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सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

गुणों के पार – मुक्त

पुज्य गुरूदेव बताते हैं, मुक्त कौन होगा ? जो गुणों से पार हो जाएगा।

गुण तीन प्रकार के हैं:

तमोगुण; मतलब आलस्य निद्रा। इस गुण में रहेंगे तो मरने के बाद अन्य योनियों में जाओगे। जैसे पक्षी, जानवर आदि।

रजोगुण; इस गुण में रहोगे तो मृत्यु के बाद भी मनुष्य योनी में ही आओगे।

सत्वगुण:बअगर इस दुनिया में सत्वगुणी रहोगे तो देवता बन जाओगे।

पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि तुम इन्हीं तीन गुणों में रहते हो। कभी जागृत कभी स्वप्न और कभी सुषुप्ति। इसको चक्र कहते हैं। उदाहरण से समझाते हैं, आपकी नाव पानी में चलती है। नाव में ही इस किनारे, फिर बीच में और आखिर में उस किनारे। नाव से तुम उतरे ही नही।
अपने को कैसे पहचाने कि हम तीन गुणों से बाहर गये।यह बहुत बडा रहस्य है। पुज्य गुरूदेव समझाते हैं—


जो जान जाएगा यह सब गुणों का काम है।मैं तो साक्षी हूँ। मेरा कोई आग्रह नही है।


जब सचमुच गहराई से दुख,चिन्ता, भय नही है। ऐसे ज्ञानी चुनाव रहित होते हैं। जो होता है,होने देते हैं।


जब अमर हैं तो धीर्घ आयु की जरूरत ही क्या है या मृत्यु का विरोध करोगे?


अगर खुद सुखस्वरूप हो तो सुख पाने की इच्छा करोगे। जब कमी ही नही है तो पूर्ति किसकी करोगे।


पुज्य गुरूदेव बताते हैं मुक्त वही है जो इन गुणों से पार हो जाएगा।ज्ञानी चुनाव छोड के गुणातीत होता है। जैसे सागर नदियों को बुलाता नहीं हैं अपने आप आ जाती हैं और मना भी नहीं करता है क्यों आ गये।सागर शान्त रहता है।उदाहरण से समझो—


जैसे नारियल में पहले सिर्फ पानी होता; फिर पानी और गिरी भी; और अन्त में खाली गिरी।कोश से चिपका नही।अलख होता है, बाहर नही।


जैसे ज्योति जल रही हैं। डक दी गई। बाहर वालों के लिए वह बुझी सी है, पर ज्योति से पूछो कि तुम जगी हो या सोई हो।

गुणातीत

“यह गुन साधन तें नहिं होई

हम तुमको कहें कि अपने स्वरूप की याद करो। तुम से बनेगा ही नहीं। अपने स्वरूप को, निर्विकारिता को आप क्यों नहीं याद कर पाते? मैं निर्विकार हूँ,चेतन हूँ, अजन्मा हूँ, अविनाशी हूँ याद कर पाओगे? बनेगा ही नहीं। क्योंकि एक दिन भी अनुभव हुआ ही नहीं तो कैसे कर लोगे अपने स्वरूप की याद? देह हूँ; यह अनुभव हुआ है। दुःखी- सुखी अनुभव हुआ है। मैं चैतन्य हूँ, निर्विकार हूँ; यह अनुभव हुआ ही नहीं।

इसलिए ध्यान करके सुमिरन करके थोड़ा सा चित्त को एकाग्र करो तो कुछ अनुभव आएगा। उस समय लगेगा कि आनंद है, उस समय कोई चिंता नहीं, कोई दुःख नहीं लेकिन फिर धीरे-धीरे चिंता आ गई, फिर चित्त एकाग्र हुआ, चिंता हट गई, फिट भ्रांति आयी और हट गयी।

जो निश्चिन्त हुआ था वह जीव है। जीव ध्यान करते- करते निश्चिंतता में चला गया, फिर चिंता में आ गया। आता-जाता है, परिवर्तन है पर इसके पीछे भी एक छिपा है जो सदा अलेप है। सर्व निवासी सदा अलेप, उसको प्राप्त करना है।

से कैसे प्राप्त करें? साधना करके? यह गुन साधन तें नहिं होई। इसलिए साधन करे न कोई। यद्यपि यह बात बहुत ऊंची स्थित वाले के लिए कही गई है। यदि तुम साधन नहीं करोगे तो नदी में तिनके की तरह बहते चले जाओगे। टिक ही नहीं सकते। इसलिए कहते हैं कि यह गुन साधन तें नहिं होई और साधन के बिन कुछ नहीं होई। साधना के बिना कुछ नहीं होगा। लेकिन साधना से कर्मजन्य वृत्तिरूप होगा। इसलिए साधना से जो प्राप्त होता है वह अनित्य होता है। साधना तो एक अवस्था तक ले जाएगी जैसे, प्रैक्टिस से सतोगुणी बन जाओ; पर गुणातीत कैसे बनोगे? तमोगुणी रजोगुणी हो सकता है। रजोगुणी सतोगुणी हो सकता है। गुणातीत होने के लिए क्या करोगे? इसलिए जब तक गुरु के वाक्य क्लियर ना हो तब तक गुणातीत नहीं हो सकोगे।