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समझ सको तो समझो

गुरुजी कह रहे थे कि तुम निर्विकार हो जाओगे, तुम अविनाशी हो जाओगे; यह सुनकर देहाभिमानी अविनाशी बनने के लिए चला। लेकिन गुरुजी के चेले बनने के बाद भी देह  बूढ़ा हो गया। देखो, मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ न!  पर एक बात है, जब तक बुढ़ापा आया तब तक समझ बदल गई। गुरुजी के पास आए थे मरने से बचने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि शरीर मैं नहीं हूँ। गुरुजी के पास आये थे निर्विकार होने के लिए, गुणातीत होने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि  गुण मैं नहीं हूँ। गुणातीत होना नहीं है, गुणातीत हूँ। गुणों  के रहते, गुणों के बदलते मैं  गुणातीत हूँ।  जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये तीनों गुणों की अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति तमोगुण की अवस्था है, स्वप्न रजोगुण की और जाग्रत सत्त्व गुण  की अवस्था है।  और मैं इनका साक्षी गुणातीत हूँ। शंकर भगवान तमोगुण के देवता है पर वे गुणातीत हैं। विष्णु भगवान सत्त्वगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। ब्रह्मा जी रजोगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। गुण हैं तो शरीर है पर आप शरीर नहीं हो। शंकराचार्य कहते हैंः  नाहं देहोऽहमात्मेति।  मैं देह नहीं हूँ। ये शब्द कब बोले?  जब उनका देह नहीं था तब बोले क्या? नहीं, देह के रहते बोले कि मैं देह नहीं  हूँ। गुणों के रहते तुम गुणातीत हो सकते हो। जब गुण ही नहीं होंगे तो गुणातीत कैसे?  नदी ही न हो तो पार कैसे किया?  पार तो तभी करते जब नदी हो।

     गुण हैं, गुण देखते हैं, परिवर्तन दिखता है और इसी में देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन बंद हो जाए तब तो मूर्ख भी देख लेगा।  परिवर्तन बंद नहीं होता तब भी देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता।

सबसे बड़ा पाप


माताएं जब बच्चों को चलना सिखाती हैं, तो जैसे ही वह पास आएगा, मां थोड़ा पीछे हटेगी, फिर थोड़ा और पीछे हटेगी। महात्माओं को भी तुम्हारी प्रवृत्ति को धीरे – धीरे जगाना पड़ता है। यह न समझना कि हम तुम्हें धोखा देने के लिए कह रहे हैं; बल्कि, हम तुम्हारे हित के लिए कह रहे हैं। इसीलिए, अपने प्रमत्त मन से कह देना कि पन्द्रह दिन के लिए प्रमाद न करे। हजार काम छोड़ो; लेकिन, सत्संग मत छोड़ो; क्योंकि, यही अपना काम है।
कई लोगों की इतनी जटिल परिस्थितियां हैं, जिनके कारण वे विवश होकर नहीं आ पाते हैं। ऐसे लोगों के लिए मुझे भी दुख होता है। उनके लिए मैं यही कहूंगा कि न आ सकें, तो कोई बात नहीं; लेकिन यह देखना कि मन प्रमाद से और चालाकी से कहीं ऐसा न कर रहा हो कि अब क्या करेंगे, दूर पड़ता है, तांगे में पैसे लगते हैं। इस प्रमाद से घूमाव- फिराव न करे, बाकी किसी कारण से न आ सको, तो कोई बात नहीं।
देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित नहीं
संसार के सब नुकसान सहे जा सकते हैं; लेकिन, आत्मा का अकल्याण नहीं सहा जा सकता। मकान के गिरने से शरीर का गिरना ज्यादा बुरा है। जो आदमी अपने अकल्याण को सह रहा है; वह आत्म -हत्यारा है। दुनियां में सब की हत्या कर लेना बुरा नहीं है; परंतु अपनी हत्या सबसे बड़ी हत्या है। इसीलिए, आत्महत्या करने वाले का उद्धार हमारे ऋषियों ने भी नहीं बताया। सब पापों का मोक्ष है; लेकिन, आत्महत्या का प्रायश्चित नहीं। आत्महत्या से मेरा मतलब है, जो अपने आप को अभिमानी समझे। जो देहाभिमान में जकड़कर अपने आप को मरने वाला मानता है, वह तो मुक्त हो ही नहीं सकता। अतः, शरीर का अभिमान ही छोड़ो और कोई रास्ता नहीं है।
कुपथ्य कर- कर दवा खाना वैसा ही है, जैसे चोरी करके पुलिस को ₹10 चढ़ा देना। मधुमेह में शक्कर भी खा लो और गोली भी। यह तो हो गया बराबर; लेकिन, देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित्त नहीं। इसका एक ही तरीका है कि देहाभिमान को छोड़कर आत्मा को देखो–

“देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ,
यत्र-यत्र मनोयाति तत्र-तत्र समाधया:।”


देहाभिमान गल जाता है, तब परमात्मा का बोध होता है। जिस आदमी की चेतना परम ब्रह्म परमात्मा में लीन होती है; परमात्मा भाव को प्राप्त होती है; वही आदमी अजर, अमर और परमात्मा भाव को प्राप्त हो जाता है; मुक्त हो जाता है। चाहे कोई भी हो, सबको सत्संग की जरूरत पड़ेगी; आज नहीं तो कल पड़ेगी। इसलिए, सबको सत्संग करना चाहिए।

इस विषय पर विस्तार करते हुए गुरुदेव हरदम ये लाइन दोहराते है …

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्र का ये बाप है

उदाहरण

गुरुदेव इतनी सरल भाषा में वेदांतदर्शन समझाते हैं कि कभी कभी विश्वास नहीं होता कि जिसके लिए बड़े बड़े ज्ञानी लोग कितना भटके यहाँ गुरुदेव के चरणों में बैठ कर उस बंधे हुए ज्ञान को सरलता से गांठ की तरह खोल देते हैं।

देखो, यह एक गाँठ है। (एक कपड़े में अलग-अलग तीन गाँठें लगाईं)। पहले नंबर की गाँठ का नाम रख लो जाग्रत, दूसरे नंबर की गाँठ का नाम  स्वप्न और तीसरे नंबर का  नाम सुषुप्ति।  अब ये तीनों चक्कर लगाएंगी। जब पहली चली जाती है तो दूसरी आती है।  जब दूसरी चली जाती है तब तीसरी आ जाती है। और जब तीसरी जाती है तब फिर पहली वाली आ जाती है। इस तरह यह प्रक्रिया चलती रहती है । इनमें कोई भी परमानेंट नहीं है और किसी ने किसी को देखा भी नहीं है। कोई एक चौथा है जिसने पहली को भी देखा, दूसरी को भी देखा और तीसरी को भी देखा। वही चौथा बता पाता है कि जाग्रत आया था फिर स्वप्न आया फिर सुषुप्ति आयी थी। अर्थात्  इन का गवाही कौन है, साक्षी कौन है ? क्या जाग्रत मेरी गैरहाजिरी में हुई? स्वप्न, सुषुप्ति क्या मेरी गैरहाजिरी में हुईं? क्या सुषुप्ति(गहरी नींद)  जाग्रत की गवाह है या जाग्रत सुषुप्ति की गवाह है? इन तीनों में जो गवाह है वह आप हैं।

आत्मानुभव के अवयव

तुम्हें भी पूरा शान्त होना पड़ेगा। यह बहुत बड़ा तप है। चुप हो जाने, शान्त हो जाने जैसा तप ब्रह्मांड में नहीं है। शीर्षासन लगाना, भूखों मरना, रात में जागना, अखंड रामायण पाठ करना, जपादि करना, यह सब थोड़े-थोड़े तप हैं। लेकिन, बिल्कुल मौन, शान्त हो जाना, बहुत बड़ा तप है। मन कहेगा बोलो और गुठली कहेगी कि उसे निकाल कर बाहर कर दो। किसान कहेगा, “हम तुम्हें और दबा कर रखेंगे, जबरदस्ती दबा कर रखेंगे”। कई-कई बीज तो शायद छ: महीने दबाकर रखने पड़ते होंगे। इसी प्रकार अपने मन को बिल्कुल शांत कर, मौन होना पड़ेगा, न तन डोले, न मन। न मन बोले, न तन बोले, न आंख बोलें और न हाथ बोलें। सब मौन हो जाएं, सब शरीर मौन हो जाए। तन मौन हो, वाणी मोहन हो, बुद्धि शान्त हो; फिर देखो! वहां अंकुर आएगा। थोड़ी देर को ही कोई बिल्कुल शांत हो जाए, तो फौरन कोई अंदर पैदा हो जाएगा। चेतना तुरंत अंदर पैदा होगी; कहेगी “हूं” उस “हूं” को ही भगवान् कहते हैं। भगवान् अंदर से एकदम पैदा होते हैं। यदि नौ महीने का एकांत न पावे, तो संतान भी पैदा न हो। यदि कोई आदमी रोज – रोज ऑपरेशन करके देखता रहे, तो संतान को भी पैदा होने में मुश्किल हो जाएगी। इसीलिए, प्रकृति ने बड़े अच्छे नियम बनाए हैं; नहीं तो आप थोड़े ही मांनते? लेकिन, प्रकृति गर्भाशय का दरवाजा ही बंद कर देती है, नहीं तो आदमी के मारे संतान पैदा ही न हो पाती। इसलिए मैं कहता हूं कि वह बहुत ही बहादुर आदमी है, जो अपनी आंखें, नाक, कान और इंन्द्रियां बंद करके अपने आप में बैठ जाता है। उसे आत्मानुभव हो जाता है।

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

साक्षी के ध्यान को सीखो और शाश्वत हो जाओ


पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं! अनासक्त हो जाओ!
राग द्वेष वियुक्तैस्तु राग और द्वेष का त्याग कर दो। कोई आवे, कोई जावे, मैं एक चेतना का दीप जलाए बैठा हूं। चेतना का दीप! जब हम कोई ऑब्जेक्ट रखना चाहते हैं, विषय रखना चाहते हैं तो परेशानी पैदा कर लेते हैं। तो आप चेतना को रखो। अब आखरी बात खतरे की है, उसमें जरूर थोड़ी गहरी सोच चाहिए। यहां तक तो आप इमानदारी से चाहे तो अनुभव कर सकते हो। एक संकल्प करो कि आज हम ध्यान में किसी को लाने या हटाने का काम नहीं करेंगे! घर हटाना नहीं, मंत्र लाना नहीं, अच्छे को लाना नहीं बुरे को हटाना नहीं! तुम्हें क्या करना है? अच्छे बुरे का आग्रह छोड़ देना है और जागे रहना है।  ‘मैं जगा हूं’ यह ख्याल आया, अच्छा आ गया या बुरा आ गया दोनों ख्यालों में जगे रहो! पर आप का आग्रह जब किसी चीज का होगा तो उसके आने से जागा मानोगे जाने से सोया मानोगे। तो आग्रह छोड़ दो, बिल्कुल आग्रह छोड़ दो! आप का आग्रह है कि मैं जग रहा हूं, श्वास आई, नहीं आई, धीमी हो गई, ख्याल आया, नहीं आया,  मैं जागा हूं! तो यह मंत्र का मूल महामंत्र है! यह महामंत्र है कि मेरे सामने यह हुआ, यह हुआ, यह हुआ, मेरे सामने हुआ इसका मतलब मैं अध्यक्ष हूं! मेरी अध्यक्षता में सब हुआ! मेरी आंखों के सामने हुआ! इन आंखों के नहीं, मैं ही आंख हूँ! इसीलिए स+आखी= साखी, साक्षी, मैं आंख हूँ! मेरे सामने यह हुआ! मेरे सामने! मेरे सामने! मेरे सामने! ठीक है? आप आंख हो! इन आंखों से(चर्मचक्षनओं से) तो बहुत दिन देखा है अब यह आँख आप खोलो!  प्रमाद मत करो! आपको लगे, हां! मेरे ख्याल में यह आया! यदि आप चुनाव करोगे तो परेशान हो जाओगे। इसीलिए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, ठीक है? अब चुनाव ना करो, जागो!

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, अाप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता। चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो!
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो  उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता।  तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि  अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं।  वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं!
तब भी थे तुम ही! अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी  है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!

अपना जगत खो कर स्वयं जगत हो जाओ

मन के अमन हो जाने पर द्वैत नहीं रहता। द्वैत तो है ही मन के खड़े होने पर। बाहरी द्वैत देह के अभिमान में है। भीतरी द्वैत मन के रहते है। स्मृति में भी जो है वह भी द्वैत है और वह भी आपके मन के कारण है। मन नींद में चला गया तो द्वैत गया। मन आत्मा में चला गया तो द्वैत खो गया।  द्वैत नींद में भी नहीं रहता।  यहाँ नींद का अर्थ है- गहरी नींद।  कई बार ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर गलती कर जाते हैं क्योंकि नींद का हम दो जगह प्रयोग करते हैं। सपनों के समय की नींद को भी नींद कहती हैं और गहरी नींद को भी नींद कहते हैं और सच तो यह है कि जगत के देखने को भी हम नींद ही कहते हैं। इसलिए तीनों अवस्थाएं स्वप्न हैं।  मैं सो गया था, यह भी स्वप्न है। मैं स्वप्न में था यह भी स्वप्न है। मैं आदमी हूँ, जगत है; यह भी स्वप्न है।  केवल जागना है-  मैं ब्रह्म हूँ और कुछ नहीं हूँ।  जागना उसी को कहते हैं जिस सेकंड में जागे हो करके तुम्हारे सिवा कुछ नहीं है। इसलिए ब्रहम ज्ञानी का जगत खो जाता है।

सदैव सोचो तुम क्या हो, सच में क्या हो?

खैर, मेरा विषय है कि गर्मी पानी का स्वभाव नहीं है। वह आग का है। ऐसे ही मृत्यु, परिवर्तन आपका स्वभाव नहीं हैं। यह प्रकृति का है। प्रकृति और आपका स्वभाव एक हुए लगते हैं। न होने पर भी ये एकाकार हो जाते हैं। इसी को तादात्म्य कहते हैं। जब ये एकाकार हो गए तो अनित्य वस्तु से भी तुम्हें जीवन लगने लगा जैसे,  मिट्टी को घड़ा होने से अपना जीवन लगे।
क्या सचमुच मिट्टी घड़ा होने से जी रही है ?  घड़ा  न हो तो क्या वह  मर जाएगी? मिट्टी को घड़ा जीवन लगा जबकि वह मौत है। अपने को मरने वाले से एक कर लिया और फिर बचने की इच्छा। क्यों बचने की इच्छा है?  क्योंकि उसके स्वभाव में मृत्यु है नहीं। इसलिए मृत्यु पसंद नहीं है और मृत्यु होती भी नहीं है पर मरने वाले से जुड़कर मरना स्वीकार कर, अंदर जो छिपा स्वभाव है- बचे रहने का, वह लड़ रहे हैं।
तो  विवेक द्वारा यह समझ लें कि अनित्य क्या है?  अनित्य को नित्य बनाने की चेष्टा न करें । विवेक हो जाए तो फिर अनित्य से, अनात्मा से, अशुचि से, दुःख रूपी वस्तुओं से वैराग्य हो जाए। यह समझ लें कि शरीर दुःख है, सुख नहीं है। इसको आध्यात्मिक लोग अविद्या कहते हैं। अविद्या के कारण अशुचि में शुचि बुद्धि, अनात्मा में आत्म बुद्धि, अनित्य में नित्य बुद्धि, जो नहीं है उसमें ‘है’ बुद्धि और है का पता ही नहीं है जैसे, घड़ा है। तो घड़े होने में तो है बुद्धि हो गई और मिट्टी के होने का पता ही नहीं।

सबसे बड़ा पाप

कई जगह शादी को संबंध भी बोलते हैं, रिश्ता भी बोलते हैं, विवाह भी बोलते हैं। तो तुम्हारा अभी नाशी से रिश्ता हुआ है। शरीर नाशी है, इससे तुम्हारा रिश्ता हुआ है और इसीलिए चिंता है। तुमने जिससे ब्याह किया है ना! वह मांगलिक ग्रह वाला है, वह जाएगा। और यह रिश्ता सब ने कर रखा है। यह मत समझो कि गृहस्थी करते हैं, साधु तक किए बैठे हैं यह रिश्ता नाशी से। और जब ऐसे मांगलिक से कर लोगे तो चिंता होगी ही कि यह नहीं रहेगा, चला जाएगा। तो अब हमें क्या करना है? यहां तो ( श्रीमद्भागवत कथा में ) रुक्मणी जी का श्याम से, भगवान से विवाह हुआ है। तो तुम्हारा भी भगवान से ही कराना पड़ेगा पर रुक्मणी जैसी बात हो! कोई किसी के कहे से न कर ले। नहीं तो  उनके घर के लोग कहीं और कराना चाहते थे, ठीक है! तो आप भी अभी तो बिना किसी से कहें, सहज ही शरीर से तुम्हारा रिश्ता हो गया है, संबंध हो गया है। यह शरीर आपका हो गया है, आप इसके हो गए हो। इसके धर्म आपके और आपका धर्म इसका हो गया है। जैसे लोहे को गरम आग में डाल दो तो यदि लंबी लंबी सरिया है तो आग लंबी लंबी हो जाती है और सरिया गरम नहीं है पर वह गर्म हो जाती है, सरिया का धर्म आग को मिल गया। लंबाई सरिया की है वह मिल गई आग को और गर्मी किसकी है आग कि, वह मिल गई लोहे को। इसको अन्योन्याध्यास  बोलते हैं। तो जो जीव है वह देह हो गया और जो जड़ है वह चेतन हो गया। वह चेतन हो गया क्योंकि तुम्हारी चैतन्यता देह को मिल गई और देह की जड़ता, मृत्यु तुम्हें मिल गई। यह अन्याेन्याध्यास है। तो इसका तो हमें तलाक दिलाना पड़ेगा। शादी तो बाद में करेंगे पहले तलाक दो। अष्टावक्र गीता में कहा है यदि देहं पृथक्कृत्य चितिविश्रम्य तिष्ठसि ।अधुनैव सुखी शांतो बंध मुक्तिर्भविष्यसी।।यदि तुम यही देह से मैं पन हटाओ, देह से रिश्ता तोड़ो और चैतन्य में विश्राम करो, अपना संबंध अंतरात्मा से कर लो तो अभी मुक्त हो जाओगे। इसलिए अब क्या करना है? यह मैं जो है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यह  चार ही इस देह को  मैं मानते है। यही मुड़कर के  करके आत्मा को, स्वरूप को मैं मान सकते है। अभी मैं को सीधा सीधा नहीं….. जैसे  मैं देह नहीं है, मैं ने देह का अभिमान किया है।  देह अभिमान तो मैं ने किया। यदि नींद ना खुले तो देह का अभिमान होगा क्या? देह में मैं पन नहीं हुआ, इसमें रहने वाला  चिदाभास कहो या मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार कहो उसने इस देह से मैं का रिश्ता जोड़ दिया, इसको मैं बना कर मेरे बना लिए। फिर मैं-मेरे का दुख हो गया। इसलिए अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश बस यही पांच क्लेश है। और यही सबसे बड़ी परेशानी, भ्रम की तुम ये शरीर हो, नाम हो, रूप हो जिस दिन कोई भी व्यक्ति इसे सही सही समझ गया कि वो शरीर नही, ये शरीर उसका है जो कि प्रारब्ध वश मिला है इसमें रहने वाला वो तत्व जिसके निकल जाने से ये निष्क्रिय हो जाता है किसी काम का नही रहता वो कौन है उसे जानो ये उनके जानने को मिला यही मानव देह कुंजी है इसलिए ही ये देह रूपी मौका उसे मिला है क्योंकि जानवर ये नही सोच सकता। आप ही सोच सकते हो समझ सकते हो। इसलिए मेरे गुरुदेव कहते है-

“देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप हैं।

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्रों का ये बाप है।।

तुम भी अवतार हो सकते हो

श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक तरह के विषय आते हैं जिससे हमें सीखने को मिलता है। आज एक यह सीखने को मिलेगा की जैसी हो भवितव्यता तैसी मिले सहाय जैसा होना होता है वैसे सहयोग करने वाले मिलते हैं। आपने जावे कहां पर ताहि तहां ले जाए।। चूंकि कंस की मृत्यु के लिए भगवान का जन्म होना है तो आपने सुना ही है कि पहले वह बहन को ही मार देना चाहता था। पर सलाह देने वालों ने कहा कि बच्चे को मार देना। बहन को क्यों मार रहे हो? तो सोचा कि चलो आठवें बच्चे के लिए कहा है तो आठवें को मार देंगे। तो किसी ने कह दिया कि बीच में भी आठवां हो सकता है। तो वह तो  एक एक करके सभी बच्चे मारने लगा। यह सब होते हुए भी हुआ वही जो  होना था। तो जो होना है वह होता ही है। दूसरा है भगवान के जन्म का विषय भारत यद्यपि वेदांत और अध्यात्मिक ज्ञानी गुरुओं का देश है, बहुत लोग अवतार भी मानते हैं पर  हमारी दृष्टि से अवतार नहीं माने तो हम बहुत कुछ खो देंगे। हमारा सब का जन्म  वासनाओं से होता है। कोई ना कोई पहले वासना थी जो यहां आए इस जन्म में कोई वासना होगी तो अगला जन्म लेंगे। यदि कल्याण की अधिक वासना होगी, मोक्ष की वासना होगी तो ज्ञान हो जाएगा और मुक्ति प्राप्त करेंगे।

पर भगवान कोई अपनी वासना से नहीं आते। उनको जब अपने भक्तों का उद्धार करना होता है तब वह अवतार लेते हैं। कहते हैं ना निज इच्छा निर्मित तनु अपनी इच्छा से शरीर बना लेना। हमारा शरीर हमारी इच्छा से नहीं वासना से बना। परंतु भगवान को जो जो करना है वैसी ही सामर्थ्य लेकर के आए। हम लोग चाहे भी तो नहीं कर सकते। इसलिए भगवान का, अवतारों का जो शरीर है वह आग में नहीं जलता, गड्ढे में फेंकने पर भी नहीं मरता, तो ऐसा शरीर हमारा तो नहीं है, हम आग से जल जाएंगे। हमारा शरीर यदि पहाड़ी से फेंक दिया जाए तो बिगड़ जाएगा। तो जो भगवान हैं वह जैसी जरूरत वैसा शरीर लेकर अपनी इच्छा से आते हैं। हमारा शरीर सब तरह की क्षमता लेकर नहीं आया इसलिए भगवान के स्मरण का, उनके दर्शन का, उनके सुमिरन का, उनके ध्यान का बड़ा लाभ होता है। यही लाभ उठाते उठाते आप जिस दिन परमात्मा को समझ गए और अपनी आत्मा में उसको एकीकार मान लिया जान लिया उस दिन तुम भी परमात्मा हो जाओगे। तुम भी अवतार लोगे लोगों का कल्याण करने न कि पुरानी चाहों को इस जन्म में पूरा करने आओगे और नई चाहें बना के फिर नया देह पाओगे।