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मुक्त पुरुष

अब कोई कहे कि आप •••? तो हम भी कई योनियों से गुजरे होंगे । और तो और इस योनि ( मनुष्य योनि ) में भी कई बार मनुष्य देह रहकर स्वार्थी बने, राक्षस बने, संसारी बने। यह बात ग्रंथों ने भी कही है। बार – बार हम मनुष्य देह में भी आये। एक ही बार में (ब्रह्मज्ञानी) नहीं बने। एकाध बार जब मनुष्य देह मिलेगा तो पुरानी वासना के अनुसार वही काम करोगे। इसलिए ध्यान रखना कि कई बार मनुष्य तो बने पर मुमुक्षु नहीं बने। मेरे को तो शंका इसी में है कि क्या आप सब मुमुक्षु हैं? पहले ये तीन हो जाएं —
मनुष्यत्वं मुमुक्षूत्वं महापुरुषसंश्रय:।
पहले मनुष्य फिर मुमुक्षु , फिर महापुरुषों का संग। जितना आपको प्रेमी – प्रेमिका अच्छे लगते हैं, जितनी आपको मटरगश्ती अच्छी लगती है, क्या उतने ही आपको महापुरुष अच्छे लगते हैं •••? महापुरुष का आश्रय जरूरी है।
देखो, गर्भ भी कई तरह से आश्रय लेता है। पहले मां के पेट का आश्रय लेता है । फिर क्या वह वहीं बना रहता है? जब बाहर आया तो दूध किसका पिया? बाप का पिया? फिर भी आश्रय मां का ही है। मां खिलाती है, मां बुलवाती है। इसलिए हम लोग कहते हैं आप कि मातृभाषा क्या है? बोलना भी हमने मां से ही सीखा है। दूध भी मां का पिया, खेले भी मां की गोद में, अर्थात मां ने हमको बड़ा किया। धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाएं। आवश्यकता है मुक्त होने की , जैसे मां के पेट से मुक्त होना जरूरी है; पर जल्दी नहीं, ऐसे ही माता के दूध से भी। क्या सारी जिंदगी मां का दूध ही पीते रहोगे? फिर दूध पीना छोड़ा। खाना शुरू किया। मां खिलाती थी, मां बनाती थी।

मैं क्या हूँ ? मैं कौन हूँ?


भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्धा।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
पंचभूत (भूमि), आप ( जल ), अनल (अग्नि), वायु और खम् (आकाश ) इसमें तीन और हैं ( मन , बुद्धि और अहंकार )। ये आठों (अष्टधा) अपरा अर्थात जड़ प्रकृति हैं । चैतन्य नहीं है। इसमें जो चिदाभास है वह चेतन ( परा ) की चेतन्य प्रकृति है। ये दोनों मिले हुए हैं। संपूर्ण सृष्टि इन दोनों प्रकृतियों से ही चल रही है। जगत को धारण किसने किया है? प्रकृति ने किया है, चैतन्य ने नहीं। चैतन्य को तो लेना – देना ही नहीं है । वह तो साधू है, वह तो ब्रह्म है, वह तो नपुंसक है। यह जो चैतन्य की चिदाभासात्मिका है वह मन से इन्द्रियों से मिल कर चलाती रहती है । परमात्मा इससे भिन्न है। वह इसमें लिप्त है ही नहीं।
सर्व निवासी सदा अलेपा।
वह बिल्कुल अलिप्त है। वह विकारी नहीं है । किसी में मिलता ही नहीं है । चिदाभास, प्रकृति से मिलकर प्रकृति के अनुसार बन गया। साक्षी बना नहीं। चिदाभास, वृत्ति के अनुसार , अंतःकरण के अनुसार होता है। साक्षी तो कभी कुछ होता ही नहीं है।
आदि शंकराचार्य का श्लोक देखिए —
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहम्
पंचभूत और मन, बुद्धि, चित्, अहंकार ये मैं नहीं हूं। ये हैं; पर ये मैं नहीं हूं। इनको मिटाने के चक्कर में मत पड़ना। कई लोग अहंकार से निपटने के चक्कर में पड़े हैं। मर गए अहंकार को मिटाते – मिटाते; पर अहंकार नहीं मिटा । यह तो प्रकृति का है। मैं नहीं हूं। मैं हूं , ये भी हैं ; पर ये मैं नहीं हूं।

भोग से प्रारब्ध का क्षय

पूर्व में मनुष्य के तीन प्रकार के कर्म बताए गये है क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। इनमे क्रियमाण कर्म पर मनुष्य का अधिकार है अच्छे कर्म करके इनसे होने वाले आगे के प्रभावों से वह बच सकता है । तथा निष्काम कर्म, आसक्ति रहित कर्म करके तथा फलाकांक्षा का त्याग करके वह कर्म बन्धन से बच सकता है।
किन्तु संचित कर्मो को नष्ट करने का उपाय केवल ज्ञान ही है।
ज्ञान से यह सारा संचित कोश नष्ट हो जाता है।
तथा अहंकार रहित हो जाने पर वह आगे कर्मों का संग्रह नही करता। फिर तीसरा प्रारब्ध शेष रहता है । जिसके कारण वर्तमान जीवन मिला है। उसका क्षय भोग से ही होता है। ज्ञान प्राप्ति पर भी इसका नाश बिना भोग के नही होता। अक्षुपनिषद मे कहा गया है:-
ज्ञान का उदय हो जाने पर पूर्वकृत कर्मोंके प्रारब्ध भोग तो भोगने ही पडते है उनका नाश नही होता। धनुष से छूटा हुआ तीर प्रहार करता ही है।
मीरा, रामकृष्ण, बुद्ध, आदि सब ने भोगा है व अन्तिम समय बडा़ कष्ट से गुजरा है किन्तु यह कष्ट शरीर तक ही सीमित था उनकी चेतना इन कष्टो से अप्रभावित रही क्योकि उनका शरीर  से तादात्मय छूट चुका था तथा वे आत्मा मे स्थित हो चुके थे। उन्होने शारीरिक सुख दुख नही माना क्योकि वे उससे पृथक हो चुके थे। अज्ञानी ऐसे सुख दुख को अपना सुख दुख मानता है। ज्ञानी और अज्ञानी मे यही अन्तर है यह भोग,अनिच्छा, परेच्छा तथा स्वेच्छा से ही हो सकता है। प्रायश्चित से भी नाश होता है। तथा सेवा से भी छुटकारा मिलता है।
                                                    

कर्म का सिद्धान्त

आंख ने पेड़ पर फल देखा .. लालसा जगी..
आंख तो फल तोड़ नही सकती इसलिए पैर गए पेड़ के पास फल तोड़ने..
पैर तो फल तोड़ नही सकते इसलिए हाथों ने फल तोड़े और मुंह ने फल खाएं और वो फल पेट में गए.
अब देखिए जिसने देखा वो गया नही, जो गया उसने तोड़ा नही, जिसने तोड़ा उसने खाया नही, जिसने खाया उसने रक्खा नहीं क्योंकि वो पेट में गया
अब जब माली ने देखा तो डंडे पड़े पीठ पर जिसकी कोई गलती नहीं थी ।
लेकिन जब डंडे पड़े पीठ पर तो आंसू आये आंख में क्योंकि सबसे पहले फल देखा था आंख ने
अब यही है कर्म का सिद्धान्त

ध्यान दें

जो लोग रात 12 बजे मनाते हैं जन्मदिन
उन्हें कुछ बातों की जानकारी होना आवश्यक है..

एक अजीब सी प्रथा इन दिनों चल पड़ी है वो है ..रात 12 बजे शुभकामनाएं देने और जन्मदिन मनाने की। लेकिन क्या आपको पता है भारतीय शास्त्र इसे गलत मानता है .. हम आपको यही अवगत कराने प्रयास कर रहे हैं कि वास्तव में ऐसा करना कितना अजीब है..

आजकल किसी का बर्थडे हो, शादी की सालगिरह हो या फिर कोई और अवसर क्यों ना हो, रात के बारह बजे केक काटना लेटेस्ट फैशन बन गया है। लोग इस बात को लेकर उत्साहित रहते हैं कि रात को बारह बजे केक काटना है

अक्सर ऐसा देखा जाता है कि लोग अपना जन्मदिन 12 बजे यानि निशीथ काल ( प्रेत काल) में मनाते हैं। । निशीथ काल रात्रि को वह समय है जो समान्यत: रात 12 बजे से रात 3 बजे की बीच होता है। आमजन इसे मध्यरात्रि या अर्ध रात्रि काल कहते हैं। शास्त्रनुसार यह समय अदृश्य शक्तियों, भूत व पिशाच का काल होता है। इस समय में यह शक्ति अत्यधिक रूप से प्रबल हो जाती हैं।

हम जहां रहते हैं वहां कई ऐसी शक्तियां होती हैं, जो हमें दिखाई नहीं देतीं, किंतु बहुधा हम पर “प्रतिकूल” प्रभाव डालती हैं जिससे हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो उठता है और हम दिशाहीन हो जाते हैं। जन्मदिन की पार्टी में अक्सर मदिरा व मांस का चलन होता है। ऐसे में प्रेतकाल में केक काटकर, मदिरा व मांस का सेवन करने से अदृश्य शक्तियां व्यक्ति की आयु व भाग्य में कमी करती हैं और दुर्भाग्य उसके द्वार पर दस्तक देता है। साल के कुछ दिनों को छोड़कर जैसे दीपावली, 4 नवरात्रि, जन्माष्टमी व शिवरात्रि पर निशीथ काल महानिशीथ काल बन कर शुभ प्रभाव देता है जबकि अन्य समय में दूषित प्रभाव देता है।

शास्त्रों के अनुसार रात के समय दी गई शुभकामनाएं प्रतिकूल फल देती हैं

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार दिन की शुरुआत सूर्योदय के साथ ही होती है और यही समय ऋषि-मुनियों के तप का भी होता है। इसलिए इस कला में वातावरण शुद्ध और नकारात्मकता विहीन होता है। ऐसे में शास्त्रों के अनुसार सूर्योदय होने के बाद ही व्यक्ति को बर्थडे विश करना चाहिए क्योंकि “रात के समय” वातावरण में रज और तम  कणों की मात्रा अत्याधिक होती है और उस समय दी गई बधाई या शुभकामनाएं फलदायी ना होकर प्रतिकूल बन जाती हैं।

खैर ये सारी शास्त्रोक्त बातें हैं आप अगर इन्हें नज़रअंदाज़ भी कर दें पर क्या अपने ह्रदय की भावनाओं और संवेदनाओं को साक्षी मान कर सोचिए वो सुबह कितनी अविस्मरणीय होती है जब आप रात को जल्दी सोकर सुबह जल्दी उठे थे। और किसी ने आपको आपके शरीर के इस प्राकट्य दिवस पर शुभकामनाएं या कोई तोहफा दिया था।

ये जीवन आपका है। आप सोचें कि कैसे जीना है। बस एक बात हमेशा याद रखें बड़े भाग्य से ये मनुष्य जीवन मिलता है इसे जितना प्राकृतिक होकर जिया जा सकता है जियें।

शाहीन

बाज पक्षी जिसे हम ईगल या शाहीन भी कहते है। जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है उस उम्र में एक मादा बाज अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है।  पक्षियों की दुनिया में ऐसी Tough and tight training किसी भी ओर की नही होती।
मादा बाज अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Kmt.  ऊपर ले जाती है।  जितने ऊपर अमूमन जहाज उड़ा करते हैं और वह दूरी तय करने में मादा बाज 7 से 9 मिनट का समय लेती है।
यहां से शुरू होती है उस नन्हें चूजे की कठिन परीक्षा। उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस लिए पैदा हुआ है? तेरी दुनिया क्या है? तेरी ऊंचाई क्या है? तेरा धर्म बहुत ऊंचा है और फिर मादा बाज उसे अपने पंजों से छोड़ देती है।
धरती की ओर ऊपर से नीचे आते वक्त लगभग 2 Kmt. उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है। 7 Kmt. के अंतराल के आने के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने लगते है।
लगभग 9 Kmt. आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते है। यह जीवन का पहला दौर होता है जब बाज का बच्चा पंख फड़फड़ाता है।
अब धरती से वह लगभग 3000 मीटर दूर है लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है। अब धरती के बिल्कुल करीब आता है जहां से वह देख सकता है उसके स्वामित्व को। अब उसकी दूरी धरती से महज 700/800 मीटर होती है लेकिन उसका पंख अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है की वो उड़ सके।
धरती से लगभग 400/500 मीटर दूरी पर उसे अब लगता है कि उसके जीवन की शायद अंतिम यात्रा है। फिर अचानक से एक पंजा उसे आकर अपनी गिरफ्त मे लेता है और अपने पंखों के दरमियान समा लेता है।
यह पंजा उसकी मां का होता है जो ठीक उसके उपर चिपक कर उड़ रही होती है। और उसकी यह ट्रेनिंग निरंतर चलती रहती है जब तक कि वह उड़ना नहीं सीख जाता।
यह ट्रेनिंग एक कमांडो की तरह होती है।. तब जाकर दुनिया को एक शाहीन यानि बाज़ मिलता है l शाहीन अपने से दस गुना अधिक वजनी प्राणी का भी शिकार करता है।
हिंदी में एक कहावत है… “बाज़ के बच्चे मुँडेर पर नही उड़ते।”
बेशक अपने बच्चों को अपने से चिपका कर रखिए पर एक शाहीन की तरह उसे दुनियां की मुश्किलों से रूबरू कराइए, उन्हें लड़ना सिखाइए। बिना आवश्यकता के भी संघर्ष करना सिखाइए। ये Tv के रियलिटी शो और अंग्रेजी स्कूल की बसों ने मिलकर आपके बच्चों को “ब्रायलर मुर्गे” जैसा बना दिया है जिसके पास मजबूत टंगड़ी तो है पर चल नही सकता। वजनदार पंख तो है पर उड़ नही सकता क्योंकि…
गमले के पौधे और जंगल के पौधे में बहुत फ़र्क होता है।

मांस-भक्षण-निषेध : संक्षिप्त प्रमाण

महाभारत में कहा है-

धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगतः।
घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः॥

आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादकाः सर्व एव ते॥
       –महा० अनु० ११५/४०, ४९

‘मांस खरीदनेवाला धन से प्राणी की हिंसा करता है, खानेवाला उपभोग से करता है और मारनेवाला मारकर और बाँधकर हिंसा करता है, इस पर तीन तरह से वध होता है । जो मनुष्य मांस लाता है, जो मँगाता है, जो पशु के अंग काटता है, जो खरीदता है, जो बेचता है, जो पकाता है और जो खाता है, वे सभी मांस खानेवाले (घातकी) हैं ।’

    अतएव मांस-भक्षण धर्म का हनन करनेवाला होने के कारण सर्वथा महापाप है । धर्म के पालन करनेवाले के लिये हिंसा का त्यागना पहली सीढ़ी है । जिसके हृदय में अहिंसा का भाव नहीं है वहाँ धर्म को स्थान ही कहाँ है?

भीष्मपितामह राजा युधिष्ठिर से कहते हैं-

मां स भक्षयते यस्माद्भक्षयिष्ये तमप्यहम ।
एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्ध्यस्व भारत ॥
       –महा० अनु० ११६/३५

‘ हे युधिष्ठिर ! वह मुझे खाता है इसलिये मैं भी उसे खाऊँगा यह मांस शब्द का मांसत्व है ऐसा समझो ।’

इसी प्रकार की बात मनु महाराज ने कही है-

मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्तिं मनीषणः

                    –मनु0 ५/५५

‘मैं यहाँ जिसका मांस खाता हूँ, वह परलोक में मुझे (मेरा मांस) खायेगा। मांस शब्द का यही अर्थ विद्वान लोग किया करते हैं ।’

आज यहाँ जो जिस जीव के मांस खायेगा किसी समय वही जीव उसका बदला लेने के लिये उसके मांस को खानेवाला बनेगा । जो मनुष्य जिसको जितना कष्ट पहुँचाता है समयान्तर में उसको अपने किये हुए कर्म के फलस्वरुप वह कष्ट और भी अधिक मात्रा में (मय व्याज के) भोगना पड़ता है, इसके सिवा यह भी युक्तिसंगत बात है कि जैसे हमें दूसरे के द्वारा सताये और मारे जाने के समय कष्ट होता है वैसा ही सबको होता है। परपीड़ा महापातक है, पाप का फल सुख कैसे होगा?  इसलिये पितामह भीष्म कहते हैं-

कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः ।
आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुनः पुनः ॥
          –महा० अनु० ११६/२१

‘मांसाहारी जीव अनेक योनियों में उत्पन्न होते हुए अन्त में कुम्भीपाक नरक में यन्त्रणा भोगते हैं और दूसरे उन्हें बलात दबाकर मार डालते हैं और इस प्रकार वे बार- बार भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं ।’

इमे वै मानवा लोके नृशंस मांसगृद्धिनः ।
विसृज्य विविधान भक्ष्यान महारक्षोगणा इव ॥
अपूपान विविधाकारान शाकानि विविधानि च ।
खाण्डवान रसयोगान्न तथेच्छन्ति यथामिषम ॥
      –महा० अनु० ११६/१-२

‘शोक है कि जगत में क्रूर मनुष्य नाना प्रकार के पवित्र खाद्य पदार्थों को छोड़कर महान राक्षस की भाँति मांस के लिये लालायित रहते हैं तथा भाँति-भाँति की मिठाईयों, तरह-तरह के शाकों, खाँड़ की बनी हुई वस्तुओं और सरस पदार्थों को भी वैसा पसन्द नहीं करते जैसा मांस को।’

बात महाभारत में कही गयी हो या कहीं और.. तर्कसंगत ये है कि जब आप किसी जीव के प्राण लेते हैं उसे वैसा ही दुःख या यातनायें होतीं हैं; जैसी कि आपको; पर आप अपने स्वार्थ और इन्द्रियों को आधीन हो सब भूल या सब पर पर्दा डाल ये घृणित काम बार बार करते हैं। यहां एक बात समझ लेना बहुत ही ज़रूरी है कि ये शरीर आपका प्रारब्ध ही है और आगे भी इसी सिद्धांत से होगा तो आप सच में चाहते क्या हैं?

हम सभी ने बचपन में एक कहावत सुनी थी कि ” जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन, जैसा पियो पानी वैसी बने वाणी ” फिर भी हम अपने भोजन और पेय पदार्थों पर कितना ध्यान देते हैं?

इस संसार के समस्त जीवों के प्रति सदभाव होना ही मानवता है। और मानव होने के नाते हमारा यही धेय भी होना चाहिए।

शहंशाह बनने का तरीका

न चेत् इहावेदिन् महति विनष्टी ।।
यदि उसको यही नहीं जाना तो बड़ा नुकसान किया हमने

सब कुछ पाने में समय लगाया पर उसके लिए समय नहीं बचाया जो सब में रहता है। जब तक हमारी जिंदगी है सौ काम लगे रहेंगे, हम अपने  सत् स्वरूप के आनंद को   नहीं पा सकेंगे  अगर हम शरीर के आधीन हो गए  तो। इसीलिए हम आनंद में रहे। साधु शहंशाह होता है, बादशाहो का बादशाह होता है। लोग अपने मालिक नहीं है, दूसरों के मालिक बनना चाहते हैं। भारत में संतों को स्वामी जी कहते हैं। स्वामी अर्थात अपने आनंद के आप स्वयं मालिक है। अपने जीवन के आप मालिक है। और जिसे सुख की भीख ना मांगना पड़े वह मालिक है। तो भारत में मांग के खाने वाले( फकीर) अपने आनंद के मालिक थे, गुलाम नहीं थे। और विशेषकर के ‘अपनेे आनंद के’ मालिक थे। यदि आनंद हमें किसी से लेना पड़ा तो हम भिखारी हो गए। इसलिए वोट मांगने वाले बड़े बादशाह नहीं होते। किसी से लेने की इच्छा सबसे बड़ी कमजोरी है। और सबसे बड़ी ताकत है किसी से कुछ लेना नहीं । जो किसी से अपेक्षा नहीं करते ऐसे मुनी के पीछे भगवान चलते हैं। जो हाथ में कुछ रुपया बांधकर नहीं रखते और किसी से कुछ चाहते नहीं ऐसे लोगों के पीछे भगवान चलते हैं कि इनकी चरण धूलि मेरे माथे पर पड़ जाए।अर्थात कामना से रहित जो महापुरुष है उनके पीछे भगवान चलते हैं। इसलिए भगवान के पीछे तो प्रारंभ में चलना है। जब आप आत्माराम हो जाएंगे, अपने आनंद में रहेंगे तो भगवान तुम्हारी चिंता करेगा। तुम्हें किसी की चिंता करने की आवश्यकता नहीं। देहाभिमान गलिते विज्ञाते परमात्मनी
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयाः।।
देह का अभिमान ‘मैं देह हूं’ यह अभिमान यदि गलित हो गया और ‘मैं आनंद हूं’ यदि यह समझ लिया तो मुझे किसी की जरूरत नहीं तो ऐसे व्यक्ति के पीछे परमात्मा चलते हैं कि उनकी धूल उड़ेगी तो हम पर पड़ेगी। आप अपने अंदर का आनंद अनुभव करो।

आपका जीवन साथी कौन है?

माँ
पिता
बीवी
बेटा
पति
बेटी
दोस्त…????

बिल्कुल नहीं

आपका असली जीवन साथी
आपका शरीर है ..

एक बार जब आपका शरीर जवाब देना बंद कर देता है तो कोई भी आपके साथ नहीं है।

आप और आपका शरीर जन्म से लेकर मृत्यु तक एक साथ रहते हैं।

जितना अधिक आप इसकी परवाह करते हैं,  उतना ही ये आपका साथ निभाएगा।

आप क्या खाते हो,
फ़िट होने के लिए आप क्या करते हैं,
आप तनाव से कैसे निपटते हैं

आप कितना आराम करते हैं
आपका शरीर वैसा ही जवाब देगा।
याद रखें कि आपका शरीर एकमात्र स्थायी पता है जहां आप रहते हैं।

आपका शरीर आपकी संपत्ति है, जो कोई और साझा नही  कर सकता ।

आपका शरीर आपकी
ज़िम्मेदारी है।
इसलिये,
तुम हो इसके असली
जीवनसाथी।

हमेशा के लिए फिट रहो
अपना ख्याल रखो,
पैसा आता है और चला जाता है
रिश्तेदार और दोस्त भी
स्थायी नहीं हैं।

याद रखिये,
कोई भी आपके  अलावा आपके शरीर की मदद नहीं कर सकता है।

आप करें:-
* प्राणायाम – फेफड़ों के लिए
* ध्यान – मन के लिए
* योग-आसन – शरीर के लिए
* चलना – दिल के लिए
* अच्छा भोजन – आंतों के लिए
* अच्छे विचार – आत्मा के लिए
* अच्छे  कर्म – दुनिया के लिए                                          

स्वस्थ रहें, मस्त रहें

“शयन के नियम”

  1. सूने तथा निर्जन घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। “देव मन्दिर” और #श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए – “#मनुस्मृति”
  2. किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए – “#विष्णुस्मृति”
  3. विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, यदि ये अधिक समय से सोए हुए हों, तो इन्हें जगा देना चाहिए – “#चाणक्यनीति”
  4. स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु #ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। (देवीभागवत) बिल्कुल अँधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए – “#पद्मपुराण”
  5. भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। (अत्रिस्मृति) टूटी खाट पर तथा जूठे मुँह सोना वर्जित है – “#महाभारत”
  6. “नग्न होकर/निर्वस्त्र” नहीं सोना चाहिए -“#गौतमधर्मसूत्र”
  7. पूर्व की ओर सिर करके सोने से #विद्या, पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता, #उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु तथा #दक्षिण की ओर सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है – “आचारमय़ूख”
  8. दिन में कभी नहीं सोना चाहिए। परन्तु “#ज्येष्ठ_मास” में दोपहर के समय 1 मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। (दिन में सोने से रोग घेरते हैं तथा आयु का क्षरण होता है)
  9. दिन में तथा सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाला रोगी और दरिद्र हो जाता है – “#ब्रह्मवैवर्तपुराण”
  10. सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घण्टे) के बाद ही शयन करना चाहिए।
  11. बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर है।
  12. दक्षिण दिशा में पाँव करके कभी नहीं सोना चाहिए। यम और दुष्ट देवों का निवास रहता है। कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है, स्मृति- भ्रंश, मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।
  13. हृदय पर हाथ रखकर, छत के “पाट या बीम” के नीचे और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।
  14. शय्या पर बैठकर “खाना-पीना” अशुभ है।
  15. सोते सोते “पढ़ना” नहीं चाहिए। (ऐसा करने से नेत्र ज्योति घटती है )
  16. ललाट पर “तिलक” लगाकर सोना “अशुभ” है। इसलिये सोते समय तिलक हटा दें।

इन १६ नियमों का अनुकरण करने वाला यशस्वी, निरोग और दीर्घायु हो जाता है।