Date Archives September 2020

एक चैतन्य

मैं ही एक चैतन्य हूं!! अनेक चेतन है ही नहीं, अनेक तो चिदाभास है!!
अंतः करण के कारण अनेक चेतन लगते हैं। मैं अलग, तुम अलग। सपने में भी अलग अलग थे ना? जगने में पत्नी मिली सपने वाली? गैया मिली सपने वाली? मकान मिले सपने वाले? नहीं! दुश्मन, सांप जिससे डरते थे, जागने पर मिले क्या? नहीं ना? ऐसे ही  एक चैतन्य दृष्टा है और मैं ही सर्व का दृष्टा हूं ,सब मुझ में ही है, सब मुझमें है ,सब में मैं हूं, यह सब तो सपना है, एक आत्मा ही सत्य है और सर्वव्यापक है, सर्वसाक्षी है ऐसा अनुभव करो!

देखो, गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन की पीठ थपथपाई, श्रेष्ठ कहा, आर्य कहा, कुलश्रेष्ठ, पांडव, धनंजय, हे मित्र, पुरुषोत्तम, नरोत्तम आदि शब्दों से संबोधित करके प्रोत्साहित किया। फिर भी ज्ञान दिए बिना काम नहीं चला। इसका मतलब यह नहीं कि फिर पीठ थपथपाने की जरूरत नहीं है। पीठ थपथपाना जरूरी है। पीठ नहीं थपथ पाओगे तो तुम पीठ देकर चले जाओगे। तुम गुरु को भी पीठ दे जाओगे, तीर्थों में भी आना बंद कर दोगे। किसी पण्डा से दुःखी होकर कान पकड़ लोगे कि अब हम कभी नहीं आएंगे। इसलिए आप की दुर्बलता को देखते हुए आपकी पीठ थपथपाना जरूरी है। पीठ थपथपाने से शायद आगे का कदम बढ़ जाए। थपथ पाने में रुकना मत।

इतनी प्रशंसा करके भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। इतने चमत्कार दिखा कर भी ज्ञान दे रहे हैं। कहीं तुम्हारा विश्वास डगमगा न जाए इसलिए चमत्कार दिखाए, प्यार दिया। युद्ध में तुम्हारे साथ खड़े हो गये। तुम जो चाहते हो तुम्हारी इच्छाओं के साथ भगवान खड़े हो गए लेकिन तुम अभी उनकी इच्छा के साथ खड़े नहीं हो।इसलिए भगवान कहते हैं –

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
( जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।)

अर्जुन भगवान को एक जगह खड़ा देखेगा कि सर्वत्र? ये इंद्रियाँ तो एक ही जगह देखेंगी, इंद्रियाँ सब जगह कैसे देखेंगी? क्योंकि ये रूप को देखती हैं। रूप व्यापक नहीं है। जिसको घड़ा देखते हो तुम उसको सकोरा कैसे कहोगे? क्या मति मारी गई है जो आप घड़े को सकोरा कहोगे? कोई ऐसा है मंदबुद्धि जो ईंटा को घड़ा कहे? उसके अलग-अलग नाम हैं। यहाँ घड़े हैं, व्यापक कैसे कहे अर्जुन?
ये एक जगह जो खड़े हैं वो सब जगह हैं। ये एक जगह जो घड़े के रूप में हैं वो अनेक रूपों में हैं। अनेक रूप रूपाय….. क्या उनको अनेक रुप होना है। क्या कोई अभिनेता हैं जो कि थोड़ी देर पहले कुछ बने थे, फिर कुछ बने। असल में, उनका स्वरूप ही ऐसा है कि सब रूप वही हैं। होना ही नहीं उनको। अनेक रुप रूपाय, उनका रूप क्या है, जो सब रूप हो वही उनका रूप है। जो सर्व रूप नहीं है वह भगवान नहीं हो सकता। तुम्हारी शुरुआत एक रूप से शुरू होगी। इसलिए तुम कृष्ण भगवान से शुरू करो, गुरु भगवान से शुरू करो पर गुरु भगवान का काम, कृष्ण भगवान का काम तब होगा जब भगवान सब रूपों में दिख जाए। तुमने कभी भगवान को सब रूपों में देख पाया है या नहीं? एक वही मिट्टी घड़े के रूप में, वही मिट्टी ईंट के रूप में, वही सकोरे के रूप में है कि नहीं? वही है ना? इसे तो तुम देख पा रहे हो, यह तो उदाहरण है पर हम वह दिखाना चाहते हैं जो एक ही है। चाहे उसका नाम मैं हो, चाहे आत्मा हो, चाहे ब्रह्म हो उसको देखो। विश्वास ही न करो। वैसे तो बिना विश्वास के तुम्हारे कदम ही नहीं उठेंगे इसलिए कहा है बिनु विश्वास न कौनो सिद्धि। और सिद्धि तो छोड़ो बिना विश्वास के ज्ञान सिद्धि भी नहीं हो सकता। इसलिए विश्वास से चलो और अंत में अपरोक्ष देखो। उसको देखो जो सर्व रूप है। इसलिए भगवान एक रूप में खड़े होकर तुम्हारे अंदर योग्यता लाकर, प्यार देकर, चमत्कार दिखाकर, दिखाएंगे अनेक रूप। अनेक रूप रुपाय विष्णवे प्रभ विष्णवे सच्चिदानंद रूपाय देवाय परमात्मने नामः।

चित्त मदिरा पे रखोगे, तो बहक जाऔगे,
चित्त चाँद पे रखोगे, तो शीतलता पाऔगे,
चित्त चैतन्य पे रखोगे, तो आनुभूति पाऔगे,

लेकिन…
चित्त “गुरुचरण” पे रखोगे तो लाख चौरासी से बच जाओगे।
“सतगुरु” के लिये खर्च की हुई कोई भी चीज, कभी व्यर्थ नहीं जाती।
चाहे वो साँसें हो चाहे वक्त।

जागो

आपने स्वप्न में क्या नहीं देखा! सब कुछ देखा पर झूठा देखा! पर वह कब समझ आया? जब जग गए! अब क्या करना है? यह जो इस समय देख रहे हो जागृत में, यह सब स्वप्न है !सब सपना है! सब सपना है !सत्य केवल आत्मा, दृष्टा मैं हूं! यह जागृत में स्मरण करो!
दृष्टा सत्य है, दृश्य स्वप्न है। यद्यद द्रष्टं तद्तद अनित्यम्।। जो जो दिखाई देता है अनित्य है। जो दिखता है सब मिथ्या है, सब झूठ है। जो जो मालूम पड़ता है सब झूठा है आत्मा के सिवाय, ऐसा ध्यान करो। यह एक विधि है ध्यान की। फिर दोहरा दे……. सुविधा के लिए आकाश का ध्यान करो, पिता का ध्यान करो, गुरु का ध्यान करो, राम भगवान, कृष्ण भगवान का ध्यान करो। दूसरा नींद का ध्यान करो, तीसरा स्वप्न का ध्यान करो। सब कुछ देखा था पर कोई सच था क्या? अभी जो देख रहे हो सब सपना है। आखरी स्टेज होती है, लोग पूछते हैं, हमसे भी पूछते हैं, यह तो कुछ कुछ समझ जाता है कि हम दृष्टा है, पर हम ब्रह्म हैं यह समझ नहीं आता और स्वप्न और जागने की पहचान क्या है? स्वप्न में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वप्न में स्वप्न  का दृष्टा ना हो। स्वप्न में दृष्टा है तभी तो स्वप्न देख रहा था। स्वप्न के दृष्टा तुम ही थे पर स्वप्न में तुम्हें सबके दृष्टा हो यह नहीं पता था। तुम देख तो रहे थे, अभी भी देख रहे हो ना? मुझे देख रहे हो, पंडाल देख रहे हो, प्रयागराज देख रहे हो। देख तो रहे हो! ऐसे ही स्वप्न में देख रहे थे पर स्वप्न में बहुत चेतन थे, अनेकों चेतन थे, अनेकों दृष्टा थे, अनेकों व्यक्ति थे, और मैं भी था। इतने सत्य थे पर जागे तो पता चला कि केवल मैं सत्य था और सब सपना था । कब पता चला? जागने पर!! इसलिए जाग कर समझना ज़रूरी है। जागो और जागे हुए ही सोचो की सच में तुम्हें क्या लगता है, क्या सच है अंततः तुम्हें यही मिलेगा।

आवश्यकता और चाह

रोटी के लिए भटकने वाला भिखारी नहीं है, वह आवश्यकता है, पर जो सुख के लिए भटकते हैं वह सब भिखारी है। और कौन है ऐसा इस धरती पर जो सुख के लिए भागा नहीं फिरता! कम से कम सुख तो हमारा हो “निज का”! 
निज सुख बिन मन रहइ कि थीरा ।
परस कि होय विहीन समीरा ।। 

रोटी के लिए भटको, ठंडी में कपड़े के लिए भटको, नहीं है तो मांग लो। जब आवश्यकता के लिए भटकना पड़े तो कोई बात नहीं पर सुख के लिए भागना पड़े यहां नहीं वहां, वहां नहीं वहां, तो कम से कम इस पावन पर्व पर, तीर्थराज प्रयाग पर ऐसे आनंद के धनी होकर जाओ कि हम आनंद के लिए नहीं भटकेंगे। आनंद तो हमारा है!
प्रारब्धवश रोटी के लिए भटकना पड़ सकता है, किसी का कमाने वाला पति न रहा, कमाने वाला बेटा न रहा, तो मांगना पड़ सकता है, लेकिन आनंद के लिए तो किसी को नहीं भटकना चाहिए। तो यहां से आनंद के धनी हो कर जाओ! मालामाल हो कर जाओ! कम से कम हमें शांति और आनंद के लिए भटकना ना पड़े! तो यह गहरी नींद का स्मरण, यह भी एक ध्यान है। दूसरा हमने कहा –  स्वप्न निद्राsलंबनम् वा तो स्वप्न का भी आलंबन लो ध्यान के लिए। स्वप्न में क्या क्या देख रहे थे और सच्चा समझ रहे थे? तो अब क्या करो? जगत को भी जैसे स्वप्न में सब कुछ दिख रहा था, इस समय भी सब कुछ दिख रहा है। जाग्रत में सब दिख रहा है। यह मत सोचो कि ना दिखे। ना दिखे वह नींद वाली बात है। नींद की एक चीज ले लो, कोई कमी नहीं ,कोई कामना नहीं। सपने में क्या है? सब कुछ देख रहे थे पर पता नहीं था कि यह झूठा है! अब इस समय जो देख रहे हो यह  सब स्वप्न है। देह, यह मेरे तेरे, सब सपना! स्वप्न में क्या नहीं देखा! सब कुछ देखा पर झूठा देखा! पर वह कब समझ आया? जब जग गए! अब क्या करना है? यह जो इस समय देख रहे हो जागृत में, यह सब स्वप्न है! सब सपना है! सब सपना है! सत्य केवल आत्मा, दृष्टा मैं हूं! यह जागृत में स्मरण करो! यही सत्य है।

एक ही रास्ता

इस मैं-मैं के ख्याल को छोड़ना है। भले ही यह ख्याल रोज पैदा हो। तब भी यही समझो कि यह ख्याल है । यह ख्याल मैं नहीं। ‘यह मेरा’ भी ख्याल है। “मैं अरु मोर तोर तैं माया।” हर एक का मैं है और मेरा है। और जिसके पास मैं है, मेरा है उसकी समझ में कोई तू भी है और तेरा भी है। ये मेरा-तेरा, मैं और मेरा, तू और तेरा ये दोनों ही माया हैं। इतना है माया- “मैं अरु मोर तोर तैं।” इसके अलावा कोई तुम्हें मिले तो वह ब्रह्म है। इतना ख्याल छोड़ कर यदि कुछ बचता हो और वह तुम्हें मिल जाए तो उसी का नाम पर ब्रह्म है। और वह हर मैं और तू के बीच में छिपा है। मैं में, तू में वह छुपा है जैसे, लहर में पानी, गहनों में सोना, औजारों में लोहा। गहनों में सोना है नहीं कि छिपा है? गहना दिखने लगता है, औजार दिखने लगता है, मैं लगने लगता है, ब्रह्म छिप जाता है। इसलिए- गूढ़उ आत्मा न प्रकाशते

आत्मा छिपी हुई है, अहंकार स्पष्ट है। इसलिए कोई भी धैर्यवान व्यक्ति जल्दबाजी न करें। धैर्य चाहिए। समझ गए हो तो भी समझो। कहीं जल्दबाजी में न समझ लेना। हम जल्दी समझने को बुरा नहीं मानते पर जल्दी में ज्यादातर गलत ही समझा जाता है। सही भी समझोगे तो भी गलत ही समझोगे। तुम क्यों ब्रह्म हो? देह हो इसलिए ब्रह्म हो? तुम अपने को देह मानते हुए ब्रह्म कह रहे हो कि देह अभिमान छोड़ कर कह रहे हो? देहाभिमाने गलिते, देह गलिते नहीं कहा। यदि देह गल जाएगा, तो फिर सुनेगा कौन? यदि मैं ही नहीं होगा तो सुनेगा कौन? इसलिए-
देहाभिमाने गलते विज्ञाते परमात्मनि।यत्र यत्र मनोयाति तत्र-तत्र समाधयाः।। (सरस्वती रहस्योपनिषद्) (देहाभिमान के नष्ट हो जाने और परमात्मा का ज्ञान होने पर जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहीं-वहीं परम अमृत्व का अनुभव होता है।)
भिद्यतेह्रदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्तेचास्य कर्माणितस्मिन्दृष्टे परावरे।।(मुण्डकोपनिषद् 2.2.8)
( उस परब्रह्म को तत्वतः जान लेने पर मनुष्य की हृदयग्रन्थि खुल जाती है, सारे संशय नष्ट हो जाते हैं और उसके संपूर्ण कर्म क्षीण हो जाते हैं।)
उसके बिना देखे ग्रंथि नहीं कटती निर ग्रंथ ग्रंथ मुक्त नहीं होता इसलिए- तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। (श्वेताश्वतरोपनिषद् 3.8)। (उसे जानकर ही साधक मृत्यु के चक्र को पार कर सकता है अमरत्व प्राप्ति के लिए इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है।)

यदि अन्य रास्ते तुम्हें लगते हैं तो यह नहीं है कि वहाँ नहीं हैं। जहाँ तुम हो वहाँ से बहुत रास्ते हैं पर जब पहुँच जाओगे तो पता चलेगा कि सब रास्ते आगे चलकर किसी एक में ही मिल जाते हैं। जैसे, वर्षा का पानी पहले इकट्ठा होकर नालियों में जाता है, फिर नालियों का पानी नदी में जाता है। नदी का पानी महानदी में और महानदी का पानी सागर में जाता है। सागर को कौन मिलता है, क्या सीधा नाली मिलती है? नहीं। तो फिर नाली को क्या जिद्द करनी चाहिए कि हम तो डायरेक्ट सागर से ही मिलेंगे? यहाँ हम यह नहीं कहते कि और कोई रास्ता नहीं है लेकिन और सब रास्ते ज्ञान में ले जाएंगे। इसलिए ज्ञान ही एक साक्षात् रास्ता है ब्रह्म होने का। तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। लेकिन यह भी है कि और रास्ते मानोगे तो वेद का विरोध होगा और अन्य रास्ते नहीं मानोगे तो पहुँचोगे ही नहीं ।

मांडुक्योपनिषद

वेद में तीन कांड है, एक का नाम है कर्मकांड, दूसरा है उपासना कांड, तीसरा है ज्ञान कांड। कर्मकांड में यदि हम विधि से ना करें तो पुण्य की जगह पाप भी हो जाता है। इसलिए कर्मकांड में बहुत ध्यान रखना चाहिए। विधि का पालन करना चाहिए। उदाहरण में एक यह भी कर्मकांड ही है, जब आप पैर छूते हैं तो चलते में, लेटे में, पूजा पाठ करते में, भोजन करते में, छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए, दूर से हाथ जोड़ लेना चाहिए। यदि आप चलते में करते हैं तो पुण्य नहीं है,पाप है। ऐसा ही दान करने में यदि पात्र को दान नहीं देते तो भी पाप लगेगा। नशेड़ी को आप दान दे रहे हैं इसका मतलब नशा पीने के लिए आप सहयोग दे रहे हैं तो यह पाप है। दान देने में भी पाप लग जाता है। यती को स्वर्ण दान देना पाप है। सन्यासी को स्वर्ण दान नहीं करना चाहिए। यतय: कांचनं दत्वा तंबुलं ब्रह्मचारिणो। ब्रह्मचारी को पान देना पाप है और चोर बदमाश को अभय दान देना कि तुम चिंता मत करो हम संभाल लेंगे। अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है ।

अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है। हमको खुद भी नहीं पता था पर बहुत माताएं पुरुषों से ज्यादा जानती है। अभी भी कई माताएं है, यदि हम लेटे हैं तो कहती है स्वामीजी बैठ जाओ! तो पहले मैं नहीं समझा कि क्यों कहती है। हमने कहा क्यों? तो कहती है हमें प्रणाम करना है क्योंकि लेटे में प्रणाम नहीं करना चाहिए। ऐसे ही हम चलते हो तो या तो कहो कि स्वामी जी जरा रुक जाओ, हम रुक जाए तो प्रणाम करो! चलते में नहीं करना चाहिए। तो अभिप्राय है कर्मकांड में विधि का महत्व है। और यह प्रयागराज है, इसमें भी……  विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्म कथा रविनंदिनी बरनी।। 
कर्म की कथा में विधि और निषेध है। यह करना है कि नहीं करना! अर्जुन को लगा ‘मैं लड़ूंगा तो पाप लगेगा’। अब भगवान ने कहा ‘नहीं तुम्हें पाप नहीं लगेगा!’ इसके लिए गीता सुनानी पड़ी अर्थात क्षत्रिय का कर्तव्य है कि ऐसी परिस्थिति हो तो युद्ध करना। सेना में लोग भर्ती है, यदि युद्ध के समय कहने लगे कि हिंसा हो जाएगी तो…..! वे युद्ध करेंगे तो वह युद्ध करना पाप नहीं है। और कोई रोज गीता पढ़ के घर में ही लड़ने लग जाए तो? इसलिए युद्ध करना भी कब, किसे पाप है, किसे पाप नहीं है (यह समझें)। गृहस्थ धर्म है परिवार का पालन करना,नहीं करता तो पाप लगता है। आप बच्चों को पैदा कर दिया और कर्तव्य का पालन नहीं करते हो तो ठीक नहीं। अर्थात् गृहस्थ का एक धर्म है, सन्यासी का एक धर्म है। अब यहां सब का एक ही धर्म नहीं है, सन्यासी का दूसरा धर्म है, गृहस्थ का अलग धर्म है, ब्रह्मचारी का अलग है। इसलिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास यह आश्रम है। किस आश्रम वाले को क्या करना चाहिए, ब्रह्मचारी को क्या करना है क्या नहीं करना है, गृहस्थ को क्या करना है क्या नहीं करना है, इसी तरह से सन्यास में भी। इसलिये कोई भी  आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए । जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए।

कोई भी  आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए। जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां तक दीक्षा में भी यही है। मुझे स्मरण हैं मेरे बड़े भाई को किसी ने कहा ‘दीक्षा ले लो मेरे गुरुदेव से, तो उन्होंने कहा’ अभी हम नहीं लेंगे अभी हमसे नियम का पालन नहीं होगा, इसलिए अभी हम नहीं लेंगे’। तो आप मंत्र को नहीं समझते। तो यह  सन्यास के ही लिए नहीं है मंत्र लेने के लिए भी है। जो गुरु की आज्ञा नहीं मान सकता, उनके बताए नियम का पालन नहीं करता उसे दीक्षा नहीं लेना चाहिए। तो उद्देश्य है…..विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्मकथा रविनंदिनी बरनी।। तो एक तो जमुना नदी है और दूसरी यहां गंगा है भक्ति की तरह। भगवान की कथा, उपासना, भक्ति यह गंगा है, कर्म जमुना है, और ब्रह्मज्ञान सरस्वती है ब्रह्म की चर्चा। तो…. अभी यहां पर इकट्ठे हुए हो तो वैसे भी यहां गंगा, जमुना, सरस्वती का संगम है और सत्संग में भी है। क्या करना ,क्या नहीं करना, यह सीख के पालन करो तो जमुना हो गई, भगवान की चर्चा भगवान का ध्यान-भजन ,जाप करते हो तो यह गंगा हो गई और ब्रह्म की कथा जब सुनोगे तो सरस्वती हो गई । तो दोनों तरह का इस समय यहां संगम है। कथा में भी प्रयागराज होता है और इस समय  दो प्रयागराज चल रहे हैं। वैसे भी प्रयागराज में हो और सत्संग का भी प्रयागराज है। यहां जिन्हें ब्रह्मज्ञान चाहिए वह भी मिलेगा, कर्मकांड आदि चाहिए तो वह भी मिलेगा और भगवान की उपासना भी।

उपासना के लिए भी एक सूत्र है ध्यान का। हम ध्यान कई तरह से कर सकते हैं, पिता का ध्यान, गुरु का ध्यान, प्रकाश का ध्यान, आकाश का ध्यान, भगवान राम का ध्यान, कृष्ण का ध्यान, यह साकार ध्यान है, यह हम सब कर सकते हैं। और…. सुषुप्ति का ध्यान, स्वप्न का ध्यान ‘स्वप्ननिद्रालंबनं वा’ स्वप्न और निद्रा का आलंबन करके ध्यान कर सकते हो। सहारा लेकर, आलंबन माने सहारा लेकर। तो नींद का सहारा ध्यान में लो। तो…. गहरी नींद का क्या सहारा है? नींद में आपको कौन सा दुख था? नींद में आपको कौन सी चिंता थी? नींद में गहरे में कौन सी कामना थी? अर्थात् गहरी नींद आपका अनुभव है और जिसका अनुभव है उसका ध्यान आसान है। ऐसा एक भी नहीं आया होगा शरीरधारी जिसको नींद का पता ना हो। ऐसा अनुभव तुम्हें जीवन में हुआ है जब तुम्हें दुख ना था, चिंता न थी, कामना न थी? और वह कब अनुभव हुआ? बोलो! गहरी नींद में यह अनुभव सबको प्राप्त हो गया है जहां तुम्हें कोई कामना नहीं है, जहां कोई भय नहीं था, जहां कोई चिंता नहीं थी, कुछ नहीं चाहते थे, यहां तक गलती का भय भी नहीं था। कोई गलती हो जाए तो डर लगता है पर गहरी नींद में डर नहीं था। (गहरी नींद) अनुभूत सत्य है जहां तुम्हें कोई भय नहीं था ।आप नहीं कह सकते कि हमें पता नहीं है। वहां कोई कामना नहीं थी । भगवान बड़ा कृपालु है, तुमको भेंट में गहरी नींद दे दी है। चाहो तो आप उसका सहारा ध्यान में ले सकते हो अर्थात् नींद के लक्षण ध्यान में ले आओ, पूरा स्मरण नींद का करो। आप क्या चाहते थे? क्या कमी थी ? क्या भय था ? तो……. ध्यान में बैठकर गहरी नींद की याद करो जहां तुम्हारे पास कोई दुख चिंता भय नहीं  । और इसको ( बुद्धि की अवस्थाएं) समझना हो तो मांडुक्योपनिषद जरूर पढ़ो। मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है।

मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है। मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है और मनुष्य मात्र की तीन अवस्थाएं होती है- जाग्रत, स्वप्न ,सुषुप्ति। तो एक तो गहरी नींद का स्मरण करना ध्यान है। स्मरण करो गहरी नींद में क्या था! धीरे-धीरे होश पूर्वक नींद में प्रवेश करो। बहुत पहले जब मैं ध्यान कराता था तो यह लाइन जरूर बोलता था –  ‘सब प्रपंच निज उदर मेलि  सोवे निद्रा तजि योगी।।’ 
इस लाइन को याद रखो, सब प्रपंच जैसे नींद में कोई प्रपंच नहीं था, सब प्रपंच निज उदर मेलि सोवे निद्रा तजी…. निद्रा तज कर सो गए, बिना नींद के सोए जैसा हो जाए, नींद के बिना सोवे, होश में सोए जैसा हो जाए और धीरे-धीरे चलते फिरते भी अंतः चेतना में सोए जैसा हो जाए। ना कोई कामना है ना कोई भय है! इसलिए भगवान ने गीता में कहा-  विहाय कामान् य: सर्वान् पूमान्श्चरति निस्पृह:।।
सभी कामनाएं छोड़कर विचरण करें । नींद में कोई कामना थी क्या? नहीं! तो जागृत में भी कामना रहित …..कुछ नहीं पाना !स्वर्ग नहीं पाना !थोड़ा समझ लिया हो तो अमर नहीं होना क्योंकि (अमर) हो ! सुख नहीं ढूंढना क्योंकि सुख स्वरूप हो ! सुख स्वरूप होकर सुख को भूल गए और भटक रहे हो सुख के लिए? रोटी के लिए भटकने वाला भिखारी नहीं है, वह आवश्यकता है ,पर जो सुख के लिए भटकते हैं वह सब भिखारी है। और कौन है ऐसा इस धरती पर जो सुख के लिए भागा नहीं फिरता! कम से कम सुख तो हमारा हो “निज का”!

मैं मैं ..

जिसको तुम बुद्धि कहते हो उसको योग वशिष्ठ कहती है- पहले इस पशु बुद्धि का त्याग करो। आप पशु हो क्या ? यदि तुम मानते हो कि मैं मर जाऊंगा तो तुम अपने को कुछ भी मानो, लेकिन जानवर ही हो। मानते रहो, तुम अपने को पंडित मानते रहो, अपने को कथाकार मानते रहो, अपने को विद्वान मानते रहो। भले ही समाज में पूजे जाओ पर तुम अभी भी जानवर ही हो । इसलिए इस पशु बुद्धि का त्याग करो कि तुम शरीर हो। दर्द दूर करो नहीं कहा। कोई दर्द नहीं है, आराम से लेटे हुए हो। लेटे हुए हो कि जाग रहे हो? कौन हो तुम? तुम चेतन हो कि शरीर हो? कभी आपको उत्तर सही मिला? इसलिए ‘कश्चिद्धीरः’ कोई धीर पुरुष सहज अनुभवों को लात मारकर, सहज अनुभव जो हो रहे हैं उनको उपेक्षित करके, नेति- नेति कहकर, ‘नेदं यदिदमुपासते’ यह मैं नहीं हूँ,यह मेरा दृश्य है, ये मेरी इंद्रियाँ हैं, यह मेरा मन है, यह मेरी बुद्धि है, फिर मैं कौन हूँ? यह मेरी-मेरी जिससे उठता है, यह मैं क्या चीज है ? और ये ‘मैं’ भी कितनी देर का मेहमान है? कितनी देर यह मैं-मैं बकरे वाली रहती है? भक्ति शास्त्र वाले ही बताते हैं कि बकरी जीवन भर मैं-मैं-मैं बोलती है। जब मर जाती है तो फिर उसकी ताँत बनती है फिर धुनकी में धुनने में लगती है। फिर तुं तुं तुम् बोलती है। जिंदा में मैं मैं मैं …बोलती है । और मरे में तुम् तुम् बोलती है।

आप तो मरे में भी बोलने वाले नहीं हो। इसलिए देह रहने दो, पर देह बुद्धि का त्याग करो । हमें मालूम है कि तुम पत्नी त्यागने को तैयार हो, अपना घर त्याग ने को तैयार हो; पर ‘यह मेरा है’, यह छोड़ने को तैयार नहीं हो। मुझे मालूम है कि तुम छोड़ने के बाद कहोगे कि इतना मैंने छोड़ा है । जब तेरा है ही नहीं तो छोड़ेगा क्या ? छोड़ने का मतलब है कि अभी तूने ‘मेरा‘ नहीं छोड़ा। यदि ‘यह मेरा’ छोड़ा होता तो छोड़ा क्या है, जब है ही तेरा नहीं ।

कोई कह दे कि मैंने इतना छोड़ा है। तो छोड़े तो तब जब तेरा होता। हमारे आश्रम को क्या तुम दान कर सकते हो? तुम्हारा हक है क्या? इसलिए यह कहो कि मेरा अभिमान था, वह छोड़ दिया। मैं नाम का ख्याल जो पैदा होता है नेचर से, जो नींद में चला जाता है ये प्रकृति जन्य है; यह मैं नहीं हूँ।

मैं नहीं मेरा नहीं यह तन किसी का है दिया ।
जो भी मेरे पास है वह धन किसी का है दिया।।

चिंतन का विषय

एक बहुत बड़े चिंतक थे, वे यह कहते थे, ‘ईश्वर ने मनुष्य नहीं बनाया मनुष्य ने ईश्वर बनाया’। हो सकता है जिन ईश्वरों को बनाया है तुम लोगों ने, बना लिए हैं पूजा के लिए, वह ईश्वर नहीं है! ईश्वर है ही वह जिससे दुनिया हुई है। हम नाम नहीं लेते उसका, इस्लाम भी उसका नाम नहीं लेता, अल्लाह कहता है, खुदा कहता है। हम ईश्वर उसे कहते हैं जिससे दुनिया पैदा हुई है। वह ईश्वर है जिसको मनुष्य ने पैदा किया है। वह मंदिर हो सकता है, वह मूर्ति हो सकती है, पूजा पद्धति हो सकती है, ईश्वर को किसी ने पैदा नहीं किया, ईश्वर ही है जिसमें दुनिया पैदा हुई है और ईश्वर से आज भी पैदा होती है। और फिर बता दें, हम अपने वेद के मंत्र बताते हैं, हम बड़ी दृढ़ता से बताते हैं – – 
यतो वा इमानि भूतानि जायंते 
जिससे यह सारी सृष्टि पैदा हुई है, येन जातानि जिसके द्वारा यह पैदा की गई है, जीवंति अर्थात जिसमें यह जीवित रहती है उसे ब्रह्म कहते हैं। उसे जानो जिससे सृष्टि पैदा हुई है, जिसमें रहती है और जिसमें अंत में लीन हो जाती है! उसको ईश्वर कहते हैं।
कोई व्यक्ति ईश्वर क्यों नहीं है? क्योंकि यह हो सकता है कि दो- एक बच्चों को पैदा कर भी दे…… यहां बहुत लोग हैं माता-पिता जिन्होंने पैदा किया है लेकिन नौ महीने मां के भरोसे था। थोड़े दिन तक दूध पीकर जिया नहीं तो मर जाता। लेकिन अब माँ- बाप मर गए और वह जिंदा है। ज्यादातर सबके मां-बाप, बाबा मर गए लेकिन बेटे हैं, नाती हैं। भगवान ऐसा नहीं है कि उसने पैदा किया और वह बूढ़ा होकर मर गया और दुनिया चली गई। ईश्वर था, है, और रहेगा! दुनिया उसने पैदा की है। आज भी वही पैदा कर रहा है। 

भगवान ऐसा नहीं है कि उसने पैदा किया और वह बूढ़ा होकर मर गया और दुनिया चली गई। ईश्वर था, है, और रहेगा! दुनिया उसने पैदा की है। आज भी वही पैदा कर रहा है। यह गलतफहमी है कि पैदा करते दिखाई नहीं देता। जो लोग बिना समझे ईश्वर की बात करते हैं उनका में खंडन भी करता हूं। राम ही लोग खिलौना माना ईश्वर कोई तुम्हारा खिलौना है? जैसे बच्चे खेल लेते हैं, कुछ  बना लेते हैं ऐसे ही तुमने ईश्वर मान लिया और जब मन का नहीं हुआ तो फेंक दिया। यह ऐसी कहानी है कि समय लूंगा तो बढ़ जाएगी। आप ठाकुर जी को मानते हो पर नाराज हो जाओ तो फेंक देते हो। एक यादव जी थे उनकी भैंसे खो गई। बहुत मनाया ठाकुर जी को पर नहीं माने तो ठाकुर जी को तालाब में फेंक दिया। मैं यह नहीं कहता कि पूजा ना करो करो पर यह हमारे स्वीकार किए हुए भगवान हैं। यह उनके स्वीकार किए थे, नाराज हो गए तो फेंक दिए। और संयोग की बात यह हुई कि उसकी  भैंस आ गई। अब कहने लगा तालाब में से डुबकी लगाकर ढूंढ के लाऊं ठाकुर जी को। तो कहता है ठाकुर जी को कि पहले ही ढूंढ देते तो यह दुर्दशा ना होती! तो तुम तो ऐसे भगवान मानते हो! गुरु को भी ऐसे ही मानते हो! आज मानते हो कल नाराज हो जाओगे। कईयों ने बंद कर दिया गुरु के पास जाना। तो… गुरु को तो मानते हो पर गुरु का खंडन कैसे करोगे? 

ईश्वर से गुरु में अधिक धारे भक्ति सुजान। बिन गुरु भक्ति प्रवीणहूं लहे न आतमज्ञान॥

समस्यायों की जड़

गुरुदेव बताते हैं रूस में योग के लगभग उनके 16 सेंटर है। उनकी 15  पुस्तकों का रशियन लैंग्वेज में अनुवाद हुआ है। और नास्तिक होने के बाद भी भारत में वे आते हैं, यहां शिविर में भाग लेते हैं। माने नास्तिकता भी उपाय नहीं है। मनुष्य की समस्याओं का हल नास्तिकता से नहीं होगा नहीं तो रूस में कोई समस्या ना होती। रूस में भी समस्या है। समस्याएं जब तक दुनिया है तब तक है और जब तक दुनिया है तब तक, ईश्वर  नाम को लोग छोड़ सकते हैं पर सत्य की खोज करते रहे हैं, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे । सत्य का विरोध नहीं किया जा सकता। आखिर इतना बड़ा संसार किसी से तो पैदा होता है! यदि लहर पैदा होती है तो जल तो है! लहर पैदा होने का कारण कुछ तो है! यह दुनिया कैसे पैदा हुई? क्यों पैदा हुई? क्यों पैदा की गई? इसलिए प्रश्न है, उठना चाहिए प्रश्न! कोsहम् मैं कौन हूं?
कोsहं कथं केन कुतः समुद्गते ? मैं कैसे यहां आया? क्यों आया? कौन मुझे यहां ले आया? इस देह में और कौन हैं? क्या कारण है जो इस देह को छोड़कर जाना पड़ता है? बहुतों ने……… प्रह्लाद का बाप जिसने जाने से(मरने से ) बचने के लिए बहुत प्रयत्न किया, वरदान मांग लिया फिर भी बचा नहीं। इतना तप तो आप करोगे नहीं। अर्थात…… मृत्यु से बचने का उपाय नहीं है चाहे रामायण पढ़ लो चाहे भागवत पढ़ लो। हम तो ज्यादा नहीं पढ़ते पर हमारे चेले पढ़ते हैं तो हम सुन लेते हैं। तो भागवत जी में जब कथा की पूर्णता होगी तो उसमें भी चले जाएंगे कृष्ण। कृष्ण गए लेकिन कहा गया कि ‘स्वधाम गए! ‘ तो शब्द ही तो बदला है, शरीर ही तो बदलाहै, शरीर ही तो छोड़ गए। तो प्रह्लाद का बाप  सोच रहा था कि मुझे रहने को(अमर होने का) मिल जाए आशीर्वाद! महामूर्ख है वे जो शरीर से अमर होने की कोशिश कर रहे हैं।

पहले इसे समझो

पूज्य गुरुदेव कहते हैं…जब जब देह में जाओगे मरोगे। तो करना क्या है? देह में ना आना पड़े ! देह में नहीं आओगे तो नहीं मरोगे, देह में नहीं आओगे तो भ्रम भी नहीं होगा। इसलिए एक बार देहोsहम् से  शिवोsहम् की यात्रा करनी ही पड़ेगी और वह बड़ी यात्रा नहीं है, स्थूल – सूक्ष्म – कारण तीन शरीरों को पार करना है, तीन गुणों से पार होना है तमोगुण, रजोगुण, सतोगुण। तीन गुणों को पार करो और गुणातीत हो गए। तीन सीढियां हैं – देह का अभिमान छोड़ो, जिव का अभिमान छोड़ो और कारण का अभिमान छोड़ो। जहां जीव  लय हो जाता है गहरी नींद में, फिर आ जाता है। व्यक्त से अव्यक्त में चला जाता है। भगवान ने कहा है यह याद रखना चाहिए। भगवान ऐसे ही नहीं बोलते, वह कहते हैं – 
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्त मध्यानि भारत। अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥
पहले यह सब अव्यक्त थे तो फिर क्या हुआ? व्यक्त मध्यानि भारत और बीच में व्यक्त हो गए, दिखने लगे, बोलने लगे, बात करने लगे। भगवान ने कहा मृत्यु में क्या होता है? अव्यक्त निधनान्येव अव्यक्त हो जाते हैं।  तत्र का परिदेवना आखिर इसमें दुख की क्या बात है? अव्यक्त हो गए लेकिन जो परम सत्य है वह अव्यक्त नहीं है, वह कारण नहीं है,  कार्य व्यक्त है कारण अव्यक्त है। पर एक परमअव्यक्त है अव्यक्तात् पुरुष: पर:  व्यक्त और अव्यक्त से ऊपर कुछ है। पूरी गीता इसी पर है। बोलूंगा तो बहुत समय लगेगा पर संकेत है! स्थूल देह तो जाएगा ही लेकिन यह सूक्ष्म भी एक देह से दूसरे देह में ले जाता है, दूसरे से तीसरे में ले जाता है और इसी कारण से हमें फल भोगना पड़ता है। यदि सूक्ष्म शरीर ना होता, दूसरे देह में ना जाते।

दुनिया के सभी संप्रदाय यह तो मानते ही है कि स्थूल देह के अतिरिक्त भी एक जीव है, यह इस्लाम भी मानता है, क्रिश्चियन  भी मानता है, हिंदू भी मानता है। केवल नास्तिक नहीं मानता! नास्तिक नहीं मानता कि कोई जीव है, वह यह मानता हैं–
यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्।भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः?  
जब तक जियो मौज से जियो ऋण लेकर, कर्ज लेकर घी पियो या शराब पियो, मस्ती में टाइम बिताओं , मर जाने के बाद किसने देखा है कहां जाना है!
तो……. कुछ नास्तिक लोग यह मानते हैं। कुछ बेटियों ने इसपर  ताली बजाई मुझे नहीं लगता कि उन्हें खुशी हुई, किस बात की? उनको यह बहुत अच्छा लगा यह भी अच्छी बात है, हां और यह भी लगा होगा कि खाओ पियो मौज करो आगे किसने देखा है! ठीक है? खैर आजकल तुम कॉलेज में पढ़ते हो ,यह हवा लग जाना स्वाभाविक है और जो कसर है वो राजनीति पूरा कर देगी, उनके रोज मुद्दे बदलते है। तो हम क्या कहना चाहते है? यदि देह के बाद छुट्टी हो जाती तो एक तरह की मुक्ति ही है। और यह भी बता दूं, नास्तिक का इस पर उपाय नहीं है। मैं जानता हूं, संत भी जानते हैं, कम से कम 16 बार मैं अमेरिका गया, कनाडा गया, इंग्लैंड गया और रूस गया । मैने इसलिए रूस का जिक्र करने के लिए भूमिका बनाईं! रूस में लेनिन के बाद धर्म को अफीम कहा। यद्यपि वहां योग को सम्मान है, योगाभ्यास वहां के लोग भी करते हैं, हमसे ज्यादा स्वस्थ रहते हैं। हम लोग मानते हुए भी स्वस्थ नहीं रहते। तो वे लोग नास्तिक देश में है फिर भी शरीर से स्वस्थ रहने के लिए योगाभ्यास करते हैं और मन को शांत रखने के लिए ध्यान भी करते हैं। वहां योग के लगभग 16 सेंटर है। मेरी 15  पुस्तकों का रशियन लैंग्वेज में अनुवाद हुआ है। और नास्तिक होने के बाद भी भारत में वे आते हैं, यहां शिविर में भाग लेते हैं, माने नास्तिकता भी उपाय नहीं है!

वैसे तो फ्री में सब मांग रहे हैं कि हमें मुक्ति मिल जाए। यदि कुछ को मिल भी जाए तो रोएंगे क्योंकि हमें मालूम है कि इन्हें अभी मुक्ति चाहिए ही नहीं। जैसे, कई छोटे बच्चे मचलते हैं कि मेरी शादी करा दो, मेरी शादी करा दो। अब वह शादी करके करेगा क्या? बस, उसने तो सुना है कि शादी होती है इसलिए मांग बैठा। आपके मोक्ष की इच्छा भी कुछ ऐसी ही है। आता- जाता कुछ है नहीं, बस मुक्ति हो जाए। मेरा-तेरा छोड़ना नहीं चाहते हो, राग-द्वेष छोड़ना नहीं चाहते हो, पर मुक्ति चाहते हो। काहे की मुक्ति ? क्या बिना पात्रता के मुक्ति मिलती है? और क्या बिना पात्रता की मुक्ति टिकती है ? पहले इस को समझो।

स्वर

ख्याब सा हो
खुशबू सी हो
किसी रागनी के
स्वरंगों सी हो
कवियों के गीत, की प्रेरणा
कोई प्यार करे
तो पूरी सदी सी हो
प्रकृति की सुबह की ओस पर
इक गेरुए किरण सी हो
कला की कृति सी तुम
अप्रितिम प्रकृति सी हो
पानी की चमक
मिट्टी की खुश्बू
आकाश की लालिमा
पूरे इंद्रघनुष सी हो
शब्द कम पड़ जाए
कोई कल्पना गर करे

तुम शब्दो से परे
स्वरों सी हो….!