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ज्ञान क्यों नहीं हो पाता


बोध क्यों नहीं हो पाता? इसलिए कि जिस चीज का बोध करना है, उससे संबंधित सजातीय परमाणु या अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए। क्योंकि, जिस विषय का बोध होगा-जिस दृश्य का बोध होता है- उसके सजातीय अंश देखने वाले हिस्से में कुछ-न-कुछ सूक्ष्म रूप में होना चाहिए।अन्यथा उस वस्तु को पकड़ा नहीं जा सकता। आप यह बात व्यवहारिक रुप से रेडियो में देखते हैं। जिस स्टेशन के शब्द पकड़ने होते हैं, वह हिस्सा रेडियो में भी होना अनिवार्य है। यदि , रेडियो में वह स्टेशन नहीं होता, तो उस स्टेशन के शब्द पकड़े नहीं जा सकते। अतः जिस चीज को हम पकड़ते हैं, उसका सूक्ष्म अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए , नहीं तो वह चीज पकड़ी नहीं जा सकती।
यदि किसी चीज को देखना है, तो दृश्य में भले ही उतनी चेतना न हो; लेकिन ,दृश्य का हिस्सा (अंश ) दृष्टा में भी होना जरूरी है। इसीलिए, बिना दृश्य के लिए हुए दृष्टा सिद्ध नहीं होता। यदि शब्द ग्रहण करना हो, तो जिस चीज से शब्द की उत्पत्ति हुई है, उसका कुछ -न- कुछ हिस्सा कान में होना जरूरी है। इसीलिए, श्रोत्र इंद्रिय का निर्माण भी आकाश से हुआ है। उसी से शब्द ‌का भी निर्माण हुआ है। जिससे नेत्र इंद्रिय की उत्पत्ति हुई है, उसी से रूप की उत्पत्ति हुई है, रूप भी तेज का है और नेत्र इंद्रिय भी तेज की है। फिर आप कहेंगे दो क्यों हैं? इसीलिए कि एक देखे और एक दिखाई दे। इसका हम अभी स्पष्टीकरण करेंगे।

दृश्य द्रष्टा के विषय को स्पष्ट करने का मेरा विचार है। दृश्य और दृष्टा दोनों ही एक हैं। इसके समझने के लिए एक उदाहरण चुना है। जिस लकड़ी को जलाना होता है, उसको हम कहते हैं लकड़ी है घास है और जिससे जलाते हैं, उसे कहते हैं आग है। जिसे लकड़ी कहते हैं, उस लकड़ी में भी आग होती है; नहीं तो कोई भी आग से लकड़ी को नहीं जला पाता। यह वैज्ञानिक सत्य है कि यदि लकड़ी में आग अव्यक्त रूप में ना हो, तो कोई भी उसको नहीं जला सकता। अव्यक्त आग, जो लकड़ी में विद्यमान है, वह व्यक्त अग्नि के स्पर्श से व्यक्त हो जाती है और उस लकड़ी को जलाना शुरू कर देती है। अव्यक्त को व्यक्त होना चाहिए। चाहे वह लकड़ी के घर्षण द्वारा हो या जली आग के द्वारा हो या अपने आप घर्षणों से हो। कई बार दो लकड़ियां आपस में रगड़ती रहती हैं और उनमें आग प्रकट हो जाती है। अप्रकट अग्नि, जब प्रकट होती है, तो जलाना शुरु कर देती है।
आप जिससे वस्तु को जलाते हैं, उसको कहते हैं आग और जिसको जलाते हैं, उसको कहते हैं ईंधन, लकड़ी, कोयला आदि। लेकिन,जिसको आप आग कहते हैं,करता उसमें लकड़ी बिल्कुल भी नहीं है? क्या ऐसी आग आपने जिन्दगी में देखी है, जिसमें लकड़ी बिल्कुल न हो? दाहक आग लकड़ी का वह हिस्सा है, जो अग्नि के अधिकार में आ चुका है।जो दग्ध हो चुका है, उसमें स्थूलता तो काफी अंशो में विनष्ट हो गई है; लेकिन, फिर भी उसके अंदर लकड़ी के अवयव हैं, जो अग्नि रूप में हो गए हैं । उसको हम आग कहने लग गए हैं जो लकड़ी का हरूप में दिखती है उसे हम इंधन कहते हैं।
दृष्टा किसे कहते हैं? प्रकृति का जो हिस्सा चैतन्य से एकीभूत हो चुका है; जिस पर चेतन्य ने अपना अधिकार पा लिया है; जो चैतन्य का रूप हो सकता है; चैतन्य की चैतन्यता जिसमें प्रतिबिंबित हो गई है; विशेष हो गई है; वह दृष्टा है। मान लो आप कह दें कि दोनों ही लकड़ियां हैं। एक लकड़ी, दूसरी लकड़ी को जलाती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता। यदि अग्नि की कोई शक्ति में होती, तो लकड़ी को लकड़ी नहीं जला सकती। इसीलिए, अग्नि तो दोनों लकड़ियों में व्याप्त है- एक में प्रकट रूप में है, दूसरी में अप्रकट रूप में। जिसमें प्रकट रूप में अग्नि है, उसे दृष्टा, दग्धा और जलाने वाली अग्नि कहते हैं। जिसमें अग्नि अप्रकट है, उसे ईंधन कहते हैं।

सुसुप्ति और समाधी


अभी एक और रह गया है “दर्शन”, उसको हमने स्पष्ट नहीं किया। दृष्टा दृश्य दो ही भाषते हैं। दृष्टा , दृश्य से भिन्न होता है। दृष्टा और दृश्य से जो संबंध जोड़ता है, उसका नाम दर्शन है। दृष्टा और दृश्य के बीच दूरी होती है।यदि संबंध न जुड़े, तो लकड़ी अलग पड़े रहे और जलती हुई आग अलग पड़ी रहे। और दोनों का संबंध जोड़ने के लिए कुछ और लकड़ियां चाहिए, जो यहां से वहां तक आग कर दें। आग से लकड़ियों को जोड़ दें। जहां से जलती हुई आग उसे पकड़ ले, जो दूर है। इसी प्रकार अंत:करण अंदर है,शरीर बाह्य है, विषय बाह्य हैं। शरीर जड़ और अंत:करण सचेतन है। यद्यपि चेतन नहीं है, चूंकि इसमें चेतना प्रकट है, इसीलिए उसको दृष्टा कहना पड़ता है। उसकी अपेक्षा शरीर जड़ता वाला है; इसलिए उसे दृश्य कहना पड़ता है। यदि द्रष्टा द्रश्य को देखने के लिए प्रवृत्त होगा, तो उसकी चेतना की धारा दृश्य तक बह कर संबंध जोड़ा करती है।
आप देखते हैं कि केंद्र और परिधि को जोड़ने वाला कौन होता है? रेडियस (त्रिज्या) और व्यास। यदि वह न हो, तो कभी भी केंद्र और परिधि का संबंध नहीं हो सकता। बल्कि, परिधि बनती ही नहीं। इसी प्रकार से शरीर परिधि है और दृष्टा केंद्र है। दृष्टा के द्वारा जो वृत्ति स्फुरित होती है वह वृत्ति शरीर तक आती है, यदि, वृत्ति का उत्थान ना हो, तो शरीर का बोध नहीं होगा। जब वृत्ति अंदर लौट जाती है–चाहे वृत्ति निद्रा के द्वारा समिट जाते, चाहे समाधि के द्वारा-तो शरीर का बोध नहीं होता।जब व्यक्ति समाधि में जाता है; जागते हुए अपनी वृत्तियों को समेट लेता है; तो शरीर का ज्ञान समाप्त हो जाता है; सुनना समाप्त हो जाता है; व्यवहार समाप्त हो जाता है और वह शून्य होकर स्वयं में शान्त हो जाता है।

सोचो!

“एक अभ्यास को काटने के लिए दूसरा अभ्यास  चाहिए विरोधी। तो सोते समय, सोने के पहले ‘लेटा हूं’ मान कर मत सो, ‘दृष्टा हूं’ सचमुच यह स्मरण करने के बाद सो जाओ।” कुछ देर दृष्टा  और लेटे समय दृष्टा तो चलते समय भी दृष्टा, बैठे समय भी दृष्टा! देह चलता हो बैठा हो लेटा हो, देह की स्थिति  बदलेगी। पर “बैठे में भी दृष्टा, लेटे में भी दृष्टा, चलते में भी दृष्टा! इसको मंत्र(समझो)! जो मंत्र दिया जाता है वह मंत्र नहीं, यह मंत्र है। और दृष्टा ही …...”एको देवा सर्वभूतेषुगूढ़ा सर्वव्यापी सर्वभूतांतरात्मा कर्माध्यक्ष सर्वभूतादिवासा साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।” मैं ब्रह्म हूं इसका शायद विश्वास करना पड़ेगा, ज्यादा दिमाग लगाना पड़ेगा। इसके लिए आपको प्रमाण चाहिए, अनुभव चाहिए। पर द्रष्टा होने के लिए आपको कहीं से उधार अनुभव नहीं लाना। सिर्फ एक बता दिया, “आप हो द्रष्टा, सचमुच दृष्टा हो! यदि देह के दृष्टा ना होते तो ‘मैं देह हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता, ‘बैठा हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता। बैठा हूं यह ख्याल बाद में आया, किसको? दृष्टा को! इससे सरल कोई चीज नहीं हो सकती।” मुझे बहुत याद नहीं है पर फिर भी शायद ऐसा ही है, महर्षि रमण ने  सोहम् कहने को मना किया है, शिवोsहम् कहने को भी मना किया है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ भी शायद नहीं कहा। क्याेंकि उसमें शायद कुछ लाना पड़ता है। पर “दृष्टा होने में कुछ लाना नहीं पड़ता, कोई शास्त्र नहीं, कोई और चीज लानी नहीं” तुम देह को जानते हो इसलिए इस अभ्यास में कोई कठिनाई नहीं है। हां, प्रमाद है, आलस्य है, लापरवाही हो सकती है गर ध्यान ना दो। पर दृष्टा तो हो! और “दृश्य से दृष्टा भिन्न होता है। दृश्य और दृष्टा एक हो नहीं सकते।” हमको जब पढ़ाया जाता था तो यह बताते थे – घटदृष्टा घटाद्भिन्ना।। घड़ा का देखने वाला घड़े से अलग होता है। इसी तरह देह का दृष्टा भी देह से भिन्न होता है। दूर नहीं कहते, भिन्न! जैसे यह उंगली दूसरी उंगली से भिन्न है। भिन्न  माने कितनी दूर? जैसे एक हाथ दूसरे हाथ से भिन्न है। देखो यह दो हाथ है, दायां और बायां, दोनों भिन्न है। ठीक है?  जुड़े हो तब भी भिन्न है। तो तुम पास हो या दूर हो? तुम दो चार मिल देह से दूर चले जाओगे, चले जाओ तब द्रष्टा हो गए या देह से अलग हो गए? ऐसा भ्रम मत पालो! “देह दृश्य है, तुम दृष्टा हो! कितने नजदीक हो, तो भी द्रष्टा हो, देह दृश्य है! देह द्रष्टा नहीं है और दृष्टा देह नहीं है! यह अभ्यास आज से शुरू करो।”

किसी भी देश, काल, और मज़हब से ऊपर की विद्या है वेदांत।

 बुद्धगम्य बनाने के लिए मैं फिर कहता हूँ  कि यह गाँठ आपको आँख से दिखती है, यद्यपि यहाँ कपड़ा भी तुम्हें दिखेगा।  यह गाँठ आँख से दिख गई और आँख से दिख गई कि  अब नहीं रही । एक छोटा बच्चा जिस के आँखें हों उसको ले आना।  मैं पूछूँगा, वह कहेगा कि यह गाँठ है और खोलने के बाद पूछूँगा तो कहेगा कि अब नहीं है । फिर मैं पूछूँगा कपड़ा? तो बाकी जगह कहेगा कपड़ा और इसे कहेगा गाँठ । अब यहाँ बिना समझ के कोई नहीं कह सकता कि जहाँ गाँठ है वहाँ कपड़ा है । जहाँ गाँठ है वहाँ भी कपड़ा है। जहाँ जीव है, देह है वहाँ भी परमात्मा है। जीव बिना परमात्मा के हो नहीं सकता। जीव स्वतंत्र नहीं है । हम त्रैतवादी हैं लेकिन हम त्रैत सत्यवादी नहीं हैं। त्रैतवादी हैं पर तीन को सत्य नहीं मानते। सत्य एक को मानते हैं।                        

“एकमेवाद्वितीय ब्रह्म।”   

 फर्क समझ लें,  हम गाँठ नहीं मानते; ऐसा नहीं है।  लेकिन सत्य हम  कपड़े को मानते हैं, गाँठ को नहीं मानते। जीव मानते हैं, जीव का वर्णन है, जीव की अवस्थाओं का वर्णन है, जीव के बंधन का,  जन्म का वर्णन है पर जीवो ब्रह्मैव नापरः  का भी वर्णन है। 
     अब स्थूल जगत क्षर, इसका रहना, न रहना, होना, न होना देखते रहते हो। पर जिसके द्वारा यह देह का होना और न होना देखा जाता है उसको अभी हम अक्षर मान लेते हैं । बचपन का न रहना  जिसने न जाना हो वह जरा  बताए? आपने अपने बचपन का रहना देखा था ना? बचपन रहा है न? और अभी क्या है आपका? बच्चों को मैं नहीं पूछता उनका अभी है और वे यह भी जान सकते हैं कि आगे बचपन नहीं रहेगा। आपका हमारा बचपन रहा है पर आज नहीं है। यह तुमने ही तो देखा। अपने बचपन को आपने ही तो देखा था ना?  किससे  देखा? आँखों से ? बिना आँखों वाले बच्चे तो होते ही नहीं हैं? अपने बचपन का रहना और न रहना अंधे तो जानते ही नहीं हैं? 
      इसका मतलब अपने बचपन का होना, बचपन का न रहना, ताकत का होना, ताकत का घटना, क्या यह इंद्रियों से जानते हो?  जाग्रतावस्था का होना फिर जाग्रत का न रहना, स्वपनों का होना, स्वपनों का न रहना,  सुषुप्ति का होना और सुषुप्ति का न रहना आप जानते हैं ना?  इनके चश्मदीद गवाह है ना,  स्वयं प्रमाण है ना, तो कौन प्रमाण है  ये आँखें? जाग्रत, स्वपन, सुषुप्ति क्या अंधों की नहीं होती,  बहरों की नहीं होती? 
      ये जब होते हैं तो इनका होना बिना किसी के कैसे जाना जाएगा? जैसे बाहर के विषय इँद्रियों से जाने जाते हैं ऐसे ही सूक्ष्म अवस्थाएं साक्षी के रहते चेतन से जानी जाती हैं। बिना चेतन के जागना क्या हो सकता है?  अभी खुर्दबीन (Microscope) लगाइए, हटाइए। कुछ चीजें दिखने लगती हैं कुछ दिखनी बंद हो जाती हैं। मशीन के कारण कुछ दिखने लगा,  मशीन के हटाने से न दिखने लगा नेत्र के रहते। ऐसे ही साक्षी के रहते उपकरण बदला,  जाग्रतावस्था रही तो जगत दिखा। इस जगत के होने को हम कुछ नहीं कहते। जाग्रत हो जाने से जगत दिखने लगता है। जगत अपनी जगह ज्यों का त्यों है, चित्रकूट अपनी जगह, बांदा जिला,  सतना जिला अपनी जगह, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश अपनी जगह, पूरे देश-विदेश, विश्व अपनी जगह सिर्फ जाग्रत अवस्था नहीं तो जगत आपको नहीं दिखता। यह नियम सब जाति- मजहबों पर लागू है।

अपने विराट स्वरूप को पहचाने

पुज्य गुरूदेव बताते हैं ब्रह्म साक्षात्कार आत्म साक्षात्कार के बिना नही हो सकता। आत्म साक्षात्कार कैसे हो, पुज्य गुरूदेव उदाहरण से समझाते हैं—


1) जैसे जब दीपक जलता है, तो जो चीजें पास में होती है, वे प्रकाशित हो जाती है। प्रकाश चीजों के बारे में सोेचता नहीं है; वह उनके बारे में विचार भी नहीं करता।प्रकाश की तरह ही चैतन्यता तुम्हारे अंदर स्वभाव से है।उसे लानी नहीं है। बाहर से कोई योजना नहीं बनानी है। इसलिए तुम अपने अंदर झाकों।


2) पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि स्वामी राम ने तो यहाँ तक कह दिया जब भी तुम्हारा ध्यान पीर, पैगम्बर,अवतार आदि की तरफ जाता है, तो तुमने अपनी बेच दी। तुमने अपनी आत्मा को गवाँ दिया है। तुम कौन हो? मेरे और तुम्हारे मूल तत्व में कितना कम ज्यादा होगा?


3) इसलिए पुज्य गुरूदेव समझाते हैं थोडा विचार करने से,थोडा धैर्य रखने से,थोडा दिमाग लगाने से तुम भगवान हो जाओगे। खाली तथा निर्मल मन से सूक्ष्म तथा दिव्य बुद्धि से अभ्यास करके आत्मा का अनुभव करो। तुम स्वयं आनन्द स्वरूप ज्ञान स्वरूप हो।

4) एक बार देह का अभिमान गल जाए (अर्थात “मै” देह हूँ, यह वृत्ति छुट जाए)और चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाए, तो फिर जहाँ जहाँ मन जाए,समाधि ही समाधि है।समझाते हैं—

a) जब हमारे अन्दर से द्वैत समाफ्त हो जाता है,तब चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है। मन में केवल परमात्मा का भाव होता है।


b) यह द्बैत “मैं” के कारण जिंदा है। एक देह के कारण अन्य जिंदा है। इसलिए देह का भाव मिटाएँ।यदि नहीं मिटा पा रहे हो, तो अन्य देह बन जाए। वह देह यदि अपनी देह की अपेक्षा अधिक सच्ची लगाने लगे, तो इसको झूठा करना आसान हो जाएगा। जैसे अगर दूसरों का बचपन प्यार से देखें तो आपको अपना बचपन याद आ जाएगा।इसके लिए खाली मन तथा एकाग्रता की आवश्यकता है।


5) पुज्य गुरूदेव समझाते हैं; मन में अन्नत शक्ति है।इसका प्रयोग करें।आप मन के द्वारा इस प्रकार डूबना सीखे, स्मरण करना सीखे कि आप आप न रहे।आप व्यक्ति न रहे, आप विराट हो जाएँ।आप चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं।