबुले पानी हैं। सर्वत्र हम ही हैं, यह बात युक्ति से, दृस्टान्त से तो समझ में आ जाती है; लेकिन, हम ही सर्वत्र हैं, यह समझ में नहीं आता। सर्वत्र आत्मानुभूति नहीं होती कि सबका सब “मैं” हूं। ऐसा दिख जाए , तो फिर द्वैष कहां, ईर्ष्या कहां और दुर्व्यवहार कहां? ऐसा दिखते ही दिल में शांति आवेगी। बुद्धि के धर्म शांत हो जाएंगे। जब आत्मबोध जागता है, तो प्रज्ञा ही ब्रह्म रूप हो जाती हैं। जब मन की ब्रह्म हो जाएगा, तब मति के धर्म, राग – द्वेष कहां रहेंगे? जब ब्राह्मीभूत हो जाएगा, तो मन में क्रोध कैसे रहेगा? जब ओला पिघल गया, तो उसकी कठोरता का दोष कैसे रहेगा? मन रहे, तो मन का धर्म भी रहे। ब्रह्मबोधाग्नि में मन पिघल जाएगा —-
“मन्सूर चढ़ा जब सूली पर,
तब रूह कफस से जाती थी।
मैं बंदा नहीं अनलहक हूं ,
आवाज खून से आती थी।।”
ऐसी कहावत है। यह कहावत कहां तक सच है, पता नहीं। लेकिन, भाव यह है कि यदि हमारा रोम भी छेद कर देखा जाए, यदि हमारा खून भी देखा जाए, तो वहां सिवाय “हूं” के और कुछ न मिले। वह स्त्री नहीं , पुरुष नहीं; गरीबी नहीं, अमीरी नहीं। हमारे खून में गरीबी का अनुभव न हो। हमारा खून भी ब्रह्म हो, हमारा मन भी ब्रह्म हो। हमारी इन्द्रियां भी ब्रह्म हों। एकदम शांत हों। ब्रह्म और कुछ नहीं। जिसकी इतनी निश्चित दशा होती है, क्या वह कभी मर सकता है? वे तो शांत रहकर बलिदान हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि जरा – सी द्वेष भावना हुई कि खून गरम हो गया।

वेदान्त किसे कहते हैं?


जो दर्शन इसकी एकता कर दे; इस भेद को नष्ट कर दे; हमारी चेतना में जो जमा हुआ भेद है, वह समाप्त कर दे; उस दर्शन को हम वेदांत कहते हैं। पर,जो भेद को स्थापित करें; भले ही वह शांति दे दे; भले ही वह शरीर के पार ले जावे; राग और द्वेष क्षीण करें; किंतु, अस्मिता का अंत नहीं होगा। वह परिच्छिन्न अस्मिता को खड़ी रखता है; परंतु, वेदांत अस्मिता पर कुठाराघात करता है। वेदांत अस्मिता को मारता है। सारे दर्शन अभिनिवेश को हटाते हैं; लेकिन, परिच्छिन्नता वह भेद को नष्ट नहीं करते। अस्मिता को खड़ी रखते हैं।
ध्यान से “हूं” तो बच जाएगा; लेकिन, अभिनिवेश अलग हो जाएंगे। जाति का अभिनिवेश हटेगा; ऊंच-नीच का अभिनिवेष हटेगा; अमीरी – गरीबी का हटेगा; चित्त शांत हो जाएगा; अंह को शांति मिलेगी; समाधि प्राप्त हो जाएगी। परंतु, यह “हूं” सब के साथ अभिन्नता का अनुभव नहीं करेगा। यह “हूं” जब बचे , तब “अहंब्रह्मास्मि ” आदि वाक्य काम करेंगे। जब साधक शरीर से मुक्त होकर शांत हो जाता है; तब वेदांत कहता है, “वह तू है”। इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है —–
“नाशान्त मनसो ह्याशुबुद्धि: पर्यवतिष्ठति”
जिसका चित्त शांत नहीं है, वेदांत में उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती। मैं सर्वत्र हूं, यह बात समझ में नहीं आती। जो शरीर से पृथक् नहीं हो पाया, वह “मैं ब्रह्म हूं”, यह वेदान्त की बात कैसे समझेगा? इस ब्रह्मभाव और वेदांत तक पहुंचने के लिए योग और सांख्य, ये दो साधन हैं। योग और सांख्य द्वारा पहले शरीर से पार जाओ। वेदांत कहता है कि यह जो चेतना है, सर्वत्र रहने वाली है। यह जो सत्ता है, यह ब्रह्म है। वेदांत, योग और सांख्य के पीछे आता है।
बोधसार नामक पुस्तक में एक प्रसंग आता है कि सांख्य और योग, इन दो हाथों के द्वारा वेदांत को उपलब्ध करो। यम, नियम और आसन आदि पांच – पांच अंगुलियों वाले दो – दो हाथ हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे पांच – पांच उंगलियों के दो-दो हाथ हैं। सांख्य और योग के , पांच – पांच अंगुलियों वाले दो हाथों से, हम जिसको हस्तगत करना चाहते हैं , वह वेदांत है। इसलिए, सांख्य और योग के द्वारा अद्वैत वेदांत का रहस्य ज्ञात होता है। अद्वैत माने, जहां कोई और नहीं है। तात्पर्य यह कि सब शरीर रहेंगे, सारे मकान रहेंगे, सारे ढेले रहेंगे; लेकिन, मिट्टी एक हो जाएगी।

🙏🚩ॐ श्री गुरुवे नमः 🚩🙏
( गुरुवाणी ) ग्रंथ – दो दिशाओं की यात्रा एक साथ भाग -13

ब्रह्म बोध


ब्रह्म बोध किसे कहते हैं ?


अस्मिता जब सारे विश्व के साथ हो जाती है, तो उसी को ब्रह्मबोध कहते हैं। इसीलिए, “विश्वरूप रघुवंश मणि” कहा है। भगवान् विश्वरूप हैं। जो आदमी अस्मिता को पार कर जाता है, उसकी अस्मिता विश्वरूप हो जाती है। उसका “मैं” “”सर्व”” हो जाता है और वह “”सर्व”” हो जाता है। अपने को सब में देखता है, सब को अपने में देखता है। यह गीता में लिखा है। लेकिन, हमें दिखता है क्या? बात सच्ची है; गीता में लिखी है और भगवान् की वाणी है। गलत नहीं है। लेकिन, हमें अभी समझ में नहीं आती।
ज्ञानी अध्यापक ने सवाल लगाया और उत्तर सही निकाल दिया; लेकिन, जब हम सवाल लगाने बैठे, तो उत्तर नहीं आया। हमें तो नहीं आया ‌ हमें तो सब अपना नहीं दिखता। हम नहीं कहते कि गीता गलत है। लेकिन, हमारे लिए गीता का तब तक कोई अस्तित्व नहीं है, जब तक हमें सब अपने नहीं दिखते। हम अपने को सर्वत्र नहीं देख पाते। यदि हमारी अस्मिता, अपनी अस्मिता को “है” में अभिन्न करे; यदि, बुलबुला अपने को पानी हो जाने दे; पानी “हूं” जानकर फिर सब बुलबुलों को देखे; तो किस बुलबुले को कहेगा कि “मैं” नहीं हूं?
यदि एक बार मेरी अस्मिता गल जाए, ब्रह्म हो जाए और ब्रह्म होने के बाद फिर अस्मिता खड़ी हो, तब वह कहेगी कि सर्व एक है। बुलबुले हैं तो अलग-अलग (सब में भिन्नता है ); लेकिन , वे पानी के माध्यम से एक हो गए हैं। देखना यह है कि पानी की दृष्टि में वे क्या हैं ? पानी है और पानी के स्मृति के माध्यम से वे देखते हैं। बुलबुला सीधे ही यह नहीं कहता है कि “यह” सब “मैं” हूं; क्योंकि, यह कहना ही “मैं” को “यह” से अलग करता है। बुलबुले का “यह” कहना ही अलग होना है। तुम “मैं” हूं, यह कहना नहीं जंचता। औरत भी “मैं” हूं; शराब भी “मैं” हूं और जानवर भी “मैं” हूं; यह नहीं जंचता। बुलबुला (ज्ञानी ) सीधा यह वाक्य नहीं कहता कि “मैं” तुम हूं। “मैं” लहर भी हूं और “मैं” फेन भी हूं , ऐसा नहीं कहता।

द्वेत जानना ही होगा


तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:


उसे कहां शोक, कहां मोह, कहां चिंता और कहां भय। ये हमारे वेद वाक्य हैं, उपनिषद् वाक्य हैं। बड़े भाग्यशाली हो, जो सुनने को मिलता है। सुनते – सुनते निष्ठा बनती है और धीरे-धीरे कमियां दूर होती हैं। कोई चाहे जैसा हो, सब में अभी कमियां हैं। सिद्ध कोई नहीं है, प्रयास करो, प्रमाद मत करो। और किसी को देखने से, अपने में कोई फर्क नहीं पड़ जाता है। इसीलिए, जो जहां तक है, ठीक है। हो सके, तो अपनी गहराई को देखते जाओ, घबराओ बिल्कुल नहीं।
अब हम अपने अंदर अभिनिवेश नहीं पाते हैं। अस्मिता नहीं, अभिनिवेश। अस्मिता के तो छोड़ने का अभ्यास करते हैं; अभिनिवेश से तो निवृत्त हैं। अभिनिवेश से मुक्त हैं; पर, अस्मिता से अभी मुक्त नहीं है। अस्मिता से मुक्त न होने के कारण “मैं” जब तक मजबूत रहता है, तब तक द्वैष और भेद भी कभी-कभी उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि, मैं अलग हूं, तो मेरा सम्मान अलग, मेरी भूख अलग, मेरा जीवन और उन्नति अलग। जब तक मैं अलग हूं, तब तक मेरा सब कुछ अलग रहेगा। इसीलिए, अभी तो हम अस्मिता का अभ्यास करते हैं। हम किसी और को कैसे कह दें। ध्यान, अभ्यास और साक्षी भाव से आदमी अस्मिता पर जाता है, शरीर से पृथकता का बोध होता है।
मैं अपनी बात बताऊं। मुझे शरीर से पृथकता का तो बोध है; लेकिन, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति अभी गहरी नहीं है। यदि, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति गहरी हो जाएगी, तो तुम्हारे प्रति कभी विकार और क्रोध नहीं हो सकता। कहा है कि —–

“क्रोध की द्वैतक बुद्धि बिनु ,,
द्वैत कि बिनु अज्ञान।
माया बस परिच्छिन्न जड़,
जीव कि ईश समान।।”

ये सत्य बात है कि जिस दिन हमारे जीवन से द्वैत भाव चला जाएगा, उस दिन क्रोध भी चला जाएगा; क्योंकि , अपने – आपसे क्या कभी द्वैष होता है? अपने मित्र से और पत्नी से द्वेष हो सकता है। अपने पिता से भी लड़ाई हो सकती है; लेकिन,अपना नुकसान करने की वृत्ति कभी होती है क्या? क्या कोई अपने आप का अहित अपने आप का नुकसान करेगा? क्या कोई अपने आप को दुखी करेगा? दूसरे को दुखी देखकर खुशी होती है। दूसरा यदि आपत्ति में फंसा हो, तो परवाह नहीं होती; लेकिन, स्वयं आपत्ति में फंसे हो क्योकि द्वैत समझते हो सब ये जग तुम और तुम ये जग नही हो जाते तब तक शांति मिल नही सकती इसलिए सद्गुरु का सिखाया द्वेत समझ न आ जाये…

सब नाशी

कुछ अनुभूतियाँ हैं जैसे, अनुकूलता और प्रतिकूलता। जो प्रतिकूल है वह दुःख है और जो अनुकूल है वह सुख है। यह तो सभी लोग जानते ही हैं लेकिन अनुकूल क्यों है, प्रतिकूल क्यों है, उसके पीछे हेतु क्या है? इसी तरह जो पसंद है यदि वह मिल जाए तो क्या अनुभव होगा? (सुख) । और जो पसंद नहीं है यदि वह मिल जाए तो आपको क्या मिलता है? दुःख। अच्छा, पसंद क्यों करते हैं, अपसंद क्यों करते हैं, इसके पीछे जड़ में क्या है?
आज मैं कोई नई बात नहीं कह रहा। सब पहले बोली हुई हैं, पर आज हम उसे नए ढंग से रख रहे हैं, इसलिए नयी लगेगी।

आप अपसंद क्यों करते हैं? जैसे हम सब लोग उचित मात्रा में नमकीन, खट्टा -मीठा पसंद करते हैं। यदि उससे बहुत ज्यादा या कम हो जाए तो हमें अच्छा क्यों नहीं लगता? यह कम – ज्यादा क्यों अच्छा नहीं लगता? तुम्हारी गलती है क्या? मान लो, आपको ज्यादा नमक पसंद है पर बहुत ज्यादा डाल दें तो क्यों पसंद नहीं करते? इस “क्यों” को हम कैसे जानें? माने, हमारी इंद्रियाँ ऐसी ही बनी हैं। आँखों को रोशनी पसंद है पर तेज रोशनी आंखों को पसंद नहीं आती। जब हम लोग पूज्य गुरुदेव के साथ रहते थे तो एक गुरु भाई साधुओं को परेशान करने के लिए यही तरीका अपनाते थे कि जब कोई सोने को जा रहा हो तो उसकी आंख में लाइट कर दी । तो वो चिल्लाता था की यह मेरी तरफ क्यों कर दी? सोने जा रहे हो और कोई ज्यादा लाइट कर दे तो परेशानी तो होगी। ऐसे ही तुम पढ़ रहे हो और मैं एकदम लाइट बंद कर दूँ तो तुम्हें कैसा लगेगा?

अब यह चाहे कोई जान कर करें या बेवकूफी से करें। जानकर करे तो ज्यादा अपराधी है और यदि अज्ञानता से हो जाए तो कम अपराधी है। लेकिन, जो ड्यूटी ली है उसमें जानकारी क्यों न करे? यदि आप कार चला रहो हो और नियम ना जानो और कहीं भिड़ गये, एक्सीडेंट हो गया। फिर कह दो कि हम तो जानते नहीं थे। तो हम कहेंगे कि तू बुद्धू है। कार क्यों चला रहा है? ऐसे ही शादी के बाद कोई कहे कि मैं जानता नहीं था तो शादी क्यों की। अरे भाई! जिस रास्ते पर चलना है उस रास्ते की जानकारी करो।

कोई भी आवश्यकता सतत चौबीसों घंटे समान नहीं रहती । इसलिए आवश्यकता बदलते ही वस्तु का मूल्य बदल जाता है। पर जीने की इच्छा, आनंद की इच्छा कभी नहीं बदलती। भोजन करना, न करना बदल जाता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है कि जो भोजन करना बंद न करता हो । एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो लगातार भोजन कर सके। यदि कर सके तो आज हमारे यहाँ उसका निमंत्रण है, पर शर्त यह है कि भोजन शुरू करके बंद नहीं करने देंगे और साथ में ₹100000 इनाम की भी देंगे । इसलिए जिसकी इच्छा हो वह शर्त लगा सकता है। तुम किसी भूखे को ले आना। जिस बेचारे को पेट भर ना मिला हो, उसे हम खिलाएंगे, बशर्ते बंद ना करे। किसी कामी को ले आना….., किसी लोभी को ले आना। उसे रुपए गिनने को बिठएंगे, सोने नहीं देंगे।

कहने का आशय है कि खाना शुरू करोगे तो किस लिए? आनंद के लिए। और जब बंद करोगे तो क्या दुःख चाहोगे? सुख के लिए खाते रहे और सुख लिए ही बंद कर दिया। हम सब काम सुख के लिए करते हैं। जिस में सुख मिलता है उसे करने लगते हैं और जिसमें सुख नहीं मिलता उसे छोड़ देते हैं। यहां तक कि जीने में जब आनंद नहीं मिलता तो भगवान को, गुरु को मनाने लगते हैं कि हे प्रभु हमें मरने का आशीर्वाद दे दो।

गीता अमृत है।

आप भी उस सत्य को खोजो और चैन पाओ। कोई भी तुम्हें बचाएगा तो ज्ञान देकर ही बचाएगा। मरना, मरना मानते रहोगे तो तुम्हें कौन बचाएगा? क्या हम बचा लेंगे? हम भी बचाएंगे तो ज्ञान देकर ही बचाएंगे। कृष्ण भगवान भी बचाएंगे तो गीता सुनाकर ही बचाएंगे। नहीं तो अर्जुन को गीता सुनाने की क्या जरूरत थी? ऐसे ही अर्जुन के सिर पर हाथ रख देते। सिर पर हाथ रखकर युद्ध जिता सकते हैं, सिर पर हाथ रख कर थोड़ी देर को तकलीफ दूर कर सकते हैं। लेकिन अज्ञान को सिर्फ हाथ रखकर कैसे हटाओगे? वह तो गीता से ही दूर करना होगा। इसलिए गीता अमृत है।

इसलिए तुम भी किसी अच्छे संत से गीता सुनो। और यह भी है कि जो कथा नहीं सुनाते वे बुरे नहीं हैं,अच्छे हैं, उनका दर्शन करो, आनंद लो। लेकिन यह भी है कि किसी और के दर्शन का आनंद लेने की तुलना में गुरु के पास बैठकर आनंद लेते हो तो यह बहुत अच्छी बात है। तुम जरूर अच्छे ह्रदय के हो वरना संत के पास आनंद कहाँ है? आपने देखा होगा कि कभी-कभी मंदिर के दरवाजे बंद होते हैं और लोग मंदिर के बाहर बैठे रहते हैं। बाहर बैठकर दर्शन करो, आनंद लो। गुरु भी एक मंदिर ही है, दर्शन करो, मौन रहो और आनंद लो। मंदिर के भीतर भी सबको थोड़े जाने दिया जाता है। तो क्या मंदिर जाना बंद कर दोगे? बाहर से दर्शन कर लो। पर झगड़ा तो इस बात का है कि उनको अंदर क्यों जाने दिया? हमें क्यों रोक दिया? क्या यह मंदिर पंडित की बपौती है? अभिप्राय यह है कि आपके अंदर पहले दर्शन की प्रसन्नता होनी चाहिए, बाहर- भीतर से कोई अन्तर नहीं पड़ता।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन करई कपट गान।।
“कपट तज गान” कोई चालाकी नहीं। सचमुच उनकी महिमा अच्छी लगे। उनके गुणगान गाने पर ह्रदय प्रसन्नचित हो। लोग तो अपने गुणगान ज्यादा गाते हैं, गुरु के, भगवान के कम गाते हैं। जबकि गुरु की, भगवान की महिमा गा कर आपको अच्छा लगना चाहिए। यह चौथी भक्ति है।

जब तक सत्य ना पा लो चैन ना लेना!

जब तक स्पष्ट ना हो तब तक नींद हराम हो जानी चाहिए। मुझे अभी एक बात याद आ गई, पहले भी कह चुका हूँ, फिर भी कह देता हूँ कि एक साधु मेरी तरह पतला था और एक स्वामी सत्यानंद की तरह मोटा था। वैसे तो मैं भूमानंद जी का नाम लेता लेकिन बहुत लोग उनको जानते नहीं होंगे क्योंकि अब उनका शरीर नहीं रहा। तो पतला वाला साधु बोला – “झीने दास नैन न आवे निंदिया देही जमे न मांस।” यह सुनकर मोटा वाला बोलता है –

“जब तक हरि चीन्हना नहीं हमऊ बहुत झुरान ।
हरि चीन्हना धोखा मिटा हमऊ बहुत मुटान।।”

पहले हम भी बहुत दुबले पतले थे लेकिन जब से हरि को जाना तब से बहुत मोटे हो गए हैं। तो जब तक ब्रह्म ज्ञान न हो, बेचैनी रहनी ही चाहिए। और जब ब्रह्म ज्ञान हो जाए तो फिर क्या चिंता करनी? फिर तो निश्चिंतता आती है। फिर तो भजन भी नहीं , कुछ पाना ही नहीं, कुछ अधूरापन ही नहीं, फिर क्या करोगे ? क्या कुआँ खुद जाने के बाद फिर उसी को खोदोगे ? भगवान को पा लेने के बाद फिर भगवान को पाओगे क्या ? पा लेने के बाद फिर पाने का क्या करोगे? इसलिए परमात्मा के बोध के बाद सभी कर्तव्य पूरे हो जाते हैं। फिर चैन की जिंदगी रहती है। यदि कोई सामने आ गया तो उसे भी बता दिया। उसमें कोई धंधा नहीं, कोई ठगी नहीं है। जिन्हें चैन मिली है वो बता देते हैं।

जानने मानने लायक़

गुरुदेव कहते हैं… भारत के ग्रंथ कोई उपन्यास तो हैं नहीं कि एक बच्चा भी पढ़ ले। यदि मैं किसी मजहब का नाम लूँगा तो लोग चिढ़ेंगे और मेरे ऊपर सांप्रदायिकता फैलाने का केस दर्ज करा देंगे। इसलिए मैं किसी मजहब का नाम नहीं लेता लेकिन विश्व में यदि कोई चिंतनीय विषय है तो वह उपनिषदों ने रखा है। विश्व में यह विद्या किसी के पास नहीं है और चालाक देश जैसे योग को पेटेंट करा रहे हैं, कुछ दिन बाद उपनिषदों को भी कराएंगे और बुद्धू हिंदू सब कुछ होते हुए सिर्फ देखता रहेगा। वे लोग थोड़ा बहुत अपने यहाँ का भी कुछ डाल देंगे और कहेंगे कि हमारे यहां भी है।

भारत को आध्यात्मिक भूमि कहा गया है अध्यात्म की प्रेरणा भारत में मिली है, भारतीयों में मिली है। लेकिन दुर्भाग्य है कि तुम्हारा योग विदेशों में प्रचलित है। तुम्हारे उपनिषद् विदेशों में हैं, उनकी भाषा में ट्रांसलेशन है। तुम्हारे यहां ट्रांसलेशन करने वाले खो गए हैं। कथाकार सिर्फ थोड़े से शब्दों की कथा करके गुजारा कर रहे हैं और अपनी जीविकोपार्जन का साधन बना लिया है।

उपनिषद् जीविकोपार्जन के ग्रंथ नहीं हैं। ये जीवन देने वाले ग्रंथ हैं। ऐसे ही संन्यास सुविधा पाने का, पैर छुआने का, फ्री फंड में रोटी खाने का मार्ग नहीं है। लेकिन अब क्या होता जा रहा है ? अब तो ऐसा लगता है कि संन्यास लेते ही इसी के लिए हैं। क्या यही है संन्यास का फल?

एहि तन कर बिषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।। हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है, ऐसे ही संन्यास का फल सुविधा लेने के लिए नहीं है। संन्यास का फल दुकान चलाना भी नहीं है, संन्यास का फल ब्रह्म होना है और ब्रह्म होने के लिए धैर्य चाहिए।

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्। संन्यास लेकर यदि ब्रह्म प्राप्त नहीं हुआ तो संन्यास लेने का एक अपराध किया है। इसलिए एक दोहा प्रचलित है, किस का बनाया हुआ है यह मैं नहीं जानता ।
ब्रह्मज्ञान पाया नहीं कर्मदीन छिटकाय। तुलसी ऐसी आत्मा घोर नरक में जाय।।
जो मेहनत की कमाई खाते थे, वे हराम की खाने लगे । ब्रह्म ज्ञान पाया नहीं कर्मदीन छिटकाय। जिम्मेदारी भी छोड़ दी। यदि आत्मनिष्ठा नहीं होगी तो जिंदगी में भटकाव आएगा। इसलिए उपनिषद् को बार-बार सुनो। कब तक तुम्हारे पर असर नहीं पड़ेगा? सिर्फ इरादा आपका हो, मुमुक्षुत्व तुम में हो, समझने की इच्छा, जिज्ञासा तुम में हो । सुनो, अपने आप समझ में आ जायेगा। कुत्ते-बिल्ली संकट से बचने का रास्ता ढूंढते रहते हैं धूप से गर्मी से ठंड से बचने का उपाय ढूंढते हैं। यदि आपको मोक्ष की इच्छा होगी तो तुम चैन से बैठोगे ही नहीं। ये तुम्हें जिज्ञासा मुमुक्षा चैन से बैठने नहीं देगी।

हमें कौन कहता है कि सुबह जल्दी उठ जाओ और ब्रह्म के पीछे पड़ जाओ? हमें तो कोई कहने वाला भी नहीं है फिर भी सुबह जल्दी उठ जाते हैं और ब्रह्म चिंतन में लग जाते हैं। जिज्ञासु चिंता करता है, चिंतन करता है, उसे नींद नहीं आती। ये प्रेम चंद मिश्र जब विद्यार्थी थे तब हम संन्यासी बन गए थे। हम यह तो नहीं जानते के उस समय इनमेंं कितनी लग्न थी परंतु एक दिन गुरुपूजा का पर्व था, सब साधू सो गए थे। हम और ये पड़े- पड़े …. कि यह सच है कि वह सच है? बस, ब्रह्म चिंतन में ही सारी रात गुजर गई। जैसे किसी की सुहागरात? आप नहीं जानते कि साधू की सुहागरात क्या है? बस ब्रह्म चिंतन में सारी रात निकल गई। आज भी नींद खुल जाती है तो फिर और क्या करेंगे , क्या विवाह का चिंतन करेंगे? क्या स्वर्ग का करेंगे?

या तो हमारा चिंतन देश के लिए होता है या ब्रह्म का। और कोई चिंतन नहीं है। जिस देश में गंगा है, गायत्री है, गीता है, भागवत है, रामायण है, उपनिषद् हैं वहाँ ब्रह्म के अतिरिक्त यदि कोई चिंतन है तो वह मेरे लिए अपने इन भारत वासियों का है।

इन बच्चों को जब मैं भटकता देखता हूँ तो चिंता होती है कि ये हमारे बेटे बेटियां थोड़ा सा पढ़ लिख कर कंप्यूटर सीख गये, दो-चार गीत गा लिए और भटक रहे हैं। इन्हें जिंदगी बनाने का ख्याल नहीं आता, स्टेटस बनाने का ख्याल आता है। स्टेटस कोई जिंदगी है? यदि स्टेटस ही कोई जिंदगी होती तो फिर आत्महत्या क्यों करते हैं? मैं पढ़ाई का विरोधी नहीं हूँ। कहीं यह मत समझ लेना कि स्वामीजी खुद पढ़ नहीं पाए तो दूसरों के लिए खंडन कर रहे हैं।

गजेंद्र त्यागी ( एक बहुत ही नजदीकी भाग्यशाली शिष्य जिन्होंने गुरु चरणों में रहकर अपनी देह को त्यागा) एक लाइन सुनाया करते थे। देखो, चेले हमारी बात सुनें या ना सुनें पर मैं चेलों की बात जरूर सुनता हूँ। वह कहते थे कि झूठा खेले सच्चा होय सच्चा खेले बिरला कोय। यदि झूठ से भी शुरू करोगे तो शायद सच हो जाए। नाटक के साधु बनो, शायद धक्का लगते लगते सच्चे ही बन जाओ।

एक चैतन्य

मैं ही एक चैतन्य हूं!! अनेक चेतन है ही नहीं, अनेक तो चिदाभास है!!
अंतः करण के कारण अनेक चेतन लगते हैं। मैं अलग, तुम अलग। सपने में भी अलग अलग थे ना? जगने में पत्नी मिली सपने वाली? गैया मिली सपने वाली? मकान मिले सपने वाले? नहीं! दुश्मन, सांप जिससे डरते थे, जागने पर मिले क्या? नहीं ना? ऐसे ही  एक चैतन्य दृष्टा है और मैं ही सर्व का दृष्टा हूं ,सब मुझ में ही है, सब मुझमें है ,सब में मैं हूं, यह सब तो सपना है, एक आत्मा ही सत्य है और सर्वव्यापक है, सर्वसाक्षी है ऐसा अनुभव करो!

देखो, गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन की पीठ थपथपाई, श्रेष्ठ कहा, आर्य कहा, कुलश्रेष्ठ, पांडव, धनंजय, हे मित्र, पुरुषोत्तम, नरोत्तम आदि शब्दों से संबोधित करके प्रोत्साहित किया। फिर भी ज्ञान दिए बिना काम नहीं चला। इसका मतलब यह नहीं कि फिर पीठ थपथपाने की जरूरत नहीं है। पीठ थपथपाना जरूरी है। पीठ नहीं थपथ पाओगे तो तुम पीठ देकर चले जाओगे। तुम गुरु को भी पीठ दे जाओगे, तीर्थों में भी आना बंद कर दोगे। किसी पण्डा से दुःखी होकर कान पकड़ लोगे कि अब हम कभी नहीं आएंगे। इसलिए आप की दुर्बलता को देखते हुए आपकी पीठ थपथपाना जरूरी है। पीठ थपथपाने से शायद आगे का कदम बढ़ जाए। थपथ पाने में रुकना मत।

इतनी प्रशंसा करके भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। इतने चमत्कार दिखा कर भी ज्ञान दे रहे हैं। कहीं तुम्हारा विश्वास डगमगा न जाए इसलिए चमत्कार दिखाए, प्यार दिया। युद्ध में तुम्हारे साथ खड़े हो गये। तुम जो चाहते हो तुम्हारी इच्छाओं के साथ भगवान खड़े हो गए लेकिन तुम अभी उनकी इच्छा के साथ खड़े नहीं हो।इसलिए भगवान कहते हैं –

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
( जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।)

अर्जुन भगवान को एक जगह खड़ा देखेगा कि सर्वत्र? ये इंद्रियाँ तो एक ही जगह देखेंगी, इंद्रियाँ सब जगह कैसे देखेंगी? क्योंकि ये रूप को देखती हैं। रूप व्यापक नहीं है। जिसको घड़ा देखते हो तुम उसको सकोरा कैसे कहोगे? क्या मति मारी गई है जो आप घड़े को सकोरा कहोगे? कोई ऐसा है मंदबुद्धि जो ईंटा को घड़ा कहे? उसके अलग-अलग नाम हैं। यहाँ घड़े हैं, व्यापक कैसे कहे अर्जुन?
ये एक जगह जो खड़े हैं वो सब जगह हैं। ये एक जगह जो घड़े के रूप में हैं वो अनेक रूपों में हैं। अनेक रूप रूपाय….. क्या उनको अनेक रुप होना है। क्या कोई अभिनेता हैं जो कि थोड़ी देर पहले कुछ बने थे, फिर कुछ बने। असल में, उनका स्वरूप ही ऐसा है कि सब रूप वही हैं। होना ही नहीं उनको। अनेक रुप रूपाय, उनका रूप क्या है, जो सब रूप हो वही उनका रूप है। जो सर्व रूप नहीं है वह भगवान नहीं हो सकता। तुम्हारी शुरुआत एक रूप से शुरू होगी। इसलिए तुम कृष्ण भगवान से शुरू करो, गुरु भगवान से शुरू करो पर गुरु भगवान का काम, कृष्ण भगवान का काम तब होगा जब भगवान सब रूपों में दिख जाए। तुमने कभी भगवान को सब रूपों में देख पाया है या नहीं? एक वही मिट्टी घड़े के रूप में, वही मिट्टी ईंट के रूप में, वही सकोरे के रूप में है कि नहीं? वही है ना? इसे तो तुम देख पा रहे हो, यह तो उदाहरण है पर हम वह दिखाना चाहते हैं जो एक ही है। चाहे उसका नाम मैं हो, चाहे आत्मा हो, चाहे ब्रह्म हो उसको देखो। विश्वास ही न करो। वैसे तो बिना विश्वास के तुम्हारे कदम ही नहीं उठेंगे इसलिए कहा है बिनु विश्वास न कौनो सिद्धि। और सिद्धि तो छोड़ो बिना विश्वास के ज्ञान सिद्धि भी नहीं हो सकता। इसलिए विश्वास से चलो और अंत में अपरोक्ष देखो। उसको देखो जो सर्व रूप है। इसलिए भगवान एक रूप में खड़े होकर तुम्हारे अंदर योग्यता लाकर, प्यार देकर, चमत्कार दिखाकर, दिखाएंगे अनेक रूप। अनेक रूप रुपाय विष्णवे प्रभ विष्णवे सच्चिदानंद रूपाय देवाय परमात्मने नामः।

चित्त मदिरा पे रखोगे, तो बहक जाऔगे,
चित्त चाँद पे रखोगे, तो शीतलता पाऔगे,
चित्त चैतन्य पे रखोगे, तो आनुभूति पाऔगे,

लेकिन…
चित्त “गुरुचरण” पे रखोगे तो लाख चौरासी से बच जाओगे।
“सतगुरु” के लिये खर्च की हुई कोई भी चीज, कभी व्यर्थ नहीं जाती।
चाहे वो साँसें हो चाहे वक्त।