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जीवन में शांति कैसे आए ?


मनुष्य के अंदर यही एक पीड़ा है। इस पीड़ा को निवृत्त करने के लिए ऋषियों ने अध्यात्मवाद के तथ्यों की खोज की। जैसे विज्ञान अपने भौतिक जगत में खोज करता है; ऐसे ही अध्यात्मिक पुरुषों ने आंतरिक जगत् में रिसर्च की, खोज की और हमारे सामने ऐसे तथ्य खोल कर रखें कि जिनसे जीवन में शांति आये। जैसे विज्ञान के बहुत सारे तथ्य उन्हीं को ज्ञात होते हैं,जो कि वैज्ञानिक होते हैं; परंतु, उनका बहुत कुछ लाभ है अवैज्ञानिक लोग भी उठाते हैं, पंखे का निर्माण करना या बिजली का विज्ञान आप नहीं जानते; पर उसका लाभ तो उठाते हैं? इसी प्रकार से आध्यात्मिक जगत के विषय में भी कुछ खोजे हैं, जिनके संबंध में आप न भी जानते हों, पर मान लें, तो थोड़ा बहुत लाभ होता ही है। लेकिन, पूर्ण लाभ उठाने के लिए आपको स्वयं बहुत बड़ा वैज्ञानिक होना पड़ेगा; उस आध्यात्मिक जगत में स्वयं प्रवेश कर लेना पड़ेगा। क्योंकि इसे जाने बिना ब्रह्म को समझे बिना इस क्या किसी भी जन्म में शाश्वत शांति पाना असंभव है। इसलिए बार बार गुरुदेव सिर्फ एक ही मार्ग, एक ही ज्ञान की ओर इशारा करते हैं सतत समझाते हैं जिनके अच्छे प्रारब्ध और संचित कर्म जमा है वो इसी क्षण या इसी जन्म में समझ जायेंगे जिनके नही अगर समझने की कोशिश करेंगे जो यहाँ से यात्रा तो शुरू हो ही जाएगी। फिर आपके ऊपर है कि चल रहे हो या दौड़ रहे हो या सद्गुरु रूपी जहाज लेकर उड़ रहे हो।

महाकाश


प्रश्न— आत्मा सर्वाधार है तो प्राण ,मन क्या करता है पूज्य गुरुदेव समझाते हैं—


} प्राण शरीर को जीवित रखता है,चेतन नहीं रखता।शरीर को जीवित रखना, सड़ने नहीं देना, गलने नहीं देना, बिगड़ने नहीं देना, शरीर की सुरक्षा करना प्राण का काम है।सुख,दुख, दर्द आदि मन से होता है। मन नींद में सो जाता है।


} प्राण नींद में,कोमा में भी काम करता है। प्राण जब तक शरीर में रहता है, तब तक मन कहीं जाये (जैसे सो जाये, बेहोश हो जाये) फिर आ जायेगा।


} प्राण कार ,जहाज है,मन ड्राइवर,पायलट है। पायलट जहाँ ले जाना चाहता है, जहाज़ को उड़ा ले जाता है।जहाज़ अपनी मर्जी से नहीं जाता।पायलट की ही मर्जी से जाता है।जहाज़ ड्राइवर के अधीन है। इसलिए दूसरे शरीर में मन प्राण के साथ जाता है। अकेला मन दूसरे शरीर में नहीं जा सकता। लेकिन इस अर्थ में मन की प्रधानता है कि जहाँ चाहे प्राण को ले जाये।


} प्राण का अपना महत्व है। इसलिए सबको प्राणी बोलते हैं। पेड़ प्राणी है लेकिन जीवधारी नहीं है। जीव तब होता है जब मन और इन्द्रियाँ हो। जब मन और इन्द्रियाँ नहीं हैं, तो प्राणी हो। सुषुप्ति में आप प्राणी हो,जीवित भी हो मरे नहीं हो सुख, दुख, ज्ञान आदि कुछ नहीं है। एक तरह से आप पेड़ हो।


} आत्मा के बल पर प्राण भी है, मन भी है,तथा इन्द्रियाँ भी है। यहाँ तक कि पेड़, पहाड़,पृथ्वी, जल, दीवार जिसके सहारे हैं,वह आत्मा है। पर आत्मा के कारण दुख -सुख नहीं हैं। वे मन के कारण है। प्राण के कारण जीवित हैं, आत्मा के कारण नहीं।इसलिए जिसमें प्राण नहीं है वह निर्जव है।

जीव और ब्रह्म में इतना ही भेद है,जितना पृथ्वी में और मिट्टी में।हम पृथ्वी को भी सत्य नहीं मानते।जितना झूठा घड़ा है,उतनी झूठी पृथ्वी; पर घडो़ं का नाश हमने देखा है,पृथ्वी का नाश हमने नहीं देखा।इसलिए पृथ्वी अक्षर लगती है,घड़ा क्षर लगता है।


} मिट्टी में पृथ्वी कल्पित है। एक होता है –घटाकाश और एक है–महाकाश।महाकाश ईश्वर है, घटाकाश जीव है।”महा” और “घटा” क्या होता है। महा माने ईश्वर, मकान; घटा माने जीव,घड़ा। घड़ा तोड़ो,महा कौन है। छोटा कौन है। सिर्फ आकाश है। तो घट उपाधि से महाकाश कल्पित है। यदि जीव झूठा है तो ईश्वर अपने आप झूठा है। ब्रह्म सत्य है,ब्रह्म माने आकाश। दूसरा उदाहरण; आप छोटे भाई हो या बड़े। यदि बड़ा भाई न हो तो तुम कौन से भाई हो। अर्थात इकलौती संतान हो न छोटा न बड़ा।


} पूज्य गुरुदेव समझाते हैं, चेतन एक है,वह न ईश्वर है,न जीव है। घटाकाश,महाकाश से मिल नहीं पाया। जब मिला तो न घटाकाश रहा, न महाकाश। पहले मैं चेला था, वे गुरु थे। जब समझ में आया न मैं चेला न वे गुरु। स्वामी राम कहते हैं कि मैं न बन्दा था,न खुदा था मुझे मालूम न था; दोनो इल्लत, दोनों उपाधि, दोनों ख्याल थे।यह घटाकाश, महाकाश यह हमारे ख्याल हैं।आकाश आकाश है; न छोटा ,न बड़ा। दोनों इल्लत से जुदा था,मुझे मालूम न था।

वजह मालूम

हूई तुझसे न मिलने की सनम
खुद मैं ही परदा बना था मुझे मालूम न था।

तटस्थ

गृहस्थ का लक्षण है, सदा अभाव में जीना।

वह उसका मूल लक्षण है। हमेशा जो उसे चाहिए, वह उसके पास नहीं है। जिस मकान में आप रह रहे हैं, वह आपको चाहिए नहीं। आपको चाहिए कोई बड़ा, जो नहीं है। जिस कार में आप चल रहे हैं, वह आपके लिए नहीं है। आपको कोई और गाड़ी चाहिए, जो नहीं है। जो कपड़े आप पहन रहे हैं, वह आपके योग्य नहीं हैं। आपको कोई और कपड़े चाहिए। जिस पत्नी के साथ आपका विवाह हो गया है, वह आपके योग्य नहीं है। आपको कोई और स्त्री चाहिए।
पूरे वक्त जो नहीं है, वह चाहिए। जो है, वह व्यर्थ मालूम पड़ता है, और जो नहीं है, वह सार्थक मालूम पड़ता है। वह भी मिल जाएगा, उसको भी आप व्यर्थ कर लेंगे, क्योंकि आप कलाकार हैं। ऐसी कोई स्त्री नहीं है, जिसको आप एक न एक दिन तलाक देने को राजी न हों, क्योंकि तलाक स्त्री से नहीं आते, आपकी वृत्ति से आते हैं। जो आपके पास नहीं होता, वह पाने योग्य मालूम पड़ता है; जो आपके पास होता है, वह जाना-माना परिचित है; कुछ पाने योग्य मालूम नहीं होता।
ऐसा पति अगर आप खोज लें, जो अपनी पत्नी को ही प्रेम किए जा रहा है, अनूठा है, साधु है। बड़ा कठिन है अपनी पत्नी को प्रेम करना; बड़ी साधना है। दूसरे की पत्नी के प्रेम में पड़ना एकदम आसान है। जो दूर है, वह आकर्षित करता है। दूर के ढोल ही सुहावने नहीं होते, दूर की सभी चीजें सुहावनी होती हैं।
साधु का लक्षण है, संतोष। गृहस्थ का लक्षण है, अभाव। गृहस्थ उस पर आंख टिकाए रखता है, जो उसके पास नहीं है और जो उसके पास है वह बेकार है। साधु उस पर आंख रखता है, जो है; वही सार्थक है। जो नहीं है, उसका उसे विचार भी नहीं होता। जो है वही सार्थक है, ऐसी प्रतीति का नाम संतोष है। इसलिए जरूरी नहीं है कि आप घर-द्वार छोड़ें तब साधु हो पाएंगे। जो है, अगर आप उससे संतुष्ट हो जाएं, तो साधुता आपके पास–जहां आप हैं वहीं आ जाएगी।
संतुष्ट जो हो जाए, वह साधु है। असाधुता गिर गई। लेकिन जिनको आप साधु कहते हैं, वे भी संतुष्ट नहीं हैं। हो सकता है उनके असंतोष की दिशा बदल गई हो। वे कुछ नई चीजों के लिए असंतुष्ट हो रहे हों, जिनके लिए पहले नहीं होते थे। मगर असंतुष्ट हैं। वहां भी बड़ी प्रतिस्पर्धा है। कौन महात्मा का नाम ज्यादा हुआ जा रहा है, तो बेचैनी शुरू हो जाती है। कौन महात्मा की प्रसिद्धि ज्यादा हुई जा रही है, तो छोटे महात्मा उसकी निंदा में लग जाते हैं। क्योंकि उसे नीचे खींचना, सीमा में रखना जरूरी है।
महात्माओं की बातें सुनें तो बड़ी हैरानी होगी कि वे उसी तरह की चर्चाओं में लगे हुए हैं, जैसे आम आदमी लगा हुआ है। सिर्फ फर्क इतना है कि उनका धंधा जरा अलग है,
इसलिए जब वे एक महात्मा के खिलाफ बोलते हैं तो आपको ऐसा नहीं लगता है कि कुछ गड़बड़ कर रहे हैं। लेकिन जब एक दुकानदार दूसरे दुकानदार के खिलाफ बोलता है तो आप समझते हैं कि कुछ गड़बड़ कर रहा है; नुकसान पहुंचाना चाहता है। उनकी भी आकांक्षाएं हैं। वहां भी चेष्टा बनी हुई है कि और…और…और…। ऐसा भी हो सकता है कि वे परमात्मा को पाने के लिए ही चिंतारत हों और सोच रहे हों, और परमात्मा कैसे मिले, और परमात्मा कैसे मिले? अभी एक समाधि मिल गई है, अब और गहरी समाधि कैसे मिले? लेकिन ध्यान भविष्य पर लगा हुआ है, तो गृहस्थ ही चल रहा है।
संन्यस्त का अर्थ है कि जो है, हम उससे इतने राजी हैं कि अगर अब कुछ भी न हो, तो असंतोष पैदा न होगा।

इसी पर गुरुदेव एक पंक्ति कहते हैं कभी कभी..

हम राज़ी हैं उसमें, जिसमें तेरी रज़ा है।

यहाँ ऐसे भी वाह वाह है, वैसे भी वाह वाह है।।

ब्रह्म विद्या

जिसका बोध सच्चा है, उसका खून शीतल होता है। खून बदल जाता है,रोम -रोम बदल जाता है। देखिए,आपकी नाड़ियां क्या कहती हैं? नाड़ी हूं कि ब्रह्म हूं? आपका मन क्या कहता है? ब्रह्म हूं कि मन हूं? केवल “हूं” कहता है- ब्रह्म भी न कहो। केवल साक्षी हूं। कहता है कि शरीर हूं।कहता है कि यह देखो कि अन्दर तुम्हारी सतत् जागृति किस भाव में है? अभी पता चलेगा कि अविद्या क्या, अभी तो शरीर का अभिनिवेष भी नहीं गया। जाति का, कुटुंब का और मजहबों का अभिनिवेष अभी चित्त में है। यह अभिनिवेष अभी नहीं गया। यदि अभिनिवेष नहीं है, तो हम खाली आदमी रहेंगे। यदि खाली आदमी हों, तो फिर जल्दी मरेंगे और जल्दी मरेंगे, तो ब्रह्म हो जायेंगे। यह ब्रह्म होना ही असल में मरना है।
परम शांति किसे प्राप्त होती है ?
जो मर जाता है उसी को हम सन्यासी कहते हैं और वह जो मरना नहीं चाहता, वही अज्ञानी है जो मरने को तैयार है, वह साधक है; जो मर गया है, वह सिद्ध (सन्यासी) है। जो मर गया, वही ब्रह्म और जो मर गया है, वहीं अमर हो गया है। इसीलिए, सन्यासी फिर कभी नहीं मरता; क्योंकि, जिसे मरना था, वह पहले ही मर गया है। और जो नहीं मरता है, वही बचा है; वह कभी नहीं मर सकता। किसी का मारा भी नहीं मरता; क्योंकि, वह दुश्मन की भी आत्मा है। दुश्मन की भी “मैं” है ।यदि मारने को खड़ा होगा, तो दूसरी “मैं” को मारेगा; लेकिन, अपने आप की “मैं” को कैसे मारेगा? इस प्रकार जो वेदांत का श्रवण, मनन और निदिद्यासन करता है, वह परम शांति को प्राप्त होता है।

ब्रह्म होना ही असल में मरना है

बुलबुले अलग-अलग हैं और पानी हैं। हैं तो दोनों बातें बड़ी स्पष्ट; लेकिन, जिनको वे स्पष्ट हैं, उन्हीं को स्पष्ट हैं। ये बातें तो समझ में आ जाती हैं कि बुलबुले पानी हैं। सर्वत्र हम ही हैं, यह बात युक्ति से, दृस्टान्त से तो समझ में आ जाती है; लेकिन, हम ही सर्वत्र हैं, यह समझ में नहीं आता। सर्वत्र आत्मानुभूति नहीं होती कि सबका सब “मैं” हूं। ऐसा दिख जाए , तो फिर द्वैष कहां, ईर्ष्या कहां और दुर्व्यवहार कहां? ऐसा दिखते ही दिल में शांति आवेगी। बुद्धि के धर्म शांत हो जाएंगे। जब आत्मबोध जागता है, तो प्रज्ञा ही ब्रह्म रूप हो जाती हैं। जब मन की ब्रह्म हो जाएगा, तब मति के धर्म, राग – द्वेष कहां रहेंगे? जब ब्राह्मीभूत हो जाएगा, तो मन में क्रोध कैसे रहेगा? जब ओला पिघल गया, तो उसकी कठोरता का दोष कैसे रहेगा? मन रहे, तो मन का धर्म भी रहे। ब्रह्मबोधाग्नि में मन पिघल जाएगा —-
“मन्सूर चढ़ा जब सूली पर,
तब रूह कफस से जाती थी।
मैं बंदा नहीं अनलहक हूं ,
आवाज खून से आती थी।।”
ऐसी कहावत है। यह कहावत कहां तक सच है, पता नहीं। लेकिन, भाव यह है कि यदि हमारा रोम भी छेद कर देखा जाए, यदि हमारा खून भी देखा जाए, तो वहां सिवाय “हूं” के और कुछ न मिले। वह स्त्री नहीं , पुरुष नहीं; गरीबी नहीं, अमीरी नहीं। हमारे खून में गरीबी का अनुभव न हो। हमारा खून भी ब्रह्म हो, हमारा मन भी ब्रह्म हो। हमारी इन्द्रियां भी ब्रह्म हों। एकदम शांत हों। ब्रह्म और कुछ नहीं। जिसकी इतनी निश्चित दशा होती है, क्या वह कभी मर सकता है? वे तो शांत रहकर बलिदान हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि जरा – सी द्वेष भावना हुई कि खून गरम हो गया।

वेदान्त किसे कहते हैं?


जो दर्शन इसकी एकता कर दे; इस भेद को नष्ट कर दे; हमारी चेतना में जो जमा हुआ भेद है, वह समाप्त कर दे; उस दर्शन को हम वेदांत कहते हैं। पर,जो भेद को स्थापित करें; भले ही वह शांति दे दे; भले ही वह शरीर के पार ले जावे; राग और द्वेष क्षीण करें; किंतु, अस्मिता का अंत नहीं होगा। वह परिच्छिन्न अस्मिता को खड़ी रखता है; परंतु, वेदांत अस्मिता पर कुठाराघात करता है। वेदांत अस्मिता को मारता है। सारे दर्शन अभिनिवेश को हटाते हैं; लेकिन, परिच्छिन्नता वह भेद को नष्ट नहीं करते। अस्मिता को खड़ी रखते हैं।
ध्यान से “हूं” तो बच जाएगा; लेकिन, अभिनिवेश अलग हो जाएंगे। जाति का अभिनिवेश हटेगा; ऊंच-नीच का अभिनिवेष हटेगा; अमीरी – गरीबी का हटेगा; चित्त शांत हो जाएगा; अंह को शांति मिलेगी; समाधि प्राप्त हो जाएगी। परंतु, यह “हूं” सब के साथ अभिन्नता का अनुभव नहीं करेगा। यह “हूं” जब बचे , तब “अहंब्रह्मास्मि ” आदि वाक्य काम करेंगे। जब साधक शरीर से मुक्त होकर शांत हो जाता है; तब वेदांत कहता है, “वह तू है”। इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है —–
“नाशान्त मनसो ह्याशुबुद्धि: पर्यवतिष्ठति”
जिसका चित्त शांत नहीं है, वेदांत में उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती। मैं सर्वत्र हूं, यह बात समझ में नहीं आती। जो शरीर से पृथक् नहीं हो पाया, वह “मैं ब्रह्म हूं”, यह वेदान्त की बात कैसे समझेगा? इस ब्रह्मभाव और वेदांत तक पहुंचने के लिए योग और सांख्य, ये दो साधन हैं। योग और सांख्य द्वारा पहले शरीर से पार जाओ। वेदांत कहता है कि यह जो चेतना है, सर्वत्र रहने वाली है। यह जो सत्ता है, यह ब्रह्म है। वेदांत, योग और सांख्य के पीछे आता है।
बोधसार नामक पुस्तक में एक प्रसंग आता है कि सांख्य और योग, इन दो हाथों के द्वारा वेदांत को उपलब्ध करो। यम, नियम और आसन आदि पांच – पांच अंगुलियों वाले दो – दो हाथ हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे पांच – पांच उंगलियों के दो-दो हाथ हैं। सांख्य और योग के , पांच – पांच अंगुलियों वाले दो हाथों से, हम जिसको हस्तगत करना चाहते हैं , वह वेदांत है। इसलिए, सांख्य और योग के द्वारा अद्वैत वेदांत का रहस्य ज्ञात होता है। अद्वैत माने, जहां कोई और नहीं है। तात्पर्य यह कि सब शरीर रहेंगे, सारे मकान रहेंगे, सारे ढेले रहेंगे; लेकिन, मिट्टी एक हो जाएगी।

🙏🚩ॐ श्री गुरुवे नमः 🚩🙏
( गुरुवाणी ) ग्रंथ – दो दिशाओं की यात्रा एक साथ भाग -13

ब्रह्म बोध


ब्रह्म बोध किसे कहते हैं ?


अस्मिता जब सारे विश्व के साथ हो जाती है, तो उसी को ब्रह्मबोध कहते हैं। इसीलिए, “विश्वरूप रघुवंश मणि” कहा है। भगवान् विश्वरूप हैं। जो आदमी अस्मिता को पार कर जाता है, उसकी अस्मिता विश्वरूप हो जाती है। उसका “मैं” “”सर्व”” हो जाता है और वह “”सर्व”” हो जाता है। अपने को सब में देखता है, सब को अपने में देखता है। यह गीता में लिखा है। लेकिन, हमें दिखता है क्या? बात सच्ची है; गीता में लिखी है और भगवान् की वाणी है। गलत नहीं है। लेकिन, हमें अभी समझ में नहीं आती।
ज्ञानी अध्यापक ने सवाल लगाया और उत्तर सही निकाल दिया; लेकिन, जब हम सवाल लगाने बैठे, तो उत्तर नहीं आया। हमें तो नहीं आया ‌ हमें तो सब अपना नहीं दिखता। हम नहीं कहते कि गीता गलत है। लेकिन, हमारे लिए गीता का तब तक कोई अस्तित्व नहीं है, जब तक हमें सब अपने नहीं दिखते। हम अपने को सर्वत्र नहीं देख पाते। यदि हमारी अस्मिता, अपनी अस्मिता को “है” में अभिन्न करे; यदि, बुलबुला अपने को पानी हो जाने दे; पानी “हूं” जानकर फिर सब बुलबुलों को देखे; तो किस बुलबुले को कहेगा कि “मैं” नहीं हूं?
यदि एक बार मेरी अस्मिता गल जाए, ब्रह्म हो जाए और ब्रह्म होने के बाद फिर अस्मिता खड़ी हो, तब वह कहेगी कि सर्व एक है। बुलबुले हैं तो अलग-अलग (सब में भिन्नता है ); लेकिन , वे पानी के माध्यम से एक हो गए हैं। देखना यह है कि पानी की दृष्टि में वे क्या हैं ? पानी है और पानी के स्मृति के माध्यम से वे देखते हैं। बुलबुला सीधे ही यह नहीं कहता है कि “यह” सब “मैं” हूं; क्योंकि, यह कहना ही “मैं” को “यह” से अलग करता है। बुलबुले का “यह” कहना ही अलग होना है। तुम “मैं” हूं, यह कहना नहीं जंचता। औरत भी “मैं” हूं; शराब भी “मैं” हूं और जानवर भी “मैं” हूं; यह नहीं जंचता। बुलबुला (ज्ञानी ) सीधा यह वाक्य नहीं कहता कि “मैं” तुम हूं। “मैं” लहर भी हूं और “मैं” फेन भी हूं , ऐसा नहीं कहता।

सब नाशी

कुछ अनुभूतियाँ हैं जैसे, अनुकूलता और प्रतिकूलता। जो प्रतिकूल है वह दुःख है और जो अनुकूल है वह सुख है। यह तो सभी लोग जानते ही हैं लेकिन अनुकूल क्यों है, प्रतिकूल क्यों है, उसके पीछे हेतु क्या है? इसी तरह जो पसंद है यदि वह मिल जाए तो क्या अनुभव होगा? (सुख) । और जो पसंद नहीं है यदि वह मिल जाए तो आपको क्या मिलता है? दुःख। अच्छा, पसंद क्यों करते हैं, अपसंद क्यों करते हैं, इसके पीछे जड़ में क्या है?
आज मैं कोई नई बात नहीं कह रहा। सब पहले बोली हुई हैं, पर आज हम उसे नए ढंग से रख रहे हैं, इसलिए नयी लगेगी।

आप अपसंद क्यों करते हैं? जैसे हम सब लोग उचित मात्रा में नमकीन, खट्टा -मीठा पसंद करते हैं। यदि उससे बहुत ज्यादा या कम हो जाए तो हमें अच्छा क्यों नहीं लगता? यह कम – ज्यादा क्यों अच्छा नहीं लगता? तुम्हारी गलती है क्या? मान लो, आपको ज्यादा नमक पसंद है पर बहुत ज्यादा डाल दें तो क्यों पसंद नहीं करते? इस “क्यों” को हम कैसे जानें? माने, हमारी इंद्रियाँ ऐसी ही बनी हैं। आँखों को रोशनी पसंद है पर तेज रोशनी आंखों को पसंद नहीं आती। जब हम लोग पूज्य गुरुदेव के साथ रहते थे तो एक गुरु भाई साधुओं को परेशान करने के लिए यही तरीका अपनाते थे कि जब कोई सोने को जा रहा हो तो उसकी आंख में लाइट कर दी । तो वो चिल्लाता था की यह मेरी तरफ क्यों कर दी? सोने जा रहे हो और कोई ज्यादा लाइट कर दे तो परेशानी तो होगी। ऐसे ही तुम पढ़ रहे हो और मैं एकदम लाइट बंद कर दूँ तो तुम्हें कैसा लगेगा?

अब यह चाहे कोई जान कर करें या बेवकूफी से करें। जानकर करे तो ज्यादा अपराधी है और यदि अज्ञानता से हो जाए तो कम अपराधी है। लेकिन, जो ड्यूटी ली है उसमें जानकारी क्यों न करे? यदि आप कार चला रहो हो और नियम ना जानो और कहीं भिड़ गये, एक्सीडेंट हो गया। फिर कह दो कि हम तो जानते नहीं थे। तो हम कहेंगे कि तू बुद्धू है। कार क्यों चला रहा है? ऐसे ही शादी के बाद कोई कहे कि मैं जानता नहीं था तो शादी क्यों की। अरे भाई! जिस रास्ते पर चलना है उस रास्ते की जानकारी करो।

कोई भी आवश्यकता सतत चौबीसों घंटे समान नहीं रहती । इसलिए आवश्यकता बदलते ही वस्तु का मूल्य बदल जाता है। पर जीने की इच्छा, आनंद की इच्छा कभी नहीं बदलती। भोजन करना, न करना बदल जाता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है कि जो भोजन करना बंद न करता हो । एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो लगातार भोजन कर सके। यदि कर सके तो आज हमारे यहाँ उसका निमंत्रण है, पर शर्त यह है कि भोजन शुरू करके बंद नहीं करने देंगे और साथ में ₹100000 इनाम की भी देंगे । इसलिए जिसकी इच्छा हो वह शर्त लगा सकता है। तुम किसी भूखे को ले आना। जिस बेचारे को पेट भर ना मिला हो, उसे हम खिलाएंगे, बशर्ते बंद ना करे। किसी कामी को ले आना….., किसी लोभी को ले आना। उसे रुपए गिनने को बिठएंगे, सोने नहीं देंगे।

कहने का आशय है कि खाना शुरू करोगे तो किस लिए? आनंद के लिए। और जब बंद करोगे तो क्या दुःख चाहोगे? सुख के लिए खाते रहे और सुख लिए ही बंद कर दिया। हम सब काम सुख के लिए करते हैं। जिस में सुख मिलता है उसे करने लगते हैं और जिसमें सुख नहीं मिलता उसे छोड़ देते हैं। यहां तक कि जीने में जब आनंद नहीं मिलता तो भगवान को, गुरु को मनाने लगते हैं कि हे प्रभु हमें मरने का आशीर्वाद दे दो।

जहाँ हैं वहां से शुरू करें

अब कोई व्यक्ति भयवश भी झूठ बोलता है, स्वार्थवश भी झूठ बोलता है, तो जिस में भय नहीं है, स्वार्थ नहीं है वह झूठ नहीं बोलता। उसकी वाणी शास्त्र है! उसके उपदेश को मानना! कथा भी…… स्वार्थी लोग भी कथा करते हैं, अपने स्वार्थ की बातें ज्यादा कहते हैं। सत्य कम कहते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ सिद्ध होगा। सत्य बोले तो स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। जैसे एक बात हम कभी बोलते हैं – यतयाः कंचनं दत्वा यति को स्वर्ण दान देने वाला, तांबूलं  ब्रह्मचारिणं ब्रह्मचारी को पान देने वाला, चौरेपि अभयं दत्वा  और अपराधी प्रकृति वाले को अभय देने वाला कि तुम चिंता ना करो हम तो हैं माने अपराधी को अपराध करने की स्वतंत्रता देने वाला , दाता नरकं व्रजेत् देने वाला नर्क जाता है।
इसलिए जो स्वार्थी होगा वह सत्य नहीं कहेगा। आप्तकाम पुरुष जो कहते हैं वह प्रमाण हैं। यदि वह कहे तो झूठ नहीं है। पर सबका कहा सत्य नहीं हो सकता। तो……. वह भी कह रहे थे अनुभव प्रमाण नहीं है। हां, अनुभव के आधार पर आपको यहां से चलना होगा। जैसे हम जन्म मरण का अनुभव करते हैं पर यह हमें पसंद नहीं है, इसके छूटने की इच्छा होगी तो आप अपने अनुभव से ही चलेंगे। इसको कहते हैं जो जहां खड़ा हो वहीं से तो चलेगा। तो वह चलना अलग है। आप दिल्ली से हरिद्वार आना चाहते हैं तो दिल्ली से चलेंगे। अब दिल्ली वाला आदमी मोदीनगर से नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? और मोदीनगर वाला व्यक्ति मोदीनगर से ही चलेगा और रुड़की वाला रुड़की से ही चलेगा, दिल्ली से नहीं। हरिद्वार ही आना है, पर वह जहां खड़ा है वहीं से चलेगा। तो बात यह है कि हम कहां खड़े हैं! हम मनुष्य है कि हम जीव है? क्या है हम? तो जो हम हैं वही से तो यात्रा शुरू करें! यदि हम जन्म मरण वाले हैं तो अविनाशी से यात्रा शुरू नहीं होगी। अविनाशी तक तो यात्रा पूरी होगी, वह आपका गंतव्य है, आप वहां पहुंचना चाहते हैं। आप दुख में हैं तो दुख से पार जाने की इच्छा होगी। होगी ही! और पार जाने के लिए आप चलेंगे। अब यह तो नहीं कि पहले आप आनंद में खड़े हैं, शांति में खड़े हैं, मुक्त है, तो यात्रा की क्या जरूरत? यदि हरिद्वार में ही हो, अखंड परमधाम में ही हो तो अब यहां से कहां जाना? तो जैसे व्यवहारिक जगत में हम अपनी जगह से ही चलेंगे ऐसे ही आध्यात्मिक मार्ग में जिस अनुभूति पर हम टीके है उस अनुभूति की ओर जाएंगे जो हम चाहते हैं। अभी हमें अनुभूति है जन्म मरण की। यह हमारे लिए कल्पना नहीं है। यह हमारे लिए अभी यथार्थ है। यह हमारा सत्य है कि हम मरने वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम दुख सुख वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम करते हैं, हम अपने कर्मों का फल भोगते हैं। तो यहां से यात्रा शुरू करोगे। शास्त्र और सच्चा गुरु कथा वहीं से शुरू करता है जहां तुम हो और आगे पहुंचाता है धीरे धीरे। तो यह आवश्यक है जहां हम हैं वहां से यात्रा शुरू करेें।

कौन भगवान?

आप मरे जग प्रलय
पहले तुम्हारा अज्ञान मर जाए, फिर पीछे ज्ञान भी मर जाएगा। ज्ञान भी बचता नहीं है। पहले तुम्हारा अहंकार मर जाए, पीछे परमात्मा भी मर जाएगा अर्थात् परमात्मा भी अहंकार के साथ ही खत्म होता है। अहंकार के कारण ही भगवान् की तलाश है कि वह कहीं होगा। जिस दिन अहंकार मर जाएगा, उस दिन भगवान् भी किसी दुनिया में नहीं मिलेगा, न ढूंढना पड़ेगा। उस दिन भगवान् भी गए। तुम हो, तो भगवान् भी है। तुम्हारा अहंकार मरेगा, तो भगवान् भी नहीं रहेगा। फिर जो रह जाएगा, उसे भगवान् न कर पाओगे, “मैं” न कह पाओगे। जब “मैं” हूं, तो भगवान् कहूं; दो हैं , तब तक कहूं। पर जब दो ही न रहे, तो भगवान् बचा कि भक्त बचा? क्या कहोगे? यदि भक्त कहोगे, तो कोई भगवान् होगा। बिना भगवान् के कोई भक्त नहीं होता। यदि कहो कि भगवान् बचा तो भगवान् अकेले किसका भगवान्? यदि भक्त नहीं बचा, तो किसका है भगवान्? भगवान भी किसी का होता है ।
ईश्वर माने किसी का मालिक। यदि कोई कहे कि प्रजा न बचेगी, राजा बच जायेगा। यह वाक्य बिल्कुल गलत है। यदि प्रजा नहीं बचेगी, तो राजा कैसे बचेगा? यदि कोई कहे कि प्रजा भर बचेगी, राजा न बचेगा। तो प्रजा होती किसकी है? वह प्रजा प्रजा ही नहीं यदि राजा न हो। प्रजा तो उसी को कहते हैं, जो कि शासन में हो। इसीलिए, भक्त बचेगा, तो भगवान् बचेगा और भगवान बचेगा, तो भक्त बचेगा। एक चला गया, तो दूसरा अपने – आप साफ हो जाएगा।
अब बताओ तुम मरना चाहते हो या भगवान् को मारना चाहते हो? गुरु को मारना चाहते हो कि तुम मरना चाहते हो? किसमें ज्यादा अच्छाई है? तुम कहोगे कि भगवान् ही मर जाए, तो अच्छा है। हम बचे रहें । किंतु , भगवान् का मारा जाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम उनके मारने के लिए जिओगे, तब तक वे जबरदस्ती जिंदा रहेंगे। तुम्हारे जिंदा रहने से भी वे जिंदा हैं। यदि तुम भगवान् को मारने के लिए जीते रहोगे; तो कितना ही मारो, पर भगवान् मरेंगे नहीं । यदि चेले जीते रहें , तो यह सत्य है कि गुरु तमाम पैदा हो जाएंगे। इसीलिए, ज्यादा अच्छा यह है कि किसी को मारने से पहले तुम स्वयं मर जाओ। “आप मरे जग प्रलय” ऐसा हमने सुना है। तुम मर गए, तो भगवान् भी मर गया, मुक्ति भी मर गई मर गई, मन भी मर गया, अशांति भी मर गई और शांति भी खत्म। अधमरे में मिल जाएगी मुक्ति , अधमरे में मिल जाएंगे भगवान्। पूरे मर जाओगे, तो न भगवान् मिलेंगे और न तुम रहोगे।
भगवान् थोड़ा-थोड़ा मरने से मिल जाते हैं; पूरे मरने पर नहीं मिलते और बिल्कुल बचने पर भी नहीं मिलते। पूरे जो बचते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। और जो पूरे मर जाते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। मिलना और मिलाना अधमरों का है। जो अपने को पूर्ण बचाए हैं, वे तड़पते रहें; उन्हें भगवान नहीं मिलते। यदि पूरे मर जावेंगे, तो फिर मिलेंगे किसको? इसीलिए, यह मिलने – मिलाने का भाव ही बीच में रहता है। जो जानते हैं, वे यही जानते हैं कि क्या मिलना है और क्या किससे मिलना है।