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वेदान्त किसे कहते हैं?


जो दर्शन इसकी एकता कर दे; इस भेद को नष्ट कर दे; हमारी चेतना में जो जमा हुआ भेद है, वह समाप्त कर दे; उस दर्शन को हम वेदांत कहते हैं। पर,जो भेद को स्थापित करें; भले ही वह शांति दे दे; भले ही वह शरीर के पार ले जावे; राग और द्वेष क्षीण करें; किंतु, अस्मिता का अंत नहीं होगा। वह परिच्छिन्न अस्मिता को खड़ी रखता है; परंतु, वेदांत अस्मिता पर कुठाराघात करता है। वेदांत अस्मिता को मारता है। सारे दर्शन अभिनिवेश को हटाते हैं; लेकिन, परिच्छिन्नता वह भेद को नष्ट नहीं करते। अस्मिता को खड़ी रखते हैं।
ध्यान से “हूं” तो बच जाएगा; लेकिन, अभिनिवेश अलग हो जाएंगे। जाति का अभिनिवेश हटेगा; ऊंच-नीच का अभिनिवेष हटेगा; अमीरी – गरीबी का हटेगा; चित्त शांत हो जाएगा; अंह को शांति मिलेगी; समाधि प्राप्त हो जाएगी। परंतु, यह “हूं” सब के साथ अभिन्नता का अनुभव नहीं करेगा। यह “हूं” जब बचे , तब “अहंब्रह्मास्मि ” आदि वाक्य काम करेंगे। जब साधक शरीर से मुक्त होकर शांत हो जाता है; तब वेदांत कहता है, “वह तू है”। इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है —–
“नाशान्त मनसो ह्याशुबुद्धि: पर्यवतिष्ठति”
जिसका चित्त शांत नहीं है, वेदांत में उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती। मैं सर्वत्र हूं, यह बात समझ में नहीं आती। जो शरीर से पृथक् नहीं हो पाया, वह “मैं ब्रह्म हूं”, यह वेदान्त की बात कैसे समझेगा? इस ब्रह्मभाव और वेदांत तक पहुंचने के लिए योग और सांख्य, ये दो साधन हैं। योग और सांख्य द्वारा पहले शरीर से पार जाओ। वेदांत कहता है कि यह जो चेतना है, सर्वत्र रहने वाली है। यह जो सत्ता है, यह ब्रह्म है। वेदांत, योग और सांख्य के पीछे आता है।
बोधसार नामक पुस्तक में एक प्रसंग आता है कि सांख्य और योग, इन दो हाथों के द्वारा वेदांत को उपलब्ध करो। यम, नियम और आसन आदि पांच – पांच अंगुलियों वाले दो – दो हाथ हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे पांच – पांच उंगलियों के दो-दो हाथ हैं। सांख्य और योग के , पांच – पांच अंगुलियों वाले दो हाथों से, हम जिसको हस्तगत करना चाहते हैं , वह वेदांत है। इसलिए, सांख्य और योग के द्वारा अद्वैत वेदांत का रहस्य ज्ञात होता है। अद्वैत माने, जहां कोई और नहीं है। तात्पर्य यह कि सब शरीर रहेंगे, सारे मकान रहेंगे, सारे ढेले रहेंगे; लेकिन, मिट्टी एक हो जाएगी।

🙏🚩ॐ श्री गुरुवे नमः 🚩🙏
( गुरुवाणी ) ग्रंथ – दो दिशाओं की यात्रा एक साथ भाग -13

ब्रह्म बोध


ब्रह्म बोध किसे कहते हैं ?


अस्मिता जब सारे विश्व के साथ हो जाती है, तो उसी को ब्रह्मबोध कहते हैं। इसीलिए, “विश्वरूप रघुवंश मणि” कहा है। भगवान् विश्वरूप हैं। जो आदमी अस्मिता को पार कर जाता है, उसकी अस्मिता विश्वरूप हो जाती है। उसका “मैं” “”सर्व”” हो जाता है और वह “”सर्व”” हो जाता है। अपने को सब में देखता है, सब को अपने में देखता है। यह गीता में लिखा है। लेकिन, हमें दिखता है क्या? बात सच्ची है; गीता में लिखी है और भगवान् की वाणी है। गलत नहीं है। लेकिन, हमें अभी समझ में नहीं आती।
ज्ञानी अध्यापक ने सवाल लगाया और उत्तर सही निकाल दिया; लेकिन, जब हम सवाल लगाने बैठे, तो उत्तर नहीं आया। हमें तो नहीं आया ‌ हमें तो सब अपना नहीं दिखता। हम नहीं कहते कि गीता गलत है। लेकिन, हमारे लिए गीता का तब तक कोई अस्तित्व नहीं है, जब तक हमें सब अपने नहीं दिखते। हम अपने को सर्वत्र नहीं देख पाते। यदि हमारी अस्मिता, अपनी अस्मिता को “है” में अभिन्न करे; यदि, बुलबुला अपने को पानी हो जाने दे; पानी “हूं” जानकर फिर सब बुलबुलों को देखे; तो किस बुलबुले को कहेगा कि “मैं” नहीं हूं?
यदि एक बार मेरी अस्मिता गल जाए, ब्रह्म हो जाए और ब्रह्म होने के बाद फिर अस्मिता खड़ी हो, तब वह कहेगी कि सर्व एक है। बुलबुले हैं तो अलग-अलग (सब में भिन्नता है ); लेकिन , वे पानी के माध्यम से एक हो गए हैं। देखना यह है कि पानी की दृष्टि में वे क्या हैं ? पानी है और पानी के स्मृति के माध्यम से वे देखते हैं। बुलबुला सीधे ही यह नहीं कहता है कि “यह” सब “मैं” हूं; क्योंकि, यह कहना ही “मैं” को “यह” से अलग करता है। बुलबुले का “यह” कहना ही अलग होना है। तुम “मैं” हूं, यह कहना नहीं जंचता। औरत भी “मैं” हूं; शराब भी “मैं” हूं और जानवर भी “मैं” हूं; यह नहीं जंचता। बुलबुला (ज्ञानी ) सीधा यह वाक्य नहीं कहता कि “मैं” तुम हूं। “मैं” लहर भी हूं और “मैं” फेन भी हूं , ऐसा नहीं कहता।

सब नाशी

कुछ अनुभूतियाँ हैं जैसे, अनुकूलता और प्रतिकूलता। जो प्रतिकूल है वह दुःख है और जो अनुकूल है वह सुख है। यह तो सभी लोग जानते ही हैं लेकिन अनुकूल क्यों है, प्रतिकूल क्यों है, उसके पीछे हेतु क्या है? इसी तरह जो पसंद है यदि वह मिल जाए तो क्या अनुभव होगा? (सुख) । और जो पसंद नहीं है यदि वह मिल जाए तो आपको क्या मिलता है? दुःख। अच्छा, पसंद क्यों करते हैं, अपसंद क्यों करते हैं, इसके पीछे जड़ में क्या है?
आज मैं कोई नई बात नहीं कह रहा। सब पहले बोली हुई हैं, पर आज हम उसे नए ढंग से रख रहे हैं, इसलिए नयी लगेगी।

आप अपसंद क्यों करते हैं? जैसे हम सब लोग उचित मात्रा में नमकीन, खट्टा -मीठा पसंद करते हैं। यदि उससे बहुत ज्यादा या कम हो जाए तो हमें अच्छा क्यों नहीं लगता? यह कम – ज्यादा क्यों अच्छा नहीं लगता? तुम्हारी गलती है क्या? मान लो, आपको ज्यादा नमक पसंद है पर बहुत ज्यादा डाल दें तो क्यों पसंद नहीं करते? इस “क्यों” को हम कैसे जानें? माने, हमारी इंद्रियाँ ऐसी ही बनी हैं। आँखों को रोशनी पसंद है पर तेज रोशनी आंखों को पसंद नहीं आती। जब हम लोग पूज्य गुरुदेव के साथ रहते थे तो एक गुरु भाई साधुओं को परेशान करने के लिए यही तरीका अपनाते थे कि जब कोई सोने को जा रहा हो तो उसकी आंख में लाइट कर दी । तो वो चिल्लाता था की यह मेरी तरफ क्यों कर दी? सोने जा रहे हो और कोई ज्यादा लाइट कर दे तो परेशानी तो होगी। ऐसे ही तुम पढ़ रहे हो और मैं एकदम लाइट बंद कर दूँ तो तुम्हें कैसा लगेगा?

अब यह चाहे कोई जान कर करें या बेवकूफी से करें। जानकर करे तो ज्यादा अपराधी है और यदि अज्ञानता से हो जाए तो कम अपराधी है। लेकिन, जो ड्यूटी ली है उसमें जानकारी क्यों न करे? यदि आप कार चला रहो हो और नियम ना जानो और कहीं भिड़ गये, एक्सीडेंट हो गया। फिर कह दो कि हम तो जानते नहीं थे। तो हम कहेंगे कि तू बुद्धू है। कार क्यों चला रहा है? ऐसे ही शादी के बाद कोई कहे कि मैं जानता नहीं था तो शादी क्यों की। अरे भाई! जिस रास्ते पर चलना है उस रास्ते की जानकारी करो।

कोई भी आवश्यकता सतत चौबीसों घंटे समान नहीं रहती । इसलिए आवश्यकता बदलते ही वस्तु का मूल्य बदल जाता है। पर जीने की इच्छा, आनंद की इच्छा कभी नहीं बदलती। भोजन करना, न करना बदल जाता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है कि जो भोजन करना बंद न करता हो । एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो लगातार भोजन कर सके। यदि कर सके तो आज हमारे यहाँ उसका निमंत्रण है, पर शर्त यह है कि भोजन शुरू करके बंद नहीं करने देंगे और साथ में ₹100000 इनाम की भी देंगे । इसलिए जिसकी इच्छा हो वह शर्त लगा सकता है। तुम किसी भूखे को ले आना। जिस बेचारे को पेट भर ना मिला हो, उसे हम खिलाएंगे, बशर्ते बंद ना करे। किसी कामी को ले आना….., किसी लोभी को ले आना। उसे रुपए गिनने को बिठएंगे, सोने नहीं देंगे।

कहने का आशय है कि खाना शुरू करोगे तो किस लिए? आनंद के लिए। और जब बंद करोगे तो क्या दुःख चाहोगे? सुख के लिए खाते रहे और सुख लिए ही बंद कर दिया। हम सब काम सुख के लिए करते हैं। जिस में सुख मिलता है उसे करने लगते हैं और जिसमें सुख नहीं मिलता उसे छोड़ देते हैं। यहां तक कि जीने में जब आनंद नहीं मिलता तो भगवान को, गुरु को मनाने लगते हैं कि हे प्रभु हमें मरने का आशीर्वाद दे दो।

गुरु, शास्त्र क्यों?


गुरु तुमने किस लिए बनाया था? शास्त्र किसलिए सुने/पढ़े थे? सत्संग किस लिए करते हो? पूजा आदि किस लिए शुरू की थी? ध्यान का प्रारंभ क्यों किया था – क्या बात थी – क्या मजबूरी थी? कोई न कोई तो गड़बड़ी होगी ही, जिसके दूर करने के लिए किया होगा। गड़बड़ी दूर हो गई कि नहीं? यदि दूर हो गई हो, तो उसे भी छोड़ दो। कांटे से कांटा निकाल कर कांटा फेंक दिया जाता है। यह मैं अपनी तरफ से नहीं कहता हूं; ऐसा ही किया जाता है। यह तथ्य है।
शायद किसी को काट प्रतीत होता हो। कांटे से कांटा निकालकर कांटा फेंक दिया जाता है। लेकिन, निकालने के पहले ही फेंक दें तो? जब फेंकना ही है, तो पहले ही फेंक दें। आगे या पीछे में क्या फर्क पड़ता है। कुछ फर्क पड़ता है कि नहीं? यदि कांटे में पड़ता है, तो ध्यान और समाधि छोड़ने में भी पहले और पीछे में फर्क पड़ता है। पहले फेंक देने से परेशानी नहीं जाएगी और परेशानी जाने के बाद फेंक देने से कोई परेशानी नहीं आएगी। इसीलिए, काम करने का जो प्रयोजन है, वह पूरा हो जाना चाहिए।
शास्त्र का भी अपना कोई प्रयोजन है कि बुद्धि को सूक्ष्म कर दे। जो बुद्धि बहिर्मुख है, उसे अंतर्मुख होने को तैयार कर दे। जो भगवान् हमने बाहर समझा है शास्त्र उन्हें तुम्हारे अंदर ही बता दे। शास्त्र तुम्हें भगवान् को पकड़कर नहीं देगा? उसका एक ही प्रयोजन है। जब उसने बता दिया कि भगवान तुम्हार अन्दर है, तो अपने अंदर शांत होकर ध्यान शुरू करो। सुनने के बाद ध्यान और समाधि शुरू करो। सुनने के पहले नहीं। पहले शास्त्र द्वारा परमात्मा को समझो, पढ़ो और विचारों की क्या चीज है, कहां है, कैसा है? जब पढ़ लोगे, तब पता चलेगा कि परमात्मा सर्वत्र है। हममें भी परमात्मा है, यह भी नहीं; बल्कि हम परमात्मा हैं। जब यह जान लिया, तो फिर बाहर की तलाश बंद। जब आप ध्यान के योग्य हो गए, अब आप समाधि के योग्य हो गए। जब परमात्मा हममें ही है, तो क्यों भटके? क्यों कहीं जाएं? केवल शांत होकर बैठ जाएं।

जहाँ हैं वहां से शुरू करें

अब कोई व्यक्ति भयवश भी झूठ बोलता है, स्वार्थवश भी झूठ बोलता है, तो जिस में भय नहीं है, स्वार्थ नहीं है वह झूठ नहीं बोलता। उसकी वाणी शास्त्र है! उसके उपदेश को मानना! कथा भी…… स्वार्थी लोग भी कथा करते हैं, अपने स्वार्थ की बातें ज्यादा कहते हैं। सत्य कम कहते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ सिद्ध होगा। सत्य बोले तो स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। जैसे एक बात हम कभी बोलते हैं – यतयाः कंचनं दत्वा यति को स्वर्ण दान देने वाला, तांबूलं  ब्रह्मचारिणं ब्रह्मचारी को पान देने वाला, चौरेपि अभयं दत्वा  और अपराधी प्रकृति वाले को अभय देने वाला कि तुम चिंता ना करो हम तो हैं माने अपराधी को अपराध करने की स्वतंत्रता देने वाला , दाता नरकं व्रजेत् देने वाला नर्क जाता है।
इसलिए जो स्वार्थी होगा वह सत्य नहीं कहेगा। आप्तकाम पुरुष जो कहते हैं वह प्रमाण हैं। यदि वह कहे तो झूठ नहीं है। पर सबका कहा सत्य नहीं हो सकता। तो……. वह भी कह रहे थे अनुभव प्रमाण नहीं है। हां, अनुभव के आधार पर आपको यहां से चलना होगा। जैसे हम जन्म मरण का अनुभव करते हैं पर यह हमें पसंद नहीं है, इसके छूटने की इच्छा होगी तो आप अपने अनुभव से ही चलेंगे। इसको कहते हैं जो जहां खड़ा हो वहीं से तो चलेगा। तो वह चलना अलग है। आप दिल्ली से हरिद्वार आना चाहते हैं तो दिल्ली से चलेंगे। अब दिल्ली वाला आदमी मोदीनगर से नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? और मोदीनगर वाला व्यक्ति मोदीनगर से ही चलेगा और रुड़की वाला रुड़की से ही चलेगा, दिल्ली से नहीं। हरिद्वार ही आना है, पर वह जहां खड़ा है वहीं से चलेगा। तो बात यह है कि हम कहां खड़े हैं! हम मनुष्य है कि हम जीव है? क्या है हम? तो जो हम हैं वही से तो यात्रा शुरू करें! यदि हम जन्म मरण वाले हैं तो अविनाशी से यात्रा शुरू नहीं होगी। अविनाशी तक तो यात्रा पूरी होगी, वह आपका गंतव्य है, आप वहां पहुंचना चाहते हैं। आप दुख में हैं तो दुख से पार जाने की इच्छा होगी। होगी ही! और पार जाने के लिए आप चलेंगे। अब यह तो नहीं कि पहले आप आनंद में खड़े हैं, शांति में खड़े हैं, मुक्त है, तो यात्रा की क्या जरूरत? यदि हरिद्वार में ही हो, अखंड परमधाम में ही हो तो अब यहां से कहां जाना? तो जैसे व्यवहारिक जगत में हम अपनी जगह से ही चलेंगे ऐसे ही आध्यात्मिक मार्ग में जिस अनुभूति पर हम टीके है उस अनुभूति की ओर जाएंगे जो हम चाहते हैं। अभी हमें अनुभूति है जन्म मरण की। यह हमारे लिए कल्पना नहीं है। यह हमारे लिए अभी यथार्थ है। यह हमारा सत्य है कि हम मरने वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम दुख सुख वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम करते हैं, हम अपने कर्मों का फल भोगते हैं। तो यहां से यात्रा शुरू करोगे। शास्त्र और सच्चा गुरु कथा वहीं से शुरू करता है जहां तुम हो और आगे पहुंचाता है धीरे धीरे। तो यह आवश्यक है जहां हम हैं वहां से यात्रा शुरू करेें।

कौन भगवान?

आप मरे जग प्रलय
पहले तुम्हारा अज्ञान मर जाए, फिर पीछे ज्ञान भी मर जाएगा। ज्ञान भी बचता नहीं है। पहले तुम्हारा अहंकार मर जाए, पीछे परमात्मा भी मर जाएगा अर्थात् परमात्मा भी अहंकार के साथ ही खत्म होता है। अहंकार के कारण ही भगवान् की तलाश है कि वह कहीं होगा। जिस दिन अहंकार मर जाएगा, उस दिन भगवान् भी किसी दुनिया में नहीं मिलेगा, न ढूंढना पड़ेगा। उस दिन भगवान् भी गए। तुम हो, तो भगवान् भी है। तुम्हारा अहंकार मरेगा, तो भगवान् भी नहीं रहेगा। फिर जो रह जाएगा, उसे भगवान् न कर पाओगे, “मैं” न कह पाओगे। जब “मैं” हूं, तो भगवान् कहूं; दो हैं , तब तक कहूं। पर जब दो ही न रहे, तो भगवान् बचा कि भक्त बचा? क्या कहोगे? यदि भक्त कहोगे, तो कोई भगवान् होगा। बिना भगवान् के कोई भक्त नहीं होता। यदि कहो कि भगवान् बचा तो भगवान् अकेले किसका भगवान्? यदि भक्त नहीं बचा, तो किसका है भगवान्? भगवान भी किसी का होता है ।
ईश्वर माने किसी का मालिक। यदि कोई कहे कि प्रजा न बचेगी, राजा बच जायेगा। यह वाक्य बिल्कुल गलत है। यदि प्रजा नहीं बचेगी, तो राजा कैसे बचेगा? यदि कोई कहे कि प्रजा भर बचेगी, राजा न बचेगा। तो प्रजा होती किसकी है? वह प्रजा प्रजा ही नहीं यदि राजा न हो। प्रजा तो उसी को कहते हैं, जो कि शासन में हो। इसीलिए, भक्त बचेगा, तो भगवान् बचेगा और भगवान बचेगा, तो भक्त बचेगा। एक चला गया, तो दूसरा अपने – आप साफ हो जाएगा।
अब बताओ तुम मरना चाहते हो या भगवान् को मारना चाहते हो? गुरु को मारना चाहते हो कि तुम मरना चाहते हो? किसमें ज्यादा अच्छाई है? तुम कहोगे कि भगवान् ही मर जाए, तो अच्छा है। हम बचे रहें । किंतु , भगवान् का मारा जाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम उनके मारने के लिए जिओगे, तब तक वे जबरदस्ती जिंदा रहेंगे। तुम्हारे जिंदा रहने से भी वे जिंदा हैं। यदि तुम भगवान् को मारने के लिए जीते रहोगे; तो कितना ही मारो, पर भगवान् मरेंगे नहीं । यदि चेले जीते रहें , तो यह सत्य है कि गुरु तमाम पैदा हो जाएंगे। इसीलिए, ज्यादा अच्छा यह है कि किसी को मारने से पहले तुम स्वयं मर जाओ। “आप मरे जग प्रलय” ऐसा हमने सुना है। तुम मर गए, तो भगवान् भी मर गया, मुक्ति भी मर गई मर गई, मन भी मर गया, अशांति भी मर गई और शांति भी खत्म। अधमरे में मिल जाएगी मुक्ति , अधमरे में मिल जाएंगे भगवान्। पूरे मर जाओगे, तो न भगवान् मिलेंगे और न तुम रहोगे।
भगवान् थोड़ा-थोड़ा मरने से मिल जाते हैं; पूरे मरने पर नहीं मिलते और बिल्कुल बचने पर भी नहीं मिलते। पूरे जो बचते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। और जो पूरे मर जाते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। मिलना और मिलाना अधमरों का है। जो अपने को पूर्ण बचाए हैं, वे तड़पते रहें; उन्हें भगवान नहीं मिलते। यदि पूरे मर जावेंगे, तो फिर मिलेंगे किसको? इसीलिए, यह मिलने – मिलाने का भाव ही बीच में रहता है। जो जानते हैं, वे यही जानते हैं कि क्या मिलना है और क्या किससे मिलना है।

समझ सको तो समझो

गुरुजी कह रहे थे कि तुम निर्विकार हो जाओगे, तुम अविनाशी हो जाओगे; यह सुनकर देहाभिमानी अविनाशी बनने के लिए चला। लेकिन गुरुजी के चेले बनने के बाद भी देह  बूढ़ा हो गया। देखो, मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ न!  पर एक बात है, जब तक बुढ़ापा आया तब तक समझ बदल गई। गुरुजी के पास आए थे मरने से बचने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि शरीर मैं नहीं हूँ। गुरुजी के पास आये थे निर्विकार होने के लिए, गुणातीत होने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि  गुण मैं नहीं हूँ। गुणातीत होना नहीं है, गुणातीत हूँ। गुणों  के रहते, गुणों के बदलते मैं  गुणातीत हूँ।  जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये तीनों गुणों की अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति तमोगुण की अवस्था है, स्वप्न रजोगुण की और जाग्रत सत्त्व गुण  की अवस्था है।  और मैं इनका साक्षी गुणातीत हूँ। शंकर भगवान तमोगुण के देवता है पर वे गुणातीत हैं। विष्णु भगवान सत्त्वगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। ब्रह्मा जी रजोगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। गुण हैं तो शरीर है पर आप शरीर नहीं हो। शंकराचार्य कहते हैंः  नाहं देहोऽहमात्मेति।  मैं देह नहीं हूँ। ये शब्द कब बोले?  जब उनका देह नहीं था तब बोले क्या? नहीं, देह के रहते बोले कि मैं देह नहीं  हूँ। गुणों के रहते तुम गुणातीत हो सकते हो। जब गुण ही नहीं होंगे तो गुणातीत कैसे?  नदी ही न हो तो पार कैसे किया?  पार तो तभी करते जब नदी हो।

     गुण हैं, गुण देखते हैं, परिवर्तन दिखता है और इसी में देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन बंद हो जाए तब तो मूर्ख भी देख लेगा।  परिवर्तन बंद नहीं होता तब भी देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता।

अजन्य को जानो

साधनाजन्य अवस्था के कारण तुम्हारा रोना नहीं मिटेगा। चलो, तुम्हें बहुत अच्छा शरीर मिल गया, गदहे का नहीं मिला, कुत्ते का नहीं मिला पर क्या तुम्हारा रोना मिटा?  अवस्था मिल भी जाएगी तो क्या उसके जाने का रोना मिटेगा?  मैं कहा करता हूँ कि भोगी जवानी के खोने से रोता है और योगी समाधि के खोने रोता है। रोना तो दोनों का ही नहीं मिटा। रोना तो सिर्फ आत्म ज्ञानी का ही मिटता है। इसलिए सत्य की प्राप्ति के लिए चित्त में योग्यता चाहिए और योग्यता साधना से आती है पर समझ  तो गुरु वाक्यों से, महावाक्यों से, ग्रंथों से आती है।

     इसलिए साधना को नकारना नहीं, साधना आवश्यक है। यदि साधना नहीं करोगे तो इतनी गहरी समझ नहीं आ सकती और यदि साधना से सुख लेने लगे, समाधि का आनंद लेते रहे तो फिर विलगाव का दुःख भोगोगे । प्रधानमंत्री तो कोई न कोई बनेगा ही, बनाना पड़ेगा क्योंकि काम करना है। अब सदा के लिए वही बना रहे तो रोएगा।  ऐसे ही जवानी तो होगी। साधु का भी शरीर होगा पर उसको यदि रखना चाहेगा तो रोएगा। ऐसे ही समाधि  बहुत अच्छी अवस्था है पर जाएगी तो रोना होगा। तो फिर कौन है जो नहीं जाएगा, समाधि कि सत्य ? जो नहीं जाएगा वह सत्य है और जो जाएगा वह प्रकृतिजन्य है, साधनाजन्य है। समाधि साधनाजन्य है, आत्मा अजन्य है अविनाशी है। जब तक अविनाशी, अजन्य को नहीं जानोगे तब तक सूक्ष्म के प्रवाह में फँसे रहोगे। एक स्थूल में फँसा है, एक सूक्ष्म में फँसा है। ज्ञानी सबसे मुक्त है, गुणातीत है।
इस सत्य को सुनो और समझो।

सबसे बड़ा पाप


माताएं जब बच्चों को चलना सिखाती हैं, तो जैसे ही वह पास आएगा, मां थोड़ा पीछे हटेगी, फिर थोड़ा और पीछे हटेगी। महात्माओं को भी तुम्हारी प्रवृत्ति को धीरे – धीरे जगाना पड़ता है। यह न समझना कि हम तुम्हें धोखा देने के लिए कह रहे हैं; बल्कि, हम तुम्हारे हित के लिए कह रहे हैं। इसीलिए, अपने प्रमत्त मन से कह देना कि पन्द्रह दिन के लिए प्रमाद न करे। हजार काम छोड़ो; लेकिन, सत्संग मत छोड़ो; क्योंकि, यही अपना काम है।
कई लोगों की इतनी जटिल परिस्थितियां हैं, जिनके कारण वे विवश होकर नहीं आ पाते हैं। ऐसे लोगों के लिए मुझे भी दुख होता है। उनके लिए मैं यही कहूंगा कि न आ सकें, तो कोई बात नहीं; लेकिन यह देखना कि मन प्रमाद से और चालाकी से कहीं ऐसा न कर रहा हो कि अब क्या करेंगे, दूर पड़ता है, तांगे में पैसे लगते हैं। इस प्रमाद से घूमाव- फिराव न करे, बाकी किसी कारण से न आ सको, तो कोई बात नहीं।
देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित नहीं
संसार के सब नुकसान सहे जा सकते हैं; लेकिन, आत्मा का अकल्याण नहीं सहा जा सकता। मकान के गिरने से शरीर का गिरना ज्यादा बुरा है। जो आदमी अपने अकल्याण को सह रहा है; वह आत्म -हत्यारा है। दुनियां में सब की हत्या कर लेना बुरा नहीं है; परंतु अपनी हत्या सबसे बड़ी हत्या है। इसीलिए, आत्महत्या करने वाले का उद्धार हमारे ऋषियों ने भी नहीं बताया। सब पापों का मोक्ष है; लेकिन, आत्महत्या का प्रायश्चित नहीं। आत्महत्या से मेरा मतलब है, जो अपने आप को अभिमानी समझे। जो देहाभिमान में जकड़कर अपने आप को मरने वाला मानता है, वह तो मुक्त हो ही नहीं सकता। अतः, शरीर का अभिमान ही छोड़ो और कोई रास्ता नहीं है।
कुपथ्य कर- कर दवा खाना वैसा ही है, जैसे चोरी करके पुलिस को ₹10 चढ़ा देना। मधुमेह में शक्कर भी खा लो और गोली भी। यह तो हो गया बराबर; लेकिन, देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित्त नहीं। इसका एक ही तरीका है कि देहाभिमान को छोड़कर आत्मा को देखो–

“देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ,
यत्र-यत्र मनोयाति तत्र-तत्र समाधया:।”


देहाभिमान गल जाता है, तब परमात्मा का बोध होता है। जिस आदमी की चेतना परम ब्रह्म परमात्मा में लीन होती है; परमात्मा भाव को प्राप्त होती है; वही आदमी अजर, अमर और परमात्मा भाव को प्राप्त हो जाता है; मुक्त हो जाता है। चाहे कोई भी हो, सबको सत्संग की जरूरत पड़ेगी; आज नहीं तो कल पड़ेगी। इसलिए, सबको सत्संग करना चाहिए।

इस विषय पर विस्तार करते हुए गुरुदेव हरदम ये लाइन दोहराते है …

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्र का ये बाप है

मन के पार


“अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।”


अर्जुन से भगवान कह रहे हैं कि तू पाप करने वाले पापियों में अपने को सबसे बड़ा पापी समझता है; यदि, सारी दुनिया के पापी छांटे जाएं तो वह प्रथम नंबर का पापी नहीं हो सकता। अगर बहुत बड़े पापी हो, तो भी पीछे रह जाओगे। तुम चाहे जीवन भर पाप करो, फिर भी ऐसे – ऐसे दुराचारी हैं, जिनका तुम मुकाबला नहीं कर सकते। यदि तू प्रथम नंबर का पापी है, तो भी “(सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं–संतरिष्यसि “)आ, ज्ञान की नाव में बैठ जा। तू आत्मबोध की, ब्रह्म विचार की नाव में बैठ जा। तू ज्ञान की नाव में बैठते ही एकदम पार हो जाएगा और सारे पापों से तेरा छुटकारा हो जाएगा।
मैं तुम्हें एक बात बताऊं। स्वप्न में डाका डालो, चाहे कत्ल करो, चाहे बुराई करो, चाहे जो कुछ कर डालो; वहां जागकर ही ताप से छूट सकते हो। यदि स्वप्न में डाका पड़ गया हो और रईस होना चाहते हो, तो दस बरस लगेंगे कमाकर पूरा करने में। राज्य छिन गया हो, तो दूसरे राजा पर चढ़ाई करने पड़ेगी; फौज जुटानी पड़ेगी? लेकिन, नींद खुल जाए तो कितनी देर लगेगी? भगवान् कहते हैं कि पापी लोग पाप से छूटने के लिए गंगा नहाते – नहाते मर जाएंगे, तब भी पता नहीं छुटकारा होगा कि नहीं होगा। लेकिन, एक बात कहते हैं कि यदि तेरी नींद खुल जाए, यदि तुझे आत्मा का पता चल जाए कि तू कौन है, तू आत्मा में जाग जाए तो तू एकदम पापों से ऐसे पार हो जाएगा, जैसे कभी पाप किए ही न हों। जैसे दुनिया में पाप हैं ही नही।
“यदज्ञानादभूद् द्वैतं ज्ञाते यस्मिन्निवर्तते,
रज्जु सर्पवदत्यन्तं वन्दे तं पुरुषोत्तमम्।”

सत्संग से संसार व मन के पार जा सकते हो