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धैर्य

धैर्य की, धर्म की, मित्र की और स्त्री की संकट में ही परीक्षा होती है। आप राष्ट्र भक्त हैं, यदि देश पर संकट आ जाए तो आपकी कसौटी हो जाएगी। यदि पार्टी में मान न मिले तो पार्टी से नाराज होगे कि देश से? ….. तो धैर्य क्या है? विपरीत परिस्थिति में भी डगमगाना नहीं, धैर्य है। दूसरा, सुख से बचना। जब सुख मिलता है तब आप भोगना चाहते हो या नहीं? भोगना चाहते हो! जब सुख भोग सकते हो तो दुःख क्यों नहीं भोगते? पर होता क्या है, आप सुख से बच नहीं पाते।
सुख में जो त्यागी बन सके और दुःख में होते न उदार।
….. सुख में सुखी, दुःख में दुखी होना सभी नर जानते हैं। यह मेरी एक कविता की लाइन है। रामायण में भी है- सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।। ‘धीर’ शब्द तो बहुत जगह है। जो सुख में सुखी, दुःख में दुःखी सभी नर हो जाते हैं, जानते हैं, सहज है । मान में फूलना, मान न मिलने पर बौखलाना किसे नहीं आता ? यह तो नेचुरल है लेकिन धैर्य नेचर के विपरीत है। धैर्य प्रकृति के विपरीत है, पर तुम्हारे हित में है।

इंजेक्शन का कष्ट मालूम पड़ना स्वाभाविक है, यह नेचर है। ऑपरेशन में तकलीफ होना नेचर है, परंतु धैर्य रखना आपके हित में है। धैर्य कभी हानि नहीं करता। घर में धैर्य रखो तो परिवार में नर्क नहीं आएगा। धैर्य छोड़ा तो गड़बड़ है। इसीलिए कहा है- धीरज धरहिं तो लागे पारा, नहीं तो डूबे माँझी धारा। ‘धीरज’ शब्द का प्रयोग बहुत जगह है,पर किस अर्थ में है? परिस्थितियों में डटे रहना, भागना नहीं, जागना। यदि आप अकर्ता और अभोक्ता होना चाहते हो तो धैर्य रखो। या यूँ समझो कि प्रतिक्रिया धैर्यहीन को होती है। तुरंत रियेक्ट (प्रतिक्रिया) करना जैसे, पानी में पत्थर फेंका तो लहर उठी वह रिएक्शन (प्रतिक्रिया) है। यह पानी का कर्म नहीं है, रिएक्शन है। आपको कुछ बुरा कह दिया तो आप में क्रोध पैदा हो गया; यह रिएक्शन है। आपकी प्रशंसा की, आपका चित्त खुश हो गया, चेहरे पर रौनक आ गई; यह रिएक्शन है, अधैर्य है, धैर्य नहीं है। आप सम्मान भी झेल नहीं पाए, आप अपमान भी झेल नहीं पाए । राम वनवास को भी झेल गए। इसलिए राम में धैर्य है, राम धर्मात्मा हैं, राम धर्म के साक्षात् विग्रह हैं। धर्म भी धैर्यवान के पास रहेगा। जिसमे धैर्य नहीं हैं उसमें शांति भी नहीं रहेगी। जिसमें धैर्य नहीं उसमें धर्म भी नहीं रहेगा। जिसमें धैर्य नहीं है उसमें ब्रह्मज्ञान भी नहीं रहेगा। धैर्यहीन व्यक्ति को ब्रह्म ज्ञान नहीं होगा। इसलिए धैर्य की बड़ी आवश्यकता है। छोटे स्तर का धैर्य नहीं, बड़े स्तर का। कोई विरला ही धैर्यवान होता है जैसे, भगवान राम वनवास में भी उनका मुख कुम्हलाया नहीं। यह श्लोक मैं पहले ही बोल चुका हूँ- –
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥

(अर्थ:-रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामचन्द्रजी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक से (राज्याभिषेक की बात सुनकर) न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन ही हुई, वह (मुखकमल की छबि) मेरे लिए सदा सुंदर मंगलों की देने वाली हो॥)

इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें लोग लूटते रहें और तुम सहते रहो। तुरन्त प्रतिक्रिया न हो। फिर यदि कोई मारने लायक हो तो मार दो, लड़ने लायक हो तो लड़ो; पर उस सेकंड कुछ व्यक्त हुआ है तो वह सिर्फ प्रतिक्रिया है, क्रोध है।

जहाँ हैं वहां से शुरू करें

अब कोई व्यक्ति भयवश भी झूठ बोलता है, स्वार्थवश भी झूठ बोलता है, तो जिस में भय नहीं है, स्वार्थ नहीं है वह झूठ नहीं बोलता। उसकी वाणी शास्त्र है! उसके उपदेश को मानना! कथा भी…… स्वार्थी लोग भी कथा करते हैं, अपने स्वार्थ की बातें ज्यादा कहते हैं। सत्य कम कहते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ सिद्ध होगा। सत्य बोले तो स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। जैसे एक बात हम कभी बोलते हैं – यतयाः कंचनं दत्वा यति को स्वर्ण दान देने वाला, तांबूलं  ब्रह्मचारिणं ब्रह्मचारी को पान देने वाला, चौरेपि अभयं दत्वा  और अपराधी प्रकृति वाले को अभय देने वाला कि तुम चिंता ना करो हम तो हैं माने अपराधी को अपराध करने की स्वतंत्रता देने वाला , दाता नरकं व्रजेत् देने वाला नर्क जाता है।
इसलिए जो स्वार्थी होगा वह सत्य नहीं कहेगा। आप्तकाम पुरुष जो कहते हैं वह प्रमाण हैं। यदि वह कहे तो झूठ नहीं है। पर सबका कहा सत्य नहीं हो सकता। तो……. वह भी कह रहे थे अनुभव प्रमाण नहीं है। हां, अनुभव के आधार पर आपको यहां से चलना होगा। जैसे हम जन्म मरण का अनुभव करते हैं पर यह हमें पसंद नहीं है, इसके छूटने की इच्छा होगी तो आप अपने अनुभव से ही चलेंगे। इसको कहते हैं जो जहां खड़ा हो वहीं से तो चलेगा। तो वह चलना अलग है। आप दिल्ली से हरिद्वार आना चाहते हैं तो दिल्ली से चलेंगे। अब दिल्ली वाला आदमी मोदीनगर से नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? और मोदीनगर वाला व्यक्ति मोदीनगर से ही चलेगा और रुड़की वाला रुड़की से ही चलेगा, दिल्ली से नहीं। हरिद्वार ही आना है, पर वह जहां खड़ा है वहीं से चलेगा। तो बात यह है कि हम कहां खड़े हैं! हम मनुष्य है कि हम जीव है? क्या है हम? तो जो हम हैं वही से तो यात्रा शुरू करें! यदि हम जन्म मरण वाले हैं तो अविनाशी से यात्रा शुरू नहीं होगी। अविनाशी तक तो यात्रा पूरी होगी, वह आपका गंतव्य है, आप वहां पहुंचना चाहते हैं। आप दुख में हैं तो दुख से पार जाने की इच्छा होगी। होगी ही! और पार जाने के लिए आप चलेंगे। अब यह तो नहीं कि पहले आप आनंद में खड़े हैं, शांति में खड़े हैं, मुक्त है, तो यात्रा की क्या जरूरत? यदि हरिद्वार में ही हो, अखंड परमधाम में ही हो तो अब यहां से कहां जाना? तो जैसे व्यवहारिक जगत में हम अपनी जगह से ही चलेंगे ऐसे ही आध्यात्मिक मार्ग में जिस अनुभूति पर हम टीके है उस अनुभूति की ओर जाएंगे जो हम चाहते हैं। अभी हमें अनुभूति है जन्म मरण की। यह हमारे लिए कल्पना नहीं है। यह हमारे लिए अभी यथार्थ है। यह हमारा सत्य है कि हम मरने वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम दुख सुख वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम करते हैं, हम अपने कर्मों का फल भोगते हैं। तो यहां से यात्रा शुरू करोगे। शास्त्र और सच्चा गुरु कथा वहीं से शुरू करता है जहां तुम हो और आगे पहुंचाता है धीरे धीरे। तो यह आवश्यक है जहां हम हैं वहां से यात्रा शुरू करेें।

कौन भगवान?

आप मरे जग प्रलय
पहले तुम्हारा अज्ञान मर जाए, फिर पीछे ज्ञान भी मर जाएगा। ज्ञान भी बचता नहीं है। पहले तुम्हारा अहंकार मर जाए, पीछे परमात्मा भी मर जाएगा अर्थात् परमात्मा भी अहंकार के साथ ही खत्म होता है। अहंकार के कारण ही भगवान् की तलाश है कि वह कहीं होगा। जिस दिन अहंकार मर जाएगा, उस दिन भगवान् भी किसी दुनिया में नहीं मिलेगा, न ढूंढना पड़ेगा। उस दिन भगवान् भी गए। तुम हो, तो भगवान् भी है। तुम्हारा अहंकार मरेगा, तो भगवान् भी नहीं रहेगा। फिर जो रह जाएगा, उसे भगवान् न कर पाओगे, “मैं” न कह पाओगे। जब “मैं” हूं, तो भगवान् कहूं; दो हैं , तब तक कहूं। पर जब दो ही न रहे, तो भगवान् बचा कि भक्त बचा? क्या कहोगे? यदि भक्त कहोगे, तो कोई भगवान् होगा। बिना भगवान् के कोई भक्त नहीं होता। यदि कहो कि भगवान् बचा तो भगवान् अकेले किसका भगवान्? यदि भक्त नहीं बचा, तो किसका है भगवान्? भगवान भी किसी का होता है ।
ईश्वर माने किसी का मालिक। यदि कोई कहे कि प्रजा न बचेगी, राजा बच जायेगा। यह वाक्य बिल्कुल गलत है। यदि प्रजा नहीं बचेगी, तो राजा कैसे बचेगा? यदि कोई कहे कि प्रजा भर बचेगी, राजा न बचेगा। तो प्रजा होती किसकी है? वह प्रजा प्रजा ही नहीं यदि राजा न हो। प्रजा तो उसी को कहते हैं, जो कि शासन में हो। इसीलिए, भक्त बचेगा, तो भगवान् बचेगा और भगवान बचेगा, तो भक्त बचेगा। एक चला गया, तो दूसरा अपने – आप साफ हो जाएगा।
अब बताओ तुम मरना चाहते हो या भगवान् को मारना चाहते हो? गुरु को मारना चाहते हो कि तुम मरना चाहते हो? किसमें ज्यादा अच्छाई है? तुम कहोगे कि भगवान् ही मर जाए, तो अच्छा है। हम बचे रहें । किंतु , भगवान् का मारा जाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम उनके मारने के लिए जिओगे, तब तक वे जबरदस्ती जिंदा रहेंगे। तुम्हारे जिंदा रहने से भी वे जिंदा हैं। यदि तुम भगवान् को मारने के लिए जीते रहोगे; तो कितना ही मारो, पर भगवान् मरेंगे नहीं । यदि चेले जीते रहें , तो यह सत्य है कि गुरु तमाम पैदा हो जाएंगे। इसीलिए, ज्यादा अच्छा यह है कि किसी को मारने से पहले तुम स्वयं मर जाओ। “आप मरे जग प्रलय” ऐसा हमने सुना है। तुम मर गए, तो भगवान् भी मर गया, मुक्ति भी मर गई मर गई, मन भी मर गया, अशांति भी मर गई और शांति भी खत्म। अधमरे में मिल जाएगी मुक्ति , अधमरे में मिल जाएंगे भगवान्। पूरे मर जाओगे, तो न भगवान् मिलेंगे और न तुम रहोगे।
भगवान् थोड़ा-थोड़ा मरने से मिल जाते हैं; पूरे मरने पर नहीं मिलते और बिल्कुल बचने पर भी नहीं मिलते। पूरे जो बचते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। और जो पूरे मर जाते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। मिलना और मिलाना अधमरों का है। जो अपने को पूर्ण बचाए हैं, वे तड़पते रहें; उन्हें भगवान नहीं मिलते। यदि पूरे मर जावेंगे, तो फिर मिलेंगे किसको? इसीलिए, यह मिलने – मिलाने का भाव ही बीच में रहता है। जो जानते हैं, वे यही जानते हैं कि क्या मिलना है और क्या किससे मिलना है।

मन के पार


“अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।”


अर्जुन से भगवान कह रहे हैं कि तू पाप करने वाले पापियों में अपने को सबसे बड़ा पापी समझता है; यदि, सारी दुनिया के पापी छांटे जाएं तो वह प्रथम नंबर का पापी नहीं हो सकता। अगर बहुत बड़े पापी हो, तो भी पीछे रह जाओगे। तुम चाहे जीवन भर पाप करो, फिर भी ऐसे – ऐसे दुराचारी हैं, जिनका तुम मुकाबला नहीं कर सकते। यदि तू प्रथम नंबर का पापी है, तो भी “(सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं–संतरिष्यसि “)आ, ज्ञान की नाव में बैठ जा। तू आत्मबोध की, ब्रह्म विचार की नाव में बैठ जा। तू ज्ञान की नाव में बैठते ही एकदम पार हो जाएगा और सारे पापों से तेरा छुटकारा हो जाएगा।
मैं तुम्हें एक बात बताऊं। स्वप्न में डाका डालो, चाहे कत्ल करो, चाहे बुराई करो, चाहे जो कुछ कर डालो; वहां जागकर ही ताप से छूट सकते हो। यदि स्वप्न में डाका पड़ गया हो और रईस होना चाहते हो, तो दस बरस लगेंगे कमाकर पूरा करने में। राज्य छिन गया हो, तो दूसरे राजा पर चढ़ाई करने पड़ेगी; फौज जुटानी पड़ेगी? लेकिन, नींद खुल जाए तो कितनी देर लगेगी? भगवान् कहते हैं कि पापी लोग पाप से छूटने के लिए गंगा नहाते – नहाते मर जाएंगे, तब भी पता नहीं छुटकारा होगा कि नहीं होगा। लेकिन, एक बात कहते हैं कि यदि तेरी नींद खुल जाए, यदि तुझे आत्मा का पता चल जाए कि तू कौन है, तू आत्मा में जाग जाए तो तू एकदम पापों से ऐसे पार हो जाएगा, जैसे कभी पाप किए ही न हों। जैसे दुनिया में पाप हैं ही नही।
“यदज्ञानादभूद् द्वैतं ज्ञाते यस्मिन्निवर्तते,
रज्जु सर्पवदत्यन्तं वन्दे तं पुरुषोत्तमम्।”

सत्संग से संसार व मन के पार जा सकते हो

उदाहरण

गुरुदेव इतनी सरल भाषा में वेदांतदर्शन समझाते हैं कि कभी कभी विश्वास नहीं होता कि जिसके लिए बड़े बड़े ज्ञानी लोग कितना भटके यहाँ गुरुदेव के चरणों में बैठ कर उस बंधे हुए ज्ञान को सरलता से गांठ की तरह खोल देते हैं।

देखो, यह एक गाँठ है। (एक कपड़े में अलग-अलग तीन गाँठें लगाईं)। पहले नंबर की गाँठ का नाम रख लो जाग्रत, दूसरे नंबर की गाँठ का नाम  स्वप्न और तीसरे नंबर का  नाम सुषुप्ति।  अब ये तीनों चक्कर लगाएंगी। जब पहली चली जाती है तो दूसरी आती है।  जब दूसरी चली जाती है तब तीसरी आ जाती है। और जब तीसरी जाती है तब फिर पहली वाली आ जाती है। इस तरह यह प्रक्रिया चलती रहती है । इनमें कोई भी परमानेंट नहीं है और किसी ने किसी को देखा भी नहीं है। कोई एक चौथा है जिसने पहली को भी देखा, दूसरी को भी देखा और तीसरी को भी देखा। वही चौथा बता पाता है कि जाग्रत आया था फिर स्वप्न आया फिर सुषुप्ति आयी थी। अर्थात्  इन का गवाही कौन है, साक्षी कौन है ? क्या जाग्रत मेरी गैरहाजिरी में हुई? स्वप्न, सुषुप्ति क्या मेरी गैरहाजिरी में हुईं? क्या सुषुप्ति(गहरी नींद)  जाग्रत की गवाह है या जाग्रत सुषुप्ति की गवाह है? इन तीनों में जो गवाह है वह आप हैं।

समझदारी

अब जानवर की सेवा करनी हो तो कथा तो नहीं सुनाएंगे। वह इसका अधिकारी ही नहीं है। हां, और वह भले जबान से ना कहे पर उसकी जरूरत उसका मालिक समझता है। मालिक जानवर की जरूरत को समझता है कि इसे भूख लगती है, इसे प्यास लगती है, सर्दी लगती है, गर्मी लगती है, उसकी व्यवस्था करता है। ऐसे ही साधक की जरूरत गुरु समझता है। नहीं समझता तो वह गुरु नहीं है। जानवर की जरूरत मालिक समझ कर सर्दी गर्मी से बचाने की जगह बांधता है। भूख प्यास की, उसकी आवश्यकता की पूर्ति करता है और इसीलिए जानवर का मालिक भी समझदार होना चाहिए और दयालु भी होना चाहिए। क्षमता भी होनी चाहिए  कि जानवर को कौन सा चारा प्रिय भी है और हितकर भी है। पर उसके लिए भी पैसा चाहिए। तो जैसे जानवर की सेवा के लिए समझ भावना और सामर्थ्य तीनों चाहिए ऐसे ही साधक की जरूरत को समझने वाला उसकी जरूरत को पूरी करने की क्षमता वाला योग्यता वाला गुरु चाहिए। हम चाहते भी है कि आप को ध्यान में आनंद आए पर नहीं आ रहा, आनंद तक हम नहीं पहुंचा पा रहे तो चाहने पर भी क्षमता भी चाहिए। इसलिए गुरुओं में भी क्षमता अलग अलग है। सभी लोग कुंडली नहीं जगा सकते, सब ब्रह्म ज्ञान को नहीं दे सकते, सब में एक समान योग्यता नहीं है। सब चमत्कार नहीं कर सकते। रामकृष्ण परमहंस में क्षमता थी तो विवेकानंद को चकित कर दिया, आश्चर्य में डुबो दिया, प्रभावित हो गए। अभिप्राय है की गुरु में भी योग्यता, सामर्थ्य की भिन्नता रहती है। सब एक तरह की सामर्थ्य वाले गुरु नहीं है, एक तरह की योग्यता वाले गुरु नहीं है और सब साधक भी एक ही गुरु के लायक नहीं है। गुरु भी उनको उनकी जरूरत के अनुसार चाहिए। यही बात देश के लिए भी है। गांव के लिए भी है। सब नेता इतने ईमानदार नहीं, सब इतने योग्य नहीं और सब नेता इतनी सामर्थ्य वाले नहीं हैं। सब की गरीबी दूर करने के लिए आजादी के समय से नारे चल रहे  हैं तो कुछ तो नियत की भी कमी है। पर नियत भी हो तो कैसे एकदम गरीबी दूर करें? इसके लिए पद्धति योग्यता भी होनी चाहिए। चलो नेताओं को हम इमानदार मानकर चलते हैं पर कई बार घर का पिता बेईमान नहीं है नियत का खोटा नहीं है पर अपने बच्चे को अच्छे वस्त्र देना चाहता है, अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहता है पर नहीं पढ़ा पाता। तो नियत का खोटा नहीं है लेकिन सामर्थ नहीं है। तो यह बात माता पिता पर ही लागू नहीं है, देश के मालिकों पर भी निर्भर है। सब को आरक्षण नहीं दे सकते, सब की जरूरत एक समान नहीं पूरी कर सकते, नहीं है क्षमता। उस जगह यदि मैं बैठा हूं तो सबकी गरीबी दूर नहीं कर सकता, सभी किसानों का कर्ज माफ नहीं कर सकता। एक अखबार में ही पढ़ा था कि किसी ने चुनाव में भेड़ों के लिए प्रचार किया कि हम भेड़ों को, बकरियों को कंबल बाटेंगे। वोट दो तो हम कंबल बाटेंगे। तो कई भेड़ें प्रभावित हुई कि हम इन्हीं को वोट देंगे क्योंकि यह हमें कंबल बाटेंगे तो उसमें एक भेड़ समझदार थी, कहती है कि कंबल कहां से बाटेंगे? हमारे ही तो बाल काटेंगे! बिना हमारे बाल काटे कंबल कैसे देंगे? तो यदि यह बाटेंगे भी नेता तो जनता का ही तो काट कर बाटेंगे! तो बांटने के नाम पर भेड़ें खुश है। तो कई भेड़ों की तरह की जो जनता है। लेने को तैयार है कि हमें दे दे। लेकिन यह नहीं ख्याल कि इनके खेती लगी है क्या? इन के खेत में पैसा लगता है क्या? तुम्हारी ही कटौती करके बाटेंगे। यह बांटने वालों से खुश रहोगे कि विकास करने वालों से खुश रहोगे? विकास होना चाहिए! इसलिए मोदी कहते हैं आप योग्यता बढ़ाओ, गुण बढ़ाओ, करने की क्षमता का विकास करो तो तुम्हारी जरूरतें पूरी हो जाएगी। यदि तुमको हम कमजोर रहते बांटते रहेंगे तो देश कमजोर हो जाएगा। इसलिए योग्यता का विकास चाहिए। क्षमता, योग्यता, कुशलता बढ़ेगी तो हम कमा लेंगे। इसी तरह किसानों को अधिक उत्पादन करने कह रहे हैं, वह भी सफल नहीं हुए। उनका उद्देश्य यही है कि किसान कैसे खेती करें क्या बोएं कि वह अधिक कमा सके! सरकार देती जाए, भरती जाए, माफ करती जाए यह पद्धति अच्छी नहीं है पर लगती अच्छी है इसलिए इमानदारी का काम वही होता है जो हितकर हो। तो हर जगह समझदारी चाहिए। 

बुद्धि

बुद्धि दो तरह की होती है- एक सोच-विचार वाली और दूसरी शांत- निर्विचार प्रज्ञा। सुनी हुई बातों में रहित अर्थात् उससे रिक्त और मान्यताओं से खाली हो कर जब बुद्धि शांत हो जाती है, तब वह प्रज्ञा कहलाती है और उस प्रज्ञा में आत्मानुभव हो जाता है। ज्यादा पढ़ने-लिखने से आत्मा का बोध नहीं होता। शब्द-जाल महान् जंगल है; चित्त को भ्रम में डाल देने वाला है। मैं यह नहीं कहता कि मत पढ़ो; पढ़ना पड़ेगा। लेकिन, मैं यह भी कहता हूं कि आदमी थोड़ा सुनकर भी बुद्धि को शांत करें, मन को समाहित करे। क्यों करे? प्रत्येक दर्शन यह कहता है कि असमाहित चित्त, अशांत चित्त, वासना वाली बुद्धि और बहिर्मुख प्रज्ञा से कभी आत्मानुभव नहीं होता। शास्त्र क्या करते हैं? सुना कर बुद्धि को शांत करते हैं। जो ज्यादा सुने ही बिना बुद्धि को शांत कर ले, तो उसे आत्मबोध हो जाएगा। लेकिन, जब तक आदमी तमाम बातें न सुने, तब तक जानने की इच्छा खत्म नहीं होती। मैं तो यह कहता हूं कि परमात्मा के जानने का एक और अच्छा तरीका है कि जानने की इच्छा भी छोड़ो। जब हम परमात्मा को जानने की इच्छा करते हैं, तब हमारी बुद्धि बहिर्मुख होनी शुरू हो जाती है। हम समझते हैं कि परमात्मा कहीं होता होगा- उसको जान लें। जहां हमारी समझ में आया है कि भगवान् वहां है, वहीं उसके पाने की इच्छा और प्रयास शुरू हो जाता है। उसको जानने के लिए और उसको पाने के लिए, जो बुद्धि शांत है, वह चंचल हो जाती है। इसलिए, सुना हुआ परमात्मा और खतरा बन जाता है।
परमात्मा तुम्हारे अंदर ही है, बाहर नहीं.

साक्षी के ध्यान को सीखो और शाश्वत हो जाओ


पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं! अनासक्त हो जाओ!
राग द्वेष वियुक्तैस्तु राग और द्वेष का त्याग कर दो। कोई आवे, कोई जावे, मैं एक चेतना का दीप जलाए बैठा हूं। चेतना का दीप! जब हम कोई ऑब्जेक्ट रखना चाहते हैं, विषय रखना चाहते हैं तो परेशानी पैदा कर लेते हैं। तो आप चेतना को रखो। अब आखरी बात खतरे की है, उसमें जरूर थोड़ी गहरी सोच चाहिए। यहां तक तो आप इमानदारी से चाहे तो अनुभव कर सकते हो। एक संकल्प करो कि आज हम ध्यान में किसी को लाने या हटाने का काम नहीं करेंगे! घर हटाना नहीं, मंत्र लाना नहीं, अच्छे को लाना नहीं बुरे को हटाना नहीं! तुम्हें क्या करना है? अच्छे बुरे का आग्रह छोड़ देना है और जागे रहना है।  ‘मैं जगा हूं’ यह ख्याल आया, अच्छा आ गया या बुरा आ गया दोनों ख्यालों में जगे रहो! पर आप का आग्रह जब किसी चीज का होगा तो उसके आने से जागा मानोगे जाने से सोया मानोगे। तो आग्रह छोड़ दो, बिल्कुल आग्रह छोड़ दो! आप का आग्रह है कि मैं जग रहा हूं, श्वास आई, नहीं आई, धीमी हो गई, ख्याल आया, नहीं आया,  मैं जागा हूं! तो यह मंत्र का मूल महामंत्र है! यह महामंत्र है कि मेरे सामने यह हुआ, यह हुआ, यह हुआ, मेरे सामने हुआ इसका मतलब मैं अध्यक्ष हूं! मेरी अध्यक्षता में सब हुआ! मेरी आंखों के सामने हुआ! इन आंखों के नहीं, मैं ही आंख हूँ! इसीलिए स+आखी= साखी, साक्षी, मैं आंख हूँ! मेरे सामने यह हुआ! मेरे सामने! मेरे सामने! मेरे सामने! ठीक है? आप आंख हो! इन आंखों से(चर्मचक्षनओं से) तो बहुत दिन देखा है अब यह आँख आप खोलो!  प्रमाद मत करो! आपको लगे, हां! मेरे ख्याल में यह आया! यदि आप चुनाव करोगे तो परेशान हो जाओगे। इसीलिए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, ठीक है? अब चुनाव ना करो, जागो!

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, अाप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता। चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो!
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो  उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता।  तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि  अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं।  वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं!
तब भी थे तुम ही! अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी  है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!

कौन है? जो कभी नष्ट नहीं होता

साक्षी ही साक्षात ब्रह्म है। इसे विचारो। कब विचारोगे? क्या बुद्धि टिकेगी?  देखो हम अपने बताएं, जब ध्यान में रोशनी हुई तो बड़ी आसानी से टिक गए। टिके तो नहीं रहे पर टिक गए। ध्यान में टिक गए, आनंद में टिक गए। आप भी आनंद टिक जाते हैं ना? फिर क्या टिके ही रहते हैं?  जवानी में तुम कैसे टिकोगे, जब जवान ही नहीं टिकेगी। बचपन में तुम कैसे टिके  रहोगे? जब जगते थे, बचपन था। फिर सो गए, फिर बचपन। फिर जगे, फिर बचपन। धीरे-धीरे आप जगते-सोते रहे और बचपन खिसकता गया।फिर जवानी आ गई, उसमें तुम टिके रहना चाहते थे। तुम सो जाते थे और  जवानी तुम्हारे जगने-सोने पर भी जवानी रुकी नहीं।
तुम सोओ चाहे जागो, जवानी धीरे-धीरे सरक रही है और सरक गई। अब बुढ़ापा आ गया। यद्यपि बुढ़ापा अच्छा तो नहीं है पर मरने से तो अच्छा ही है। तो बुढ़ापे को ही बचा के रख लो। कई बूढ़े बेचारे इंजेक्शन लगवा कर, ऑक्सीजन चढ़वा के, हमारा हाथ सिर पर रखवा के बुढ़ापे को बचाने में लगे हैं। संस्त्रति संसारा, जो सरकता रहता है। संसार सरक जाए तो सरक जाए पर तुम भी थोड़ी देर को सरक जाते हो। जवानी बनी रही, पर तुम कहीं चले गए थे क्या? चाहे जहां गए हो, स्वप्न में गए, नींद में गए पर छोड़ तो गए। जवानी से फिर जागे,  फिर प्यार कर लिया, फिर सो गए,  फिर प्यार कर लिया। है कोई ऐसा जो चौबीसों घंटे स्त्री या पुरुष से प्यार कर सके,  सोए ना? 
भगवान को तो छोड़ो, यदि तुम स्त्री या पुरुष से अखंड प्यार कर सको तो मुक्ति की गारंटी मैं लेता हूँ।  हमारे एक मनोहर दास संत हुए हैं वो  कहते थे कि हटाओ।  ताश खेले फिर कहेंगे कि ये भी हटाओ। प्यार करो अब यह भी हटाओ, सो जाओ। तो कौन ऐसा है जो संसार कभी छोड़ता नहीं है। संसार से इतना प्रेम कोई कर ही नहीं सकता कि सदा जाग सके। तुम पत्नी से प्रेम करते हो,  तुम्हें चुनौती है कि तुम पत्नी को थोड़ी देर के लिए भी न छोड़ो। तुम्हें धन से प्यार है, मैं तुम्हें रुपया दूँगा गिनते रहना पर सोने नहीं दूँगा। कोई इतना कर ही नहीं सकता। कहने का आशय इतना है “कि जो दिसे सो, सकल विनाशी” जो दिख रहा है वो एक दिन नष्ट होगा ही इसलिए ऐसे को जानो खोजो मानो जो गुरुदेव बता रहे है जो की कभी नष्ट होता ही नही कहीं आता जाता है नही जिसका जिक्र गीता में श्री कृष्ण करते हैं।

सदैव सोचो तुम क्या हो, सच में क्या हो?

खैर, मेरा विषय है कि गर्मी पानी का स्वभाव नहीं है। वह आग का है। ऐसे ही मृत्यु, परिवर्तन आपका स्वभाव नहीं हैं। यह प्रकृति का है। प्रकृति और आपका स्वभाव एक हुए लगते हैं। न होने पर भी ये एकाकार हो जाते हैं। इसी को तादात्म्य कहते हैं। जब ये एकाकार हो गए तो अनित्य वस्तु से भी तुम्हें जीवन लगने लगा जैसे,  मिट्टी को घड़ा होने से अपना जीवन लगे।
क्या सचमुच मिट्टी घड़ा होने से जी रही है ?  घड़ा  न हो तो क्या वह  मर जाएगी? मिट्टी को घड़ा जीवन लगा जबकि वह मौत है। अपने को मरने वाले से एक कर लिया और फिर बचने की इच्छा। क्यों बचने की इच्छा है?  क्योंकि उसके स्वभाव में मृत्यु है नहीं। इसलिए मृत्यु पसंद नहीं है और मृत्यु होती भी नहीं है पर मरने वाले से जुड़कर मरना स्वीकार कर, अंदर जो छिपा स्वभाव है- बचे रहने का, वह लड़ रहे हैं।
तो  विवेक द्वारा यह समझ लें कि अनित्य क्या है?  अनित्य को नित्य बनाने की चेष्टा न करें । विवेक हो जाए तो फिर अनित्य से, अनात्मा से, अशुचि से, दुःख रूपी वस्तुओं से वैराग्य हो जाए। यह समझ लें कि शरीर दुःख है, सुख नहीं है। इसको आध्यात्मिक लोग अविद्या कहते हैं। अविद्या के कारण अशुचि में शुचि बुद्धि, अनात्मा में आत्म बुद्धि, अनित्य में नित्य बुद्धि, जो नहीं है उसमें ‘है’ बुद्धि और है का पता ही नहीं है जैसे, घड़ा है। तो घड़े होने में तो है बुद्धि हो गई और मिट्टी के होने का पता ही नहीं।